सिन्धु संस्कृति के अवसान के उपरान्त भारत में वैदिक संस्कृति की स्थापना हुई।
कालानुक्रमिक दृष्टि से देखें तो सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के बाद पश्चिमोत्तर भारत में एक ग्रामीण संस्कृति का जन्म हुआ जिसे वैदिक संस्कृति कहा गया। चूंकि इस संस्कृति के प्रवर्तक आर्य थे इसलिए इसे कभी कभी आर्य संस्कृति भी कहा जाता है।
अब यदि बात करें आर्यों (Origin of Aryans) के बारे में तो सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि आर्य कौन थे?
आर्य कौन थे – Origin of Aryans
सामान्यतः ऐसा कहा गया है कि जिन विदेशी आक्रांताओं ने सैंधव नगरों को ध्वस्त किया था वे आर्य ही थे। स्वयं ऋग्वेद में इस संघर्ष का अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख मिलता है। किंतु अब सैंधव नगरों पर आर्य आक्रमण का सिद्धांत प्रमाणाभाव में खोखला सिद्ध हो चुका है।
मूलतः देखा जाय तो आर्य महज एक शब्द है तथा इसका प्रयोग प्राचीन आर्यावर्त्त में निवास करने वाले लोगों द्वारा अपने पदनाम हेतु किया जाता था।
यदि बात करें इस (आर्य) शब्द की तो इसे वैदिक कालीन लोगों द्वारा एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता था। साथ ही इसके अतिरिक्त एक अन्य विशेषण शब्द दास अथवा दस्यु भी प्रयुक्त किया जाता था।
दस्यु कौन थे?
वैदिक संस्कृति में आर्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों को दास या दस्यु कहा जाता था।
ऋग्वेद में दास-दस्युओं को ‘अकर्मन्’ (वैदिक क्रियाओं को न करने वाले), ‘अदेवयुः’ (वैदिक देवताओं को न मानने वाले), ‘अयज्वन्’ (यज्ञ न करने वाले), ‘अन्यव्रत’ (वैदिकेतर औरतों का अनुसरण करने वाले), ‘मृद्धवाक’ (अपरिचित भाषा बोलने वाले), ‘अब्रह्म्’ (श्रद्धा और धार्मिक विश्वास से रहित) एवं ‘व्रत’ (व्रतों से रहित) कहा गया है। दास-दस्युओं को लिङ्गपूजक (शिश्न देवा) कहा गया है।
आर्य शब्द का अर्थ :
इस संस्कृति के संस्थापक ‘आर्य’ शब्द का मूलार्थ है ‘श्रेष्ठ’ अथवा ‘उच्च वंशीय’ ।
कुछ विद्वान आर्य शब्द को ‘अर’ शब्द से व्युत्पन्न मानते है जिसका अर्थ है उत्पादन सामर्थ्य। ‘अर’ से सम्पन्न लोग ‘अर्य’ तथा उनका समूह आर्य कहा गया।
अन्य संभावित अर्थ की बात करें तो इसके अतिरिक्त ‘आदरणीय’, ‘आदर्श व्यक्ति’, ‘सहृदयवान’, ‘आस्तिक’, सद्गुणी, इत्यादि शब्द भी आर्य शब्द के अर्थ माने जाते हैं।
योग वाशिष्ठ के अनुसार “जो सम्यक् ढंग से अपने कर्तव्यों का आचरण और अकरणीय का निषेध करता हुआ अपने स्वाभाविक चित्र में निष्ठ रहता है, वह ‘आर्य’ है। जो आचार एवं शास्त्रानुकूल, शुद्धचित्त यथास्थिति व्यवहार का संग्रहण करता है, वह ‘आर्य’ है।”
कर्त्तव्यमाचरन् कामकर्त्तव्यमनाचरन्।
तिष्ठति प्राकृताचारो यः स आर्य इति स्मृतः।।
यथाचारं यथाशास्त्रं यथाचित्तं यथास्थितम्।
व्यवहारमुपादत्ते यः स आर्य इति स्मृतः ।।
…………..योग वाशिष्ठ
आर्यों का प्राचीनतम इतिहास उनके आद्य ग्रन्थ वेदों से ज्ञात होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सिन्धु सभ्यता के बाद जो संस्कृति भारत मे पनपी उसके विषय मे जानकारी का एक मात्र स्रोत वेद है इसी लिए यह काल वैदिक संस्कृति अथवा वैदिक काल के नाम से जाना जाता है।
वेदों की भाषा भारोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध मानी जाती है अस्तु, यह जानना अपेक्षित हो जाता है कि भारोपीय भाषा के पूर्वज कौन थे तथा वे किस मूल स्थान से सम्बन्धित थे। भारत में वैदिक संस्कृति के संस्थापक आर्यों का प्राचीनतम् ग्रंथ ऋग्वेद है। इसमें उनके विरोधियों को ‘दास’ एवं ‘दस्यु’ कहा गया है तथा उनकी पर्यटनशील प्रकृति को आलोकित किया गया है वे कृषि-कर्म एवं पशुपालन में कुशल थे तथा दूध, मांस, गेहूँ, जौ आदि खाते थे। वे युद्ध-प्रिय लोग थे, युद्ध में घोड़ों तथा लोहे के प्रयोग में दक्ष थे।
ज्ञातव्य है कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों से आर्यो की प्रवृत्ति बहुत कुछ भिन्न थी। अतः यह प्रश्न सहजतया उठने लगता है कि आर्य कौन थे तथा उनका मूल निवास-स्थान कहाँ था?
आर्य कहाँ से आये थे : आर्यों का मूल निवास स्थान
आर्यों का मूल निवास स्थान का सम्यक् परिज्ञान आज भी नहीं हो सकता है। विद्वानों ने इस गूढ़ प्रश्न को सुलझाने में जिन चार प्रमुख साधनों का अवलम्ब लिया है―
वे हैं- भाषा विज्ञान, पुरातत्व, नस्ल (Racial Anthropology) तथा शब्दार्थ-भाषाशास्त्र (Sociology)।
इन साधनों की गवेषणात्मक समीक्षा के उपरान्त आर्यों का मूल निवास स्थान (Origin of Aryans) के सम्बन्ध में विद्वानों के निम्नलिखित मत अब तक प्रकाश में आ चुके हैं :
1. आर्यों का मूल निवास स्थान ‘यूरोप’- Origin of Aryans
कतिपय विद्वान यह मानते हैं कि सप्त सैन्धव प्रदेश में सर्वप्रथम आकर बसने वाले आर्य मूलतः यूरोपीय आर्यों की एक उपशाखा थे।
16वीं शताब्दी के फ्लोरेन्स निवासी प्रसिद्ध भाषाविद् फिलिप्पो शेट्टी (Filippo Sassetti) ने संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में प्राप्य समता के आधार पर भारतीय आर्यों को यूरोपीय मूल से जोड़ने का प्रयास किया था।
साथ ही तदनुपरांत 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक के लगभग सर विलियम जोन्स (Sir William Jones) ने ग्रीक, लैटिन, गोथिक, केल्टिक, फारसी तथा संस्कृत आदि भाषाओं के अधिकांश शब्दों का उद्गम स्रोत एक मानते हुए यह प्रतिपादित किया कि इन सभी भाषाओं के जनक आर्य थे, जिनका मूल निवास स्थान यूरोप महाद्वीप में था । इसी प्रकार विद्वानों ने अपनी-अपनी खोजों के आधार पर इस मत की पुष्टि की है।
वैदिक वाङ्मय की भाषा एवं प्राचीन ईरानी ग्रन्थ अवेस्ता की भाषा के शब्दों में विपुल समानता को देखते हुए कतिपय विद्वानों ने भारोपीय भाषाओं को किसी एक मूलस्रोत से निस्सृत मानना तर्कसंगत बताया है। इस प्रकार की शब्दगत समानता के कतिपय प्रमुख उदाहरणों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं:
संस्कृत के पितृ, भ्रातृ, मातृ क्रमशः ईरानी में पितर, भ्रातर, मातर तथा यूनानी में पेटर, फ्रेटर, मेटर व लैटिन के पेटर, फ्रेटर, मेटर आदि शब्द समान हैं।
उपर्युक्त शब्दों में प्राप्य साम्य यह इंगित करता है कि भारत-यूरोपीय (भारोपीय) भाषाओं का उद्गम स्रोत एक था। ऐसा लगता है कि या तो भारोपीय भाषाभाषी एक ही जाति एवं नस्ल के लोग रहे होंगे अथवा वे किसी स्थल पर साथ-साथ अतीत काल में किसी समय रह चुके होंगे। जो भी रहा हो, उपर्युक्त भाषागत साम्य के आलोक में विद्वानों का एक वर्ग यह निष्कर्ष निकालने में सफल रहा है कि वैदिक आर्य, प्राचीन पारसीक, यूनान, इटली, जर्मनी, फ्रांस, तथा रूस आदि भारोपीय भाषा-भाषी जातियों के पूर्वज संभवतः मूलतः एक ही कुल-परिवार के सदस्य रहे होंगे।
योरप को आर्यों का आदि देश मानने वाले विद्वानों के तर्क दो आधारों पर निर्भर है ―
(1) आज भी इंडो-यूरोपीय भाषा-परिवार के शब्द और मुहाविरे जितने यूरोप की भाषाओं में विद्यमान हैं उतनी एशिया की भाषाओं में नहीं। इनसे अनुमान यही होता है कि कदाचित् योरप का ही कोई देश आर्यों का आदि-देश था, एशिया का नहीं।
(2) यूरोप की लिथ्यूनियन भाषा ही समस्त इन्डो-यूरोपीय भाषा-परिवार अत्यधिक अपरिष्कृत है और इसलिए अत्यधिक प्राचीन लगती है। अतः लिथ्यूनिया अथवा उसके समीप का कोई यूरोपीय देश आर्यों का आदि देश रहा होगा।
परन्तु अब प्रश्न यह होता है कि आखिर यूरोप का कौन-सा देश आर्यों का आदि देश था?
इस सम्बन्ध में विद्वानों ने अपने भिन्न-भिन्न मत प्रतिपादित किये हैं जो निम्न प्रकार हैं-
(i) जर्मनी:- आर्यों का मूल निवास स्थान ? Origin of Aryans
जर्मनी को आर्यों का आदि-देश मानने वाले विद्वानों में पेनका, हर्ट(hirt) आदि प्रमुख हैं। उनके तक इस प्रकार हैं―
(1) पेन्का नामक विद्वान् की धारणा है कि भूरे बालों के अतिरिक्त प्राचीनतम आयों की जो अन्य शारीरिक विशेषताएँ थीं वे जर्मनी-प्रदेश के निवासी स्कैंडिनेवियन (Scandinavians) में पाई जाती हैं। अतः स्कैंडिनेविया को ही आर्यों का आदि-देश समझना चाहिए।
हर्ट मोदय ने भी स्कैण्डिनेविया को ही आर्यों का आदि-देश माना है, परन्तु उनके तर्क का आधार भाषा-सम्बन्धी है। उनका कथन है कि ‘मध्य जर्मनी में स्थित स्कैन्डेनीविया नामक स्थान कभी भी विदेशी आधिपत्य में नहीं रहा तो भी यहाँ के निवासी भोरोपीय भाषा बोलते थे। इससे सिद्ध होती है कि भारोपीय भाषा का मूल स्थान यहीं था।’
(2) कुछ पूर्वैतिहास मृद्भाण्ड मध्य जर्मनी में मिले हैं। कुछ विद्वान इन्हें प्राचीनतम आर्यों की कृतियाँ मानते हैं और इन्हीं के आधार पर मध्य जर्मनी को आर्यों का आदि-देश बताते हैं।
(3) पश्चिम बाल्टिक सागर के तट से सर्वप्राचीन एवं अति साधारण वस्तुएं पाई गयी हैं। यहाँ से प्राप्त पाषाणोपकरण अत्यन्त कलापूर्ण एवं तकनीकी दृष्टि से उत्तम कोटि के हैं। ये सब भारोपीयों की कृतियाँ हैं। मध्य जर्मनी से भी प्रागैतिहासिक काल के कुछ मृद्भाण्ड पाये गये हैं। इन्हें भी प्राचीन आर्यों से ही सम्बन्धित किया गया है।
(4) आर्यों की शारीरिक विशेषतायें भी उन्हें जर्मनी का आदिवासी बताती हैं। जैसे उनकी एक प्रमुख जातीय विशेषता भूरे बालों का होना है।
यूनानी पौराणिक परम्पराओं में उनके देवता अपोलो के बाल भूरे थे। इसी प्रकार प्लूटार्क कैटो और सुला नामक रोमन शासकों को भी भूरे बालों वाला बताता है। इन उदाहरणों से अनुमान होता है कि प्राचीन आर्यों के बाल भूरे होते हैं।
आज भी जर्मनी के लोग भूरे बालों वाले पाये जाते हैं। अतः कदाचित् प्राचीनतम आर्य जर्मनी के ही निवासी थे।
आलोचना:-
परन्तु यदि उपर्युक्त तर्कों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाय तो बड़ी आसानी से उनका खण्डन हो जायेगा। क्योंकि उपर्युक्त सभी तर्को में शिथिलता है।
एकमात्र भाषाई आधार पर स्कैन्डेनीविया को आर्यों का मूल स्थान नहीं माना जा सकता।
प्रथमतः भाषाओं का आयात निर्यात होता रहता है। द्वितीयतः किसी स्थान की भाषा का परिवर्तित न होना उसके बोलने वालों की प्रगतिहीनता तथा संकीर्णता को भी सूचित करता है न कि उसकी प्राचीनता को।
बाल्टिक सागर तथा मध्य जर्मनी से मिलते-जुलते उपकरण तथा मृद्भाण्ड कुछ अन्य स्थानों जैसे दक्षिणी रूस, पोलैण्ड, त्रिपोल्जे, न्यूजीलैंड आदि से भी मिलते हैं। कुछ उपकरण जर्मनी के उपकरणों से भी अधिक प्राचीन हैं।
दीर्घकालीन अंतर्जातीय रक्तसम्मिश्रण के पश्चात् किसी भी मानव-वर्ग में अपनी सहज शारीरिक विशेषताओं का अक्षय अथवा अपरिवर्तित रहना सम्भव नहीं है। अतः आज का एकमात्र शरीर-रचना के आधार पर किसी जाति को प्राचीनतम आर्यों के वंशज कह देना उपयुक्त नहीं है।
जहाँ तक भूरे बालों का प्रश्न है यह एक मात्र जर्मनी के निवासियों की ही विशेषता नहीं है। पतंजलि ने भारतीय ब्राह्मणों को भी भूरे बालों वाला बताया है, तो क्या हम केवल इसी आधार पर भारत को आर्यों का आदि देश स्वीकार कर सकते हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि यूनानियों और रोमनों की दृष्टि में भूरे वालों वाला व्यक्ति विशेष कौतुक का विषय था। कदाचित् इस विचित्रता के कारण ही उनका ध्यान भूरे वालों वाले व्यक्ति की ओर आकर्षित हुआ। अतः उनके उल्लेखों में भूरे बाल जातीय गुण नहीं वरन जातीय अपवाद ही थे।
(ii) क्या आर्यों का आदि देश ‘हंगरी’ था ? Origin of aryans
गाइल्स महोदय का मत है कि आर्यों का आदि निवास स्थान हंगरी अथवा डेन्यूब नदी की घाटी था।
उनका यह मत भाषा विज्ञान के ऊपर निर्भर है।
उन्होंने इंडो योरोपीय परिवार की विभिन्न भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् यह निश्चित किया कि प्राचीनतम आर्यों के आदि-देश की भौगोलिक अवस्था क्या थी, वे किन-किन अन्नों, फलों, वनस्पतियों तथा पशु-पक्षियों से परिचित थे। इस आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि प्राचीनतम आर्य न तो किसी द्वीप पर रहते थे और न किसी समुद्रीय प्रदेश में ।
कदाचित् वे समुद्र से भलीभाँति परिचित भी न थे। अनुमानतः का आदि निवास स्थान तो ऐसे स्थान पर था जहाँ पर्वत, नदियाँ, तथा झील आदि थे । सम्भवतः यह देश शीतोष्ण कटिबंद्ध में था। इनके उत्पादित अन्नों में गेहूँ और जी की प्रधानता थी।
आर्यों के परिचित पशुओं में गाय, बैल, भेड़, घोड़ा, कुत्ता, हिरण और भालू विशेष उल्लेखनीय हैं। हाथी, वाघ, गिद्ध और बतख से वे अपरिचित थे। गाइल्स महोदय का निष्कर्ष है कि हंगरी का देश अथवा डेन्यूब-प्रदेश ही एक ऐसा भू-खण्ड है जिसमें ये सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं। अतः यही भूखण्ड आर्यों का आदि-निवास-स्थान रहा होगा कालान्तर में ये आर्य डारडेनलीज के मार्ग से एशिया माइनर में प्रविष्ट हुए और वहाँ से मेसोपोटामिया तथा ईरान होते हुए भारत पहुँचे। यही कारण है कि समस्त देशों में आर्य-इतिहास के अति प्राचीन अवशेष मिले हैं।
खण्डन/आलोचना:-
परन्तु गाइल्स महोदय के तर्क और निष्कर्ष असंदिग्ध नहीं हैं। एकमात्र कतिपय शब्दों के आधार पर कल्पित आर्य-प्रदेश और आर्य-जीवन की रूप-रेखा नितान्त भ्रामक है। यह नहीं कहा जा सकता कि विश्व में हंगरी ही एक ऐसा सम्पूर्ण देश है जो भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से आर्यों के आदि-देश की सम्पूर्ण विशेषताओं से परिपूर्ण है।
पुनः यह भी सम्भव नहीं है कि शताब्दियों पूर्व हंगरी की भौगोलिक एवं वानस्पतिक अवस्था वही रही हो जो आज है।
इसके अतिरिक्त आर्यों के आदि-देश का प्रश्न इतना विवादग्रस्त है कि वह एकमात्र भाषा-विज्ञान के आधार पर हल नहीं किया जा सकता। उसके लिए इतिहास, पुरातत्व, शरीर-रचना-शास्त्र और शब्दार्थ-विकास-शास्त्र की सहायता भी अपेक्षित है।
(iii) आर्यों का मूल निवास स्थान ‘दक्षिणी रूस’ ?
रूस-कतिपय पुरातत्वीय एवं भाषाशास्त्रीय सामग्रियों के आधार पर मेयर, पीक तथा गार्डन चाइल्ड्स ने दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया है।
दक्षिणी रूस में किये गये उत्खनन से लगभग उसी प्रकार को संस्कृति के अवशेष मिले हैं जो आर्यों के समय में थे । यहाँ की खुदाई से अश्व का अवशेष भी मिला है जो आर्यों का प्रिय पशु था।
पिगट महोदय के अनुसार आर्य दक्षिणी रूस के एक विस्तृत प्रदेश पर निवास करते थे। दक्षिणी रूस के त्रिपोल्जे से लगभग तीन हजार ईसा पूर्व के मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर नेहरिंग ने दक्षिणी रूस को आर्यों का आदि-देश बताया है। भारोपीय तथा मध्य रुस की फिनो-उग्रीयन (Finno-Ugrian) भाषाओं में आश्चर्यजनक समता दिखाई देती है जो इस बात की सूचक है कि भारोपीय तथा मध्य रूस की जाति में प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक सम्पर्क था।
अतः उक्त विद्वानों के अनुसार दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया जा सकता है।
आलोचना अथवा खण्डन-
गाइल्स महोदय यह स्वीकार करते हैं कि रूस का यह प्रदेश अनुमानित प्राचीनतम आर्यों के देश की भाँति स्टेप्स है और शीतोष्ण कटिबन्ध में भी स्थित है, परन्तु फिर भी इस क्षेत्र में वे सभी भौगोलिक और वानस्पतिक विशेषताएँ नहीं हैं जो तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के आधार पर आर्यों के आदि-देश में होनी चाहिए।
2. आर्यों का प्रारंभिक स्थान ‘एशिया’:
प्रो० मैक्समूलर, जे० डी० रोड, एडवर्ड मेयर, ब्रैण्डेस्टीन, सिचरदर, के० एम० पणिक्कर तथा बी० के० घोष प्रभृति विद्वानों के अनुसार आर्य यूरोप महाद्वीप के मूल निवासी न होकर एशिया महाद्वीप के निवासी प्रतीत होते हैं। जो विद्वान एशिया को आर्यो का मूल देश में अधिक योक्तिक समझते हैं, उनका एतत्सम्बन्ध में निम्न तर्क अवलोक्य हैं:
1. आर्यों के प्रचीनतम ग्रन्थ-जेन्द अवेस्ता एवं ऋग्वेद, क्रमशः ईरान एवं भारत में लिपिबद्ध एवं प्राप्त हुए हैं। इन दोनों ग्रन्थों में विषयवस्तु तथा भाषा में बड़ी समानता मिलती है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्य एशियाई मूल के थे, जो क्रमशः ईरान और भारत देश में प्रसरित थे इनके पूर्वज भी इसी महाद्वीप के निवासी थे , जो संभवतः इन दोनों देशों के पास (मध्य एशिया) में कहीं विकसित रहे होंगे।
2. इंडो-यूरोपीय परिवारों की भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनतम ऋग्वेद में तथा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में आर्यों ने जिस प्राकृतिक परिवेश, पर्यावरण, भौगोलिक अवस्था वानस्पतिक सम्पदा का वर्णन किया है, वे यूरोप की तुलना में एशिया महाद्वीप में अधिक सुलभ हैं। अस्तु, आर्यों का मूल देश एशिया में ही रहा होगा।
3. आर्यों के प्राचीनतम लेख यूरोप में न मिलकर एशिया में ही प्राप्त हुए हैं। एशिया माइनर के बोगजकोई नामक पुरास्थल से प्राप्त प्रथम आर्य-अभिलेख की तिथि अनुमानतः 1440 ई०पू० है। इसमें इन्द्र, वरुण, मित्र आदि ऐसे देवताओं का नामोल्लेख मिलता है, जो वैदिक साहित्य में आर्यों के प्रमुख देवता के रूप में वर्णित हैं।
4. इसी प्रकार, बोगज कोई से प्राप्त एक अन्य अभिलेख में पंज, तेर, सत्ता, एक आदि संख्याओं का उल्लेख मिलता है, जो वैदिक युगीन संख्याओं के समान होने के कारण उल्लेखनीय है।
5. मिस्र देश के एल अमर्ना नामक पुरास्थल से उत्खनन के परिणामस्वरूप कतिपय मृत्तिका-निर्मित ऐसी मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर अर्जविय, अर्तमन्य, यशदत्त शुर्तन आदि बेबीलोनिया के प्राचीन देशों के नाम उत्कीर्ण मिलते हैं। विद्वानों के अनुसार ऐसे ही नाम वैदिक साहित्य में भी प्राप्य हैं। संयोगवश इस प्रकार की मुहरें अथवा लेख अभी तक यूरोप में नहीं मिले हैं, अस्तु, आर्यों का मूल देश एशिया स्वीकार करना ही यथोचित प्रतीत होता है।
(i) आर्यों का आदि देश ‘बैक्ट्रिया’:-
एशिया को आर्यों का आदि-देश मानने वाले विद्वानों में सर्वप्रथम थे जे जी. रोड महोदय। इन्होंने 1820 ईसवी में ईरानी ग्रन्थ जेन्द अवेस्ता में वर्णित विषय-वस्तुओं, भौगोलिक विवरणों तथा वैदिक साहित्य में उल्लिखित विषयों के आलोक में यह मत प्रतिपादित किया है किया कि प्राचीनतम आर्य वैक्ट्रिया के निवासी थे। यहीं से वे पूर्व, पश्चिम और दक्षिण की ओर गये थे।
पॉट महोदय ने भी इस मत का समर्थन किया और अपने पक्ष में यह अतिरिक्त तर्क उपस्थित किया कि ऐतिहासिक युग में भी अनेक जातियाँ मध्य एशिया से ही पूर्व और पश्चिम की ओर गई थीं। अतः यही बात यदि पूर्वैतिहासिक काल में भी हुई हो तो आश्चर्य नहीं।
(ii) आर्यों का मूल निवास ‘मध्य एशिया’:-
प्रो० मैक्सूलर तथा कतिपय अन्य विद्वानों की धारणा है कि आर्यों का मूल देश मध्य एशिया था।
सन् 1859 ई. में प्रसिद्ध विद्वान् मैक्समूलर ने पुनः मध्य- एशिया को आर्यों का आदि-देश घोषित किया।
वैदिक साहित्य एवं ईरानी प्राच्य-ग्रन्थ ‘जेन्द अवेस्ता’ में प्राप्य भाषा एवं वर्णनों की तुलनात्मक समीक्षा के आधार पर मैक्समूलर महोदय ने यह मत प्रतिपादित किया है कि संभवतः आर्य मूलतः मध्य एशिया के निवासी थे।
मैक्सूलर के अनुसार यहीं से आर्यो का अनेक शाखाओं में विभाजन तथा विभिन्न दिशाओं में उनका विस्तार संभव हुआ था। इनकी एक शाखा दक्षिण-पश्चिम की ओर क्रमशः प्रसरित होती हुई यूरोप में विभिन्न देशों में फैलती गई। इन्हें ही कालान्तर में इण्डो-यूरोपीय आर्य शाखा कहा जाने लगा दूसरी शाखा पूर्व-दक्षिण दिशा की ओर क्रमशः प्रसरित होती गई। पूर्व-दक्षिण दिशा की ओर प्रसरित होने के क्रम में आर्यों की एक शाखा ईरान में आकर बस गई। इसी अनुक्रम में उनकी एक उपशाखा क्रमशः आगे बढ़कर भारत के सप्त सैन्धव प्रदेश में आकर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इन्हें प्रायः इण्डो-ईरानी आर्य शाखा नाम से भी संबोधित किया जाता है।
इस परिकल्पना का मुख्य आधार है, ऋग्वेद एवं अवेस्ता में प्राप्त इन्द्र, वरुण नासत्य प्रभृति देवों की समान रूप से दोनों देशों के आर्य जनों द्वारा की गई स्तुतियाँ । ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में आने के पूर्व आर्य ईरान देश में लम्बी अवधि तक निवसित रहे होंगे। यहीं पर आर्यों को गायों तथा तेज दौड़ने वाले घोड़ों से परिचय तथा उनकी उपयोगिता का ज्ञान हुआ होगा। वैदिक आर्यों ने इन्हें प्रमुख पालतू पशु के रूप में अपने साहित्य में उल्लेख भी किया है। आर्य पशुपालन तो थे ही, साथ ही साथ, वे कृषि कार्य में भी संलग्न थे। अतः वे लम्बे मैदानी भू-भाग के निवासी माने जा सकते हैं।
वे अपने वर्ष की गणना हिम ऋतु से करते थे। अतः आर्यों का मूल देश सम्भवतः शीत-प्रधान क्षेत्र रह होगा। कालान्तर में वे अपने वर्ष की गणना शरद से करने लगे (जीवेम् शरदः शतम्) इससे यह पता चलता है कि अवान्तर काल में वे हिम-क्षेत्र से हट कर दक्षिण दिशा की ओर ऐसे क्षेत्र में आकर बस गए थे, जहाँ की जलवायु बड़ी सुहावनी थी। वे नाव के प्रयोग से भी परिचित थे, अस्तु, उनका मूल देश ऐसी जगह होना चाहिए,जहाँ झील, नदी अथवा समुद्र-तट हो। वे पीपल वृक्ष से तो परिचित थे किन्तु आम, बरगद आदि वृक्षों का ज्ञान उन्हें न था।
मैक्समूलर तथा के० एम० पणिक्कर प्रभृति विद्वानों के अनुसार उक्त क्षेत्र मध्य एशिया ही हो सकता है, जहाँ से आर्य क्रमशः दक्षिण-पश्चिम एवं दक्षिण-पूर्व दिशाओं में फैलते गए थे। मध्य एशिया से दक्षिण-पूर्व में चल कर वे सर्वप्रथम ईरान में तदुपरान्त भारत के सप्त-सैन्धव प्रदेश में आकर बस गए थे।
सन् 1874 ई. में प्रोफेसर सेअस ने इण्डो-योरोपीय परिवारों की विभिन्न भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके मध्य एशिया के सिद्धान्त की पुष्टि की। उनका कथन है कि अवेस्ता और ऋग्वेद से प्रकट होता है कि आर्य ऐसे प्रदेश में रहते थे जहाँ शीत की अधिकता हो, नाव चलाने के लिए जल-राशि हो, पशु-पालन की सुविधा के लिए घास की प्राप्ति होती हो तथा अन्यान्य वृक्षों के साथ पीपल भी उत्पन्न होता हो। इस विद्वान् के मतानुसार ऐसा प्रदेश मध्य एशिया का वह भू-खंड है जो कैस्पियन सागर के निकट है।
मध्य एशिया के बोगजकोई नामक स्थान के लेखों के आधार पर कुछ विद्वानों ने कप्पाडोसिया को आर्यों का आदि-देश माना है। इसी प्रकार एल-अमर्ना नामक स्थान में प्राप्त बेबिलोनियन-लिपि में लिखित कतिपय मिट्टी के खण्डों (Tablets) को साक्ष्य मानकर सीरिया को आर्यों का आदि-देश होने का श्रेय दिया गया है।
(iii) क्या आर्य एशिया के पामीर क्षेत्र से आए ?
एडवर्ड मेयर महोदय ने एक अन्य मत प्रतिपादित किया है उनका कथन है कि बोगज-कोइ और एल-तमन्ना के साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि मेसोपोटामिया अथवा सीरिया में लगभग 1400 ई.पू. आर्य निवास करते थे। इसी तिथि के लगभग आर्य पंजाब में भी पहुँच चुके थे। मेयर महोदय का मत है कि ये आर्य न तो वस्तुतः मेसोपोटामिया अथवा सीरिया के निवासी थे और न पंजाब (भारतवर्ष) के। ये दोनों प्रदेशों के बीच में स्थित पामीर पठार के मूल निवासी थे। वहीं से इनकी एक शाखा ईरान और भारत में जाकर बसी और दूसरी मेसोपोटामिया अथवा सीरिया के साथ साथ अन्य यूरोपीय देशों में।
इस प्रकार एक ही समय में आर्यों ने दो दिशाओं में प्रयाण किया था। यह समय 2000 ई.पू. के लगभग रखा जा सकता है ।
कालान्तर में मेयर महोदय ने इस मत का अनुमोदन ओल्डेनवर्ग और कीथ ने भी किया।
परन्तु, इस मत से पी० गाइल्स महोदय सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार पामीर का पठारी भू-क्षेत्र, की प्रकृति शुष्क, अनुस्वार तथा रम्य विहीन है, आर्यों का मूल निवास स्थान हो ही नहीं सकता है।
(iv) आर्यो का मूल निवास-स्थान रूसी-तुर्किस्तान:-
कतिपय मृद्भाण्ड-साक्ष्यों के आलोक में मोट्जे एवं हर्जफील्ड प्रभृति विद्वानों ने यह मत प्रतिपादित किया है कि आर्यों का मूल निवास-स्थान मध्य एशिया में अवस्थित रूसी-तुर्किस्तान था।
अनेक विद्वान इस मत का खण्डन इस आधार पर करते हैं कि रूसी-तुर्किस्तान की भौगोलिक सम्पदा, प्राकृतिक पर्यावरण तथा अन्य उपलब्ध वस्तुएँ वैदिक साहित्य में वर्णित विषय-वस्तुओं से बिल्कुल मेल नहीं खाती हैं। यह अनुपाऊ एवं शुष्क प्रदेश है, अतः यह प्रदेश पशुपालन एवं कृषि कर्ता आर्यों का मूल निवास स्थान नहीं हो सकता है।
(v) आर्य भारत कहाँ से आए थे. ‘तिब्बत’?
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आज से लगभग डेढ़ शताब्दी पूर्व वैदिक साहित्य में वर्णित भूगोल के आधार पर आर्यों का मूल निवास स्थान तिब्बत देश को स्वीकार किया था। किन्तु इसके समर्थन में ठोस साहित्यिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों के अभाव में अधिकांश विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं।
(vi) आर्यों का मूल निवास स्थान ‘किर्गिज’―
ब्रैण्डेस्टीन नामक विद्वान् ने शब्दों के क्रमिक अर्थ-परिवर्तन के आधार पर एक नवीन दृष्टिकोण उपस्थित किया है।
उनका कथन है कि प्रत्येक जाति की भाषा में शब्दों का जो क्रमिक परिवर्तन होता है वह उसकी संस्कृति की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का परिचायक होता है। यदि इंडो-यूरोपीय परिवार की समस्त भाषाओं का अध्ययन करें तो हमें इंडो-ईरानी भाषा में ही सर्वप्रथम शब्दार्थ-परिवर्तन दृष्टिगत होगा। इस आधार पर ब्रैन्डेस्टीन महोदय ने यह निष्कर्ष निकाला कि इंडो-यूरोपीय आर्य प्रारम्भ में किसी ऐसे स्थान पर सम्मिलित रूप से रहते थे। उस समय उनकी संस्कृति एवं परिस्थिति एकसम थी। कालान्तर में एक शाखा उनसे पृथक् हो गई और ईरान तथा भारत में आकर बसी। यही शाखा इतिहास में इण्डो-ईरानी आर्य के नाम से प्रख्यात हुई। नई परिस्थिति में रहने के कारण इनकी भाषा में सर्वप्रथम अर्थ-परिवर्तन हुए जो इनकी भिन्न सांस्कृतिक अवस्था की भी सूचना देते हैं।
परन्तु अब प्रश्न यह होता है कि इस विभाजन के पूर्व सम्मिलित आर्य किस प्रदेश में रहते थे। इस प्रश्न को हल करने के लिए भी ब्रैण्डेन्स्टीन महोदय ने शब्द-परिवर्तन के क्रमिक विकास को आधार माना है। आर्य-परिवार की समस्त भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि प्राचीनतम शब्दों से ऐसा आभास मिलता है कि आर्य किसी पर्वत के समीपस्थ एक घास के मैदान (Steppeland) के मूल निवासी थे। चूंकि उपर्युक्त विवेचना से यूरोप की अपेक्षा एशिया में ही आर्यों के आदि-देश होने की अधिक सम्भावना है, इससे इसी महाद्वीप (एशिया) में किसी पर्वत के समीप कोई स्टेप-प्रदेश होना चाहिए। ब्रैन्टेन्स्टीन के मतानुसार यह प्रदेश किर्गिज का स्टेप्स है जो यूराल पर्वत के दक्षिण में स्थित है। इंडो-यूरोपीय परिवार की भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन से आर्यों की भौगोलिक परिस्थिति, संस्कृति-सभ्यता और जीवन की जो प्राचीनतम झाँकी दृष्टिगत होती है उसके विकास के लिए एशिया का किर्गिज का घास का प्रदेश सब से अधिक उपयुक्त है।
कालान्तर में अपने विकास की दूसरी अवस्था में इंडो-यूरोपीय भाषा-परिवार में हमें ऐसे शब्द मिलते हैं जो अधिक नम जलवायु तथा उसमें पनपने वाले पशु-पक्षियों और बनस्पतियों की सूचना देते हैं। इस तथ्य से प्रकट होता है कि कुछ आर्य अपना मूल निवास स्थान छोड़कर अधिक नम प्रदेशों में जाकर बस गये थे। डेस्टिनी का मत है कि आर्यों की एक शाखा तो ईरान और भारत में आई और दूसरी नार्डिक-प्रदेश एवं यूकेन तथा अन्य दक्षिणी और पश्चिमी प्रदेशों में बसी। अनेक विद्वानों की वृद्धि में ब्रैंडस्टीन का यह मत अधिक वैज्ञानिक और विश्वसनीय है। परन्तु इस मत के विपरीत, बहुसंख्यक विद्वान् भारत को ही आर्यों का आदि देश मानते हैं।
उपर्युक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि आर्य मूलतः मध्य एशिया के निवासी रहे होंगे। किन्तु पी० गाइल्स आदि कुछ विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है। उनके अनुसार आर्यों का मुख्य पेशा पशुपालन तथा कृषि-कार्य था। अस्तु, वे ऐसे प्रदेश के निवासी माने जा सकते हैं, जहाँ की भूमि उर्वर हो, वर्षा पर्याप्त होती हो तथा कृषि-योग्य भूमि तथा पशु-चारण योग्य हरित घास का मैदान सुलभ हो। परन्तु मध्य एशिया में इस प्रकार की प्राकृतिक स्थिति एवं जलवायु का अभाव है। इतना ही नहीं, वैदिक वाङ्मय में मध्य एशिया का कहीं कोई उल्लेख भी नहीं मिलता है। वर्तमान मध्य एशिया के निवासियों में आर्य जाति की कोई मौलिक पहचान भी प्राप्त नहीं होती है । अस्तु, मध्य एशिया को आर्यों का आदि देश स्वीकार करने में अनेक कठिनाइयाँ हैं।
3. आर्यों का मूल निवास उत्तरी ध्रुव:-
श्री बाल गंगाधर तिलक के मतानुसार आर्यों का आदि देश उत्तरी ध्रुव था। कालान्तर में हिम-प्रलय के कारण उन्हें अपनी भूमि छोड़नी पड़ी और ईरान तथा भारत में आकर बसना पड़ा। तिलक जी के मतानुसार ऋग्वेद की रचना सप्तसैन्धव प्रदेश में हुई, परन्तु ध्यानपूर्वक पढ़ने से प्रकट होता है कि आर्य अपने आदि-देश को भूले नहीं थे।
ऋग्वेद के वर्णनों में स्थान-स्थान पर आर्यों के आदि-देश उत्तरी ध्रुव के उल्लेख मिलते हैं। श्री तिलक का कथन है कि ऋग्वेद के एक सूक्त में दीर्घकालीन उषा की स्तुति है। भारतवर्ष की उषा तो अति अल्पकालीन होती है। दीर्घकालीन उषा तो उत्तरी ध्रुव में ही देखने को मिलती है। अतः ऋग्वेद का यह वर्णन विस्तृत आर्यों के अतीत के अनुभव से सम्बद्ध है। इसी प्रकार महाभारत में सुमेरु पर्वत का वर्णन है जो देवताओं का निवास स्थान था, जहाँ अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ और औषधियाँ उत्पन्न होती थीं और जहाँ के दिन और रात 6-6 मास के होते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इस वर्णन में आर्यों की उत्तरी ध्रुव की स्मृति संरक्षित है। उत्तरी ध्रुव में ही एक वर्ष का अहोरात्र सम्भव था।
हिम-प्रलय के पूर्व उत्तरी ध्रुव की जलवायु अच्छी थी और वहाँ अनेक प्रकार की वनस्पतियों और औषधियों का उत्पादन सम्भव था। परन्तु हिम-प्रलय के पश्चात् जलवायु परिवर्तित हो गई और आर्यों को अपना वह सुन्दर देश छोड़ना पड़ा, परन्तु उसकी स्मृति उन्हें बहुत दिनों तक रही। यही कारण है कि उनके साहित्य में स्थान-स्थान पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप से उत्तरी ध्रुव के संकेत मिलते हैं। श्री तिलक के मतानुयायी ईरानी अवेस्ता में उत्तरी ध्रुव के संकेत पाते हैं।
उनका कथन है कि इस ग्रन्थ में जिस हिम प्रलय का उल्लेख है वह उत्तरी ध्रुव में आया था और इसी के कारण आर्यों को वह प्रदेश छोड़ना पड़ा था। इस ग्रन्थ के अनुसार अहुर मज्दा (ईरानी देवता) ने सर्वप्रथम ऐन आइजो’ का निर्माण किया। इसका अर्थ वस्तुतः ‘आर्यों का बीज’ अथवा आदि देश है। यह उत्तरी ध्रुव के प्रदेश में ही स्थित था। अवेस्ता के अनुसार इस प्रदेश में 10 मास की शीत ऋतु और 2 माह की ग्रीष्म ऋतु होती थी। कतिपय विद्वानों का मत है कि यह भी उत्तरी ध्रुव का ही वर्णन है। पुनः अवेस्ता में अहुरमज्दा द्वारा निर्मित विविध देशों का वर्णन है। कुछ विद्वानों के मातनुसार देशों का यह वर्णन आर्यों के प्रयाण-मार्ग और विस्तार पर प्रकाश डालता है।
आलोचना-
परन्तु अधिकांश विद्वान् आज श्री तिलक के मत को स्वीकार नहीं करते। श्री तिलक जिन ऋग्वैदिक वर्णनों को उत्तरी ध्रुवविषयक समझते हैं, वे नितांत सन्दिग्ध हैं। यदि आर्य उत्तरी ध्रुव को अपना आदि देश मानते होते तो वे सप्तसैन्धव को कभी भी ‘देवकृतयोनि’ न कहते। पुनः सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में कहीं पर भी उत्तरी ध्रुव को आर्यों की भूमि नहीं कहा गया है। यदि आर्यों को वास्तव में अपने देश उत्तर ध्रुव की सुमधुर स्मृति विकल कर रही होती तो कहीं न कहीं उसका स्पष्ट वर्णन होता। श्री तिलक के उपर्युक्त उद्धरण साहित्यिक हैं। उनसे आर्यों के आदि देश का बोध सम्भवतः नहीं होता।
4. आर्यों का आदि देश ‘भारत’:
कुछ विद्वानों का यह मत है कि आर्य भारतवर्ष में बाहर से नहीं आये थे, इसी देश के मूल निवासी थे।
(1) सप्त सैंधव प्रदेश
सर्वश्री एम० लुई जैकलिन कर्जन जी० ए० रेगोजिन, अविनाश चन्द्र दास, सम्पूर्णानन्द एवं विश्वनाथ रेऊ, जी. सी. पाण्डेय, डॉ. भगवान सिंह, प्रो. शिवाजी सिंह तथा क्रूजर आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। सप्त सैन्धव प्रदेश सिन्धु नदी से लेकर सरस्वती नदी तक विस्तृत था। इसके अन्तर्गत काबुल, गान्धार, कश्मीर, पंजाब तथा उत्तरी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं वर्तमान दिल्ली के आस-पास का भू-भाग सम्मिलित माना जा सकता है।
वैदिक वाङ्मय में अनेकत्र सप्त-सैन्धव प्रदेश का ही गुणगान किया गया है। इसकी धरातलीय संरचना में हिमालय पर्वत के सुहाने शिखर, उनसे निकलने वाली नदियाँ- सिंधु, वितस्ता, अस्किनी, परुष्णी, शुतुद्रि, विपाशा, सरस्वती कुभा, गोमती, क्रुमु, सुवास्तु आदि का विशेष योगदान था। इन नदियों के तटों पर यदु, द्रह्यु, अनु, तुर्वश, पुरु (भारत) जैसे आर्य पंचजनों तथा दास, दस्यु, पणि, यक्षु तथा शियु आदि अनार्यो द्वारा संपन्न किए गए मानवीय क्रियाकलापों की गाथा वैदिक साहित्य में वर्णित मूल विषय हैं। ऋग्वेद में कही अभी सप्त सैन्धव प्रदेश से इतर किसी अन्य देश की नदियों अथवा पर्वतों का उल्लेख नहीं मिलता है।
डॉ० वी० एम० सक्थंकर के मतानुसार वेदों में आख्यात नदी-नामों के आधार पर प्रारम्भिक आर्यों के निवास-क्षेत्र का अनुमान किया जा सकता है। डॉ०पी एल० भागब की धारणा है कि ईरानी आद्य-ग्रन्थ ‘जेन्द अवेस्ता’ में आख्यात ‘ऐर्यनम्बेइजो’, जिसे आर्यों के आदि जन्म-स्थान के अर्थ में ग्रहण किया जाता है, की अवस्थिति, उत्तरी-पश्चिमी भारतीय भू-भाग ‘सप्तसैन्धव प्रदेश’ में ही स्वीकार करना समीचीन प्रतीत होता है, जिसका भौगोलिक विस्तार वर्तमान अफगानिस्तान तक था।
(2) ब्रह्मर्षि-देश-
महामहोपाध्याय पं. गंगानाथ झा का मत है कि आर्यों का आदि-देश भारतवर्ष का ब्रह्मर्षि देश था
(3) मध्यदेश-
डॉ. राजबली पाण्डेय भारतवर्ष के मध्य देश को आर्यों का मूल निवास-स्थान मानते हैं। यहीं से वे पश्चिमी भारतवर्ष, मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया पहुँचे थे। ऋग्वेद में सप्त-सैन्धव का वर्णन अवश्य है, परन्तु इसकी रचना तो उस समय हुई थी जब आर्य अपने मूल निवास स्थान मध्य देश को छोड़कर पंजाब में आ गये थे।
(4) कश्मीर –
श्री एल.डी. कल्ला ने मतानुसार कश्मीर अथवा हिमालय-प्रदेश को आर्यों का आदि देश समझना चाहिए।
(5) देविका प्रदेश –
मुल्तान में देविका नामक एक नदी है। श्री डी.एस. त्रिदेव इसी नदी के समीपवर्ती प्रदेश को आर्यों का आदि निवास-स्थान मानते हैं।
भारत का आदि-देश मानने वाले विद्वानों के तर्क –
यदि हम भारतवर्ष में आर्यों का आदि-देश मानने वाले विद्वानों के कथनों का अध्ययन करें तो स्पष्ट हो जायेगा कि वे स्थूलतया निम्नलिखित तर्कों पर अवलंबित है-
(1) ऋग्वेद के वर्णन से स्पष्ट होता है कि आर्यों का ज्ञान पंजाब एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्र तक ही सीमित था। इस आदि ग्रन्थ में वर्णित भौगोलिक अवस्था एकमात्र इसी सप्तसैन्धव प्रदेश की प्रतीत होती है। अतः आर्य इसी प्रदेश के आदि-निवासी थे। यदि वे बाहर से आये होते तो उनके आदि ग्रन्थ में उस पूर्व स्थान का उल्लेख होता ।
(2) यदि आर्य विदेश से भारत में आये थे तो क्या कारण है कि उनके ग्रन्थ अपने उस विदेशी जन्म भूमि के अथवा अपने प्रयाण-मार्ग के किसी अन्य स्थल के उल्लेख नहीं मिलते? उनके एकमात्र ग्रन्थ ऋग्वेद की भारतीय रचना से स्पष्ट हो जाता है कि वे भारतवर्ष के ही मूल निवासी थे और इसी देश में अपनी संस्कृति-सभ्यता के पर्याप्त विकास के पश्चात् उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी।
(3) स्वयं वैदिक साहित्य के अन्तःसाक्ष्य से प्रकट होता है कि आर्य सप्त-सैन्धव को अपनी मातृ-भूमि मानते थे। यदि ऐसा न होता तो वे उसके लिए देव-निर्मित देश अथवा देवकृत-योनि की संज्ञा क्यों देते?
(4) वैदिक संस्कृत के अथवा उससे उद्भूत शब्द अत्यन्त प्रचुर संख्या में भारतवर्ष के समस्त क्षेत्रों की विभिन्न भाषाओं में पाये जाते हैं, परन्तु योरप और एशिया की भाषाओं में ऐसे शब्द बहुत कम मिलते हैं। यदि आदि-देश योरप और एशिया का कोई अन्य देश होता तो उनकी वैदिक भाषा संस्कृत की छाप योरोपीय एवं एशियाई भाषाओं के ऊपर अधिक स्पष्ट होती। ऐसी परिस्थिति में यही अनुमान स्वाभाविक प्रतीत होता है कि भारत आर्यों का आदि-देश था और इसी से अन्तर्देशीय एवं अन्तर्जातीय सम्पर्क होने के बावजूद भी उसकी समस्त प्रादेशिक भाषाओं की शब्दावली मूल आर्य-भाषा संस्कृत से प्रभावित है।
(5) यह तर्क उपस्थित किया जाता है कि यदि आर्य भारतवर्ष के मूल निवासी होते तो वे इस देश के बाघ और हाथी से अवश्य परिचित होते। परन्तु ऋग्वेद में बाघ का कहीं उल्लेख नहीं है। पुनः हाथी के लिए ‘मृग हस्तिन्’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिससे प्रतीत होता है कि उनके लिए यह नवीन और विचित्र पशु था। (इन आपत्तियों में कोई बल नहीं है।) किसी वस्तु विशेष के विषय में किसी ग्रन्य का मौन अथवा अनुल्लेख कोई विशेष अर्थ नहीं रखता। ऋग्वेद में ‘नमक’ का भी उल्लेख नहीं मिलता। परन्तु इसका तात्पर्य यह तो नहीं हो सकता कि ऋग्वेद आर्य नमक से अपरिचित थे रही ‘मृगहस्तिन्’ की वात, तो इस शब्द का प्रयोग काव्यात्मकता प्रदर्शित करता है, परिचय नहीं। और यदि हम यह स्वीकार भी कर लें कि आर्य बाघ और हाथी से अपरिचित थे तो इससे यही सिद्ध होता है कि वे भारतवर्ष के उन प्रदेशों से अपरिचित थे जहाँ बाघ और हाथी की प्रधानता थी। फिर भी पंजाब उनका आदि देश मानने में कोई वाधा नहीं पड़ती, क्योंकि यहाँ इन पशुओं का बाहुल्य न था।
(6) कुछ विद्वानों ने भाषा-विज्ञान के आधार पर भारतवर्ष को आर्यों का आदि-देश मानने में आपत्ति की है। इन विद्वानों का कथन है कि आधुनिक विश्व में आर्य परिवार की जो भाषा सबसे अधिक अविकसित और परिवर्तन-विहीन (Archaic) हो वही आर्यों की आदि भाषा रही होगी और जिस देश में यह भाषा व्यवहार होती हो, वही आर्यों का आदि देश रहा होगा। इस दृष्टि से इन्होंने लिय्यूनिअन भाषा को आर्य परिवार की प्राचीनतम भाषा माना है और लिथ्यूनिआ को आर्यों का आदि-देश। पर भाषा की अविकसित अवस्था अथवा परिवर्तनलिडीनता का कारण उसके बोलने वालों की संकीर्ण एवं परिवर्तनविहीन मनोवृत्ति भी हो सकती है । अन्यान्य देशों और जातियों के पारस्परिक सम्पर्क से वंचित रहने पर भी भाषा विकसित नहीं हो पाती। अतः इस विकास-विहीनता से लिथ्यूनिअन भाषा की सवसे अधिक प्राचीनता सिद्ध नहीं होती।
आलोचना –
पर भारतवर्ष में आर्यों का आदि-देश स्वीकार करने में निम्नलिखित अन्य | कठिनाइयाँ होती हैं: –
(1) यदि भारतवर्ष आर्यों का आदि-देश होता तो वे अपने देश का भी पूर्णरूपेण आर्यीकरण करते, फिर उसके बाद ही दूसरे देशों में जाते। परन्तु ऋग्वेद से स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन आर्य मध्य देश, पूर्वी भारत तथा दक्षिणापथ से प्रायः अपरिचित थे, जवकि ईरान और आधुनिक अफगानिस्तान के विषय में उनका भौगोलिक ज्ञान अपेक्षाकृत कहीं अधिक था। इससे अनुमान होता है कि ये किसी पश्चिम देश से आये थे और ऋग्वैदिक काल तक पंजावेतर भारत में प्रविष्ट न हुए थे।
(2) आज भी पूर्व दक्षिण भारत तथा आंशिक रूप से उत्तर भारत की भाषाएं अनार्य-परिवारों की हैं। इससे अनुमान होता है कि ये प्रदेश मूलतः अनार्यों के निवास स्थान थे।
(3) बलूचिस्तान में द्रविड़ परिवार की ब्राहुई भाषा का पता लगा है। इससे प्रतीत होता है कि भारत का उत्तर-पश्चिम प्रदेश भी आदितम काल में द्रविड़ सभ्यता का केन्द्र रहा होगा।
(4) भारतवर्ष की सिन्धु-सभ्यता निश्चित रूप से अनार्य थी और वैदिक सभ्यता से अधिक कोचीन थी। अतः भारतवर्ष उन कार्यों का ही देश कहा जा सकता है।
(5) सम्पूर्ण भारतीय इतिहास यही सिद्ध करता है कि यहाँ विदेशों से जातियाँ आई है, यहाँ से कभी भी कोई जाति बाहर नहीं गई। इस सत्य के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि कदाचित् आर्य भी यहां बाहर से ही आये होंगे, यहाँ से बाहर नहीं गये होंगे।
(6) संस्कृत भाषा की मूर्धन्य (Cerebral) ध्वनि इण्डो-परिवार की किसी भाषा में नहीं मिलती। कदाचित् संस्कृत की वह विशेषता अनाजों के प्रभाव से आई। आर्य वाहर से भारत में आये और वहाँ के मूल निवासियों अनाजों के साथ उनका सम्पर्क हुआ। इस सम्पर्क के परिणामस्वरूप ही उनकी भाषा में उपर्युक्त ध्वनि सम्बन्धी विशेषता आ गई।
(7) डॉ. पाइल्स का कथन है कि इन्डो-योरोपीय परिवार की प्राचीनतम भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन से हमें जिन वनस्पतियों और पशुओं का ज्ञान प्राप्त होता है वे सब भारतवर्ष में पाये जाते हैं। अतः यह देश आर्यों का आदि देश नहीं हो सकता।
(8) पुनः इतिहास में ऐसे उदाहरण का अभाव है कि जब कोई जाति अपने सुविशाल एवं अत्यन्त उर्वर देश को छोड़कर विदेशों में भटकती फिरी हो। यदि आर्य भारतवर्ष के ही निवासी होते तो वे कभी भी इस देश को छोड़कर अभ्यत्र जाने की आवश्यकता न समझते। परन्तु इनमें से कोई भी तथ्य अकाट्य नहीं है अतः आज अधिकाधिक झुकाव भारत को ही आर्यों का आदि-देश मानने की ओर हो रहा है।
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● ऐतिहासिक स्रोत (साहित्यिक स्रोत)
● ऐतिहासिक स्रोत(पुरातात्विक स्रोत)
● ऐतिहासिक स्रोत (विदेशी विवरण)
● हड़प्पा सभ्यता (एक दृष्टि में सम्पूर्ण)
● हड़प्पा सभ्यता का उद्भव/उत्पत्ति
● हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएँ(विस्तृत जानकारी)
आर्यों के भारत आगमन की तिथि:-
भारत में आर्यों का उदय-काल ऋग्वेद के रचना-काल से प्राचीन है। उन्हें बहुत दिनों तक यहाँ के मूल निवासियों से संघर्ष करना पड़ा होगा। उस संघर्ष-काल की अशान्तिपूर्ण अवस्था में ऋग्वेद जैसे ग्रन्थ की रचना सम्भव न थी। यह रचना तो तभी हुई होगी जब आर्य न्यूनाधिक मात्रा में सप्तसैंधव प्रदेश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर चुके होंगे।
चूंकि ऋग्वेद की तिथि 1500 ई०पू० सर्वमान्य है। तथा ज्ञातव्य है कि सिन्धु सभ्यता का अस्तित्व लगभग 1750 ई०पू० तक आते आते समाप्त हो चुका था।
अनुमानतः माना जा सकता है कि आर्यों को प्रारंभ में लगभग 200 वर्षों तक संघर्ष करने तथा शांति स्थापित करने में लगा होगा।
अतः इन सभी विचेचनों से यह कहा जा सकता है कि आर्यों का भारत आगमन 1700 ई०पू० से 1500 ई०पू० के मध्य हुआ होगा।
निष्कर्ष:-
अब तक आर्यों के मूल देश के निर्धारण-सम्बन्धी समस्या पर व्यक्त विभिन्न मतों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि अभी तक इस समस्या का निर्धारण अंतिम रूप से नहीं हो सका है। लगभग उक्त सभी विद्वानों ने अपने विचारों को आधे-अधूरे साक्ष्यों के आलोक में व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। अतः अद्यावधि किसी भी मत को सर्वसम्मति से स्वीकार नहीं किया जा सका है।
अभी तक विद्वानों में जो आम सहमति स्थापित हो पाई है वह मैक्समूलर द्वारा दिया गया मध्य एशिया का मत है। अतः भविष्य आने वाले किसी प्रबल तर्क तक मध्य एशिया को ही आर्यों का मूल स्थान मनना तर्कसंगत है।
वस्तुतः इस महत्वपूर्ण समस्या का समाधान सैन्धव लिपि के स्पष्ट वाचन पर निर्भर करता है। यदि यह स्पष्ट हो जाय कि सैन्धव लिपि की भाषा संस्कृत अथवा संस्कृत-सदृश उसका कोई पूर्व रूप है तब यह सिद्धान्त लगभग अकाट्य सिद्ध हो जायेगा कि आर्य सैन्धव संस्कृति से भिन्न रूप से रूप से जुड़े हुए लोग थे तथा उनका मूल निवास-स्थान सप्त-सैन्धव प्रदेश (भारतवर्ष) ही था।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)