हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल : Sites of indus valley civilization
हड़प्पा : सिन्धु घाटी सभ्यता के पुरास्थल
सिन्धु सभ्यता का प्रथम पुरास्थल ‘हड़प्पा’ है।
हड़प्पा पाकिस्तान के साहीवाल जिले में स्थित है। हड़प्पा पुरास्थल सम्प्रति रावी नदी से नौ किलोमीटर दूर स्थित है ।
पुरातत्त्वविदों की धारणा हैं कि सिन्धु सभ्यता के काल में यह हड़प्पा पुरास्थल रावी नदी के तट पर स्थित था।
हड़प्पा पुरास्थल |
हड़प्पा के टीले के विषय में सर्वप्रथम सन् 1826 ई० में चार्ल्स मसोन को जानकारी हुई। कालान्तर में सन् 1853 ई० में कनिंघम ने इस टीले का सर्वेक्षण किया और कतिपय पुरावशेष एकत्र किये, किन्तु कनिंघम महोदय इसके महत्त्व का अनुमान नहीं लगा सके ।
सन् 1856 ई० में कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछाने के लिए ईंटों और गिट्टियों की आवश्यकता थी। विलियम ब्रन्टन ने हड़प्पा के टीले से ईंटों को निकालने का निर्णय लिया।
ईंट निकालते समय उन्हें कतिपय पुरावशेष प्राप्त हुए जिसे उन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के प्रमुख कनिंघम को प्रतिवेदित किया।
कनिंघम महोदय ने पुनः सन् 1856 ई० में हड़प्पा टीले का सर्वेक्षण किया, किन्तु प्राप्त पुरावशेषों से वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाये।
तत्पश्चात् जॉन मार्शल को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग का महानिदेशक बनाया गया। जॉन मार्शल के निर्देश पर दयाराम साहनी ने सन् 1921 ई० में हड़प्पा के टीलों का सर्वेक्षण किया और कतिपय पुरावशेष विभाग को प्रतिवेदित किये। पुरातात्विक पुरावशेषों के महत्त्व का आकलन करते हुए सन् 1923-24 ई० एवं सन् 1924-25 ई० में मार्शल के निर्देशन में दयाराम साहनी ने हड़प्पा का उत्खनन करवाया। इसके बाद सन् 1925-27 ई० से सन् 1933-34 ई० तक माधो स्वरूप वत्स ने उत्खनन कार्य को आगे बढ़ाया। मार्टीमर हीलर ने सन् 1949 ई० में पश्चिमी टीले का उत्खनन करवाया। उन्होंने उत्खनन से रक्षा प्राचीर और आर० 37 समाधि के विषय में जानकारी प्राप्त की।
हड़प्पा के उत्खनन से सिन्धु सभ्यता के नगर निवेश, मृद्भाण्ड, कला, मुहरें, लिपि, जीवन पद्धति और शवाधान प्रणाली आदि पर प्रकाश पड़ा है।
हड़प्पा नगर दो भागों में विभाजित है। नगर के पूर्व दुर्ग टीला और पश्चिम में नगर टीला है। सम्पूर्ण नगर लगभग पाँच किलोमीटर की परिधि में बसा हुआ है। हड़प्पा में दुर्ग टीला रक्षा-प्राचीर से सुरक्षित किया गया है। दुर्ग क्षेत्र की लम्बाई चौड़ाई क्रमश: 420 मी० x 196 मी० है। दुर्ग का मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है। दुर्ग के दक्षिण में भी प्रवेश द्वार बना हुआ है। रक्षा-प्राचीर में तोरण या बुर्ज बने हुए हैं। रक्षा प्राचीर लगभग बारह मीटर ऊँची है। दुर्ग क्षेत्र से किसी महत्त्वपूर्ण भवन का साक्ष्य नहीं मिला है, क्योंकि लोगों द्वारा इस क्षेत्र से ईंटों को निकाल लिया गया था। जिससे दुर्ग क्षेत्र के पुरावशेषों को बहुत क्षति पहुंची है।
हड़प्पा के दुर्ग के दक्षिण प्राक्-सैंधव संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा के ‘एफ’टीले के उत्खनन से अन्नागार, वृत्ताकार चबूतरों और श्रमिक आवास के साक्ष्य मिले हैं।
हड़प्पा का एफ’ टीला दुर्ग के बाहर उत्तर की ओर स्थित है अन्नागार में छः-छः कमरों की दो पंक्तियाँ मिली हैं, जिनमें कुल बारह कमरे हैं। अन्नागार में आने-जाने के लिए रावी नदी की ओर से मार्ग बना हुआ है। अन्नागार के अलावा अट्ठारह चबूतरे वृत्ताकार बने हुए मिले हैं। चबूतरों को पकी ईंटों से बनाया गया है। प्रत्येक चबूतरे के बीच में एक छिद्र है। पुरातत्त्वविदों का अनुमान है कि इन छिद्रों में लकड़ी का ऊखल लगाया जाता रहा होगा। ह्वीलर महोदय चबूतरे का उपयोग अनाज पीसने के लिए करने का सुझाव देते हैं। चबूतरों के ईंटों के बीच में गेहूँ, जौ के जले दाने, राख और भूसा के साक्ष्य मिले हैं।
हड़प्पा के श्रमिक आवास में छोटे-छोटे मकान के अवशेष मिले हैं, जिनकी संख्या पन्द्रह है। इन मकानों को दो पंक्तियों में बनाया गया है। उत्तरी पंक्ति में सात और दक्षिणी पंक्ति में आठ मकान मिले हैं। श्रमिक बस्ती के मकान में आंगन के साथ एक या दो कमरे बने हैं। प्रत्येक मकान एक दूसरे से एक मीटर की दूरी पर स्थित है। हडप्पा के श्रमिक आवास के समीप भट्टियाँ और धातु बनाने की मूषा प्रकाश में आयी है। विद्वानों का अनुमान है कि ये मकान संभवतः श्रमिकों के थे।
हड़प्पा के भवन सुनियोजित ढंग से बनाये गये हैं। नगर क्षेत्र को आयताकार अनेक भागों में विभाजित किया गया है। सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटते हुए बनायी गयी हैं। सड़कों के किनारे जल निकास के लिए पक्की नालियों का निर्माण किया गया है।
हड़प्पा के उत्खनन से कतिपय विशिष्ट पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें तीन पाषाण मूर्तियाँ, मिट्टी की मूर्तियाँ, मुहरें, मनके आदि उल्लेखनीय हैं।
हड़प्पा की पाषाण मूर्तियाँ सिन्धु सभ्यता की अन्य पाषाण मूर्तियों से बनावट में भिन्न हैं हड़प्पा की पाषाण मूर्तियों के गर्दन और कन्धों में छिद्र बने हुए हैं। संभवत: सिर और हाथ को बाद में जोड़ा जाता था।
हड़प्पा की मृण्पूर्तियों में नारी मूर्तियों की गणना विशिष्ट पुरावशेषों में की जा सकती है, जिन्हें मातृदेवी माना जाता है।
इसके अलावा विभिन्न आकार के मनके, मुहरें, आभूषण, घरेलू उपयोग की वस्तुओं आदि का उल्लेख पुरानिधियों में किया जा सकता है।
हड़प्पा के उत्खनन से अन्त्येष्टि के साक्ष्य भी मिले हैं। नगर क्षेत्र के दक्षिण में ‘समाधि आर 37’ का उत्खनन माधो स्वरूप वत्स ने करवाया था। कालान्तर में ह्वीलर महोदय ने पुनः उत्खनन कार्य को संचालित किया। उत्खनन में 57 समाधियों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। अधिकांश शवाधान जमीन में गड्डा खोदकर किये गये हैं एक शवाधान में शव को दफनाने के लिए ताबूत का प्रयोग किया गया है।
शवाधान में दिक्-स्थान उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर है।हड़प्पा में एकल समाधियाँ ही मिली हैं। शवाधान में मृतक के साथ अन्त्येष्टि सामग्री भी रखी गयी है। हड़प्पा के उत्खनन में कुछ अन्य समाधियाँ भी प्रकाश में आयी हैं, जिन्हें ‘समाधि एच’ की संज्ञा दी गयी है। इन साड़ियों का सम्बन्ध सिन्धु सभ्यता के परवर्ती काल से माना जाता है।
मोहनजोदड़ो (Mohenjodaro)
मोहनजोदड़ो (Mohenjodaro) पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में लरकाना जिले में स्थित है। यह पुरास्थल सिन्धु नदी के तट पर स्थित है।
मोहनजोदड़ो (Mohenjodaro) पुरास्थल |
मोहनजोदड़ो पुरास्थल में भी दो टीले मिले हैं दोनों टीलों में पश्चिमी टीला दुर्ग और पूर्वी टीला नगर का प्रतिनिधित्व करता है। मोहनजोदड़ो नगर का विस्तार लगभग पाँच किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत है। मोहनजोदड़ो पुरास्थल की खोज सन् 1922 ई० में राखालदास बनर्जी ने किया था। इस पुरास्थल का उत्खनन सन् 1922-30 ई० के बीच जॉन मार्शल के निर्देशन में किया गया उत्खनन में राखालदास बनर्जी, अर्नेस्ट मैके, के० एन० दीक्षित, एच० हरग्रेस, दयाराम साहनी और माधो स्वरूप वत्स ने योगदान दिया।
तत्पश्चात् सन् 1950 ई० में ह्वीलर ने उत्खनन करवाया। कालान्तर में जॉर्ज एफ० देल्स ने सन् 1964 एवं 1966 ई० में सबसे निचले स्तर तक उत्खनन कार्य संपादित कराया।
उपरोक्त पुरातत्त्वविदों के उत्खनन के फलस्वरूप मोहनजोदड़ो की सभ्यता की सांस्कृतिक विशेषताओं की विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई है।
मोहनजोदड़ो का दुर्ग क्षेत्र चबूतरे पर निर्मित है। चबूतरे का निर्माण कच्ची ईंटों से किया गया है। दुर्ग के चारों ओर रक्षा-प्राचीर के साक्ष्य मिले हैं रक्षा-प्राचीर का निर्माण कच्ची ईंटों और मिट्टी से किया गया है। रक्षा-प्राचीर के बाहरी भाग में पकी ईंटों की चिनाई की गयी है। प्राचीर की ऊँचाई छः से बारह मीटर तक थी। रक्षा प्राचीर पर मीनारों और बुर्जों का निर्माण किया गया था।
दुर्ग क्षेत्र के उत्खनन से विभिन्न स्मारकों एवं बड़े भवनों के साक्ष्य मिले हैं, जिन्हें पुरातत्त्वविदों ने कार्य सूचक नाम प्रदान किये हैं, जैसे स्नानागार, अन्नागार, सभाभवन, पुरोहित आवास आदि।
स्नानागार की लम्बाई-चौड़ाई 55×33 मीटर है। स्नानागार के बीच में स्नानकुण्ड बना हुआ है, जो 12×7 मीटर लम्बा-चौड़ा है। स्नान कुण्ड की गहराई ढाई मीटर है। इसकी फर्श पकी ईंटों से बनी हुई है।
स्नानागार में ढाई मीटर चौड़ी सीढ़ियाँ बनी हुई है स्नानागार के उत्तर की ओर छोटे-छोटे स्नान कक्ष बने हुए हैं, जिनकी संख्या आठ है। ये स्नान कक्ष दो पंक्तियों में बने हैं। स्नानकुण्ड के तीन ओर बरामदे बने हैं। बरामदों के पीछे कमरे और गालियाँ बनी हैं। स्नानकुण्ड के पूर्व एक कुआ है संभवतः इसी कुए से स्नानागार में जल की आपूर्ति की जाती थी। स्नानकुण्ड के दक्षिण-पश्चिम की ओर जल निकासी के लिए नाली का निर्माण किया गया है। स्नानागार के विषय में विद्वानों की धारणा है कि इसका धार्मिक महत्त्व रहा होगा।
मोहनजोदड़ो का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्मारक अन्नागार माना जाता है। अन्नागार की लम्बाई-चौड़ाई 55×37 मीटर है। इसे सत्ताईस खण्डों में विभाजित किया गया है। अन्नागार में सामान लाने और ले जाने की व्यवस्था दुर्ग के बाहर से की गयी थी। अन्नागार में वायु संचरण की उपयुक्त व्यवस्था की गयी थी।
अन्नागार के अलावा महत्त्वपूर्ण स्मारकों में सभाभवन का उल्लेख किया जा सकता है। सभाभवन की छत बीस स्तम्भों पर टिको थी। स्तम्भों का निर्माण पाँच-पाँच की चार पंक्तियों में किया गया था।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन से स्नानागार के उत्तर-पूर्व में एक विशाल भवन का साक्ष्य मिला है। इस भवन की लम्बाई-चौड़ाई 83×24 मीटर है। इसमें एक आँगन, तीन ओर बरामदे, कई कमरे और स्नानगृह बना हुआ है। पुरातत्त्वविद् इस विशालभवन को ‘पुरोहित आवास’ मानते हैं।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन से नगर क्षेत्र के विषय में भी विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई है। नगर में सड़कों का जाल बिछा हुआ है। सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती हैं। मुख्य मार्गों का जाल नगर को बारह आयताकार भागों में विभाजित करता है। मोहनजोदड़ो की प्रमुख सड़कें 9.15 मीटर और सहायक सड़कें 3 मीटर चौड़ी थीं। सड़कों की सफाई को ध्यान में रखते हुए किनारे कूड़ा फेंकने के लिए गड्ढे बनाये गये थे अथवा कूड़ेदान रखे जाते थे।
मोहनजोदड़ो में मकानों की रूपरेखा साधारण थी। मकानों में आँगन के साक्ष्य मिले हैं। आँगन के तीन ओर कमरे बने हुए थे। मोहनजोदड़ो के मकान में सीढ़ियों के प्रमाण मिले हैं जो दुमंजिले मकान होने की ओर संकेत करते हैं। मकानों में कुँए, स्नानगृह और नालियों की व्यवस्था जल निकासी के लिए की गयी थी। कतिपय मकानों में शौचालय के साक्ष्य भी मिले हैं। मोहनजोदड़ो में मकानों के दरवाजे और खिड़कियाँ गलियों में खुलती थी मोहनजोदड़ो में मकानों का निर्माण पकी ईंटों से किया गया है।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन से नगर निवेश की जानकारी के अलावा अनेक महत्त्वपूर्ण पुरानिधियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
मोहनजोदड़ो के पुरावशेषों में पाषाण मूर्तियों, धातु मूर्तियों, मुहरों, ताबीजों, मनकों आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन से बारह पाषाण मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनमें पाँच गढ़ी क्षेत्र के एच० आर० क्षेत्र से मिली हैं। मोहनजोदड़ो की विशिष्ट मूर्तियों में डी० के० क्षेत्र से प्राप्त सेलखड़ी की ‘पुजारी प्रतिमा’ का उल्लेख किया जा सकता है।
मोहनजोदड़ो से धातु प्रतिमा भी मिली हैं। धातु प्रतिमाओं में एच० आर० क्षेत्र से प्राप्त बारह सेमी० लम्बी ‘नर्तकी की कांस्य प्रतिमा’ मोहनजोदड़ो की विशिष्ट पुरानिधि मानी जाती है। पाषाण और धातु मूर्तियों के अलावा मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं मृण्मूर्तियों में पुरुष, नारी और पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। मिट्टी की नारी मूर्तियों में मातृदेवी की प्रतिमाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन से अनेक मुहरें भी प्राप्त हुई है। मुहरों पर विभिन्न प्रकार के पशुओं, वृक्षों और लिपि का अंकन किया गया है।
मोहनजोदड़ो के विशिष्ट मुहरों में ‘पशुपति शिव’ की मुहर विशेष उल्लेखनीय है। जिसमें तीन मुख वाले पुरुष को चौकी पर पद्मासन मुद्रा में बैठा दिखाया गया है। पुरुष के सिर पर सींग है। उसके दोनों हाथों में कलाई से कन्धे तक चूड़ियाँ पहनायी गयी हैं। पुरुष के एक ओर हाथी और बाघ तथा दूसरी ओर गैंडा और भैंसा का अंकन किया गया है। चौकी के नीचे दो हिरण अंकित है जिनमें एक खण्डित अवस्था में है।
मोहनजोदड़ो के अन्य पुरावशेषों में कलात्मक वस्तुयें, मनके आदि की गणना की जा सकती है।
मोहनजोदड़ो के निवासी अपने मृतक परिजनों की अन्त्येष्टि नगर के अन्दर ही करते थे। नगर के बाहर अभी तक कब्रिस्तान का कोई साक्ष्य नहीं मिला है। मोहनजोदड़ो से दो प्रकार के शवाधान प्रकाश में आये हैं-आंशिक शवाधान और पूर्ण शवाधान ।
मोहनजोदड़ो से कतिपय बड़े आकार के चौड़े मुख वाले मिट्टी के पात्र मिले हैं, जिनमें पशुओं, मछलियों और चिड़ियों आदि की अस्थियों के साथ आभूषण, मिट्टी के ठीकरे, राख और कोयला मिले हैं। कतिपय विद्वान् उन्हें आंशिक शवाधान मानते हैं। इसके अलावा मोहनजोदड़ो से 42 मानव कंकाल ऐसे भी मिले हैं, जो सार्वजनिक स्थलों और मकानों में अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन मानव कंकालों की अन्तिम क्रिया संपादित नहीं की जा सकी थी। विद्वानों का अनुमान है कि संभव: मोहनजोदड़ो पर कोई आकस्मिक आक्रमण हुआ था अथवा किसी महामारी के फलस्वरूप मानवों के शव इधर-उधर बिखरे पड़े रह गये।
नवीन शोधों के आधार पर ज्ञात हुआ है कि इन शवों में केवल एक शव पर चोट के निशान हैं, शेष मानवों की मृत्यु किसी संक्रामक बीमारी से हुई थी।
आशा है कि उपरोक्त जानकारी आपके लिए मददगार होगी।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय