Lohe ki prachinta | भारत में लोहे का प्रयोग सर्वप्रथम कब किया गया? First use of iron in india | भारत में लौह काल | भारत में लौह प्रयोग की प्राचीनता | lohe ki khoj

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Lohe ki prachinta : आज के विश्व में लोहे की उपयोगिता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। मानव सभ्यता की बहुमुखी प्रगति में लोहे की भूमिका स्वतः सिद्ध है।

Lohe ki prachinta
भारत में लोहे का प्रयोग सर्वप्रथम कब किया गया

लोहे की खोज : lohe ki khoj

पुरातात्विक उत्खनन में अन्य धातुओं की भांति भारत से लोहे की भी सामग्रियां प्राप्त हुई हैं। इसका प्रयोग भारतीय समाज में एक क्रांति का जन्मदाता कहा जा सकता है क्योंकि ताम्र और कांस्य धातु के बने हुए उपकरणों की अपेक्षा लौह उपकरण अधिक टिकाऊ तथा मजबूत होते हैं परन्तु लोहे की विशिष्टता उसकी प्रचुरता के कारण है।

यह एक कठोर धातु है जिससे मनुष्य अपने लिए कठोर भूमि , वन, आक्रामक पशुओं और मनुष्यों से उत्पन्न संकट को टाला जा सकता था।
लोहे के प्रचलन के फलस्वरूप आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय परिवर्तन घटित हुए। लोहे के तकनीकी ज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान राजनीतिक क्षेत्र में भी माना जाता है। प्राचीन काल के अनेक साम्राज्यों की शक्ति का स्रोत लौह तकनीक के ज्ञान और लोहे के उपकरणों के व्यापार पर एकाधिकार को माना जाता है। यह बात अब आसानी से नहीं समझी जा सकती है कि कभी ऐसा जमाना था जब मनुष्य लोहे के उपयोग से परिचित नहीं था। मानव के सुदीर्घकालिक इतिहास में लोहे के उपकरणों के प्रचलन की कहानी बीते हुए कल की कहानी है।

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लोहे का सर्वप्रथम प्रचलन कहाँ?

मानव की तकनीकी प्रगति के इतिहास में लौह धातु के सर्वप्रथम शोधन की घटना का अत्यधिक महत्त्व है। लोहे का सर्वप्रथम प्रचलन (lohe ki khoj) कब और कहाँ पर हुआ? ये प्रश्न अभी भी विवादग्रस्त हैं।
मिस्र की लगभग तृतीय सहस्राब्दी ई.पू. की समाधियों से उपलब्ध जंग-रहित लोहे के मनके खनिज लौह के स्थान पर उल्का-पिण्ड के लोहे से निर्मित हैं । लोहे को खान से निकालने तथा धातु-शोधन की प्रक्रिया का सर्वप्रथम प्रचलन संभवतः एशिया माइनर (तुर्की) अथवा कॉकेशस के क्षेत्र में हुआ।


हित्ती साम्राज्य के कर्णधारों ने इसकी उपयोगिता को समझा और उन्होंने लोहे के ज्ञान के रहस्य को लगभग 1800-1200 ई.पू. तक अपने साम्राज्य की सीमाओं से बाहर नहीं जाने दिया। प्राचीन विश्व के अन्य साम्राज्यों की ही भाँति हित्ती साम्राज्य का भी लगभग 1200 ई.पू. में विघटन हुआ। इस साम्राज्य के पतन के बाद लोहे की तकनीक से परिचित कारीगर आजीविका की तलाश में संभवतः हित्ती साम्राज्य की सीमाओं से लगे हुए क्षेत्रों में चले गए और अपने साथ उस तकनीकी ज्ञान को भी लेते गए जिसे हित्ती शासको ने गुप्त रखने का भरसक प्रयत्न किया था।
हित्ती साम्राज्य के विघटन होने पर लौह धातु के शोधन का प्रसार पश्चिमी एशिया के अधिकांश क्षेत्रों में हुआ तथापि 1200-1000 ई.पू. के मध्य के समय को लौह तकनीक के प्रसार का संक्रमण काल माना जा सकता है।

ईरान में लोहे का सर्वप्रथम प्रयोग:

ईरान में सर्वप्रथम सार्क नामक पुरास्थल के ‘नेक्रोपोलिस अ’ (Necropolis A) में लोहा मिलता है। परन्तु लौह उपकरणों का आधिक्य ‘नेक्रोपोलिस ब’ (Necropolis B) में ही दृष्टिगोचर होता है जिसका कालानुक्रम सी. शेफर (C. Schaffer) के अनुसार 1200-1000 ई.पू. के मध्य निर्धारित किया जा सकता है।

पाकिस्तान में लोहे का सर्वप्रथम प्रयोग:

पाकिस्तान के दक्षिणी तथा मध्यवर्ती बलूचिस्तान के क्षेत्रों में स्थित वृहत्पाषाण समाधियों में लोहा लगभग 1000 ई.पू. में मिलने लगता है।
उत्तरी बलूचिस्तान तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रान्त की बृहत्पाषाण और गांधार-समाधि संस्कृतियाँ लौह युगीन हैं। गांधार-समाधि संस्कृति की तिथि 900-600 ई.पू. के मध्य निर्धारित की गई है।


प्रमुख लौह उपकरणों में भाला फलक, बाण-फलक, कीलें, डंडी युक्त करछुल, हाथ की अँगूठियाँ और घोड़े के लगाम की गलपट्टी आदि प्रमुख हैं। इस प्रकार प्रथम सहस्राब्दी ई.पू. के प्रारम्भिक वर्षों में पाकिस्तान में लोहे का प्रचलन हो चुका था।

लौह तकनीक के प्रसार के फलस्वरूप ताम्र तथा कांस्य संस्कृतियाँ समाप्त होने लगीं। ईरान में लगभग इसी समय लोहे का प्रयोग हुआ।

भारत में लोहे का प्रयोग सर्वप्रथम कब किया गया ? First use of iron in india

लोहे का ज्ञान भारत की सीमा के अन्दर कब प्रविष्ट हुआ? यह प्रश्न अभी कुछ उलझा हुआ है। कभी यह समझा जाता था कि यूनानियों के आने के पहले भारतीयों को लोहे का ज्ञान नहीं था। इस मत का खण्डन प्राचीन यूनानी साहित्य के आन्तरिक साक्ष्यों से ही हो जाता है।

प्राचीन यूनानी साहित्य के के भारतीय अभियान के पूर्व ही भारतीयों ने लोहे के उपकरण बनाने की कला में अनुसार सिकन्दर दक्षता प्राप्त कर लिया था। इस परम्परा के अनुसार भारतीय लोहार लोहे के ऐसे उपकरण बनाते थे जिन पर जंग नहीं लगता था।


मार्टीमर ह्वीलर प्रभृति विद्वानों ने कालान्तर में भारत में लोहे के प्रचलन का गौरव ईरान के शाखामनीष शासकों को दिया। यह प्रतिपादित किया गया कि उत्तरी-पश्चिमी भारत (वर्तमान पाकिस्तान) में लोहे के प्रयोग का आरम्भ ईरान के प्रभाव के फलस्वरूप हुआ। कई वर्षों तक इस मत को मान्यता मिली रहीं। बीसवीं शताब्दी में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जो पुरातात्त्विक अन्वेषण और उत्खनन हुए हैं उनसे लोहे की प्राचीनता के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान-वर्द्धन हुआ है।
इस संबंध में सूच्य है कि वैदिक कालीन ग्रंथों में सर्वप्राचीन ऋग्वेद में इसकी सत्यता को ढूंढने के आधार पर ही हमारे पुरातात्विक ज्ञान को पुष्टि मिल सकती है।

प्रो० गोवर्धन रॉय शर्मा इसे चित्रित धूसर पात्र परम्परा से सम्बंधित करते हैं।जो उनके अनुसार आर्यो के साथ आयी थी।
N.R. बनर्जी की मान्यता थी कि चित्रित धूसर पात्र परम्परा संस्कृति के लोगों ने भारत में लोहे का आविष्कार किया।

भारत में लौह काल :

भारत में लोहे के प्रथम प्रयोग के साक्ष्यों को 2 वर्गों में बांटा जा सकता है

1) साहित्यिक साक्ष्य
2) पुरातात्विक साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य

इस दृष्टि से पहले साहित्यिक स्रोतों के सहारे हम लौह के प्रयोग का क्रम ढूँढ़ने का प्रयास करें। इसमें ऋग्वेद को लिया जाय तो उसमें ‘अयस’ शब्द का उल्लेख किया गया है। ‘अयस’ का अर्थ कतिपय विद्वान लोहा लेते हैं। पर ऋग्वैदिक संदर्भ में इसका रंग काला होना बताया गया है। यदि किसी भी धातु को हम गर्म करें तो वह लाल रंग का हो जायेगा। बाद के वैदिक साहित्य में लोहित और कृष्ण दो रंगों के अयस का ज्ञान मिलता है।


लोहित का अर्थ है लाल और कृष्ण का अर्थ है काला। ताम्बे का रंग लाल होता है और लोहे का रंग काला होता है। इसलिए लाल अयस से अभिप्राय है तांबे से जिसका रंग लाल होता है और कृष्ण अयस से अभिप्रेत है लोहा।

अतः ‘अयस’ का प्रयोग केवल लोहा के लिए हुआ हो ऐसा हम इन आधारों पर स्वीकार नहीं कर सकते। इस तर्क के क्रम में ऋग्वेद में प्रयुक्त अयस का अर्थ अब विद्वानों ने तांबा धातु से लिया है। सम्भवतः यह तांबे के अर्थ में प्रयोग किया गया होगा जब लोहा प्रयोग में आया तो दोनों के बीच ज्ञान में अन्तर स्थापित करने के लिए लोहित और लौह विशेषणों का प्रयोग किया गया।

यजुर्वेद, अथर्वेद और शतपथ ब्राह्मणों में लोहे के फाल का प्रयोग हल में किए जाने का उल्लेख किया गया है। लगता है कि जब कृषि को स्थायित्व मिला, उसका स्वरूप विकसित हुआ तो भूमि तोड़कर बढ़ती जनसंख्या के भोजन की समस्या के लिए अधिक मजबूत धातु लोहे का प्रयोग किया जाने लगा था। साथ ही इसके द्वारा एक साथ कई-कई बैलों के द्वारा जुताई करने से कम से कम में अधिक भूमि को खेती के योग्य बनाना सम्भव हो सका।

अतः ‘कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता’ में एक साथ छः तथा बारह बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हलों का का वर्णन मिलता है। संभवतः इस प्रकार का हल काफी भारी होता रहा होगा। यह ग्रंथ लोहे से परिचित प्रतीत होता है अतः यह कहा जा सकता है कि इस हाल की फाल लोहे की रही होगी।
यह समय भारत और ईरान के बीच राजनयिक सम्पर्क स्थापित होने के बहुत पहले या साथ ही धार्मिक क्रियाओं और मान्यताओं में भी अब लोहे को स्थान दिया जाने लगा। अथर्ववेद में इसीलिए लोहे के ताबीज बनाए जाने का उल्लेख है।
साथ ही अथर्ववेद में भी लोहे की फाल का उल्लेख मिलता है।
शतपथ ब्राम्हण में लोहे का संबंध कृषक वर्ग से स्थापित किया गया है।
फिर क्रमशः बौद्ध ग्रंथों और संस्कृत साहित्य से इसके व्यापक चलन का बोध होता है।

प्राचीन बौद्ध ग्रंथ ‘सुत्तनिपात'( कसी भारद्वाज सुत्त) में लोहे की फाल तपाने तथा तपानुशीलन का वर्णन मिलता है।
इससे स्पष्ट होता है कि उत्तर वैदिक काल में जब इसका व्यापक चलन था तो ऋग्वैदिक काल के अन्तिम चरण से यह प्रयोग में अवश्य ही रहा होगा।
इन संहिताओं के लिपिबद्ध होने की तिथि 1000ई०पू० मानी जाती है।इनके आधार पर भारत में लोहे की तिथि 1000ई०पू० मानी जाती है।
अतः 1000 वर्ष ई० पू० से भारत में लोहे का प्रयोग मध्य क्षेत्र में होने का ज्ञान इस विवेचन के द्वारा प्राप्त होता है। तभी ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में कृषि उपज के नियंत्रण में वैश्यों का उल्लेख किया गया है। यह तभी होगा जब कृषि का स्वरूप उपकरणों के सहारे विकसित रहा होगा।

पुरातात्विक साक्ष्य:

भारत में लोहे की प्राचीनता, प्रसार और कालानुक्रम का विवेचन करते समय साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त पुरातात्विक साक्ष्यों का भी सहारा लिया जा सकता है।


पुरातत्व के द्वारा इस विषय पर क्या प्रकाश पड़ता है? यह ज्ञान का दूसरा पक्ष है। इसके लिए आवश्यक है कि क्षेत्रीय आधार पर समकालीन पुरास्थलों से प्राप्त सामग्रियों का अध्ययन किया जाय तो इस विधय में कुछ साक्ष्य प्राप्त हो सकता है।
भारत में लोहे के प्रचलन वाले प्रारम्भिक क्षेत्रों पर दृष्टिपात करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश पुरास्थल लोहे की खानों के समवर्ती क्षेत्रों में स्थित हैं। प्राचीन काल में गांगेय क्षेत्र के मैदानी भाग में भी लौह धातु के शोधन के साक्ष्य धातु मल(Iron slag) के रूप में प्राप्त हुए हैं। बिीसवीं शताब्दी के वगत दो-तीन दशकों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जो उत्खनन कार्य हुए हैं उनसे लोहे के प्रयोग की प्राचीनता के विषय में उल्लेखनीय जानकारी प्राप्त हुई है।

भारत की ऊपरी गंगा घाटी एवं दोआब, पूर्वी भारत (मध्य गंगा घाटी), मध्य भारत तथा दकन और दक्षिण भारत के इन चार क्षेत्रों से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों की समीक्षा का प्रयास किया जा रहा है। पाकिस्तान से प्राप्त साक्ष्यों का पहले ही संक्षेप में उल्लेख किया जा चुका है

इसके लिए पूरे देश को 4 पुरातात्विक क्षेत्रों में बांटा जा सकता है:

1. सिंधु और ऊपरी गंगा घाटी का क्षेत्र या उत्तरी भारत
2. मध्य निम्न गंगा घाटी के पूर्वी भारत
3. मध्य भारतीय क्षेत्र या मालवा और विदर्भ
4. दक्षिण भारतीय क्षेत्र

 

1. सिंधु और ऊपरी गंगा घाटी का क्षेत्र या (उत्तरी भारत):

बीसवीं शताब्दी के तीन दशक पहले उत्तरी काले ओपदार मृद्भाण्डों के साथ लोहे के उपकरण प्रायः सभी पुरास्थलों से प्राप्त हुए थे जिनकी प्राचीनतम तिथि 600 ई.पू. निर्धारित की गई थी। यह कहने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी कि छठी शताब्दी ई.पू. में उत्तर भारत के क्षेत्र में लोग लोहे के उपकरणों के प्रयोग से परिचित थे।
प्रश्न यह था कि यह जानकारी कब से हुई थी?

प्रारम्भ में हस्तिनापुर तथा रोपड़ के उत्खननों से चित्रित धूसर पात्र परम्परा के साथ लौह उपकरण नहीं मिले थे, इसलिए इन पुरास्थलों के उत्खाताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के साथ लोहे का प्रचलन नहीं था।
आलमगीरपुर के उत्खनन से इस पात्र-परम्परा के साथ लोहे के उपकरण भी उपलब्ध हुए। ऐसे ही साक्ष्य अहिच्छत्र, नोह, अतरंजीखेड़ा, बटेश्वर, खलोआ, अल्लापुर (मेरठ) आदि पुरास्थलों के उत्खननों से प्राप्त हुए हैं।
इस क्षेत्र में चित्रित धूसर मृद्भाण्डों (P.G.W.) वाली संस्कृति के साथ लोहे के उपकरण उत्खनन से मिले हैं। इनकी पुरास्थलों की संख्या कम से कम सात सौ पचीस(725) आंकी गई है।

चित्रित धूसर मृदभांड परम्परा के लोग चावल, जौ, गेहूं आदि खाद्यान्नों का प्रयोग करते थे। इसके लिए लोहे की बनी की, कुल्हाड़ी, कुदाल, दराँतियाँ आदि का प्रयोग किया जाता था जो उत्खनन में मिले हैं।

साथ ही चाकू, फलक, सरिया, चिमटा, कीलें, मछली पकड़ने की वंशी, तीर, भाले, कांटे, आदि की प्राप्ति से लगता हैं कि तब व्यवस्थित भोजन का बर्तन लोहे का बनाया जाता था।
ये लोग भेंड़, भैंस, सूअर, हिरण, बकरी आदि पालते थे। अपने आवास के लिए बांस और बल्ली को जोड़कर झोंपड़ा या कच्चा भवन बनाते थे।

 सम्भवतः बंगला, कील, सरिया, कांटे आदि का प्रयोग इसके निर्माण में किया जाता होगा। मिट्टी के अनेक प्रकार के बर्तन भी इस स्तर से प्राप्त हुए हैं। इनमें प्याले, तश्तरिया, भाण्डों की गणना की जा सकती है जो चाकू द्वारा बनाए जाते होंगे। खिलौने के लिए मिट्टी की पशु मूर्तियाँ मनके भी प्राप्त हुए हैं। साथ ही हाथी दांत, सीपी, कांच, सींग आदि की भी सामग्रियां मिली है। अतिरंजीखेड़ा से कपड़े के छाप बर्तनों पर अंकित मिले हैं जो वस्त्रों के चलन का बोधक है। इससे इनकी जीवन विधि का ज्ञान प्राप्त होता है।

चित्रित धूसर पात्र-परम्परा का कालानुक्रम नवीं- आठवीं शताब्दी ई.पू.(900-800 ई०पू०) रेडियो कार्बन तथ्यों के आलोक में निर्धारित किया जा सकता है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर लगभग 1000 ई.पू. के आस-पास इसका तिथिक्रम प्रस्तावित किया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि राजस्थान के नोह और जोधपुरा नामक पुरास्थलों के उत्खनन से यह विदित हुआ है कि चित्रित धूसर पात्र परम्परा की पूर्ववर्ती कृष्ण लोहित पात्र परम्परा के लोग भी लौह उपकरणों का उपयोग करते थे।

ऐसी स्थिति में उत्तर भारत के कतिपय क्षेत्रों में लोहे की प्राचीनता प्रथम सहस्राब्दी ई.पू.(1000 ई०पू०) से पहले मानी जा सकती है।

2. मध्य निम्न गंगा घाटी का क्षेत्र या (पूर्वी भारत):

इस क्षेत्र में उत्तरी काले ओपदार मृद्भाण्डों की पूर्ववर्ती कृष्ण लोहित पात्र-परम्परा के साथ लौह उपकरणों का प्रचलन मिलता है।
चिरांड, सोनपुर, ताराडीह, पाण्डु राजारधिवि और महिषादल आदि पूर्वी भारत के प्रमुख पुरास्थल है।
यहाँ (पाण्डुराजारधिवि) से लौह धातु- मल तथा धातु-शोधन में प्रयुक्त भट्टियाँ भी मिली हैं। इससे लगता है कि लोहे का मल निकल जाता था उसके बाद तैयार लोहे से विविध उपकरण बनाये जाते थे।
यहाँ से प्राप्त लौह उपकरणों में बाण-फलकों, भाला-फलकों, छेनी, कीलों आदि की गणना की जा सकती है।
इन सामग्रियों की रेडियो कार्बन तिथि 750 ई०पू० निकाली गई है यदि यह मान लिया जाय कि इतनी विकसित सामग्रियां अचानक ही निर्माण नहीं की गई होंगी बल्कि क्रमशः इनके निर्माण कौशल का विकास हुआ होगा।
इस प्रकार बहुत पहले से ही लौह का प्रचलन इस क्षेत्र में रहा होगा। अतएव 1000 वर्ष ई० पू० के लगभग ही इस क्षेत्र में भी लौह का प्रयोग प्रारम्भ हो चुका होगा।

3. मध्य भारतीय क्षेत्र या मालवा और विदर्भ :

मालवा और विदर्भ का क्षेत्र वर्तमान मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र प्रान्तों से सम्बन्धित हैं। यहाँ कई पुरास्थलों का उत्खनन किया गया। इनमें मुख्य हैं नागदा और एरण।
इसके अतिरिक्त उज्जैन, कायथा, बहाल आदि को भी ले सकते है।
इनसे ज्ञात होता है कि ताम्राश्मयुगीन सभ्यता के अन्त के बाद कृष्ण-लोहित मृदभाण्ड (Black and Red Ware) संस्कृति का विस्तार होता है। इस प्रकार के मृद्भाण्डों के साथ ही कुछ नए प्रकार के भाण्ड भी पाए जाते हैं जैसे काले पुणे भाण्ड (Black Slipped Ware), खुरदरे दानेदार सतह वाले जिसमें नीचे लाल रंग होता था और ऊपर काला (Black on Red Wafe) आदि। पर अधिक प्रचलित थे कृष्ण लोहित ही। यह ऐतिहासिक युग का प्रारम्भिक चरण है जिस समय ताम्राश्म उपकरणों के साथ लोहा जुट गया।

लोहे के उपकरण जो नागदा से पाए गए हैं उनमें विशेष उल्लेखनीय हैं– बाणाग्र, चौड़ी कुल्हाड़ी, कुल्हाड़ी की मूठ, दोनों ओर धार की कटार, कील, चाकू, भाले का अगला भाग, अंगूठी, हंसिया, छल्ला, चम्मच आदि।


इसी प्रकार के उपकरण एरण से भी प्राप्त हुए हैं। पर इनके साथ ताम्राश्म प्रकार के सूक्ष्म उपकरण भी मिले हैं।
यहाँ के लोग कच्चे ईंटों के मकानों में रहते थे। अपनी जीविका के लिए वस्त्र का निर्माण अवश्य करते होंगे तभी पक्की मिट्टी का तकुआ तथा करघे के गोल चक्के की तरह की आकृति की प्राप्ति यहाँ से होती है कांच की चूड़ियां, हाथी दांत के खिलौने, रत्नों के मनके, पक्की मिट्टी के खिलौने और गुड़िया भी बनाते थे।

अभी तक यह माना जाता था कि ताम्राश्मयुगीन संस्कृति के बाद इस क्षेत्र में ऐतिहासिक संस्कृति तत्काल प्रारम्भ हुई और उसमें लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। पर इन्ही क्षेत्रों के अनेक पुरास्थलों के उत्खनन से अब यह सिद्ध होता है कि ताम्राश्म संस्कृति और ऐतिहासिक संस्कृति के कालक्रम के बीच में कुछ अन्तराल था। इसी में लौह प्रयोक्ता संस्कृति विकसित थी।

एम० आर० वनर्जी ने इनकी तिथि 800 ई० पू० के आस-पास बताया है पर यहाँ से प्राप्त लौह सामग्रियों के स्तर से मिलने वाली अन्य सामग्रियों के रेडियों कार्बन तिथियों के तीन निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं― ई० पू० 1140+110 (TF-326); ई० पू० 1270+110 (TF-324) तथा ई० पू० 1239+71 (P-525), इन आधारों पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि किसी भी स्थिति में यहाँ लोहे का प्रयोग  1100 ई० पू० के बाद नहीं माना जा सकता। यही बात डी० के० चक्रवर्ती भी कहते हैं कि यहाँ से प्राप्त लौह उपकरणों को अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा पहले का माना जा सकता है।
यों तो इसी के पास राजस्थान के अहाड़ नामक पुरास्थल के उत्खनन में प्रथम काल के द्वितीय स्तर से लोहा और उसका धातुमल मिला है। यह एक स्थल से नहीं बल्कि पांच निक्षेपों से प्राप्त हुआ है इस आधार पर इस क्षेत्र में लौह प्रयोक्ता संस्कृति का काल लगभग 1500 ई० पू० मान जा सकता है।

4. दक्षिण भारत:

आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल की गणना सामान्यतः दक्षिण भारत में की जाती है। दक्षिण भारत की वृहत्पाषाण साड़ियों के उत्खनन से लोहे के उपकरण मिलते रहे हैं। बृहत्पाषाणिक गाड़ियों में बनावट की दृष्टि से पर्याप्त विविधता दृष्टिगोचर होती है परन्तु लोहे का ज्ञान इस संस्कृति के महत्त्वपूर्ण लक्षणों में से एक है।

लगभग तैंतीस प्रकार के लोहे उपकरणों का निर्माण दक्षिण भारत की बृहत पाषाणिक संस्कृति के लोग करते थे।
उल्लेखनीय लौह उपकरण-प्रकारों में चिपटी कुल्हाड़ियों, फावड़ों (Spades), गैंती (Hoe), हँसियों, बसूलों, छेनियों, भाले, तलवारों, किनारों, बाण फलकों, चाकुओं, चौपाइयों, त्रिशूल तथा घोड़े की लगाम और दीपकों को लटकाने वाले आंकड़ों आदि की गणना की जा सकती है।
प्रारम्भ में दक्षिण भारत की बृहत पाषाणिक संस्कृति की प्राचीनता के विषय में तरह-तरह के मत व्यक्त किये गए थे।
मार्टीमर ह्रीलर ने इस संस्कृति की प्राचीनतम सीमा रेखा तृतीय-द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व निर्धारित किया था। उस समय तक मौर्य साम्राज्य स्थापित हो चुका था और दक्षिण भारत के लोगों को उत्तर भारत के सम्पर्क के फलस्वरूप लौह तकनीक की जानकारी हो चुकी थी।

    विगत दो दशकों में दक्षिण की बृहत पाषाणिक संस्कृति के कालानुक्रम के विषय में नवीन साक्ष्य प्रकाश में आए हैं जिनके आलोक में ऐसा प्रतीत होता है कि इस संस्कृति की प्राचीनतम सीमा रेखा 1000 ई.पू. के आस-पास खींची जा सकती है।


कर्नाटक प्रदेश के धारवाड़ जिले में स्थित हल्लूर नामक पुरास्थल के वृहत्पाषाणिक स्तरों की जो रेडियो कार्बन तिथियाँ आई हैं, उसे इंगित होता है कि वृहत पाषाणिक संस्कृति का कालानुक्रम लगभग 1000 ई.पू. निर्धारित किया जा सकता है।
तमिलनाडु के पैय्यमपल्ली नामक पुरास्थल से सम्बन्धित रेडियो कार्बन तिथियां वृहत्पाषाण संस्कृति का समय सातवीं शताब्दी(700) ई.पू. निर्धारित करती हैं। इस प्रकार प्रथम सहस्राब्दी ईसा पूर्व (1000ई०पू०) तक दक्षिण भारत की बृहत पाषाणिक संस्कृति अस्तित्व में आ चुकी थी और उसके साथ ही लौह तकनीक का प्रचलन हो चुका था।

विवेचन : भारत में लोहे का प्रयोग सर्वप्रथम कब किया गया

उत्तरी, पूर्वी, मध्य और दक्षिण भारत में लौह तकनीक के प्रचलन के पुरातात्त्विक साक्ष्यों के संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रथम सहस्राब्दी ईसा पूर्व के प्रारम्भिक चरण में लोहे के उपकरणों का प्रचलन इन उपर्युत सभी क्षेत्रों में हो गया था।
उपलब्ध साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में भारत में लौह तकनीक के प्रसार से सम्बद्ध अनेक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ खड़े होते हैं। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या दक्षिण भारत में लोहे की जानकारी उत्तर भारत से हुई ?
उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता है। दक्षिण भारत के लोहे के उपकरण, उत्तर भारत के लौह उपकरणों से किंचित् भिन्नता रखते हैं इसलिए कतिपय विद्वानों ने यह संभावना व्यक्त की है कि इन दोनों के प्रेरणा स्रोत भिन्न भिन्न रहे होंगे।
उपर्युक्त मत को स्वीकार कर लेने पर कई अन्य प्रश्न उठ खड़े होते हैं। यदि दक्षिण भारत ने लोहे का प्रयोग उत्तर भारत से नहीं सीखा तो कहाँ से सीखा होगा? धातुओं के प्रयोग के सन्दर्भ में पुरातत्त्वविद् प्रायः यह नहीं मानते है कि हर क्षेत्र में लोगों ने अपने अपने ढंग से इनका प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया था। धातु-शोधन एक जटिल प्रक्रिया है। इसके प्रसार के लिए प्रायः यही माना जाता है कि किसी एक क्षेत्र में किसी धातु का प्रचलन सर्वप्रथम प्रारम्भ हुआ होगा।


उस प्रारम्भिक क्षेत्र के सम्पर्क में आने पर दूसरे क्षेत्रों में भी यह जानकारी फैली होगी। प्राप्त पुरातात्त्विक साक्ष्य प्रायः यह संकेत करते हैं कि लोहे के ज्ञान का प्रारम्भ सर्वप्रथम एशिया माइनर के क्षेत्र में हुआ। दुनिया के अन्य क्षेत्रों ने लगभग 1200 ई.पू. में हित्ती साम्राज्य के विघटन के पश्चात् लोहे के प्रयोग की जानकारी प्राप्त किया।
ऐसी स्थिति में यदि हम यह कल्पना करें कि दक्षिण भारत की बृहत्पाषामिक संस्कृति के लोगों ने उत्तर भारत के अतिरिक्त किसी अन्य क्षेत्र से लौह तकनीक के विषय में जानकारी प्राप्त की थी, तब एक यह समस्या उठ खड़ी होती है कि वह ज्ञान उन्हें क्या स्थल मार्ग से अथवा जल-मार्ग से प्राप्त हुआ था? यदि यह मान लिया जाए कि उन्हें लौह तकनीक की जानकारी स्थल मार्ग से प्राप्त हुई थी, तो निश्चय ही उत्तर भारत में लोहे के प्रारम्भ की कहानी दक्षिण भारत से पुरानी होगी।
लेकिन यदि यह स्वीकार किया जाये कि वह ज्ञान जल-मार्ग से मिला था तो फिर भारत के पश्चिम समुद्र तटीय क्षेत्रों से प्राप्त बृहत पाषाणिक साड़ियों की तिथियाँ पूर्वी समुद्र तटीय क्षेत्रों की साड़ियों से पुरानी होनी चाहिए। यह ध्यान देने योग्य है कि अभी तक यह बात सिद्ध नहीं की जा सकी है कि केरल से बृहत्पाषाणिक समाधियों के जो साक्ष्य मिले हैं, वे आन्ध्र, कर्नाटक और तमिलनाडु से प्राप्त बृहत्पाषाणिक साड़ियों से कालानुक्रम की दृष्टि से प्राचीनतर हैं।
यदि भविष्य में उपलब्ध होने वाले साक्ष्य ऐसी स्थिति सिद्ध कर देते हैं तो इस समस्या पर नए सिरे से विचार करना होगा।

निष्कर्ष: Lohe ki prachinta

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि उपलब्ध पुरातात्त्विक साक्ष्य यह इंगित करते हैं कि उत्तर और दक्षिण भारत के क्षेत्रों में 1000 ईसा पूर्व के आस-पास लोहे का प्रचलन हो गया था। प्रारम्भ में कतिपय पुराविदों का ऐसा अनुमान था कि भारत में लोहा और उत्तरी काले ओपदार मृद्भाण्डों का कई क्षेत्रों में साथ-साथ प्रचलन हुआ था परन्तु बीसवीं शताब्दी विगत दशकों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जो पुरातात्त्विक अन्वेषण तथा उत्खनन हुए हैं उनसे यह ज्ञात होता है कि पूर्वी और मध्य भारत के क्षेत्रों में लोहे का प्रचलन निश्चय ही उत्तरी काले ओपदार मृद्भाण्डों से बहुत पहले ही हो गया था।

प्रारम्भ में लौह धातु का प्रयोग अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण के लिए ही मुख्यतः किया जाता था। चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के साथ लोहे के जो उपकरण मिले हैं उनका उपयोग सीमित कार्यों के लिए ही किया जा सकता था। इसी प्रकार वृहत्पाषाण समाधियों के निर्माताओं ने भी अपनी तकनीकी पटुता का उपयोग पाषाण की समाधियों के निर्माण में ही किया है इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मात्र तकनीकी जानकारी से ही आर्थिक स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं हो जाता है। इसके लिए उपयुक्त राजनीतिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि की भी आवश्यकता पड़ती है।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व के कुछ पहले से उत्तर भारत में परिप्रेक्ष्य बदलने लगा था। उस समय लोहे का प्रयोग अपेक्षाकृत विस्तृत पैमाने पर किया जाने लगा था। लौह उपकरण-प्रकारों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि परिलक्षित होने लगी थी।
कुछ पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने ऐसी संभावना व्यक्त की है कि प्राचीन भारत की “द्वितीय नगरीय क्रान्ति’ जो गौतम बुद्ध के आविर्भाव के समय गंगा घाटी में सम्पन्न हुई, वह लौह तकनीक के प्रसार पर ही प्रधानरूपेण आधारित थी।
लौह-धातु के शोध की तकनीक के दक्षिण बिहार के लौह-अयस्क (Iron Ores) से समृद्ध क्षेत्रों में पहुँचने के बाद व्यापक पैमाने पर लौह उपकरणों का निर्माण तथा प्रयोग संभव हुआ।

कृषि-कार्य में लोहे के उपकरणों के प्रयोग के फलस्वरूप मध्य गंगा घाटी की कछारी मिट्टी वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक खेती करना संभव हो सका। गांगेय क्षेत्र के सघन वनों को साफ करके धान, गन्ना, कपास, गेहूँ तथा जौ आदि की खेती बड़े पैमाने पर की जाने लगी।
कृषि ही नहीं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इस काल में लौह तकनीक की प्रधानता वस्तु परिलक्षित होने लगी थी। लौह तकनीक के व्यापक प्रचलन का प्रभाव कृषि-कार्य में ही नहीं बल्कि धरेलू उद्योग-धन्धों और वास्तु कला पर भी पड़ा। ताम्र तथा रजत के बने हुए आहत तथा लेख रहित ढले सिक्कों के प्रचलन के फलस्वरूप व्यापार-वाणिज्य की विशेष प्रगति हुई।

छठी शताब्दी ई.पू. में उत्तरी भारत में ‘षोडश महाजनपद’ थे, जिनमें से दस गंगा घाटी में तथा छः में गंगा घाटी के बाहर स्थित थे। इनकी राजधानियाँ तत्कालीन नगरों अथवा कस्बों के रूप में थीं।
चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, वाराणसी तथा कौशाम्बी की गणना छः बड़े नगरों के रूप में बौद्ध ग्रंथ ‘दीर्घ निकाय’ के ‘महापरिनिब्बान सुत्त’ में की गई है।
ई. डब्ल्यू. हॉकिन्स के अनुसार पालि साहित्य में छठीं शताब्दी के साठ नगरों और कस्बों का उल्लेख मिलता है। ये नगर परिखा’ (Moat) और ‘प्राचीर’ (Rampart) से घिरे हुए होते थे। नगरों में भवनों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग होने लगा था। इस प्रकार यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि गंगा घाटी में ‘नगरीय क्रान्ति’ के पीछे लौह तकनीक का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा होगा।

भारत में लौह काल : First use of iron in india

भारत में लोहे के प्रचलन (First use of iron in india) को उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है :

1. प्रथम उपकाल (1300-1000 ई०पू०) जब लौह उपकरण अत्यल्प मात्रा में मिलते हैं जैसे पाकिस्तान में पीराक और कर्नाटक में हल्लूर ।
2. द्वितीय उपकाल (1000-800 ई०पू०) इस काल में लोहे के न केवल पर्याप्त उपकरण मिलते हैं बल्कि गांगेय क्षेत्र के सम्पूर्ण विस्तृत भूभाग पर मिलते हैं।
3. तृतीय उपकाल (800-500 ई०पू०) इस काल में भारत के अधिकांश क्षेत्रों में और पर्याप्त संख्या में लौह उपकरण मिलने लगते हैं।

धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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