साहित्यिक स्रोत | Sahityik srot in hindi | Historical sources | ऐतिहासिक स्रोत | इतिहास जानने के साहित्यिक स्रोत

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ऐतिहासिक स्रोत : इतिहास जानने के अनेक स्रोत हैं। आइये जानते हैं-

प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत:

साहित्यिक स्रोत, ऐतिहासिक स्रोत

श्रेष्ठतम भारत वर्ष का प्राचीन इतिहास बहुत ही गौरव पूर्ण रहा है। परन्तु अभाग्य से हमें अपने प्राचीन इतिहास के पुनर्रचना के लिए पूर्णतः विशुध्द इतिहास की सहायक सामग्री विदेशों की अपेक्षा अति अल्प मात्रा में उपलब्ध हो पाती है।

जिस प्रकार इतिहास लेखन की परंपरा रोम व अन्य यूरोपीय देशों में दिखाई पड़ती है वैसी श्रृंखला बद्ध परंपरा भारतवर्ष में नहीं पायी जाती फिर भी हम अन्य क्षेत्रों से जुड़े हुए अन्य ग्रंथो के द्वारा हम प्राचीन इतिहास की जानकारी प्राप्त करने में सक्षम हो पाते हैं।

प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के साहित्यिक स्रोत :

प्राचीन भारतीय साहित्य में ऐसे ऐतिहासिक ग्रंथ का प्रायः अभाव सा है जिन्हें आधुनिक भाषा मे “इतिहास” की संज्ञा दी जा सके।
यद्यपि भारत में हेरोडोटस, लीवी जैसे इतिहास कार नहीं हुए अतः विद्वानों की यह धारणा बन गयी कि “प्राचीन भारतीयों में इतिहास लेखन बुद्धि का अभाव था।”
● मेगस्थनीज ने लिखा है कि”भारतीयों में इतिहास लेखन बुद्धि का अभाव था।”
● मैकडोनाल्ड ने भी इतिहास को भारतीय साहित्य का दुर्बल पक्ष बताया।
● लोएस डिकिन्सन(Lowes Dickinson) के अनुसार”भारतीय हिन्दू इतिहासकार नहीं थे।”
 
■ किन्तु भारतीयों के इतिहास विषय ज्ञान पर लगाये गये सारे आरोप सत्य से परे हैं।
पाश्चात्य एवं मध्यकालीन मुस्लिम विचारधारा मनुष्य की लौकिक उपलब्धियों का उल्लेख, उनके ऐतिहासिक क्रम में स्वीकार करती है जिनमे घटनाओं के कालक्रम की प्रधानता हो।
जबकि भारतीयों का दृष्टिकोण आध्यात्मिक प्रधान था । वे राजनीतिक तथ्यों के समान आम जनमानस को भी उतना ही महत्व देते थे।
इसलिए उन्होंने ऐसे शुध्द ग्रंथ की रचना नहीं की जिसे आधुनिक तौर पर इतिहास की संज्ञा दी जा सके ।
किन्तु ऐसे अनेकों ग्रंथो की रचना की है जिनसे हमें भरपूर मात्रा में इतिहास की विशिष्ट जानकारियां मिलती हैं।
इन ग्रंथों के यदि विषय वस्तु की बात करें तो मुख्य रूप से इनसे धर्म,समाज,अर्थ,राजनीति,प्रशासन और नीतिशास्त्र से संबंधित जानकारी मिलती है।

इस प्रकार भारत के इतिहास बोध के रूप में अनेक स्रोत हैं जिन्हें मुख्यतः हम 3 भागों में बांट सकते हैं-


1. साहित्यिक स्रोत Sahityik srot
2. पुरातात्विक स्रोत
3. विदेशी विवरण 

"Historical sources is original source that contain important historical information."

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साहित्यिक स्रोत-

साहित्यिक स्रोत (Sahityik srot) को हम 2 भागों में बांट सकते हैं-
1. धार्मिक साहित्य – ऐतिहासिक स्रोत
2. धर्मेत्तर साहित्य – ऐतिहासिक स्रोत

1. धार्मिक साहित्य :

धार्मिक सहित्य के अंतर्गत वे ग्रंथ आते हैं जो किसी धर्म विशेष से प्रभावित होते हैं।
भारतवर्ष अति प्राचीन काल से धर्म प्रधान देश रहा है। प्राचीन काल मे भारत मे मुख्यतः तीन धर्मों की प्रधानता थी- ब्राम्हण या हिन्दू धर्म , बौद्ध धर्म , जैन धर्म।
इन धर्मों के धर्मग्रंथ भी अपनी अपनी धर्म की विशेषताओं के साथ साथ अलग अलग समय के इतिहास वर्णन की क्षमता रखते हैं।
धार्मिक साहित्य को हम पुनः 3 भागों में बांट सकते हैं।
1. ब्राम्हण साहित्य
2. बौद्ध साहित्य
3. जैन साहित्य

ब्राम्हण साहित्य:-

ब्राम्हण साहित्य प्राचीन भारतीय इतिहास का वर्णन करने में सर्वाधिक मददगार साबित होते हैं।
ये ब्राम्हण ग्रंथ अपने हिन्दू धर्म की विशेषता और यम नियम के वर्णन के साथ ही अलग अलग समय की इतिहास सबंधी जानकारी देते हैं।
ब्राम्हण ग्रंथो में सर्वप्रमुख स्थान वेदों का है। इसके अतिरिक्त वेदांग,उपनिषद,महाकाव्य, पुराण, स्मृतियां, आरण्यक, उपवेद, समेत सूत्र ग्रंथ भी इतिहास संबंधी जानकारी देते हैं।

वेद : ऐतिहासिक स्रोत

वेद का शाब्दिक अर्थ ज्ञान है। यह ब्राम्हण साहित्य में सर्वप्राचीन है तथा इतिहास बोध में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
वेदों के संकलन कर्ता महर्षि द्वैपायन वेदव्यास को
माना जाता है।
ये 4 हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।

1. ऋग्वेद:-

ऋचाओं के संकलन को ऋग्वेद कहते हैं। यह प्राचीनतम वेद है, इसकी रचना लगभग (1500-1000) ई.पू. में सप्तसैंधव प्रदेश ( पंजाब) में की गई थी।
इसमें 10 मंडल,1028 सूक्त ( वालखिल्य पाठ के 11 सूक्तों सहित) एवं 10462 ऋचायें हैं।
इस वेद के ऋचाओं के पढ़ने वाले को होतृ कहते हैं।
इसमें वैदिक कालीन आर्यों के रहन-सहन तथा भारतवर्ष में उनके प्रसार,उनके संघर्षों, समेत राजनीतिक प्रणाली आदि की जानकारी मिलती है।

विश्वामित्र द्वारा रचना किये गए ऋग्वेद के तृतीय मंडल में सूर्य देव सावित्री को समर्पित प्रसिद्ध गायत्री मंत्र का वर्णन है।
इसमें एक स्थान पर 10 राजाओं के युद्ध (दाशराज्ञ युद्ध ) का वर्णन है।

2. सामवेद:-

इसकी रचना (1000-600) ई.पू. में कुरु पांचाल देश मे की गई थी।
साम का शाब्दिक अर्थ होता है ‘गान’। अतः सामवेद एक ऐसा वेद है जिसमें तत्कालीन यज्ञों में गाये जाने तथा स्तुति किये जाने वाले मंत्रो का गायन है ।
अतः यह गायी जा सकने वाली ऋचाओं का संकलन है।
इसमें 75 मौलिक मंत्र हैं, शेष ऋग्वेद से उद्द्घृत हैं।
सामवेद के पाठकर्ता को उद्गाता या उद्रातृ कहते हैं। इस वेेद को भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है।

3. यजुर्वेद:-

इस वेद का रचनाकाल (1000-600) ई.पू. माना जाता है। इसकी रचना कुरु-पाञ्चाल देश मे की गयी।
यजुर्वेद शब्द यजु: शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘यज्ञ’।  इसमें तत्कालीन समय के समाज मे होने वाले यज्ञ कर्मकांडो, राज्याभिषेक, आदि की पर्याप्त जानकारी मिलती है।
यदि बात करें यज्ञों की तो वाजपेय यज्ञ, राजसूय यज्ञ,अश्वमेध यज्ञ आदि के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
सस्वर पाठ के लिए मंत्रों तथा बलि के समय अनुपालन के लिए नियमों का संकलन ही यजुर्वेद कहलाया। यह एक मात्र ऐसा वेद है जो गद्य व पद्य दोनों में है। 
इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं।
यजुर्वेद के मंत्रो से यज्ञ करते हुए देवताओं का आह्वान करने वाले व्यक्ति को होता कहा जाता है।

Note: ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद को अपौरुषेय कहा जाता है, क्योंकि इनके रचनाकार के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। इन्हें ब्रम्हा जी द्वारा रचित माना जाता है।

4. अथर्ववेद:-

इस वेद की रचना अथर्वा ऋषि द्वारा (1000-600) ई.पू. में की गयी।
इसमें 20 काण्ड और 731 मंत्र हैं। इस वेद में रोग निवारण, तंत्र मंत्र, जादू टोना, शाप , वशीकरण , आशीर्वाद , स्तुति ,ज्योतिष , प्रायश्चित , औषधि , अनुसंधान , विवाह ,प्रेम , राजकर्म , मातृभूमि महात्मय , टोटके , भूत प्रेत , शत्रु दमन , ब्रम्हज्ञान , समाजनिष्ठा  और आर्य अनार्य आदि विविध विषयों से सम्बद्ध मंत्र तथा सामान्य मनुष्यों के विचारों, विश्वासों, अंधविश्वास आदि का वर्णन है ।
अथर्ववेद कन्याओं के जन्म की निंदा करता है।
इसमें सभा एवं समिति को प्रजापति की 2 पुत्रियां कहा गया है।

Note: ऋग्वेद को सबसे प्राचीन तथा अथर्ववेद को सबसे बाद का वेद माना गया है ।

सारांशतः कहा जा सकता है कि वेदों से प्राचीन आर्यों के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
इतिहास बोध की दृष्टि से ऋग्वेद तथा अथर्ववेद का विशेष महत्व है ।

ब्राम्हण :-

ब्राम्हणो का रचनाकाल 1000 ई. पू. से 600 ई.पू. के मध्य माना जाता है।
बीतते समय के साथ साथ समाज मे यज्ञों कर्मकांडो की प्रतिष्ठा बढ़ती गयी। ये अत्यंत जटिल हो गए । इनके विधानों को समझने के लिए एक नए साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ जिसे ‘ब्राम्हण ग्रंथ’ कहते हैं।
‘ब्राम्हण’ शब्द ‘ब्रम्ह’ से बना है जिसका अर्थ है ‘यज्ञ’। अतः यज्ञ का प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ‘ब्राम्हण’ कहलाए।
प्रत्येक वेद के ब्राम्हण हैं।

ऋग्वेद: ऐतरेय, कौषीतकी
सामवेद: (i) प्रौढ़ या पंचविश ब्राम्हण (इसे ताण्डव ब्राम्हण भी कहते हैं)
             (ii) षडविंष ब्राम्हण 
            (iii) आर्षेय ब्राम्हण 
            (iv) मंत्र या छान्दोग्य/छांदिग्य ब्राम्हण
            (v) जैमिनीय या तावलकर ब्राम्हण

यजुर्वेद: 

(i) शुक्ल यजुर्वेद:

शतपथ ब्राम्हण या वाजसनेयी ब्राम्हण

(ii) कृष्ण यजुर्वेद :

तैत्तिरीय ब्राम्हण , मैत्रायणी ब्राम्हण , कठ ब्राम्हण , कपिष्ठल ब्राम्हण।

अथर्ववेद:-

गोपथ ब्राम्हण या पिप्पलाद ब्राम्हण
◆ इनमे से ऐतरेय ब्राम्हण में राज्याभिषेक का वर्णन मिलता है तथा अभिषिप्त नृपतियों(राजाओं) के नामो का ज्ञान प्राप्त होता है।
◆शतपथ के सौ अध्यायों में भारत के पश्चिमोत्तर के गांधार , शाल्य तथा केकय आदि और प्राच्य देश के कुरु , पाञ्चाल , कोशल , विदेह  के संबंध में आवश्यक एवं पर्याप्त विवरण मिलता है।
◆राजा परीक्षित की जानकारी हमे ब्राम्हणो से ही स्पष्ट हो पायी है।
◆ शुल्व सूत्रों की तरह शतपथ ब्राम्हण में भी यज्ञ की वेदियों तथा अन्य ज्यामितीय रचनाएं ज्ञात होती हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से वेदों के बाद शतपथ ब्राम्हण का ही स्थान है।
◆ पंचविश ब्राम्हण में तत्कालीन समय मे होने वाले यज्ञ के विविध रूपों का वर्णन है। इसमें एक दिन से लेकर हजारों वर्षों तक चलने वाले यज्ञों का वर्णन है।

आरण्यक:-

ब्राम्हणो के पश्चात आरण्यकों का स्थान आता है।
आरण्यकों का रचना काल 1000 ई.पू. से 600 ई. पू. है।
आरण्यक अरण्य (वन) से बना है अर्थात् आरण्यक ऐसे ग्रन्थ हैं जो वनों की एकांतता में पढ़े जा सकें। इसमें चिंतनशील पक्ष से आत्मा- परमात्मा की विवेचना की गई है, तथा सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था का वर्णन भी है।
इसके अतिरिक्त तत्कालीन राजवंशों , राज्य सीमाओं , तथा उन राजवंशों की सामाजिक व शासन व्यवस्था की जानकारियां मिलती है।
 आरण्यकों की संख्या 6 है।
 1. ऋग्वेद: ऐतरेय आरण्यक , शांखायन(कौषीतकी) आरण्यक
2. यजुर्वेद:  बृहदारण्यक , मैत्रायणी , तैत्तिरीय आरण्यक
3. सामवेद: जैमियोपनिषद या तावलकर आरण्यक
4. अथर्ववेद: कोई आरण्यक नहीं है।
 ◆ तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु , पांचाल , कोशल , विदेह , आदि महाजनपदों का उल्लेख है।

उपनिषद:-

उपनिषदों का रचनाकाल 800 ई.पू. से 500 ई. पू. है।
 ‘उप’ का अर्थ है ‘समीप’ और ‘षद’ का अर्थ है ‘बैठना’। इनसे कुछ विद्वानों ने यह आशय निकला है कि जिस रहस्य-विद्या का ज्ञान गुरु के समीप बैठ कर प्राप्त किया जाता था, उसे उपनिषद् कहते थे। अन्य विद्वानों का मत है कि उपनिषद् का अर्थ उस विद्या से है जो मनुष्य को ब्रह्म के समीप बैठा देती है अथवा उसे आत्मज्ञान करा देती है।
  दूसरे शब्दों में उपनिषद शब्द का साधारण अर्थ है ‘समीप उपवेशन’ या ‘समीप बैठना’।
अतः ब्रम्ह विद्या की प्राप्ति के लिए गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया गया ज्ञान ही उपनिषद है ।
इनकी संख्या 108 है-
1. ऋग्वेद- 10 उपनिषद
2. सामवेद- 16 उपनिषद
3. यजुर्वेद- 51 उपनिषद ( कृष्ण यजुर्वेद: 19 , शुक्ल यजुर्वेद: 32 उपनिषद)
4. अथर्ववेद- 31 उपनिषद 
इनमें से 12 प्रमुख तथा प्रामाणिक हैं।
ईशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकी।
● उपनिषदों की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पराविद्या या अध्यात्म विद्या है। जीवन का उद्देश्य मनुष्य की आत्मा को विश्व की आत्मा से मिलना है जिसे पराविद्या कहा गया है।
◆ उपनिषद में आत्म अनात्म तत्वों का निरूपण किया गया है , जो वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादन करता है।

◆ ब्राह्मणों व उपनिषदों के सम्मिलित अध्ययन से परीक्षित से लेकर बिम्बिसार तक के इतिहास की जानकारी मिलती है।
◆ उपनिषद से बिम्बिसार के पूर्व का इतिहास ज्ञात होता है।
● उपनिषदों को वेदांत भी कहते हैं।

वेदांग:-

इसके पश्चात वेदांग आते हैं। वेदों को समझने के लिए वेदांगों की रचना की गई। ये 6 है –
(1) शिक्षा (2) कल्प (3) व्याकरण (4) निरुक्त (5) छंद और (6) ज्योतिष।
ये सब वेदों के अंग समझे जाते थे।
वेदांगों से जहां एक ओर प्राचीन भारत की धार्मिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त होता है वहीं दूसरी ओर उस समय की सामाजिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।
वेदांगों का रचना काल 600 ई.पू. से 200 ई. है। वेदांगों से प्राचीन भारतीय इतिहास, सभ्यता व संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है।

वेदांगों में से कल्प का विशेष महत्व है।
कल्प का अर्थ है विधि- नियम । ऐसे सूत्र(कल्प) जिनमें विधि नियम का प्रतिपादन किया गया है कल्प सूत्र कहलाते हैं।
इसके 3 भाग हैं- श्रौत सूत्र , गृह्य सूत्र , धर्म सूत्र।

1. जो यज्ञ संबंधी विधि नियमों को बताते हैं वे श्रौत सूत्र कहलाते हैं।
◆ शुल्व सूत्र श्रौत सूत्र का ही भाग है जिसमें यज्ञ की वेदियों की माप तथा अन्य ज्यामितीय आकृतियों की जानकारी है।
◆ शुल्व सूत्र से ही पायथागोरस प्रमेय का ज्ञान हुआ।

2. जो सूत्र मनुष्य के समस्त लौकिक और पारलौकिक कर्तव्यों का वर्णन करते हैं वे गृह्य सूत्र कहलाते हैं।
3. जो सूत्र मनुष्य के विभिन्न धार्मिक , सामाजिक , एवं राजनीतिक अधिकारों और कर्तव्यों का वर्णन करते हैं वे धर्म सूत्र कहलाते हैं।

स्मृतियाँ:-

स्मृतियों का स्थान भी ऐतिहासिक स्रोत के रूप में उच्च है। ये पद्य में हैं।
सूत्र साहित्य के बाद स्मृति शास्त्र का उदय हुआ।
स्मृतियों का रचना काल 200 ई.पू. से 600 ई. तक है।
मनु , विष्णु , याज्ञवल्क्य , नारद , बृहस्पति , पराशर , आदि स्मृतियां प्रसिद्ध हैं जो कि धर्म शास्त्र के रूप में स्वीकृत हैं।
ये स्मृतियाँ अपने अपने समय के सामाजिक संगठन, तत्संबंधी सिद्धांतों, प्रथाओं, रीति रिवाजों, राजा प्रजा के संबंधों, कर्तव्यों आदि का पूर्ण ज्ञान देती हैं।
◆ मनु स्मृति की रचना दूसरी शताब्दी में की गई जो कि शुंग वंश की जानकारी देती है।
◆ सबसे प्राचीनतम स्मृति मनु स्मृति तथा  याज्ञवल्क्य स्मृति है।
◆ सबसे बाद की(नवीनतम) स्मृति देव स्मृति है।

महाकाव्य:-

वैदिक साहित्य के बाद भारतीय साहित्य में रामायण और महाभारत नामक दो महाकाव्यों का समय आता है। मूलतः इन ग्रन्थों की रचना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुई थी तथा इनका वर्तमान स्वरूप क्रमशः दूसरी एवं चौथी शताब्दी ईस्वी के लगभग निर्मित हुआ था। भारत के सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में इन दोनों ही महाकाव्यों का अत्यन्त आदरणीय स्थान है। इनके अध्ययन से हमें प्राचीन हिन्दू संस्कृति के विविध पक्षों का सुन्दर ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इन महाकाव्यों द्वारा प्रतिपादित आदर्श तथा मूल्य सार्वभौम मान्यता रखते हैं।
रामायण हमारा आदि-काव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी। इससे हमें हिन्दुओं तथा यवनों और शकों के संघर्ष का विवरण प्रोप्त होता है। इसमें यवन- देश तथा शकों का नगर, कुरु तथा मद्र देश और हिमालय के बीच स्थित बताया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों यूनानी तथा सीथियन लोग पंजाब के कुछ भागों में बसे हुये थे।

महाभारत की रचना वेदव्यास ने की थी। इसमें भी शक, यवन, पारसीक, हूण आदि जातियों का उल्लेख मिलता है। इससे प्राचीन भारतवर्ष की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक दशा का परिचय मिलता है। राजनीति तथा शासन के विषय में तो यह ग्रन्थ बहुमूल्य सामग्रियों का भण्डार ही है। महाभारत में यह कहा गया है कि ‘धर्म’, अर्थ, काम तथा मोक्ष के विषय में जो कुछ भी इसमें है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है।’

महाकाव्यों में जिस समाज और संस्कृति का चित्रण है उसका उपयोग उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिये किया जा सकता है।
दोनों महाकाव्यों की विशेषता यह है कि ये दोनों ही आर्य संस्कृति का दक्षिण में प्रसार के निर्देश देते हैं।

पुराण :-

भारतीय ऐतिहासिक कथाओं का सबसे अच्छा क्रमबद्ध विवरण पुराणों में मिलता है।
इनकी संख्या 18 है। इनकी रचना का श्रेय सूत लोमहर्षण व उनके पुत्र उग्रश्रवा या उग्रश्रवस को जाता है।
पुराणों का रचना काल 400 ई.पू. से 400 ई. के मध्य माना जाता है।

‘पुराण’ का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन’ होता है। अतः पुराण साहित्य के अंतर्गत वे समस्त प्राचीन साहित्य आते हैं जिसमें प्राचीन भारत के धर्म , इतिहास , आख्यान , विज्ञान आदि का वर्णन हो ।
वस्तुतः कौटिल्य ने इतिहास के अंतर्गत पुराण और इतिवृत्त दोनों को रखा।
सर्वप्रथम पार्जिटर(Pargiter ) नामक विद्वान ने इनके ऐतिहासिक महत्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया ।

अमरकोष में पुराणों के 5 विषय बताए गए हैं –
1. सर्ग अर्थात सृष्टि जगत की रचना
2. प्रतिसर्ग अर्थात प्रलय के बाद जगत की पुनः सृष्टि
3. वंश अर्थात ऋषियों तथा देवताओं की वंशावली
4. मन्वन्तर अर्थात महायुग
5. वंशानुचरित अर्थात प्राचीन राजकुलों का इतिहास

इनमें से ऐतिहासिक दृष्टि से वंशानुचरित का विशेष महत्व है।
वंशानुचरित मात्र 7 पुराणों – मत्स्य , भागवत , विष्णु , वायु , ब्रह्मा , भविष्य एवं गरुण – में ही प्राप्त होता है।
◆गरुड़ पुराण में पौरव, इक्ष्वाकु व ब्राहद्रथ राजवंशों की जानकारी
◆विष्णु पुराण , भविष्य पुराण में मौर्य वंश की जानकारी
◆ मत्स्य पुराण में आंध्र सातवाहन वंश की जानकारी
◆ वायु पुराण में गुप्त वंश की जानकारी

वर्णित है।

● छठी शताब्दी ई.पू. के पहले का इतिहास जानने के लिए पुराण एक अच्छा स्रोत है।

उपवेद:-

उपवेद भी प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में अनेक जानकारियां देते हैं तथा ये वेदों से ही उत्पन्न हुए है।
ये निम्न हैं-
1. ऋग्वेद:  आयुर्वेद नामक उपवेद को धनवंतरी ने ऋग्वेद से निकाला था।
2. यजुर्वेद: इसका उपवेद धनुर्वेद है इसे विश्वामित्र ने यजुर्वेद से निकाला था। इसमें तत्कालीन समय के अस्त्र-शस्त्र , शिक्षण , अभ्यास आदि का विवरण मिलता है।
3. सामवेद: गंधर्ववेद नामक उपवेद को आचार्य भरतमुनि ने सामवेद से निकाला था। इसमें नृत्य , गीत तथा वाद्य के सिद्धांत एवं प्रयोग तथा प्रदर्शन का वर्णन है।
4. अथर्ववेद: (i) अर्थशास्त्र अथर्ववेद का उपवेद है इसमें राजनीति तथा दंडनीति वर्णित है।
(ii) स्थापत्य उपवेद को विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से निकाला था।

प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साहित्यिक स्रोत-

बौद्ध साहित्य:- 

बौद्ध मतावलंबियों ने जिस साहित्य का सृजन किया उसमें भारतीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्रियां निहित हैं। ये बौद्ध ग्रंथ बौद्ध काल के विषय में पर्याप्त जानकारियां देते हैं। तथा इनसे महाजनपद काल के राजाओं , राजवंशों तथा राज्य क्षेत्रों की भी जानकारी मिलती है। तथा उनके द्वारा अपनाए गए धर्मों की भी जानकारी मिलती है।
इन्हीं ग्रंथों में बौद्ध संघ , भिक्षुओं , भिक्षुणियों ,  के लिए आचरणीय नियम/विधान वर्णित है।
बौद्ध ग्रंथों में प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक(विनय पिटक ,  सुत्त पिटक , अभिधम्म पिटक) हैं।
बौद्धों का मत है कि उनके पिटकों का संकलन बौद्ध संगीतियों में किया गया।

त्रिपिटक’ बौद्ध ग्रंथों में प्राचीनतम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। त्रिपिटक के नाम हैं-विनयपिटक सुत्तपिटक, एवं ‘अभिधम्म पिटक’। विनयपिटक एवं सुत्तपिटक का संकलन प्रथम बौद्ध महासंगीति (483 ई.पू.) में या ‘अभिधम्म पिटक का संकलन तृतीय बौद्ध महासंगीति (2 ई.पू.) में हुआ। त्रिपिटक से ईसा से पूर्व की सदियों के भारत के सामाजिक व धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।

विनय पिटक:-

इसमें बौद्ध संघ , भिक्षु , भिक्षुणियों के दैनिक जीवन संबंधी आचार-विचार , विधि , निषेध , यम-नियम आदि वर्णित है।

सुत्त पिटक:-

त्रिपिटक में ‘सुत्तपिटक’ बृहत्तम व सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सुत्त पिटक में बुद्ध देव के धर्मोपदेश हैं। यह 5 निकायों में विभक्त है।

1. दीर्घ निकाय:-

सुत्त पिटक के दीर्घ निकाय के अम्बष्ठसुत्त में रक्तशुद्धता के लिए क्षत्रियों के विशेष गर्व का वर्णन मिलता है। बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध एवं उनके संपर्क में आए व्यक्तियों के विशेष वर्णन है।

संयुक्त निकाय:-

इसमें छठी शताब्दी ईसा पूर्व के राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है किंतु सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी भी अधिक मात्रा में मिलती है ।

मज्झिम निकाय:-

यह भगवान बुद्ध को दैवीय शक्तियों से युक्त एक विलक्षण व्यक्ति मानता है। मज्झिम निकाय में छठी सदी BC. से मौर्य काल तक जानकारी मिलती है।

अगुन्तर निकाय:-

अगुन्तर निकाय में 16 महाजनपदों की सूची मिलती है।

खुद्दक निकाय:-

यह लघु ग्रंथो का संग्रह है।
खुद्दक पाठ , धम्म पद ,उदान , इटिववुत्तक , सुत्त निपात , विमान वत्थु , पेतवत्थु , थेर गाथा , थेरी गाथा , जातक ।

◆ जातक’ में बुद्ध के पूर्व जन्मों की 549 काल्पनिक कथाएँ हैं। जातक की रचना पहली सदी ई.पू. में शुरू हो चुकी थी। यह तथ्य भरहुत व साची के स्तूप की वेष्टणी पर उत्कीर्ण दृश्यों से स्पष्ट है। जातकों में गद्यांशों की अपेक्षा पद्याश अधिक प्राचीन है। गद्यांश का संकलन दूसरी सदी ई. तक हो चुका था यपि जातक का विषयगत दृष्टिकोण धार्मिक व सांस्कृतिक है, किन्तु इससे तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है ।

अभिधम्म पिटक :-

‘अभिधम्म पिटक’ का संकलन तृतीय बौद्ध महासंगीति (250 ई.पू.) में हुआ।
यह बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धांत पर प्रकाश डालता है।
यह सबसे बाद का है।
Note: त्रिपिटक पालि भाषा मे लिखित है
त्रिपिटकों के अलावा भी कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ भी भारतीय इतिहास की जानकारी देने में सक्षम हैं।

दीपवंश , महावंश:-  (भाषा: पालि)

‘दीपवंश’ (4थी सदी ई.) व ‘महावंश’ (5वीं सदी ई.) की रचना श्रीलंका में हुई। यद्यपि इसमें श्रीलंका का इतिहास वर्णित है तथापि उसे भारत के प्राचीन इतिहास, विशेषकर मौर्य साम्राज्य इतिहास निर्माण, पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

मिलिन्दपन्हों:- (पालि भाषा)

‘मिलिन्दपण्णहो’ यवन (ग्रीक) राजा मिलिंद अर्थात् मिनांडर (165 ई. पू.-145 ई.पू.) एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन अर्थात् नागार्जुन का दार्शनिक वार्तालाप है तथापि इससे 1ली-2री सदी ई. के उत्तरी-पश्चिमी भारत के धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इसमें राजनीति अवस्था का भी प्रासंगिक विवरण मिलता है। भारत के विदेशी व्यापार का तो इसमें सजीव चित्रण मिलता है।

महावस्तु:- (भाषा- संस्कृत)

इसमें भगवान बुद्ध के जीवन को आधार बनाकर छठी सदी ई. पू. के इतिहास को प्रस्तुत किया गया है।

दिव्यावदान:- (भाषा- संस्कृत)

‘दिव्यावदान’ में परवर्ती मौर्य सम्राटों एवं शुंग सम्राट (पुष्यमित्र शुंग) की कथाओं एवं बुद्ध के जीवन का उल्लेख मिलता है।

आर्यमंजुश्रीमूलकल्प:- (भाषा- संस्कृत)

‘आर्यमंजूश्रीमूलकल्प’ में मौर्य के पूर्व से लेकर हर्षवर्धन तक के युग की राजनीतिक घटनाओं का यत्र तत्र विवरण मिलता है।
इसमें , बौद्ध धर्म मे वज्रयान सम्प्रदाय का उदय हुआ,का वर्णन है।

ललित विस्तार:- (भाषा-संस्कृत)

ललित विस्तर’ में बुद्ध के ऐहिक लीलाओं का वर्णन तो है ही, साथ ही प्रसंगतः तत्कालीन धार्मिक व सामाजिक अवस्थाओं का वर्णन है।

अश्वघोष कृत बुद्धचरित व सौन्दरानंद काव्य:-(संस्कृत)

महाकवि अश्वघोष की कृतियों में भी कुछ कम इतिहास-सामग्री नहीं है। अनुश्रुतियों के अनुसार अश्वघोष सम्राट् कनिष्क का समकालीन बताया जाता है। इसकी समस्त कृतियों में बुद्धचरित और सौन्दरानन्द-काव्य सबसे अधिक प्रसिद्ध है। बुद्धचरित एक महाकाव्य है। साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसमें महात्मा बुद्ध का जीवन-वृत्त एवं उनकी शिक्षाओं का समावेश है। सौन्दरानन्द में भी कवि ने महात्मा बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध सिद्धान्तों का चित्रण किया है।

कथावस्तु:-

हीनयान का प्रमुख ग्रन्थ ‘कथावस्तु’ है। इसमें महात्मा बुद्ध का जीवन चरित अनेक कथानकों के साथ वर्णित है।

वैपुल्य सूत्र:- (संस्कृत)

“वैपुल्य सूत्र” के नौ ग्रन्थों में बौद्ध धर्म के नियमों का वर्णन किया गया है।

नेति प्रकरण:-

इसमें बुद्ध की शिक्षायें वर्णित हैं।
बद्ध घोष पाँचवीं सदी में श्रीलंका में रहता था। उसने सभी त्रिपटकों (पाली भाषा) पर टीकाएँ लिखीं । वह अपने विसुधिंग(Visuddhimaeea) के लिए प्रसिद्ध है। अन्य प्रसिद्ध टीकाकार बुद्धद्त, आनन्द, धम्मपाल, उपसेन, कश्यप, धम्म  श्री, महास्वामी थे।
नागार्जुन बौद्ध मत का महान् शिक्षक था। उससे शतसहस्रिका प्रज्ञापारमिता और मध्यमिका सूत्र लिखे। आर्यदेव भी महान् लेखक था। असंग महायान सूत्रालंकार का लेखक था। वसुबन्धु अभिधर्म कोष का लेखक था। दिग्नाग, चन्द्रगोमिन और शान्तिदेव महान् विद्वान थे। अश्वघोष बुद्ध चरित्र, सूत्रालंकार, सौन्दर्य आनन्द काव्य तथा महायान श्रद्धोतपद का रचयिता था।

प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साहित्यिक स्रोत-

जैन साहित्य :-

जैन साहित्य में भी ऐतिहासिक सामग्री पर्याप्त मात्रा में मिलती है। जैन इतिहास के सम्बन्ध में प्रो० जैकोबी (Jacobi) और डॉ० बनारसीदास ने पर्याप्त अनुसन्धान किए हैं। जैनी अपने साहित्य के प्रकाशन पर अत्यधिक धन व्यय कर रहे हैं। अत: आशा की जा सकती है कि इस कार्य की सम्पन्नता पर लाभदायक सामग्री प्राप्त की जा सकेगी।
जिस प्रकार ब्राह्मण साहित्य तथा बौद्ध साहित्य महत्वपूर्ण स्तर पर प्राचीन भारतीय इतिहास की व्याख्या करते हैं उसी प्रकार जैन साहित्य इतिहास वर्णन की पर्याप्त क्षमता रखते हैं।
जैन ग्रंथों तथा बौद्ध ग्रंथों के विवेचनात्मक अध्ययन से इतिहास की घटनाओं को प्रमाणित भी किया जाता है।

जैन आगम:-

जैन ग्रंथों में जैन आगम सर्वोपरि है। जो स्थान वैदिक साहित्य में वेदों का है तथा बौद्ध साहित्य में त्रिपिटकों का है वही स्थान जैन साहित्य में जैन आगम का है।  इसमें साधारणतया 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेद सूत्र, नन्दि सूत्र, अनुयोगद्वार और 4 मूलसूत्र परिगणित होते हैं।
 जैन आगम में महावीर के उपदेशों तथा जैन संस्कृति(सामाजिक जीवन) पर प्रकाश पड़ता है।

कल्पसूत्र:-

जैन धर्म का प्रारम्भिक इतिहास “कल्पसूत्र” (लगभग चौथी शती ई0 पू०) से ज्ञात होता है जिसकी रचना भद्रबाहु ने की थी।
इस जैन ग्रंथ में तीर्थंकरों (पार्श्वनाथ , महावीर स्वामी) का जीवन चरित्र वर्णित है।

भद्रबाहु चरित्र:-

इसमें जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ चंद्रगुप्त मौर्य के संबंध में उल्लेख मिलता है।
इसी ग्रंथ में चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में पड़े 12 वर्षीय अकाल का चंद्रगुप्त मौर्य के गद्दी त्यागकर  दक्षिण भारत (श्रवणबेलगोला) जाने की तथा संलेखना विधि द्वारा देह त्याग की भी जानकारी मिलती है।

परिशिष्ट पर्वन:-

इसकी रचना हेमचंद्र ने की थी। इसमें मौर्य काल के विषय में महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं तथा चंद्रगुप्त मौर्य के समय में मगध की शासन प्रणाली ,  सामाजिक व्यवस्था , राज्य क्षेत्र आदि पर प्रकाश पड़ता है।

भगवती सुत्त:-

भगवती सूत्र जहां एक ओर महावीर स्वामी के जीवन एवं कार्य कलाप का प्रचुर वर्णन करता है। वहीं दूसरी और भगवती सूत्र से 600 BC – 325 BC के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में 16 महाजनपद होने के प्रमाण मिलते हैं अर्थात 16 महाजनपदों की सूची मिलती है।
भगवती सूत्र महावीर स्वामी के जीवन एवं कार्य कलाप के ऊपर प्रचुर प्रकाश डालता है।

उत्तराध्ययन सूत्र:-

यह श्वेतांबर पंथ का ग्रंथ है। इसमें महावीर के निर्वाण के कुछ समय पहले दिए गए उपदेश संग्रहित है।
आचाराग सुत्त में जैन भिक्षु के आचार-नियमों का उल्लेख है।
सूयगदंग सुत्त विरोधी मतों का खंडन तथा जैन भिक्षुओं की जीवन-प्रणाली का मण्डन है।
ठाणंग में बौद्ध अंगुत्तरनिकाय की भाँति 1 से 10 तक की संख्याओं के आधार पर विविध प्रवचन है।
समवायांग सूत्र में भी वह संख्या संख्याओं के आधार पर अनेक प्रकार के उपदेश है।

नायाधम्मकहा सुत्त में महावीर स्वामी की शिक्षायें संग्रहीत हैं उवासगदसाओं सुत्त में उपासक-जीवन के विधि-निषेधों और आचार-विचारों का संग्रह है।
अन्तगडदसाओं सुत्त और अणुत्तरो ववाइयदसाओं सूत्र में प्रख्यात भिक्षुओं की निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन है।
पण्हा-बागरणाइम सुत्त में जैन यम-नियम, का उल्लेख किया गया है।
 विवागसुयम् सुत्त में कर्म-फल का प्रदर्शन है।
 अन्तिम सुत्त दिदट्टिवाय विलुप्त हो गया है। दूसरे ग्रन्थों में यत्र-तत्र इसके उद्धरण ही मिलते हैं।  कालान्तर में प्राचीन जैन धर्म-ग्रंथों के ऊपर समय-समय पर अनेक व्याख्या-ग्रंथ लिखे गए।
जैन धर्म-ग्रन्थों के टीकाकारों में हरिभद्र सूरि (705-77 ई.), शीलांक (832 ई. के लगभग)., नेमिचन्द्र सूरी (11 वीं शताब्दी) अभयदेव सूरि (11 वीं शताब्दी) और मलयगिरि (13 वीं शताब्दी) अधिक प्राचीन हैं।

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प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साहित्यिक स्रोत-

                   -:धर्मेत्तर साहित्य:-

यद्यपि प्राचीन भारत का कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसे विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ कहा जा सके क्योंकि लगभग सभी ग्रंथों पर साहित्यिक छाप, दर्शन व धर्म का प्रलेप चढ़ा हुआ है तथापि कुछ ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें ऐतिहासिक सामग्री मिलती है।।
धर्म ग्रंथों के अतिरिक्त भारतीयों के अनेकानेक ऐसे ग्रंथों की रचना की थी जिनके विषय धर्म से इतर थे। अर्थात ये ग्रंथ धर्मेत्तर ग्रंथ/साहित्य कहलाये।
धर्मेत्तर साहित्य को लौकिक साहित्य भी कहा जाता है।
लौकिक साहित्य के अंतर्गत ऐतिहासिक एवं अर्द्धऐतिहासिक ग्रंथों , जीवनियों , यात्रा विवरणों , साहित्यों आदि का विशेष उल्लेख किया जा सकता है।जिनसे भारतीय इतिहास की पर्याप्त विवरण प्राप्त होता है।
ऐसी ऐतिहासिक रचनाएँ निन्म है।:-

 1) कौटिल्य कृत “अर्थशास्त्र” :-

ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख ” अर्थशास्त्र” का किया जा सकता है। जिसकी रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रसिद्ध दरबारी राजनीतिज्ञ , पुरोहित व प्रधानमंत्री कौटिल्य ( चाणक्य) ने चौथी शताब्दी ई० पू० की थी।इस ग्रंथ से मौर्य कालीन इतिहास एवं राजनीति के ज्ञान का विवरण मिलता है। इससे चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन ब्यवस्था पर पर्याप्त मात्रा में प्रकाश पडता है।
इस ग्रंथ की तुलना मैकियावेली के ‘प्रिंस’ से की जाती है। यह मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था (विशेषकर चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन) की अच्छी जानकारी देता है। इसमें राज्य की उत्पत्ति, उसका संगठन, उसकी सुरक्षा के उपाय, राजा के अधिकार व कर्तव्य, मंत्रियों व अधिकारियों की नियुक्ति के नियम, सामाजिक संस्थाओं, आर्थिक क्रियाकलापों इत्यादि का विशद विवेचन मिलता है।

2) कल्हण की राजतंगिणी :-

इसकी रचना कश्मीरी लेखक कल्हण ने  12वीं शताब्दी में की थी।

इसमें आदि काल से लेकर  1151 ई० तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं का क्रमानुसार विवरण दिया गया है। अर्थात इसमें कश्मीर का इतिहास वर्णित है।

3) कश्मीर की भांति गुजरात में भी अनेक ऐतिहासिक ग्रंथ प्राप्त होते हैं जो अपने काल के भारतीय इतिहास के वर्णन के लिए सक्षम हैं।


इस ग्रंथ में प्रमुख निम्न हैं।:-
सोमेश्वर कृत ” कीर्ति कौमुदी” तथा रसमाला मेरुतुंग कृत प्रबंध चिंतामणि, राजशेखर कृत प्रबंधकोश आदि
गुजरात के इतिवृत्त, जैसे-‘प्रबंधकोष’ (राजशेखर), ‘हम्मीर  मद मर्दन’ (जय सिंह), तेजपाल प्रशस्ति’ (वस्तुपाल), ‘प्रबंध चिंतामणि’ (मेरुतुंग) आदि से गुजरात के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
इनसे हमे गुजरात के चालुक्य वंश का इतिहास एवं अनेक समय की भरतीय संस्कृति का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है।
4) इसी श्रेणी में तमिल ग्रंथ भी आते हैं। ये है- नन्दिवक लाम्बकम, ओ टटकतूतन का कुलोंन्तुगंज। इनमें से हमें दक्षिण भारत का इतिहास की जानकारियां प्राप्त होती हैं।

5) पाणिनी की अष्टाध्यायी:-

  इसकी रचना पाणिनी द्वारा नवीं शताब्दी में माना जाता है।यह एक ब्याकरण ग्रंथ है।जो मौर्य काल से पहले के इतिहास को प्रकाशित करता है।
इससे महाऋषि पाणिनी के काल की सामाजिक, आर्थिक दशा का भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि इससे उत्तर भारत की भूगोल की भी जानकारी मिलती है।

6) विशाख दत्त का “मुद्राराक्षस”:-

यह एक राजनीतिक नाटक है। जिसकी रचना विशाख दत्त ने लगभग  600 – 700 ई० के लगभग की।
इससे सिकंदर के आक्रमण के तुरंत बाद के भारतीय राजनीति का उद्घाटन प्रदर्शित होता है।
पोरस तथा सिकंदर की भी जानकारी मिलती है। तथा प्रमुख जानकारी चाण्क्य एवं चंद्रगुप्त द्वारा नन्दवंश के विनाश की मिलती है।

7) कात्यायन के वार्त्तिक:-

इससे भी मौर्य काल के पूर्व से लेकर मौर्य युग की राजनीति ब्यवस्था पर प्रकाश पडता है।

8) पतंजलि का महाभाष्य:-

पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। उनकी रचना “महाभाष्य” से शुंगों के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पडता है।
इससे राजनीतिक सम्बन्ध में जानकारी मिलती है।

9) शुक्रनीतिसार:-

इतिहास वर्णन का यह भी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।जिसमें तत्कालीन सामाजिक स्थितियों , राजतंत्र का विवरण वर्णित है।

10) गार्गी संहिता:-

 ऋषि गर्ग का गार्गी संहिता’ युग पुराण का एक भाग है।  यह एक ज्योतिष ग्रंथ है। इसमें भारत में होने वाले हिन्द यवन आक्रमण का उल्लेख है। इसकी रचना प्रथम शताब्दी BC के लगभग हुई। इसके अनुसार यवनों ने साकेत, पांचाल,मथुरा तथा कुसुम ध्वज (पाटलिपुत्र) पर आक्रमण किया।

इसके अनुसार यवनों ने साकेत, पांचाल,मथुरा तथा कुसुमध्वज(पाटिलीपुत्र) पर आक्रमण किया।

11) बाणभट्ट का हर्षचरित्र:-

इसकी रचना बाणभट्ट ने 7वीं शताब्दीBC (620ई.) में की थी। बाणभट्ट हर्षवर्धन का दरबारी था।
समाज एवं धर्म विषयक अनेक महत्वपूर्ण सूचना मिलती है। तथा तत्कालीन भारतवर्ष की अवस्था पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है।
इसमें कुल आट उच्छवास (अध्याय) है। प्रथम तीन उपवास में बाणभट्ट की आत्मकथा एवं शेष पाँच उच्छवामों में हर्ष का जीवन चरित दिया गया है। हर्षवर्द्धन के प्रारंभिक जीवन एवं उसकी विजयों का विवरण इसमें मिलता है।

12) वाक्पति का गौडहवो:-

वाक्पतिराज की संस्कृत रचना गौडवहो  (गौडवध:) में कन्नौज के चंद्रवंशी शासक यशोवर्मन के दिग्विजय का सविस्तार वर्णन मिलता है । इसमें सर्वप्रमुख घटना है- यशोवर्मन द्वारा गौड़ राजा का वध।

13) मलविकाग्निमित्रं:-

इस नाटक की रचना महाकवि कालीदास ने की थी। इसमें शुंग कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का विवरण है।
इसकी रचना चौथी अथवा पाचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुई होगी। इसमें पुष्यमित्र शुंग और यवन युद्ध का भी उल्लेख है।
यह कालिदास की पहली नाट्य-रचना है। इससे शुंग वंश एवं उनके पूर्ववर्ती राजवंशों की राजनीतिक परिस्थिति की जानकारी मिलती है। राजवंशों के आंतरिक जीवन का तो यह दर्पण है।

14) विक्रमांक देव चरित्र:-

यह विल्हण द्वारा लिखा गया था। इससे कल्याणी के चालुक्य वंश की जानकारी मिलती है। इसमें चालुक्य नरेश विक्रमादित्य IV के चरित्र का वर्णन है।

15) कुमारपाल चरित:-

इसकी रचना हेमचन्द्र ने की थी। इससे चालुक्य शासको – जयसिंह, सिद्धराज तथा कुमारपाल का जीवन तथा उनके समय की घटनाओ की जानकारी मिलती है।

16) हमीर महाकाव्य:-

इसकी रचना नयनचन्द्र शूरि ने की थी। इसमें राजस्थान के मध्यकालीन भारत के राजवंशो की जानकारी मिलती है। पृथ्वीराज चौहान की जानकारी भी मिलती है।

17) जयानक की पृथ्वीराज विजय:-

इससे हमें चाहमान राजवंश की जानकारी मिलती है।

18) शूद्रक का मृच्छकटिकम :-

मृच्छकटिकम से महाजनपद कालीन जानकारियां प्राप्त होती है।
मृच्छकटिकम से उज्जयिनी, पाटिलीपुत्र आदि महाजनपदों अथवा स्थानों के विषय में उनकी सामाजिक ब्यवस्था का विवरण भी मिलता है।

19) विष्नुशर्मा का पंचतंत्र:-

इसकी रचना विष्नुशर्मा ने लगभग  800 – 200 BC. में की।
इसमे तत्कालीन दक्षिण भारत के राजवंशों की न केवल जानकारी मिलती है। बल्कि उस समय की भी भारतीय सभ्यता अथवा संस्कतियो पर भी प्रकाश पड़ता है।

20) गुणाढ्य की कथामन्जरी:-

गुणाढ्य सातवाहनों के दरबार में रहता था। अतः इसके ग्रन्थों से सातवाहनों राजवंश की जानकारी मिलती है।

21) कामन्दनीय नीतिशास्त्र:-

इस नीतिशास्त्र की रचना कामन्दक ने की थी। इसका रचना काल  700 – 800 के लगभग रहा होगा।
इससे तत्कालीन आचार – व्यवहार और राजनीति सिद्धान्तों पर विशेष प्रकाश पड़ता हैं।

22) बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र:-

कौटिल्य की भांति ब्रहस्पति ने भी एक अर्थशास्त्र की रचना  900 – 1000 ई० के लगभग की । इसमें राजकीय कर्तब्यों का अच्छा वर्णन मिलता है।

23) नवसहसांक चरित्र:-

इसकी रचना परिमलगुप्त ने की । इसमें परमारवंश के बारे मे पर्याप्त व प्रमाणिक जानकारी मिलती है।
पद्मगुप्त परिमल के ‘नवमाहसांक चरित’ में मालवा के परमारवंशी शासक वाक्पति मुंज का जीवन-चरित मिलता है।

24) सोमदेव सूरि के नीतिसार नीतिवाक्यामृत :-

इससे तत्कालीन राजकीय मशीनरी के बारे में जानकारी मिलती है।

25) सिंध के इतिवृत्तों में ‘फतहनामा सर्वाधिक उल्लेखनीय है। एक अज्ञात अरबी लेखक ने 13वीं सदी ई. के आरभ में ‘फतहनामा’ की रचना अरबी भाषा में की थी जिसका फारसी अनुवाद ‘चचनामा नाम से अली बिन हामिद कूकी ने किया। इसमें मुहम्मद बिन कासिम के सिंध विजय (711-12 ई.) का वर्णन मिलता है।

26) बल्लालचरित:-

आनंदभट्ट के बल्लालचरित’ से बंगाल के सेनवंशी शासक बल्लाल सेन के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

27) रामचरित:-

संध्याकर नंदिन के ‘रामचरित से पाल वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

28) पृथ्वीराजरासो:-

चंदबरदाई शाकम्भरी के चौहान वंश के शासक पृथ्वीराज III का दरबारी कवि व सामंत था । चदरबाई के ‘पृथ्वीराजरासो’ में पृथ्वीराज III का जीवन चरित मिलता है। इसमें पृथ्वीराज III एवं मुहम्मद गौरी के संघर्ष का पूर्ण विवरण मिलता है।

29) पृथ्वीराज विजय:-

जयानक के पृथ्वीराज विजय’ मे चौहानवंशी शासक पथ्वीराज III के संघर्षों का काव्यात्मक वर्णन मिलता है।

30) अच्युतराजभ्युदय:-

राजानाथ II के ‘अच्युतराजभ्युदय’ से विजयनगर के तुलुववंशी शासक अच्युतदेव राय पर प्रकाश पड़ता है।

धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
 

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