हड़प्पा सभ्यता के पुरास्थल- sites of harappan civilization
चन्हूदड़ों(Chanhudaro) – sites of indus valley civilization
मोहनजोदड़ो के लगभग 130 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित इस स्थल की खोज 1934 ई0 में एन० जी0 मजूमदार ने की तथा 1935-36 ई0 में अमेरिकी स्कूल ऑफ इंडिक एंड इरानियन तथा म्यूजियम ऑफ काईन आर्ट्स बोस्टन के दल ने अर्नेस्ट जॉन हेनरी मैके द्वारा यहाँ उत्खनन करवाया गया।
यह नगर 26°10’25″N से 68°19’23″E तक विस्तृत है। इसका वर्तमान क्षेत्र मुल्तान संध, सिंध, पाकिस्तान है।
इसका क्षेत्रफल 5 हेक्टेयर(12 एकड़) था।
यह नगर 4000-1700 ई०पू० में बसा था और यहां इंद्रगोप मनको का निर्माण होता था।
सबसे निचले स्तर से सैन्धव संस्कृति के अवशेष मिलते है।
सैंधव के अतिरिक्त यहाँ से प्राक् हड़प्पा सभ्यता तथा झूकर व झांगर के अवशेष मिले हैं।
यहाँ की मुख्य सड़क 7.5 मीटर चौड़ी थी तथा मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की भांति यहाँ भी मकान सड़क के दोनो ओर बनाये गये थे। मकान पक्की ईंटो के बनाये जाते थे तथा सभी गलियों में पक्की ईंटो से ढकी नालियां बनी थी मकानों में कमरे, आंगन, स्नानगृह, शोचालय आदि होते थे स्नानगृह तथा शौचालय की फर्श ईंटों की बनती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक औद्योगिक केन्द्र था जहाँ मणिकारी, मुहर बनाने, भार-माप के बटखरे बनाने का काम होता था। मैंके ने यहाँ से मनका बनाने का कारखाना (Bead Factory) तथा भट्ठी की खोज किया है कुछ बटखरे तथा मुहरें अत्यंत उच्च कोटि की हैं।
किन्तु चन्हुदड़ों से किलेबन्दी के साक्ष्य नहीं मिलते। यहाँ प्राप्त कुछ एंटी वक्राकार (curved) हैं।
मोहनजोदड़ो की भांति इस पुरास्थल पर भी कई बार बाढ़ आने के संकेत मिलते हैं।
प्राप्त पुरावशेष:-
छोटा पात्र(सम्भवतः दवात था) , हाथी के साक्ष्य, कुत्ते द्वारा बिल्ली का पीछा करते ईंट पर पदचिन्ह ,ताम्र और कांस्य उपकरण और सांचे की प्राप्ति से यह संदेह किया जाता है की सम्भवतः यहाँ मनके बनाने, हड्डी वस्तु बनाने, मुद्रा बनाने, आदि की दस्तकारियाँ यहाँ प्रचलित थीं। , जल हुआ कपाल, चार पहिया गाड़ी के साक्ष्य, निर्मित तथा अर्धनिर्मित सामग्रियां( आभास होता है यहां कारीगर/दस्तकार रहते थे) , मिट्टी की मुद्रा पर तीन घड़ियाल 2 मछली का अंकन, वर्गाकार मुद्रा की छाप पर 2 नग्न नारी जिनके हाथों में एक एक ध्वज है तथा ध्वजों के बीच से पीपल की पत्तियां निकल रही हैं, मिट्टी का मोर आदि। यहाँ से दुर्ग का अस्तित्व नहीं मिला है।
सुतकागेंडोर(Sutkagendor) – Sites of harappan civilization
पाकिस्तान के मकान में समुद्र तट के किनारे स्थित यह सैन्धव सभ्यता का सबसे पश्चिनी स्थल है। इसकी खोज 1927 ई0 में स्टाइन ने की।
1962 ई0 में जार्ज ने इसका सर्वेक्षण कर यहाँ से दुर्ग, बन्दरगाह तथा निचले नगर का पता लगाया।
इसका दुर्ग एक प्राकृतिक चट्टान के ऊपर स्थित था। इसकी दीवार में बुर्ज तथा द्वार भी बनाये गये थे। यहाँ की बस्ती के आकार प्रकार से सूचित होता है कि मोहनजोदड़ो तथा कालीबंगन जैसा यह कोई बड़ा नगर नहीं है अपितु इसका महत्व एक बन्दरगाह के रूप में था।
सिन्धु तथा मेसोपोटामिया के बीच होने वाले समुद्री व्यापार को सुगम बनाने तथा उसको देख-रेख करने के उद्देश्य से इस स्थान पर नगर बसाया गया था। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में मृद्भाण्ड, एक ताम्र निर्मित बाणा, ताम्र निर्मित ब्लेड के टुकड़े, मिट्टी की चूड़ियां तथा तिकोने ठीकरे आदि हैं। किन्तु यहाँ से कोई भी मुहर अथवा अन्य खुदी हुई वस्तु नहीं मिलती।
सुत्कागेनडोर के पूर्व में स्थित सोत्काकोह स्थल भी है जिसकी खोज 1962 में डेल्स द्वारा की गयी थी। यहाँ से दो टीले मिलते हैं। इसका आकार-प्रकार भी सुत्कागेनडोर जैसा हो था। कुछ मिट्टी के बर्तन मिलते हैं जो सैन्धव बर्तनों के समान है।
बालाकोट (Balakot) – sites of indus valley civilization
कराची से करीब 88 किलोमीटर की दूरी पर बलूचिस्तान के दक्षिणी तटवर्ती पट्टी पर स्थित यह स्थल सैन्धव काल में एक नन्दरगाह के रूप में कार्य करता था। 1979-81 के बीच डेल्स ने यहां उत्खनन कार्य करवाया।
यहाँ से प्राक सेन्धव तथा विकसित सैन्धव सभ्यता के अवशेष मिलते हैं। इसकी नगर योजना सुनियोजित थी। भवन कच्ची ईंटों से बनते थे जबकि गलियां पकी ईंटों की बनाई जाती थी। भवनों में कमरे, आंगन, चूल्हे आदि होते थे। भाले, बाणाग्र, तांबे, कांसे, मिट्टी आदि के ठीकरे तथा सेलखड़ी की मुहर खुदाई में मिली हैं।
बालाकोट का सबसे समृद्ध उद्योग सीप-उद्योग (Shell-Industry) था हजारों की संख्या में सीप की बनी चूड़ियाँ एवं पकड़े यहाँ से मिले है। संभव है बालाकोट इनके निर्यात का प्रमुख केन्द्र रहा हो।
अल्लाहदीनो(Allahdino)
सिन्धु तथा अरब सागर के संगम से करी सोलह किलोमीटर उत्तर-पूर्व तथा कराची से चालीस किलोमीटर पूर्व में यह स्थित है। 1982 में फेयर सर्विस ने यहीं के टीले का उत्खनन करवाया था।
यहां से व्यवस्थित नगर-योजना के साथ-साथ बड़ी संख्या में कलात्मक अवशेष प्राप्त हुए हैं भवन वर्गाकार अथवा आयताकार है तथा कई खण्डों में विभाजित हैं। दीवारों की नींव तथा नालियों पत्थर की बनी हैं। कलात्मक अवशेषों में तांबे की वस्तु सोने-चांदी के आभूषण, मणिक्य के मनके तथा सैन्धव प्रकार की मुहरें उल्लेखनीय हैं। मिट्टी की वनों एक खिलौना गाड़ी भी मिलती है। संभवतः यह एक बन्दरगाह नगर था।
कोटदीजी(kot diji) – हड़प्पा सभ्यता के पुरास्थल
पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित इस स्थल की खुदा फजल अहमद खौ द्वारा 1955 तथा 1957 में करवाई गयी थी।
यहां प्राक सैन्धव तथा सैन्धव स्तर मिलते हैं। प्राक सैन्धव बस्ती में भी किलेबन्दी के साक्ष्य मिले है। नगर-योजना सुव्यवस्थित थी। प्राप्त कलात्मक अवशेषों में विशिष्ट प्रकार के चित्रित मुद्भाण्ड, सादी तथा रंगीन चूड़ियां, पत्थर के बाणाग्र, तिकोने ठीकरे, मातृ देवी की मूर्तियां, पत्थर की चाकी , मनके, कांसे की अंगूठियां तथा सेलखड़ी की बनी दो मुहरे महत्वपूर्ण है।
माण्डा(Manda) – Hadappa Sabhyata ke Pramukh Sthal
जम्मू से करीब 28 किलोमीटर की दूरी पर चिनाब नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित यह विकसित हड़प्पा संस्कृति का सबसे उत्तरी स्थल है। 1982 में जे0 पीo जोशी तथा मधुबाला ने इसका उत्खनन करवाया था।
यहां से तीन सांस्कृतिक स्तर प्राक् सैंधव, विकसित सैन्धव एवं उत्तरकालीन सैन्धव-प्रकाश में आये हैं। हड़प्पा कालीन मृद्भाण्ड मिलते हैं। मिट्टी के ठीकरे, चर्ट ब्लेड, हड्डी के नुकीले बाणाग्र, कांस्य निर्मित पेंचदार पिन तथा एक आधी-अधूरी मुहर आदि मण्डा के सैन्धव स्तर से संबंधित कुछ अन्य अवशेष हैं।
बनावली (Bana vali) – सिन्धु घाटी सभ्यता के पुरास्थल
हरियाणा के हिसार जिले में स्थित इस स्थल का उत्खनन 1973-74 में आर0 एस० विष्ट द्वारा करवाया गया। यहाँ से संस्कृति के तीन स्तर-प्राक सैन्धव, विकसित सैन्धव तथा उत्तर सैंधव प्रकाश में आये हैं।
प्राक सैन्धव स्तर से भी नगर नियोजन का साक्ष्य मिलता है। ज्ञात होता है कि प्रारम्भ से ही यहाँ के निवासी अपने घर सीधी दिशा में बनाते थे। आगे चलकर दुर्ग, प्राचीर एवं निचले नगर की अवधारणा भी विकसित हो गयी इस चरण से एक पत्थर के बाट की खोज भी महत्वपूर्ण है।
सैन्धवकालीन स्तर की नगर योजना अत्यन्त सुनियोजित थी यहाँ दुर्ग तथा निचला नगर अलग-अलग न होकर एक ही प्राचीर युक्त घेरे में बनाये गये थे। टुर्ग की अलग से किलेबन्दी की गयी थी। दुर्ग की दीवारे 5.4 मीटर से लेकर 7 मीटर तक चौड़ी थी। यहाँ के भवनों में एक केन्द्रीय प्रांगण तथा उसके चारों ओर कई कमरे होते थे। यहाँ की सड़कें नगर को तारांकित (Star shaped) भागों में विभाजित करती हैं। कभी-कभी भवनों में मिट्टी का लेप लगाया जाता था।
एक मकान से धावन पात्र (wasi-basin) लगा हुआ मिलता है। यहाँ से मुहरें तथा बटखरे भी मिले हैं। इससे सूचित होता है कि यह किसी धनी सौदागर का आवास रहा होगा। एक दसरे बडे मकान से सोने, लाजवर्द (Lapis Lazuli) तथा कार्य को मनके, छोटे बटखरे तथा एक ऐसी कसौटी मिली है जिस पर विभिन्न रंगों की सोने की परतें चढी हैं। इन सबसे सूचित होता है कि यहाँ किसी जौहरी का आवास था। इस प्रकार जैसा कि मकानों के साज सामान से पता चलता है, बनावली समृद्ध लोगों का नगर था।
बनावली के कई मकानों से अग्निवेदियाँ मिलती हैं। इनके साथ अर्धवृत्ताकार ढांचे है जिसके आधार पर कुछ विद्वान् यहाँ मन्दिर होने की संभवाना व्यक्त करते हैं। यहाँ की मोटी दीवारों के बीच आले (ताख) बनाये गये हैं।
प्रायः सभी मकानों के सामने चबूतरे बने होते थे खुदाई में प्राप्त अन्य वस्तुओं में मृद्भाण्ड, मुहरे, ठप्पे, बटखरे, गुरियां, चूड़ियां आदि सभी हैं। मिट्टी का बना हल तथा कुछ लघु नारी मूर्तिया भी मिलती हैं। जौ के दाने काफी मात्रा में पाये गये हैं।
हड़प्पा सभ्यता के और अन्य पुरास्थलों को जानने के लिए यहाँ जाएं👇
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय