sites of harappan civilization : हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) भारत के इतिहास में प्रथम नगरीकरण को प्रमाणित करती है इस कारण यह भारत की अनेक क्षेत्रों में उत्पन्न सभ्यताओं में सबसे महत्वपूर्ण है।
हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल (part 1)
जैसा कि हड़प्पा सभ्यता/सिन्धु घाटी सभ्यता के विषय में सम्पूर्ण जानकारियां पिछली पोस्ट में दी जा चुकी है। अतः हम यहाँ हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल ( रोपड़ , भगवानपुरा , कालीबंगन , लोथल , सुरकोटदा , धौलावीरा , देसलपुर , कुंतासी , रोजदी , दैमाबाद , हुलास , आलमगीरपुर , माण्डा , सिनौली ) के विषय में विचार करेंगे।
हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल
हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल (sites of harappan civilization) की विस्तृत जानकारी के नीचे क्रमबद्ध तरीके से दी गई है आप अंत तक इस लेख को अवश्य पढ़ें-
रोपड़ पुरास्थल : sites of harappan civilization
पंजाब प्रांत में सतलुज नदी के बायें तट पर स्थित यह भारत का ऐसा सेन्धव स्थल (हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख स्थल) है जहां स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सर्वप्रथम उत्खनन किया गया था। इसका आधुनिक नाम रूपनगर है।
1950 में इसकी खोज बी0 वी0 लाल ने की तथा 1953-55 के दौरान यज्ञ दत्त शर्मा ने इसकी खुदाई करवाई। यहाँ संस्कृति के छः चरण मिलते हैं। इनमें प्रथम ही सैन्धव कालीन है।
यहाँ से हड़प्पा सभ्यता के लगभग सभी पुरावशेष– मृद्भाण्ड, सेलखड़ी की मुहर, तीन विभिन्न प्रकार की मुहरों से अंकित ठप्पे, चर्ट के बटखरे, एक छुरा, तांबे के बाणाग्र तथा कुल्हाड़ी आदि प्राप्त हुए हैं। एक ऐसा कब्रिस्तान मिला है जिसमें मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता भी दफनाया गया है।
भगवानपुरा : हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल
हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में सरस्वती नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित इस स्थल से हड़प्पा सभ्यता के पतनोन्मुख काल के अवशेष मिलते है।
इसका उत्खनन जे0 पी0 जोशी द्वारा करवाया गया था।
यहाँ के प्रमुख अवशेष सफेद, काले तथा आसमानी रंग की कांच की चूड़ियाँ, तांबे की चूड़ियां, कांच की मिट्टी के चित्रित मनके आदि हैं।
यहाँ से ऋग्वैदिक कालीन चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Grey Ware) भी प्राप्त हुए हैं। हरियाणा के अन्य उत्खनित स्थल राखीगढ़ी, मीत्ताथल, तथा कुणाल है।
राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) का सबसे बड़ा और विस्तृत स्थल है। राखीगढ़ी की खोज (जींद के पास) सूरजभान ने की। यह नगर सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ था तथा इसका क्षेत्रफल 240 हेक्टेयर के लगभग था। स्पष्टतः मोहनजोदड़ो की तुलना में यह तीन गुना अधिक विस्तृत है। यहाँ से तांबे के उपकरण तथा सैन्धव लिपि में अंकित एक मुहर मिली है।
मिताथल (भिवानी जिला) की खुदाई भी 1968 में सूरजभान द्वारा करवाई गयी थी। विकसित हड़प्पा काल में यहाँ दुर्ग तथा आवासीय बस्ती के साक्ष्य मिलते है। अन्य अवशेष तांबे की कुल्हाड़ी, पान पात्र, पत्थर के बटखने, मृत्पिण्ड, मिट्टी एवं सीप की चूड़ियाँ अदि हैं।
कुणाल (हिसार जिला) प्राक् सैन्धव कालीन स्थल है। यहाँ से चांदी के दो मुकुट 1 Crowns) प्रकाश में आये हैं।
कालीबंगन : हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख स्थल
राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्गर नदी के बायें किनारे पर स्थित यह हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) का एक महत्वपूर्ण स्थल है।
यहाँ 1961 ई0 में बी0 बी0 लाल तथा बी0 के0 थापड़ के निर्देशन में व्यापक पैमाने पर खुदाई की गयी थी।
हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो के समान यहाँ से भी दो टीले मिलते हैं जो सुरक्षा दीवारों से घिरे हैं। पश्चिम की ओर स्थित टीला छोटा तथा पूर्व की ओर का बड़ा था।
पश्चिमी टीले को ‘कालीबंगन प्रथम’ (Kalibangan D) नाम दिया गया है। इसके नीचले स्तरों से प्राक हड़प्पा सभ्यता के अवशेष मिले हैं। इस टीले की बस्ती भी सुरक्षा भित्ति से घिरी हुई थी। इसके निर्माण में 30x30x10 सेमी० की कच्ची ईंटों का प्रयोग किया गया था। यह मूलतः 1.90 मीटर चौडी थी जिसे बाद में दुगुना कर दिया गया।
प्राक-सैन्धव काल के प्रमुख अवशेष में लाल अथवा गुलाबी रंग के चाक निर्मित मृदुभाए्ड साधारण तश्तरियाँ, पेंदीदार और संकेत माह के घड़े, छोटे-बड़े आकार के मटके आदि हैं। कुछ बर्तनों पर काले रंग में ज्यामितीय अभिप्राय चित्रित हैं।
गोमेद, चाल्सिडनी तथा कार्नेलियन से बने पाषाण उपकरण, ताम्र निर्मित कुल्हाड़ी तथा पशु सेलखड़ी, शंख, कार्नीलियन एवं तांबे के मनके, पकी मिट्टी और तांबे की बनी चूड़ियां, पत्थर के सिलबट्टे, मिट्टी की खिलौना गाड़ी के पहिये आदि इस स्तर से मिलते हैं।
इस काल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि एक जुते हुए खेत की प्राप्ति है। इसमें आड़ी-तिरछी जुताई की गयी है। एक ओर हराइयां (Furrows) पूर्व-पश्चिम में तथा दूसरी और उत्तर-दक्षिण दिशा में बनाई गयी हैं। पहली की दूरी 30 सेमी० तथा दूसरी की 190 सेमी0 है। दोनों एक दूसरे को समकोण पर काटती है जालीदार जुताई का नमूना प्रस्तुत करती हैं। कम दूरी की हराइयों में चना तथा ज्यादा दूरी की हराइयों में सरसों बोया जाता था।
चूँकि जुताई की यह विधि आज भी उत्तरी-पूर्वी राजस्थान, हरियाणा, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित है, अतः अनुमान किया जा सकता है कि विकसित हड़प्पा काल में भी यह विधि रही होगी।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग एक ही खेत में एक साथ दो फसलें उगाना जानते थे। यहां की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि बेलनाकार तंदूर हैं। इनके नीचे पुताई की गयी है जो बिल्कुल आज के तन्दूरों जैसी है।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के पक्की ईंटों से बने हुए भवनों के विपरीत कालीबंगन के भवन कच्ची ईटों के बने हैं जो सामान्यतः 30x15x7.15 सेमी0 आकार की हैं। पक्की ईंटों का प्रयोग केवल नालियों, कुआँ एवं स्नानागार बनाने में ही किया गया है। यहाँ से सार्वजनिक नाली के अवशेष भी नहीं मिलते। मकानों की नालियों का पानी नाबदानों में गिरता था।
लकड़ी को कुरेद कर नाली बनाने का साक्ष्य केवल कालीबंगन में ही मिलता है।
कालीबंगन की एक फर्श के निर्माण में अलंकृत ईंटों का प्रयोग किया गया है। फर्श की ईटों पर वृत्त को काटते हुए वृत्त (प्रतिच्छेदी वृत्त) का सुन्दर अलंकार मिलता है। संकालिया का विचार है कि इस प्रकार के अलंकार का कोई धार्मिक महत्व रहा होगा।
कालीबंगन के प्राक् सैन्धव स्थल की खुदाई से पाँच निर्माण स्तरों (Structural Phases) की जानकारी होती है।
इस काल के मकान कच्ची ईंटों के बने हैं। सामान्य मकान में चार-पाँच कमरे, आंगन, बरामदा तथा चूल्हे होते थे।
इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि कालीबंगन प्रथम की बस्ती का भूकम्प जैसी किसी प्राकृतिक आपदा के कारण ई0 पू0 2700-2600 के लगभग अन्त हो गया। तत्पश्चात् कुछ समय तक यह स्थान वीरान रहा।
जब हड़प्पा सभ्यता के लोग पुनः यहाँ बसे तो उन्होंने मिट्टी तथा कच्ची ईटों के चबूतरे पर अपने मकान खड़े किये और आवास क्षेत्र पहले की अपेक्षा अधिक विस्तृत हो गया।
हड़प्पाकालीन कालीबंगन की नगर योजना भी अन्य नगरों के ही समान थी। यहाँ भी हमें ‘दुर्ग’ तथा ‘निचला नगर’ के रूप में नगर का विभाजन मिलता है। दुर्ग प्राक सैन्धव स्थल के ऊपर ही बसाया गया था। दुर्ग को बीच से एक लम्बी दीवार द्वारा, जो पूर्व-पश्चिम में जाती थी, दो भागों में विभाजित किया गया था ऐसा विभागीकरण किसी अन्य सैन्धव स्थल में नहीं मिलता।
दुर्ग के चारों ओर सरक्षा भित्ति बनाई गयी थी तथा स्थान-स्थान पर उसमें बुर्ज बनाये गये थे। बुर्ज तथा सुरक्षा भित्ति दोनों का निर्माण कच्ची ईंटों से हुआ था। दुर्ग या गढ़ी वाले टीले के दक्षिणी अर्धभाग में पांच या कच्ची ईंटों के चबूतरे बने थे। एक चबूतरे पर कुआँ, अग्निकुण्ड तथा पक्की ईंटों का बना एक आयताकार गर्त था जिसमें पशुओं की हड्डियाँ थीं। दूसरे चबूतरे पर सात अग्निकुण्ड या वेदिकायें एक पंक्ति में बनी थी दुर्ग के इस दक्षिणी अर्धभाग पर पहुँचने के लिए उत्तर और दक्षिण की ओर सीढ़ियाँ बनाई गयी थी। स्पष्टतः इस दुर्ग का कोई धार्मिक प्रयोजन था। सम्भव है यहाँ पशुबलि दी जाती रही हो।
उत्तरी अर्धभाग में कुलीन लोगों के आवास बने थे कालीबंगन का ‘निचला नगर’ भी सुरक्षा भित्ति (प्राचीर) से घिरा था।
दुर्ग के एक भाग में भवनों के नौ क्रमिक स्तरों का पता चलता है। भवनों के आगे और पीछे दोनों ओर सड़कें बनी थीं। सड़कों को पक्की बनाने का प्रयास केवल यहीं मिलता है। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के समान यहाँ भी भवनों के दरवाजे गली की ओर खुलते थे। दरवाजे में शायद एक ही पल्ला लगाया जाता था क्योंकि इसके लिये केवल एक ही छेद पाया गया है भवन कच्ची ईंटों के बने हैं। लकड़ी के तनों को खोखला कर, नालियों के रूप में प्रयोग किये जाने का साक्ष्य केवल यहीं से मिलता है।
कुछ विद्वानों का विचार है कि कालीबंगन में हड़प्पा सभ्यता की तीसरी राजधानी रही होगी।
सेलखड़ी तथा मिट्टी की मुहरें एवं मृद्भाण्ड के टुकड़े मिलते हैं। कुछ लेखयुक्त हैं तथा इनके अक्षर हड़प्पाई लिपि के समान हैं। लेखयुक्त बर्तन के टुकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि हड़प्पा लिपि दाई से बाई ओर को लिखी जाती थी। आवास क्षेत्र के दक्षिणी भाग से कब्रिस्तान मिला है जिससे शवाधान की कुछ नई विधियों पर प्रकाश पड़ता है। भूकम्प आने के प्राचीनतम साक्ष्य भी यहीं से मिलते हैं।
लोथल पुरास्थल :
हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के अतिरिक्त यह भी हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) का एक प्रमुख स्थल है। लोथल का टीला अहमदाबाद (गुजरात) जिले में सरगवल नामक ग्राम के समीप स्थित है। 1955 तथा 1962 के मध्य यहाँ एस० आर० राव के निर्देशन में वहाँ खुदाई की गयी जहाँ दो मील के घेरे में बसे हुए एक नगर के अवशेष प्राप्त हुए।
नगर दो भागों में विभाजित था-दुर्ग (गढ़ी) तथा निचला नगर। सम्पूर्ण बस्ती एक ही प्राचीर से घिरी थी। प्राचीर के भीतर कच्ची ईटों से बने चबूतरों पर घर बनाये गये थे धरों के निर्माण में प्रायः कच्ची ईंटों का प्रयोग किया गया था कुछ विशिष्ट भवन ही पक्की ईंटों के बने थे। नालियों तथा स्नानगृह की फर्शो के निर्माण में पक्की ईंटों का प्रयोग किया गया था। दुर्ग के पश्चिम में ऊँचे चबूतरे पर 126×30 मीटर के आकार का एक भवन मिला है जिसमें स्नानगृह और नालियाँ बने थे इसे ‘शासक का आवास’ बताया गया है।
दुर्ग के समीप बने अन्नागार का अवशेष मिलता है। कुछ घरों से पशुओं की हड्डियाँ, ताँबा, कांचली मिट्टी के मनके, सोने का एक आभूषण, जली हुई कुछ हड्डियां, वृत्ताकार या चतुर्भुजाकार अग्निवेदियाँ आदि पाई गयी हैं।
निचला नगर दुर्ग वाले क्षेत्र से तिगुना विस्तृत था। यह कच्ची ईंटों के चबूतरे पर बना था यह चार खण्डों में विभाजित था। खुदाई में चार सड़कों के अस्तित्व का पता चला है। नगर के उत्तर में बाजार, पश्चिम में व्यावसायिक भवन तथा उत्तर में भवनों के अवशेष मिलते है।
बाजार में शंख तथा तांबे का काम करने वाले कारीगरों के कारखाने स्थित थे। यहाँ से फारस की खाड़ी प्रकार (Persian Gulf Style) की एक मुहर मिली है। एक दिशा मापक यंत्र, पैमाना तथा साहुल के भी अवशेष मिलते हैं। यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि पकी ईंटों का बना हुआ विशाल आकार (214 x 36 मीटर) का एक घेरा है। जिसे राव महोदय ने ‘जहाजों की गोदी’ (Dock-Yard) बताया है। इसकी उत्तरी दीवार में 12 मीटर चौड़ा प्रवेश द्वार था जिससे होकर जहाज आते-जाते थे। यह नहर द्वारा भोगावा नदी से जोड़ा गया था तथा इसी के जरिये गोदी में पानी आता था।
दक्षिणी दीवार में एक मीटर चौडी एक नाली बनाई गयी थी जिससे अतिरिक्त पानी बाहर निकाला जाता था।
गोदीबाडा की प्राप्ति से इस नगर के प्रसिद्ध बन्दरगाह होने का पता लगता है। यह विश्व का प्राचीनतम ज्ञात गोदीबाडा है।
इसी से सटा हुआ एक गोदाम था जहाँ आने-जाने वाला माल अस्थाई तौर पर रखा जाता था। दोनों के बीच दुर्ग स्थित था जहाँ रहने वाले लोग संभवतः यहाँ की गतिविधियों पर निगरानी रखते होंगे। यहाँ मिस्र तथा मेसोपोटामिया से व्यापारिक जहाज आते-जाते थे। यह नगर मोहनजोदड़ो के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित थी।
लोथल की नगर एवं भवन योजना सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित थी।
नदियों एवं नरमोखों की अत्युत्तम प्रबन्ध देखने को मिलता है जो यहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य तथा सफाई के प्रति सजगता का प्रमाण है। ये सभी विशेषतायें हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में प्राप्त होती हैं।
इसी कारण लोथल के उत्खननकर्ता एस0 आर0 राव ने इस स्थल को लघु हड़प्पा या लघु मोहेनजोदड़ो कहना पसन्द किया है।
सुरकोटदा पुरास्थल :-
सुरकोटदा भी हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख स्थल है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित इस स्थल की खुदाई से नियमित आवास के साक्ष्य मिलते हैं। अन्य नगरों के विपरीत यह नगर दो दुर्गीकृत भागों-गढ़ी तथा आवास क्षेत्र में विभाजित था।
गढ़ी क्षेत्र में भवनों का निर्माण ठोस मिट्टी के चबूतरे पर किया गया है तथा ये आवासीय क्षेत्र के भवनों से बड़े हैं।
गढ़ी की सुरक्षा दीवार में दो प्रवेश-द्वार थे-एक दक्षिण की ओर तथा दूसरा पूरब की ओर। यहाँ से पत्थर की चिनाई वाले भवनों के साक्ष्य भी मिलते हैं दुर्गीकृत क्षेत्र के दक्षिण-पश्चिम से प्राप्त एक कब्रिस्तान से शवाधान की एक नई विधि-कलश शवाधान (Por Burian का उदाहरण प्राप्त होता है। यहाँ की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि घोड़े की कछ हड्डियों का पाया जाना भी है।
धौलावीरा पुरास्थल :-
गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ तालुक में स्थित इस स्थल की खुदाई से यह सिद्ध हो गया है कि हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) का सबसे प्राचीन और सर्वाधिक सुव्यवस्थित, खूबसूरत तथा सबसे बड़ा नगर संभवतः पाकिस्तान में पड़ने वाला मोहेनजोदड़ो नहीं बल्कि भारत में पड़ने वाला धोलावीरा था।
सर्वप्रथम 1967-68 में धौलावीरा की खोज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के जे० पी० जोशी ने की तथा 1990-91 के दौरान आर० एस० विष्ट द्वारा यहाँ व्यापक पैमाने पर उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया जो कई वर्षों तक चलता रहा। फलस्वरूप यहाँ से विकसित हड़प्पा सभ्यता के एक ऐसे नगर-विन्यास का साक्ष्य मिलता है जो अपने आप में अद्वितीय है।
इस नगर का क्षेत्रफल 100 हेक्टेयर था। इस प्रकार यह भारत में स्थित दो विशालतम सैन्धव स्थलों में एक है। इस प्रकार का दूसरा स्थल राखीगढ़ी (हरियाणा) है। जहाँ इस हड़प्पा सभ्यता के अन्य नगर केवल दो भागों-दुर्ग तथा निचला नगर, में विभाजित थे, धौलावीर तीन भागों-दुर्ग (Citadel), मध्यम नगर (Middle town) तथा निचला नगर (Lower town) में विभाजित था।
सम्पर्ण क्षेत्र को घेरती है चारों दिशाओं में बाहरी दीवारें बनाई गयी थी जबकि प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अलग किलेबन्दी भी थी।
70 से 140 मीटर विशाल खुले क्षेत्र थे जो आन्तरिक एवं बाह्य प्राचीरों से महत्वपूर्ण स्थानों पर जुड़े हुए थे।
प्राचीर युक्त क्षेत्र दो प्रकार के थे-पहला आहाता ऊँचे दुर्ग के भीतर तथा दूसरा नगर के बीच में स्थित था। संभवतः पहले में शासक वर्ग तथा दूसरे में पदाधिकारी निवास करते थे ।
मध्य क्षेत्र केवल यही से मिलता है। प्राचीरयुक्त बस्तियों में प्रवेश के लिये विशाल एवं भव्य द्वार बनाये गये थे। मध्यवर्ती प्राचीरयुक्त दुर्ग के उत्तरी द्वार के पीछे 12.80 मीटर लम्बा तालाब खुदाई में मिला है। इसमें वर्षा का पानी एकत्र करने के लिये 24×70 मीटर के आकार का जलमार्ग बनाया गया था।
घोड़े की कलाकृतियों के अवशेष भी मिलते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ से पालिशदार श्वेत पाषाण खण्ड (Polished stone blocks) बड़ी संख्या में मिलते हैं तथा मिट्टी सफेद है। संभवतः इनका उपयोग स्तम्भों के रूप में हुआ था।
यह भी एक विरल उपलब्धि है जिससे पता चलता है कि पत्थरों पर पालिश करने की कला से सैन्धव निवासी परिचित थे और यह कहीं बाहर से यहाँ नहीं आई थी। इसके अतिरिक्त सैन्धव लिपि के दस ऐसे अक्षर प्रकाश में आये है जो काफी बड़े है तथा विश्व की प्राचीन अक्षरमाला में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हड़प्पा सभ्यता के संदर्भ में यह एक अद्भुत खोज है।
इस प्रकार भवन निर्माण, जल निकास व्यवस्था, कलाकृतियों की पृष्ठभूमि, नगर नियोजन तथा लिपि की दृष्टि से धौलावीरा एक उत्कृष्ट नगर था।
नदी तट पर स्थित अन्य नगरों के समान इस नगर का पतन भी जलस्रोत सूख जाने अथवा नदियों की धारा में परिवर्तन के कारण संभव हुआ।
देसलपुर पुरास्थल : sites of harappan civilization
कच्छ क्षेत्र में मोहनजोदड़ो तथा लोथल के बीच स्थित यह हड़प्पा सभ्यता के सबसे पश्चिमी स्थलों में से हैं।
1964 ई0 में के0 वी0 सौन्दरराजन ने यहां उत्खनन करवाया था।
यहाँ से एक सुरक्षा प्राचीर मिली है। इसमें स्थान-स्थान पर बुर्ज बने हुए हैं।
महत्वपूर्ण अवशेष मिट्टी तथा जेस्पर के बाट, गाड़ियों के पहिये, तांबे की छुरियाँ, छेनी, अंगूठी तथा सेलखड़ी और तांबे की एक-एक मुहर आदि हैं।
कुंतासी पुरास्थल :-
गुजरात के राजकोट जिले में स्थित इस स्थल की खुदाई एम0 के0 धावलिकर, एम० आर० रावल तथा वाई 0 एम0 चितलवाना द्वारा करवाई गयी।
यहाँ से विकसित तथा उत्तरकालीन सैन्धव संस्कृति के स्तर प्रकाश में आये हैं। दोनों के बीच कोई व्यवधान नहीं मिलता।
यहाँ के अवशेषों से सूचित होता है कि यहाँ बन्दरगाह, व्यापार केन्द्र, निगरानी-स्तम्भ तथा अन्य सुविधायें हैं।
खुदाई में सैन्धव मृद्भाण्ड, जैसे लम्बी सुराहियाँ, दोहत्थे कटोरे, मिट्टी की खिलौना गाड़ी, कांचली मिट्टी तथा सेलखड़ी के मनके आदि मिले हैं।
एक मकान के कमरे से सेलखड़ी के हजारों छोटे मनके तथा तांबे की कुछ चूड़ियाँ एवं दो अंगूठियाँ मिलती हैं कुन्तासी भारत में प्राप्त विशालतम हड़प्पाकालीन बस्ती है।
रोजदी पुरास्थल :-
गुजरात के सौराष्ट्र जिले में स्थित इस स्थल की खुदाई के दौरान प्राक सैन्धव, सैन्धव तथा उत्तर सैन्धव संस्कृति के स्तर उद्घाटित होते हैं। यहीँ से प्राप्त मद्भाण्ड लाल, काले और चमकदार है।
बस्ती के चारों ओर बड़े-बड़े पत्थरों की बनी सुरक्षा दीवार मिली है। हाथी के अवशेष भी मिलते हैं।
दैमाबाद पुरास्थल : harappan civilization
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के बायें किनारे पर स्थित इस स्थल की खुदाई से हड़प्पा सभ्यता के कछ साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इनमें कुछ मृद्भाण्ड, सैन्धव लिपि की एक मुहर, प्याले, तश्तरी आदि हैं।
कुछ बर्तनों पर दो सीगों की आकृति बनी है। सैन्धव प्रकार का एक मानव-शवाधान भी मिलता है जहाँ एक गर्त में युवा पुरुष का शव पाया गया है। इसे उत्तर-दक्षिण में लिटाया गया है। गर्त में ईंटे की चिनाई करने के बाद उसे मिट्टी तथा ईंटों से ढका गया है तथा कब्र के उत्तर की ओर एक पत्थर भी रखा गया है।
उल्लेखनीय है कि सुरकोटदा की कब्रों में भी पत्थर लगाये जाते थे। दैमाबाद हड़प्पा सभ्यता का सबसे दक्षिणी स्थल है। ऐसा लगता है कि यहाँ सेंधवा निवासी उत्तरकाल में आये थे।
हुलास पुरास्थल :
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित है। यहाँ के टीले की खुदाई में संस्कृति के विभिन्न चरणों का पता चलता है। पहला चरण उत्तरकालीन सैन्धव है। अन्य इसके बाद के हैं। यहाँ से प्राप्त कुछ मृद्भाण्ड अन्य स्थलों से प्राप्त हुए सैन्धव भाण्डों से मिलते-जलते हैं। कांचली मिट्टी के मनके, चूड़ियाँ, ठीकरे, खिलौना गाड़ी आदि मिलते हैं। सैन्धव लिपि युक्त एक ठप्पा भी प्रकाश में आया है।
आलमगीरपुर पुरास्थल :
उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित यहां के एक टीले की खदाई से सात सभ्यता के अवशेष मिलते हैं।
यह इस संस्कृति के उत्तरकालीन स्तर का द्योतक खुदाई में मृद्भाण्ड, मृत्पिण्ड (Cakes) तथा मनके मिले हैं।
यहाँ से कोई मुहर नहीं मिलती।
एक गर्त से रोटी बेलने की चौकी तथा कटोरे के बहुसंख्यक टुकड़े प्राप्त हुए हैं।
कुछ के ऊपर सैन्धव लिपि के दो अक्षर अंकित हैं। कुछ बर्तनों पर मोर, त्रिभुज, गिलहरी आदि की चित्रकारियाँ भी मिलती हैं।
आलमगीरपुर से सैन्धव अवशेषों की प्राप्ति यह सिद्ध करती है कि यह हड़प्पा सभ्यता गंगा-यमुना दोआब में भी फैली हई थी।
माण्डा पुरास्थल :-
मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) से लगभग 15 किलोमीटर दक्षिण में स्थित यह गाँव हड़प्पा सभ्यता का नवीनतम स्थल ज्ञात हुआ है जिसका प्रकाशन विभिन्न समाचार पत्रों एवं संचार माध्यमों द्वारा किया गया।
यहाँ एक खेत से जुताई के दौरान भारी मात्रा में सोने के छल्ले, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े तथा ईटे प्राप्त हई हैं।
तीन अलग-अलग आकार-प्रकार के सोने के छल्ले मिलने से ऐसा अनमान किया कि इनका प्रयोग मुद्रा के रूप में भी किया जाता था तथा इस स्थल पर कोई गृह (Mint-House) रहा होगा।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की महानिदेशक कोमल आनन्द के अनुसार पहली बार किसी एक स्थल से इतनी अधिक मात्रा में स्वर्ण सिक्के मिले हैं। इससे हड़प्पा सभ्यता के कई नवीन पक्षों की जानकारी मिलेगी।
यहाँ से प्राप्त मृदभांड हड़प्पा के मृदभांड के ही समान है।
पुरातत्व विभाग के एक अन्य अधिकारी धर्मवीर शर्मा ने बताया है कि जिस प्रकार के मिट्टी के बर्तन तथा स्वर्ण छल्ले माण्डा से मिलते हैं, उसी बर्तन या छल्लों का उपयोग हड़प्पा के लोग भी किया करते थे।
इस स्थल की व्यापक पैमाने पर यदि खुदाई की जाय, तो निः सन्देह भारत की प्राचीनतम सभ्यता की तीन नगरीय बस्ती का पता चलेगा ।
सिनौली पुरास्थल:-
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत (मेरठ) के समीप स्थित सिनौली नामक ग्राम से उत्तर प्रदेश का प्रथम हड़प्पा कालीन शवाधान प्राप्त हुआ है। सर्वप्रथम यहीं से नरकंकालों के समीप दो श्रृंगी तलवारें भी मिली हैं जो ताम्रनिधि संस्कृति से सम्बन्धित हैं जिनसे सूचित होता है कि ताम्रनिधि का संबंध उत्तर हड़प्पा संस्कृति से था।
सिनौली के उत्खनन में लगभग 126 नरकंकाल मिलते हैं जो इस स्थल पर विस्तृत आबादी के संकेत देते हैं।
एक कंकाल दोनों हाथों में ताँबे का कंगन पहने हुए है तथा दूसरे के पास किसी पशु को दफनाया गया है।
इस स्थल के अन्य अवशेष हैं-गुरियों के हार, स्वर्ण आभूषण तथा कुछ अन्य मानवसम आकृतियाँ Anthropomorphic Figures) जो हड़प्पा बस्तियों की विशेषता है।
सभी कंकाल उत्तर-दक्षिण दिशा में लिटाये गये हैं जिनके सिर पर मृद्भाण्ड रखे हुए हैं। अधीक्षण पुराविद् धर्मवीर शर्मा के अनुसार इन भाण्डों में संभवत: अन्न, घी, दही आदि रखा गया होगा। यह शतपथ ब्राह्मण में वर्णित शवदाह प्रथा के अनुरूप है।
इससे सूचित होता है कि हड़प्पा संस्कृति वैदिक संस्कृति का ही एक अंश है जो वेदविहित विधानों का अनुसरण करती थी। इस पुरास्थल की तिथि उत्तर हड्प्पन काल (लगभग 2000 ई०पू०) लगती है। किन्तु अन्य पुरातत्ववेत्ता शर्मा के निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं। जब तक इस स्थल की निश्चित कार्बन तिथि प्राप्त न हो जाए इस संबंध में कोई अंतिम निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय