उत्तर वैदिक काल – Uttar vaidik kaal
उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति से तात्पर्य उस संस्कृति से है जिसका दर्शन परवर्ती वैदिक संहिताओं, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के साथ ब्राहमणों, आरण्यकों और उपनिषदों में होता है। उत्तर वैदिक युगीन इन साहित्यों में कुछ ऐसी विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं, जो इसे पूर्व वैदिक युग से अलग करती हैं।
उत्तर वैदिक काल |
उत्तर वैदिक युग की विशेषताओं पर विचार करते हुए प्रो० गोविन्द चन्द्र पांडे का मत है, ” प्राचीन युग यदि मन्त्र युग था तो यह संहिताकरण, शाखाभेद और ब्राह्मणों का युग हैं । मन्त्र अब व्याख्या के विषय बन गये हैं और इस सन्दर्भ में एक ओर कर्मकाण्ड का महत्त्व ख्यापन, विस्तार और व्यवस्थापन मिलता है, तो दूसरी ओर प्रतीकात्मक कल्पना एवं अमूर्त अवधारणाओं की ओर रुझान मिलता है। देवताओं का स्थान गौण हो जाता है। कर्म और अनुष्ठान, ध्यान और ज्ञान का स्थान बढ़ जाता है। इस वाङ्मय में भौगोलिक विस्तार के परिचय के साथ धातुओं से परिचय भी विस्तृत हो जाता है।
इस प्रकार उत्तर वैदिक साहित्य व्याख्यात्मक गद्य का युग है, जिसमें चिन्तन की प्रौढ़ता प्रकट होती है। यह कर्मकाण्ड और तत्त्व-जिज्ञासा का युग साथ ही यह सभ्यता के विस्तार और विकास का युग है। पर इसमें पूर्व वैदिक युग की सरलता, नि:संशयता, आशावादिता और अखण्डपूर्णता की प्रतीति के सूत्रों के अन्तराल में अब संशय, द्वन्द्व और संघर्ष के भाव स्पष्ट रूप से चिन्तन में गुंथे हुए प्रतीत होते हैं । सरल विश्वास के स्थान पर पुरोक्ष शक्ति को अन्तर्गर्भित किये अनुष्ठान प्रतिष्ठित हो जाते हैं । देवताओं और ऋत के स्थान पर ब्रह्म और धर्म स्थापित हो जाते हैं। जनों के स्थान पर जनपद प्रकट हो जाते हैं।”
ध्यान दें:– यह वैदिक संस्कृति का दूसरा पोस्ट है। इसके अंतर्गत वैदिक सभ्यता/संस्कृति के उत्तरकालीन चरण अर्थात उत्तर वैदिक संस्कृति अथवा Later vedic culture के बारे में बताया जाएगा। इसमें उत्तर वैदिक काल के समस्त पहलुओं के बारे में विस्तारपूर्वक समझाया गया है आप इसे पूरा अवश्य पढ़ें। इसके पिछले पोस्ट में आपको पूर्व वैदिक काल समझाया गया है जिसका link(url) निम्नलिखित है आप उस पोस्ट को भी पढ़कर वैदिक संस्कृति के ज्ञान को पूर्ण बनाएं।
भौगोलिक विस्तार – post vedic period in hindi
ऋग्वेद में आर्य संस्कृति का प्रमुख केन्द्र-‘सप्त सैन्धव’ प्रदेश दिखायी पड़ता है। ऋग्वैदिक ‘सप्त-सैन्धव’ प्रदेश के अन्तर्गत पंजाब (वर्तमान भारत-पाकिस्तान का सम्मिलित पंजाब) की पाँच नदियाँ शुतुद्रि (सतलज), विपाशा (व्यास), परुष्णी (रावी) असिक्नी (चिनाब), वितस्ता (झेलम) और सिन्धु तथा सरस्वती सम्मिलित मानी गयी हैं।
इन नदियों में सरस्वती को सर्वाधिक महिमामंडित किया गया है। सिन्धु नदी के पश्चिम अफगानिस्तान की जिन नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में आता है, उनमें कुभा (काबुल), गोमती (गोमल), क्रुमु (कुरम) और सुवास्तु का उल्लेख किया जा सकता है। सरस्वती के पूर्व की नदियों में गंगा का उल्लेख केवल एक बार किया गया है।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वैदिक आर्यों की संस्कृति का केन्द्र सरस्वती एवं दृषद्वती नदियों के मध्य स्थित था उत्तर वैदिक साहित्य से वैदिक संस्कृति का केन्द्र दक्षिण पूर्व की ओर बढ़ता हुआ दिखायी पड़ता है। इस काल में कुरु-पांचाल में संस्कृति केन्द्रित दिखायी पड़ती है।
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हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार, “कुरु जनपद के अन्तर्गत वर्तमान दिल्ली, थानेश्वर और ऊपरी गंगा घाटी का कुछ भाग तथा पांचाल के अन्तर्गत बरेली, बदायूँ, फर्रुखाबाद.और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र सम्मिलित माने जाते हैं।”
उत्तर वैदिक साहित्य में भी कुरु पांचाल राजाओं को सम्मानित स्थान दिया गया है और उनकी यज्ञीय पद्धति और भाषा की प्रशंसा की गयी है। कुछ विद्वानों का मत है कि संभवत: इसी क्षेत्र में संहिताओं तथा ब्राह्मणों को निश्चित आकार प्रदान किया गया इस युग में ऋग्वैदिक जनों के स्थान पर ऐसे जनवर्गों और भूक्षेत्रों का विवरण मिलता है, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता है ।
शतपथ ब्राह्मण में कोशल और विदेह, अथर्ववेद में अंग और मगध, ऐतरेय ब्राह्मण में विदर्भ और आन्ध्र जनवर्गों के उल्लेख उत्तरवैदिक कालीन ही हैं, जिनका ऋग्वैदिक संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं है। कौशीतकि उपनिषद् में काशी नरेश अजातशत्रु और बृहदारण्यक उपनिषद् में विदेह के शासक जनक का उल्लेख दार्शनिक शासकों में किया गया है। ऐतरेय आरण्यक में वंग और चेर प्रदेश का उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों का विस्तार पूर्व में अंग तक हो चुका था। जहाँ तक आन्ध्र, वंग और चेर के उल्लेख का प्रश्न है, उसके विषय में संभावना की जा सकती है कि आन्ध्र देश तक दक्षिण भारत तथा बंग और चेर का आर्यीकरण भले ही न हुआ हो, किन्तु आर्यों को इन प्रदेशों की जानकारी हो चुकी थी। आर्यों के पूर्व की ओर विस्तार विषयक एक आख्यान शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि विदेध माधव अग्नि वैश्वानर का पीछा करते हुए सदानीरा (गण्डक नदी) को पार किये। विद्वानों का मत है कि आर्य विदेध माधव के नेतृत्व में जंगल जलाते हुए पूर्व की ओर गये और वही विदेह माधव ने विदेह जनपद की स्थापना की।
प्रो० गोविन्द चन्द्र पाण्डे का मत है कि, “इसकी यह व्याख्या अधिक 11 समीचीन प्रतीत होती है कि विदेध पूर्व की ओर फैलते वैदिक कर्मकाण्ड के प्रतिनिधि थे। कर्मकाण्ड. की प्रधान भूमि ब्रह्मर्षि देश (कुरु, मत्स्य, पांचाल और शूरसेन जनपद) में प्रतिष्ठित थी। उत्तर वैदिक साहित्य के पूर्व में अंग जनपद भी उसी प्रकार से सुदूर सीमावर्ती प्रदेश था, जैसे पश्चिम में मूजवान् या बाहलीक।”
इस प्रकार उत्तर वैदिक काल (post vedic period in hindi) तक आर्य संस्कृति का प्रसार पश्चिम में वाहलीक से लेकर पूर्व में अंग जनपद तक हो चुका था जिसके अन्तर्गत अफगानिस्तान, पंजाब का सप्त सैंधव प्रदेश, कुरु-पांचाल जनपद के साथ अंग, मगध और विदेह जनपद सम्मिलित माने जा सकते हैं। दक्षिण में इस संस्कृति का विस्तार विदर्भ तक दिखायी पड़ता है, क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण में भीम नामक शासक को वैदर्भ’ कहा गया है। किन्तु सुदूर दक्षिण का कोई उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्य में नहीं मिलता है।
उत्तर वैदिक काल एवं पुरातत्त्व: उत्तर वैदिक संस्कृति
विद्वानों ने उत्तर वैदिक काल की समकालिक पुरातात्विक संस्कृति ‘चित्रित धूसर मद्भाण्ड संस्कृति’ को माना है।
उल्लेखनीय है कि उत्तर वैदिक साहित्य से प्राप्त विवरण और चित्रितधूसर मृद्भाण्ड संस्कृति में कुछ समानताएँ देखी जा सकती हैं। दोनों संस्कृतियों में क्षेत्रीय समानता देखने को मिलती है।
उत्तर वैदिक काल के विस्तार का मुख्य केन्द्र मुख्यत: कुरु-पांचाल क्षेत्र माना जाता है जिसके अन्तर्गत पश्चिमी उत्तर प्रदेश का अधिकांश भाग हरियाणा तथा पंजाब और राजस्थान के निकटवर्ती क्षेत्र परिगणित किये जाते हैं करु-पांचाल क्षेत्र से ही चित्रित धूसर मूदुभाण्ड संस्कृति के अधिकांश पुरास्थल (लगभग 700 पुरास्थल) प्रकाश में आये हैं । यद्यपि चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के पुरास्थल अन्य क्षेत्रों पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से भी प्राप्त हुए हैं, किन्तु गणना की दृष्टि से उनकी संख्या कम है।
इन क्षेत्रों में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के साथ अन्य पात्र परम्परायें जैसे काले लाल मृद्भाण्ड, लाल मृदभाण्ड, अनलंकृत धूसर मृद्भाण्ड एवं काले स्लिप युक्त मृद्भाण्ड आदि भी प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के पुरास्थलों से प्राप्त मृद्भाण्डों में चित्रित धूसर मृद्भाण्डों का प्रतिशत कम ही है। रामशरण शर्मा का मत है-“चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्तर एक मिश्रित संस्कृति का प्रतिनिधित्व उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार उत्तर वैदिक साहित्य द्वारा वर्णित संस्कृति, संस्कृत एवं संस्कृतेतर और आर्य तथा अनार्य तत्त्वों के सम्मिश्रण की द्योतक है।”
उल्लेखनीय है कि उत्तर वैदिक साहित्य लोहे से परिचित दिखायी पड़ता है। यजुर्वेद के वाजसनेयी संहिता में ‘श्याम’ शब्द तथा अथर्ववेद में वर्णित ‘श्याम अयम’ लोहे की जानकारी होने का संकेत करते हैं। जैमिनी उपनिषद् ब्राह्मण में भी ‘कृष्णायस् तथा का्षाणायस्’ शब्द लौहवाची प्रतीत होते हैं ।
विद्वान् इस मत से पूर्णतः सहमत हैं कि उत्तर वैदिक कालीन लोगों द्वारा लोहे का प्रयोग किया जाने लगा था उत्तर वैदिक सभ्यता की समकालिक पुरातात्त्विक संस्कृति चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति में भी लोहे के साक्ष्य उपलब्ध हैं । यद्यपि चित्रित धूसर मृद्भाण्ड से सम्बन्धित कुछ पुरास्थलों से लोहे के प्रमाण नहीं मिले हैं, ऐसे पुरास्थलों में भगवानपुरा (हरियाणा) का उल्लेख किया जा सकता है जहाँ चित्रित धूसर मृद्भाण्ड परवर्ती हडप्पा संस्कृति से सम्बद्ध हैं।
चित्रित धूसर मृद्भाण्ड से सम्बद्ध विभिन्न पुरास्थलों अतरंजीखेड़ा (940 ई० पू०), जोधपुरा (800 ई० पू०) तथा नोह (725 ई० पू०) की रेडियो कार्बन तिथियों के आधार पर लोहे की तिथि 1000 ई० पू० के आस पास निर्धारित की जाती है। अत: चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (कतिपय पुरास्थलों के प्रारम्भिक चरण को छोड़कर) का सम्बन्ध लोहे से माना जाता है। उत्तर वैदिक साहित्य का रचनाकाल भी 1000-500 ई० पू० निर्धारित किया जाता है।
राम शरण शर्मा का विचार है, “गंगा के उत्तरी मैदानों तथा गंगा द्वारा विभाजित मैदानी क्षेत्रों में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति और लोहे के उपयोग की तिथि लगभग 1000- 500 ई० पू० तर्कसंगत प्रतीत होती हैं।” इस प्रकार उत्तर वैदिक काल और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति समकालिक प्रतीत होती है।
उत्तर वैदिक काल और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के सम्बन्धों की पुष्टि के लिये आवश्यक है कि साहित्य में वर्णित भौतिक संस्कृति और चित्रित धूसर मृदभाण्ड संस्कृति के पुरास्थलों से प्राप्त भौतिक संस्कृति के पुरावशेषों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय ।
चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के अधिकांश पुरास्थलों (भगवानपुरा तथा कुछ अन्य पुरास्थलों जहाँ से पको ईटे प्राप्त हुई हैं, को छोड़कर) से मिट्टी की कच्ची ईंटें ही प्राप्त हुई हैं। उत्तर वैदिक साहित्य में भी कच्ची ईंटों के प्रयोग के साक्ष्य मिले हैं।
इस काल के साहित्य में कुम्हार के आवाँ के लिए ‘आपाक’ शब्द का प्रयोग तो किया गया है. किन्तु ईंटें पकाने वाले भट्ठे से सम्बन्धित शब्द नहीं मिले हैं। अतिरंजीखेड़ा पुरास्थल के चित्रित धूसर मृदभाण्ड स्तर से कुम्हार के आवाँ का साक्ष्य मिला है।
इसी प्रकार चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति का स्वरूप ग्राम्य संस्कृति का दिखायी पड़ता है। कतिपय विद्वानों का मत है कि इस संस्कृति के अन्तिम चरण को आद्य-नगरीय माना जा सकता है। उत्तर वैदिक साहित्य में भी नगरीय जीवन की झलक नहीं दिखायी पड़ती है। यद्यपि आरण्यक और ब्राह्मण साहित्य में’ नगर’ और ‘नगरिन्’ शब्द का उल्लेख आता है, किन्तु विद्वान् इनकी तिथि छठीं शताब्दी ई० पू० के आस पास मानते हैं। अत: उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति दोनों मूलत: ग्राम्य संस्कृतियाँ परिलक्षित होती हैं, यद्यपि इन दोनों संस्कृतियों का अन्तिम चरण नगरीय स्वरूप की ओर अग्रसर दिखायी पड़ता है।
उत्तर वैदिक काल के साहित्य में लोहे या धातु के गलाने के लिए धाँकनी’भस्त्रा’ का उल्लेख मिलता है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के अतिरंजीखेड़ा और राजस्थान के सनेरी गाँव (झुंझुनू जिला) से धौंकनी के उपयोग और भट्टियों के साक्ष्य मिले हैं । यद्यपि चित्रित धूसर मृद्भाण्ड पुरास्थलों से लोहे के अधिक उपकरण नहीं प्राप्त हुए हैं। विद्वानों का मत है कि गंगा के ऊपरी भाग में लोहे की खानों का अभाव था। इस क्षेत्र के लोगों को बिहार के समृद्ध लोहे के खानों का संभवत: ज्ञान नहीं था।
इस काल में ऊपरी गंगा घाटी के लोग हिमाचल प्रदेश के मण्डी उत्तर प्रदेश के कुमाऊँ और पंजाब के पटियाला से कच्चा लोहा प्राप्त करते थे, किन्तु इन क्षेत्रों की खाने समृद्ध नहीं थीं और साथ ही दुर्गम क्षेत्रों में स्थित थीं। अत: लोहे के अभाव के कारण चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के लोगों द्वारा लोहे का प्रयोग बहुत कम किया गया दिखायी पड़ता है। इस संस्कृति के पुरास्थलों से प्राप्त धातु-मल से भी लोहे की प्रौद्योगिकी का प्रारम्भिक चरण में होने का संकेत मिलता है।
इस काल में अधिकांशत: लौह निर्मित हथियार जैसे बाणाग्र, भाले का अगला भाग और कीलें आदि प्राप्त हुई हैं। कृषि में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों की संख्या अत्यधिक न्यून है। जखेड़ा से प्राप्त हल के फाल का साक्ष्य उपलब्ध है किन्तु इसे चित्रित धूसर मृदभाण्ड के अन्तिम चरण का माना जाता है। उत्तर वैदिक साहित्य में चार, छ:, आठ, बारह और चौबीस बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हल का उल्लेख किया गया है।
इस काल के साहित्य में वर्णित ‘पविरवन्तु’ और ‘पर्वरिवम्’ को धातु के फाल से युक्त हल माना जा सकता है। सम्भवतः इस काल में लोहे के फाल का प्रयोग कृषि में किया जाने लगा था। उत्तर वैदिक साहित्य में फसल की कटाई के लिए हँसियाँ का उल्लेख मिलता है। किन्तु हँसियाँ किस धातु से बनती थीं, कहना कठिन है। अतिरंजी खेड़ा पुरास्थल से भी कुछ उपकरण ऐसे प्राप्त हुए हैं, जिन्हें फसल को काटने में प्रयुक्त किया जाता था।
रामशरण शर्मा का विचार है, “चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के लोग अथवा उत्तर वैदिक कालीन लोग क्षेत्र-कृषि करते थे, परन्तु इसमें लोहे की कोई प्रमुख भूमिका नहीं थी।”
उत्तर वैदिक काल और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर दोनों संस्कृतियों में प्राप्त खाद्यात्रों में भी समता देखी जा सकती है। उत्तर वैदिक साहित्य में जो, गेहूँ, चावल, उड़द, तिल, बाजरा का उल्लेख मिलता है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के पुरास्थलों से धान और जौ के प्रमाण मिले हैं। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति में गेहूँ का साक्ष्य सन्देहास्पद माना जाता है। इस संस्कृति में उड़द, तिल और बाजरे के साक्ष्य अभी तक नहीं मिले हैं।
हस्तिनापुर और अतरंजीखेड़ा पुरास्थलों से जिन पशुओं के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनमें गाय-बैल, घोड़े आदि हैं.।
इस संस्कृति के पुरास्थलों से पशुओं के काटे जाने के निशान मिले हैं, जो संभवतः भोज्य पदार्थ के रूप में प्रयुक्त किये जाते थे। उत्तर वैदिक काल के साहित्य में भी गाय, बैल, घोड़े आदि का उल्लेख पालतू पशुओं में किया गया है।
उल्लेखनीय है कि उत्तरवैदिक काल में अनेक यज्ञों में पशुओं की बलि का विधान किया गया है, और साथ ही पशुओं की मांसों को खाद्य-पदार्थ के रूप में प्रयुक्त किये जाने का उल्लेख मिलता है अत: दोनों संस्कृति में खाद्यान्नों और पशुपालन के सन्दर्भ में समता दिखायी पड़ती है।
उत्तर वैदिक साहित्य में वर्णित पात्रों स्थलो, भ्राष्ट्र, कन्दु, कपाल आदि की समानता चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के पात्र प्रकारों से की जा सकती है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड परम्परा में मुख्य पात्र-प्रकार थाली और कटोरे हैं। उत्तर वैदिक साहित्य में थाली के लिए ‘स्थाली’ और कटोरे के लिए ‘कुण्ड’ या ‘कपाल’ शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के पुरास्थलों से सामुदायिक चूल्हे का साक्ष्य मिला है।
रामशरण शर्मा का मत है:”वैदिक साहित्य का भ्रष्ट्र’ या भ्राष्ट्र’उत्तर वैदिक कालीन चूल्हों की सामुदायिक प्रकृति पर कुछ प्रकाश डालता है। इस शब्द की कड़ाही के रूप में व्याख्या की गयी है, परन्तु इसका अर्थ भोजन पकाने की वृहद् अग्नि भी हो सकता है, क्योंकि लगभग सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा तथा पंजाब में इससे व्युत्पन्न’ भट्टी’ शब्द उन बड़े चूल्हों का द्योतक है जिन पर सामुदायिक भोज के अवसर पर खाना पकाया जाता है।”
इस प्रकार उत्तर वैदिक काल और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के विस्तार क्षेत्र, तिथि क्रम, लौह तकनीक की जानकारी, मृद्भाण्डों और खाद्य पदार्थों में समानता आदि भौतिक विशेषताएं समान दिखायी पड़ती हैं। अत: दोनों संस्कृतियों में अन्तर्सम्बन्ध होना संभव प्रतीत होता है।
उत्तर वैदिक संस्कृति का सम्बन्ध यदि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के साथ था, तो पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य पश्चिमी भागों (तक्षशिला तक) उत्तरी काली चमकीली पात्र-परम्परा उत्तर वैदिक संस्कृति से सम्बद्ध दिखायी पड़ती है। उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा का आविर्भाव छठी शताब्दी ई० पू० के पूर्व हो चुका था। इस पात्र परम्परा की संस्कृति स्थायी ग्राम्य जीवन का संकेत देती है।
उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा के पुरास्थलों से कृषि और शिल्प से सम्बन्धित लौह-उपकरण जैसे-कुल्हाड़ी, हसिया, कटार, खुरपी, कीलें, बसूला, छेनी, बाण, फलक और लोहे के फालू आदि मिले हैं। कृषि, पशुपालन में विकास तथा मुद्रा का प्रचलन इस पात्र परम्परा की प्रमुख विशेषताएँ मानी जाती हैं। इस संस्कृति के पुरास्थलों से चावल, जौ, गेहूँ और दलहन आदि के साक्ष्य मिले हैं, जिनका उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्य में भी मिलता है। अत: कहा जा सकता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में उत्तर वैदिक संस्कृति का सम्बन्ध उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा से भी था।
यद्यपि तिथि क्रम के अनुसार उत्तर वैदिक काल के अन्तिम चरण को ही उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा का समकालिक माना जा सकता है, इस पात्र परम्परा का सम्बन्ध मध्य गंगाघाटी में नगरीकरण से माना जाता है। उत्तर वैदिक काल के परवर्ती साहित्य में ‘नगर और ‘नगरिन’ का उल्लेख संभवत: नगरीकरण की ओर संकेतित है जिसके भौतिक अवशेष उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा में दिखायी पड़ते हैं।
उत्तर वैदिक काल की तिथि(Dating)-
उत्तर वैदिक काल की तिथि सामान्यत: 1000 ई० पू० से 500 ई० पु० के मध्य निर्धारित की जाती है। इस तिथि का समर्थन उत्तर वैदिक युग की समकालिक पुरातात्त्विक संस्कृतियों से भी किया जाता है, किन्तु कुछ परम्परागत विद्वान् कतिपय अन्य तिथियों को संभावित मानते हैं।
डी० के० चक्रवर्ती की मान्यता है कि पूर्व वैदिक युग ताम्राश्म और ताम्र-कांस्य युग था। अथर्ववेद, बाजसनेयी संहिता और शतपथ ब्राह्मण में लोहे की जानकारी संभावित है, किन्तु यह जानकारी लोहे के उपकरणों की है, यह निश्चित नहीं है। लोहे के उपकरणों का ज्ञान द्वितीय सहस्राब्दी ई० पू० के अन्तिम चरण अथवा अन्त की ओर संकेत करता है।
अल्तेकर महोदय परीक्षित और महापद्मनन्द के बीच 1050 वर्षों का अन्तराल मानते हैं, और परीक्षित का समय 1400 ई० पू० संभावित मानते हैं।
राय चौधरी परीक्षित का काल 900 ई० पू० मानते हैं।
इसके अलावा ज्योतिषीय गणना के आधार पर विद्वान् उत्तर वैदिक काल की तिथि 1200 ई० पू० मानने का सुझाव देते हैं।
इस प्रकार विभिन्न साक्ष्यों के आलोक में प्रो० गोविन्द चन्द्र पाण्डे का मत है;”उत्तर वैदिक युग लगभग ई० पू० द्वितीय सहस्राब्दी का काल था। उत्तर वैदिक संहिताओं और ब्राह्मणों का विपुल विस्तार उनके रचनाकाल को भी विस्तृत बताता है। यदि उनका वर्तमान रूप में संकलन संभवतः ई० पू० 1250 से 800 के बीच पूरा हुआ हो तो भी उनमें निबद्ध परम्पराएं उनके रचनाकाल की अन्तिम सीमा से सदियों पुरानी थी।”
उत्तर वैदिक काल के साहित्यिक स्रोत:- वैदिक संस्कृति
उत्तर वैदिक काल के साहित्यिक स्रोतों के अंतर्गत हम निम्नलिखित ग्रंथों को शामिल कर सकते हैं। इनसे हमें उत्तर वैदिक काल की पर्याप्त जानकारी मिलती है।
ब्राम्हण ग्रंथ (Brahmin text)
(1) ऋग्वेद के ब्राम्हण ग्रंथ
(i) ऐतरेय ब्राम्हण
(ii) कौषीतकि ब्राम्हण
(2) यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ-
(i) शुक्ल यजुर्वेद का ब्राम्हण ग्रंथ-
(ii) कृष्ण यजुर्वेद का ब्राम्हण ग्रंथ-
(3) सामवेद के ब्राह्मण ग्रन्थ-
(i) पंचविश ब्राम्हण-
(ii) षडविश ब्राम्हण-
(iii) जैमिनीय ब्राम्हण-
(4)अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ
(i)गोपथ ब्राम्हण-
आरण्यक ग्रंथ(Aranyak texts)
उपनिषद(Upnishadas)
वेदांग(Vedanga)
(i) शिक्षा-
(ii) कल्प
श्रौत सूत्र
गृह्यसूत्र
धर्म सूत्र-
(iii) व्याकरण
(iv) निरुक्त:-
(v) छन्द
(vi) ज्योतिष
वैदिक साहित्य से सम्बन्धित अन्य साहित्य
छ: दर्शन (Six Darshanas)-
(i) न्याय दर्शन
(ii) वैशेषिक दर्शन
(iii) सांख्य दर्शन
(iv) योग दर्शन
(v) पूर्व मीमांसा दर्शन
(vi) उत्तर मीमांसा दर्शन
उपवेद(Upvedas)
1.आयुर्वेद
2.धनुर्वेद
3.गंधर्ववेद
4.स्थापत्य वेद या शिल्प वेद
स्मृतियाँ
1.मनुस्मृति
2.याज्ञवल्क्य स्मृति
3.नारद स्मृति
महाकाव्य
(i) रामायण महाकाव्य
(ii) महाभारत महाकाव्य
पुराण
आदि
इनके विषय में विस्तृत व महत्वपूर्ण जानकारी के लिए आप वैदिक साहित्य भाग-2 पोस्ट अवश्य पढें।
उत्तर वैदिक युगीन संस्कृति – Later vedic period
जैसा कि अपने अब तब जाना उत्तरवैदिक काल से हमारा तात्पर्य उस काल से है जिसमें तीनों वेदों – यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद – ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों की रचना हुई थी। यह दीर्घकाल है। इसमें आर्य-सभ्यता का विस्तार और विकास हुआ। वह पंजाब से आगे शेष उत्तरी भारत और फिर दक्षिणी भारत में भी फैलने लगी। सम्भवतः चित्रित धूसर मृदभाण्ड इसी काल में बनाये गये।
उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन:-
ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य पूर्व की ओर आकर बस गए और कुरुक्षेत्र उनका रंगमंच बना। उनके पुराने रीति-रिवाज समाप्त होते गए और नये राज्य की स्थापना हुई। कुरु-पंचाल नये युग में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते थे। उत्तर वैदिक काल के राजनीतिक जीवन के विषय में बिन्दुवार जानकारियां निम्न हैं―
उत्तर वैदिक काल की राज्य व्यवस्था-
उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक जनों के कबीलाई संगठन की लगभग समाप्ति हो जाती है। ऋग्वैदिक शासक जन विशेष का स्वामी होता था। उत्तर वैदिक काल में जनों का स्थान क्षेत्र ने ले लिया और क्षेत्रीय आधार पर राज्यों का संगठन हुआ जिसे जनपदीय व्यवस्था के नाम से जाना जाता है।
इस काल के राज्य व्यवस्था के मूलभूत आधारजनों की शक्ति में विस्तार के साथ जनपदों की स्थापना राजत्व का विकास, राष्ट्र की परिकल्पना थे। तैत्तिरीय संहिता में राजा के स्वामित्व की परिकल्पना में विशु (जनसमूह) के साथ राष्ट्र या प्रदेश को भी परिगणित किया गया है। राष्ट्र की कल्पना सागर पर्यन्त समस्त भू-मण्डल माना जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण में कई प्रकार के राज्यों का उल्लेख किया गया है, जिनमें साम्राज्य, भोज्य, स्वाराज्य, वैराज्य और राज्य का उल्लेख आता है। इन राज्यों के दिशा निर्धारण और शासन पद्धति का भी उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में प्राची दिशा के राज्यों (मगध, कलिंग, वंग आदि) को साम्राज्य कहा गया है, जिनके शासक को सम्राट कहा जाता था।
दक्षिण दिशा के सत्वत् (यादव) राज्य को भोज्य’ शासन के अन्तर्गत परिगणित किया गया है और इस राज्य के शासक को ‘भोज’ कहा गया है। प्रतीची दिशा (सुराष्ट्र, कच्छ, सौवीर आदि) की शासन पद्धति’ स्वाराज्य’ के नाम से उल्लिखित है और उसके शासक को ‘स्वराष्ट्र’ कहा गया है। उत्तर दिशा में स्थित राज्यों (उत्तरकुरु, उत्तर मद्र) की शासन पद्धति ‘वैराज्य’ नाम से जानी जाती थी और इसके शासक को ‘विराट्’ कहा गया है।
मध्य देश (कुरु, पांचाल आदि) की शासन-प्रणाली ‘राज्य’ कही गयी है और इसके शासकों को राजा कहा गया है। इस प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तर वैदिक कालीन पाँच शासन पद्धतियों का उल्लेख मिलता है, जिससे संकेतित है कि सभी राज्यों या जनपदों में समान शासन पद्धति नहीं थी। विद्वानों का मत है कि सम्राट् वंशानुगत शासक होते थे। भोज’ संभवत: ऐसे शासक थे, जिन्हें वंशानुगत शासन का अधिकार प्राप्त नहीं था, बल्कि ऐसे शासकों को एक निश्चित समय के लिए शासक बनाया जाता था। स्वराद ऐसे शासक थे जो कुलीन वर्ग के थे और ‘समानों में ज्येष्ठ’ के आधार पर शासन सूत्र संभालते थे। विराट्’ प्रकार के शासक संभवत: गणतंत्रात्मक मुखिया होते थे। वैराज्य राज्य में शासन संभवत: जनता के हाथ में होता था कुछ विद्वान् वैराज्य को शासन पद्धति विहीन राज्य मानते हैं।’ राजा’ को प्राचीन वैदिकयुगीन परम्परागत शासन पद्धति का पोषक माना जाता था।
इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में राज्यों के उदय के साथ विभिन्न शासन पद्धतियों का भी अस्तित्व प्रकाश में आता हुआ दिखायी पड़ता है, किन्तु इसमें सर्वाधिक मान्य पद्धति राजतन्त्रात्मक शासन पद्धति थी, जिसमें राजा का पद वंशानुगत होता था।
उत्तर वैदिक कालीन राजा–
उत्तर वैदिककाल में सामान्यत: राजतन्त्रात्मक शासन पद्धति के उल्लेख मिलते हैं, जिसमें राजा का पद स्थायी और वंशानुगत दिखायी पड़ता है। अथर्ववेद में यद्यपि राजा के निर्वाचन की सूचना मिलती है, तथापि ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण में शासक के दस पीढ़ियों के उत्तराधिकार क्रम का उल्लेख भी किया गया है। उत्तर वैदिक कालीन साहित्य में उल्लिखित ‘राजपुत्र’ शब्द सामान्यतः ‘राजा का पुत्र’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
इस काल में राजा से सम्बन्धित राजकीय कुलीन वर्ग का स्वतन्त्रता एवं पृथक् वर्ग के रूप में उल्लेख मिलने लगता है। उत्तर वैदिक काल में राजा का पद वंशानुगत होने से राजा की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। इस युग में राजा की आवश्यकता पर बल देते हुए ऐतरेय ब्राह्मण में एक आख्यान की चर्चा मिलती है जिसमें कहा गया है कि देवासुर संग्राम में देवताओं को बार-बार पराजय का मुँह देखना पड़ा। देवताओं ने पराजय के कारणों पर गहनता से विचार किया, तो इस तथ्य पर पहुँचे कि राजा के अभाव के कारण उनकी बार-बार पराजय हो रही है।
अत: देवताओं ने सोम को राजा बनाकर पुन: असुरों से युद्ध किया और उन्हें पराजित किया। इस आख्यान से संकेत मिलता है कि राजा का उद्भव युद्धकालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए सर्वसम्मति से निर्वाचन के माध्यम से हुई। इसी प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मण में देवताओं द्वारा इन्द्र को राजा बनाये जाने का उल्लेख है, क्योंकि इन्द्र सभी देवताओं में सर्वाधिक बलवान और प्रतिभाशाली था। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि अकाल के समय उत्पन्न अशान्ति (जिसमें सबल-निर्बल को उत्पीड़ित करते हैं) से छुटकारा पाने के लिए शासक की आवश्यकता होती है। इस प्रकार राजा का प्रादुर्भाव अशान्ति, असुरक्षा, असंगठन और पराजय से मुक्ति पाने के लिए हुआ प्रतीत होता है।
उत्तर वैदिक काल में राजा को देवत्व प्रदानकरके उसमें दिव्य गुणों का संचार किया गया। राजा के दैवीकरण में यज्ञों की प्रमुख भूमिका थी। शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि राजसूय और बाजपेय यज्ञों को सम्पन्न करने के बाद राजा प्रजापति के समान हो जाता है। शतपथ ब्राह्मण राजा को प्रजापति का मूर्त रूप मानता है कतिपय विद्वान् मानते हैं कि राजा की मानवीय उत्पत्ति को कभी भी विस्मृत नहीं किया गया और न ही उसे वंशानुक्रम से राजा होने के कारण दिव्य माना गया।
इस काल में विभिन्न राज्यों की स्थापना के साथ विस्तारवादी प्रवृत्ति का जन्म हुआ और राजाओं में साम्राज्य विस्तार की वितृथ्णा बढ़ी । उत्तर वैदिक काल में धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण इस मान्यता को बल मिला कि विभिन्न यज्ञों राजसूय, बाजपेय आदि को सम्पादित करने से सार्वभौमिक सम्राट् पद की प्राप्ति संभव है। अत: अनेक शासकों द्वारा इन यज्ञों को सम्पादित कराया गया।
विद्वानों का मत है कि अनेक राजा यज्ञों के सम्पादन द्वारा ही एकराट् अथवा सम्राट् कहलाने के अधिकारी हो जाते थे। यद्यपि कतिपय विद्वान् राजाओं के एकराट् और सम्राट् की स्थिति को सन्देहास्पद मानते हैं, तथापि ब्राह्मण साहित्यों में वर्णित राजाओं को विशिष्टता को सर्वथा इंकार नहीं किया जा सकता है। संभव है कि इस काल के कतिपय राजाओं ने विशिष्ट पदों को प्राप्त करने की ओर प्रयास किया हो।
स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक काल में आयों का विस्तार लगभग सम्पूर्ण उत्तरभारत में दिखायी पड़ता। है। आर्यों के इस विस्तार में निश्चित रूप से छोटे बड़े राज्य थे जिनमें शक्ति परीक्षण स्वाभाविक प्रतीत होता है।
उत्तर वैदिक काल में राज्यों की स्थापना और वंशानुगत राजपद के कारण राजा को शक्ति और प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, किन्त राजा को विधायी शकतियाँ प्राप्त नहीं थीं। राजा धर्म के अनुसार शासन करने के लिए निर्देशित होता था शतपथ ब्राह्मण में निरंकुश राजा को शिकारी के समान कहा गया है, जो पशुओं का निरपराध वध करता है।
निरकुंश राजा को ‘राष्ट्री” शब्द से सम्बोधित किया गया, जो स्वयं राष्ट्र के साधनों का प्रयोग करता था ताण्ड्य ब्राह्मण में कहा गया है कि पुरोहित यज्ञ के माध्यम से राजा (निरकुंश राजा) के विनाश के लिए प्रजा की सहायता कर सकता था। इस काल में धर्माचरण एवं धर्मनिष्ठ राजाओं की प्रशंसा की गयी है और निरंकुश शासक के विरोध करने की ओर संकेत किया गया है।
उत्तर वैदिक काल में यद्यपि राजा स्वतंत्र एवं सर्वसत्ता सम्पन्न माना गया था, किन्तु जन संस्थाओं का उस पर नियन्त्रण होना तत्कालीन साहित्य में निर्देशित है। इस काल में भी सभा एवं समिति नामक जनसंस्थाओं की प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उल्लेखनीय है कि पूर्व वैदिक युगीन आदिम जनसभा ‘ विदथ’ का इस काल में अस्तित्व नहीं मिलता है। अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। इससे ऐसा संकेत मिलता है कि उत्तर वैदिक काल में जनसंधाओं का भी दैवीकरण करके राजा के समकक्ष स्थान प्रदान किया गया और राजा को जनसभाओं की प्रतिष्ठा बनाये रखने का उत्तरदायी माना गया। अथर्ववेद में कहा गया है कि राजा जनसभाओं के सहयोग का आकांक्षी होता था और जनसभाओं का समर्थन न मिलना राजा के लिए उचित नहीं माना जाता था।
इस काल में समिति का कार्य मुख्यत: न्यायिक होता था और आकार में यह सभा से बड़ी होती थी। विचित्र किन्तु सत्य यह है कि समिति का उल्लेख परवर्ती वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण साहित्यों में नहीं मिलता है, किन्तु उपनिषदों में समिति का विशद् विवरण प्राप्त होता है। इस काल में समिति में राजनीतिक, दार्शनिक एवं धार्मिक चर्चाएँ और विचार-विमर्श होते थे। उपनिषदों में राजा की अध्यक्षता वाली समिति में वाद-विवाद का उल्लेख मिलता है। उपनिषद् काल के बाद समिति का अस्तित्व लगभग समाप्त हो जाता है, क्योंकि परवर्ती साहित्य में समिति का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। सभा का स्वरूप संभवत: साधारण सभा की भाँति था जिसमें राजनीतिक विषयों के साथ अन्य विषयों पर भी विचार विमर्श किया जाता था।
अथर्ववेद के वर्णन के अनुसार सभा ग्राम से सम्बन्धित थी। इसके अधिकार में ग्राम के स्थानीय विषय आते थे। सभा में वाद-विवाद के पश्चात् ही निर्णय लिया जाता था। अथर्ववेद में सभा को ‘नरिष्ठा’ कहा गया है, जिसका तात्पर्य विद्वान् सामूहिक वाद-विवाद मानते हैं अथर्ववेद में सभा को दयत-क्रीड़ा और मनोरंजन स्थल से सम्बन्धित कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सभा का पूर्व वैदिक स्वरूप पूर्णतः परिवर्तित नहीं हुआ था, क्योंकि ऋग्वेद में भी सभा को द्यत-क्रीड़ा और आमोद-प्रमोद के लिए प्रयुक्त माना गया है। अल्तेकर का मत है कि उत्तर वैदिक काल में सभा का स्वरूप बदलकर राजनीतिक संस्था हो गयी थी। शतपथ ब्राह्मण में राजा को राजसभा में उपस्थित रहने का निर्देश है। सभा के सदस्य समाज के प्रतिष्ठित नागरिक माने जाते थे।
राजा को कुलीन वर्ग (राजपरिवार से सम्बन्धित वर्ग) के लोगों का समर्थन आवश्यक माना गया है। शतपथ ब्राह्मण में निर्देशित है कि राजा वही हो सकता है. जिसे राजा लोगों (राजानः) का अनुमोदन प्राप्त हो। विद्वान ‘राजान: ‘ का तात्पर्य राजपरिवार से जुड़े सगोत्रीय क्षत्रिय वर्ग को मानते हैं।
उत्तर वैदिक काल के प्रशासनिक अधिकारी-
ऋग्वेद में प्रशासनिक कार्यों में सहायता देने के लिए एक मात्र पुरोहित, सेनापति और ग्रामणी का उल्लेख प्रत्यक्षतः मिलता है, किन्तु उत्तर वैदिक काल में राजा की शक्ति एवं अधिकार में वृद्धि, राज्य के विस्तार और बढ़ती हुई प्रशासनिक जटिलताओं के कारण अधिकारियों की संख्या में भी वृद्धि दिखायी पड़ती है।
शतपथ ब्राह्मण में ऐसे अधिकारियों, जिन्हें ‘रत्निन‘ कहा गया है, का उल्लेख आता है, जिन्हें राजा के राज्याभिषेक के अवसर पर सम्मानित किया जाता था। ऐसे अधिकारियों (रत्निन) में सेनानी, पुरोहित, याजक, महिषी ( प्रधानरानी), सूत (सारथी), ग्रामणी (गाँव का मुखिया), क्षति (संभवत: प्रतिहारी ) संग्रहीत ( कोषाध्यक्ष) भागदुध (कर संग्रह करने वाला), अक्षवाप (संभवतः द्यूत-क्रीड़ा में राजा का सहयोगी) गोविकर्तन और पालागल का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में किया गया है। इनकी संख्या बारह बतायी गयी है।
के० पी० जायसवाल का मत है कि ऐसा प्रतीत होता है ये सभी उच्चपदाधिकारी मिलकर राजपरिषद् का निर्माण करते थे। राज्याभिषेक के अवसर पर राजा इनके घरों पर जाकर कुछ धार्मिक कृत्य करता था और इन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता था। प्रशासन में रत्नियों का अत्यधिक महत्त्व माना गया था। तैत्तिरीय संहिता में रत्नियों को ‘राष्ट्र धारण करने वाला’ और मैत्रायणी संहिता में राष्ट्र को तेजस्वी बनाने वाला’ कहा गया है।
उत्तर वैदिक साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में रत्नियों की संख्या अलग-अलग बताई गयी है। शतपथ ब्राह्मण के अलावा तैत्तिरीय संहिता में रत्निनों की संख्या ग्यारह, मैत्रायणी संहिता में चौदह, काठक संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण में बारह बतायी गयी है। इन रत्निनों में राजकीय पदाधिकारियों के साथ राजपरिवार के लोगों को भी सम्मिलित किया गया है।
रत्नियों में सर्वप्रथम पुरोहित का उल्लेख आता है पुरोहित का दायित्व राजा को परामर्श देना और राजा की सफलता एवं प्रजा की भलाई के लिए धार्मिक कृत्य एवं अनुष्ठान करना होता था।
पुरोहित के बाद सेनापति का उल्लेख किया गया है सेनापति युद्ध में राजा के साथ सेना को नेतृत्व प्रदान करता था और सैन्य व्यवस्था का व्यवस्थापक होता था रत्नियों में राजमहिषी (रानी) का भी उल्लेख हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजमहिषी एक मात्र राजपरिवार की सदस्य ही नहीं होती थी, अपितु प्रशासन में भी उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी अन्य रत्नीयों में सूत राजा का सारथी होता था और ग्रामणी गाँव का मुखिया था भागदुक् का कार्य कर संग्रह करना था। संग्रहीत राजकीय कोष का प्रमुख होता था गोविकर्तन नामक रलिन् संभवत: जंगल का मुखिया होता था। क्षतु, अक्षवाप और पालागल की प्रशासनिक भूमिका के बारे में स्पष्टत: कुछ कहना कठिन है।
इसके अतिरिक्त मैत्रायणी संहिता में ‘ तक्षन्’ (बढ़ई) और रथकार की भी गणना रत्नियों में की गयी है। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवसाय से जुड़े कर्मकारों को रत्नियों के रूप में सम्मान देना इन व्यवसायों के प्रति प्रतिष्ठा का द्योतक था। इस काल में सेनापति का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु सैन्य संगठन के विषय में कोई स्पष्ट जानकरी नहीं मिलती है। सेना का उल्लेख सभा और समिति के साथ स्वतन्त्र इकाई के रूप में किया गया है, किन्तु सैन्य सम्बन्धी विस्तृत जानकारी का अभाव है। उत्तर वैदिक काल में राज्यों की विस्तारवादी नीति के कारण सेना का अत्यधिक महत्त्व रहा होगा, किन्तु इस काल का साहित्य सैन्य संगठन पर प्रायः मौन दिखायी पड़ता है।
उत्तर वैदिक राज्य की आय-
उत्तर वैदिक काल में राज्य की आय का मूल स्त्रोत ‘कर’ माना जाता था। पूर्व वैदिक युग में राजा को बलि प्रदान करना स्वेच्छा पर निर्भर था, किन्तु उत्तर वैदिक काल में कर देना अनिवार्य हो गया था। इस काल में कर संग्रह करने वाले राजकीय अधिकारी ‘ भागदुध’ का उल्लेख मिलता है । इस युग में मुख्यत: वैश्य वर्ग ही करदाता था क्योंकि शूद्र वर्ग सम्पत्ति और धन से विहीन वर्ग था । ब्राह्मण वर्ग को कर मुक्त करने का संकेत मिलता है और क्षत्रियों की प्रमुख भूमिका प्रशासन में थी।
अत: क्षत्रिय भी संभवत: कर से मुक्त थे। इसलिए कर का भार वैश्यों पर ही था, क्योंकि कृषि, पशुपालन, व्यापार-वाणिज्य और शिल्प में इस वर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी जिससे इनके पास धन एवं सम्पत्ति का संग्रह हो गया था। इस काल में कर अन्न और पशुओं के रूप में लिया जाता था। राज्य की आय का अधिकांश भाग राजा स्वयं खर्च करता था। राज्य की आय से राजा अनेक सार्वजनिक कार्यो, यज्ञों आदि का सम्पादन करता था और साथ ही व्यक्तिगत खर्चों पर भी व्यय करता था। उत्तर वैदिक काल तक भूमि का स्वामित्व वैयक्तिक बना रहा। राजा को भूस्वामित्व प्राप्त नहीं हुआ था।
उत्तर वैदिक काल की सामाजिक स्थिति-
उत्तर वैदिक काल में समाज चार वर्गों में विभाजित दिखायी पड़ता है: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र । ऋग्वेद में वर्ण शब्द रंग का पर्याय माना गया है और वर्ण के रूप में आर्य वर्ण और अनार्य वर्ण का उल्लेख मिलता है; किन्तु उत्तर वैदिक काल में वर्ण वर्ग विभाजन का द्योतक हो गया।
सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम् मण्डल के पुरुषसूक्त में विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति बतायी गयी है, किन्तु इसमें वर्ण शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के लिए ‘वर्ण’ शब्द सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में प्रयुक्त दिखायी पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे जटिल होती जा रही थी और इसमें परवर्ती जाति व्यवस्था का बीजारोपण हो चुका था।
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था को कठोरता से लागू किये जाने के साक्ष्य मिलते हैं। शतपथ ब्राह्मण में चारों वर्णों के लोगों को बुलाने के लिए अलग- अलग सम्बोधन प्रयुक्त करने का विधान किया गया है। इसी ब्राह्मण में चारों वर्णों के लिए अलग- अलग आकार-प्रकार की चिताओं का उल्लेख आता है। चारों वर्णों के लिए गायत्री मंत्र के पाठ की विधियाँ भी भिन्न-भिन्न बतायी गयी है।
इसी प्रकार यज्ञ में प्रयुक्त की जाने वाली लकड़ियाँ भी वर्णों के अनुसार अलग-अलग बतायी गयी हैं। यज्ञ में ब्राह्मण को पलाश, क्षत्रिय को न्यग्रोध और वैश्य को अश्वत्थ की लकड़ी का प्रयोग करने का विधान किया गया था। शूद्र वर्ण के लिए यज्ञ जैसे धार्मिक कृत्य निषेध किये गये थे। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था की कठोरता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। उत्तर वैदिक काल में आर्य और आर्येतर जातियों के सम्मिश्रण का भी प्रभाव समाज पर दिखायी पड़ता है।
सामान्यत: आयों के साथ मूल निवासियों के सम्बन्ध ने सामाजिक व्यवस्था को नया आयाम प्रदान किया। आर्यो के आन्तरिक वर्ग विभाजन के साथ समाज में उदित अनेक नई सामाजिक इकाइयों का आत्मसातीकरण भी हुआ किन्तु इस प्रकार की सामाजिक इकाइयों को पूर्ववर्ती सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाये रखा गया। इस काल में युद्ध बन्दियों को दासों के रूप में मान्यता दी गयी, किन्तु समाज के निर्धन और पिछड़ी जनजातियों को शुद्र की कोटि में रखा गया था।
उल्लेखनीय है कि आयों और आर्येतर जनजातियों की धार्मिक गतिविधियों में मूलभूत अन्तर था। आर्य जनजातियों के धर्म परिवर्तन के प्रति उत्साही नहीं थे, इसलिए आर्यों और आर्येत्तर जनजातियों में आत्मसातीकरण के बाद भी भिन्नता बनी रही और जनजातियों का विशिष्ट सामाजिक इकाइयों के रूप में अस्तित्व बना रहा और विकसित वर्णव्यवस्था में इन्हें स्वतंत्र जातियों के रूप में परिगणित किया गया।
उत्तर वैदिक काल में वर्णव्यवस्था के फलस्वरूप ब्राह्मणों और क्षत्रियों को समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त था। इस काल में धीरे-धीरे आन्तर्वर्णीय संक्रमण की संभावना समाप्त हो गयी और आनुवंशिकता ने अपनी जड़ें जमा लीं। सामान्य जनता में प्रचलित व्यवसाय आनुवंशिक होते गये और व्यवसाय से जुड़े लोगों ने जाति का स्वरूप ग्रहण कर लिया।
इस प्रकार धर्म और राजनीति से जुड़े ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बाद जनसामान्य में वैश्य वर्ग का उदय हुआ। वैश्य वर्ग के पास सम्पत्ति का अधिकार था। आर्य व्यवस्था में विभिन्न जनजातियों के प्रवेश ने वैश्यवर्ग को भी प्रभावित किया। इसीलिए वैश्य वर्ग को वर्णों के स्तरीकरण में शुद्रों से थोडा ऊपर रखा गया, किन्तु कालान्तर में इनकी स्थिति शूद्रों जैसी हो गयी। उत्तर वैदिक काल में व्यवसायगत जाति निर्धारण में अनेक व्यवसायों की उल्लेखनीय भूमिका मानी जाती है।
इस प्रकार विद्वानों का मत है कि भारतीय सामाजिक इतिहास में वर्ण का जाति में परिवर्तन अत्यन्त प्रारंभ में सम्पन्न हो गया था किन्तु कालान्तर में जाति ने ऐसा कठोर रूप और महत्त्व ग्रहण कर लिया, जिसकी तुलना किसी अन्य समाज में नहीं मिलती है।
उत्तर वैदिक काल की वर्ण व्यवस्था:-
उत्तर वैदिक काल में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था वंशानुगत सामाजिक वर्गों के रूप में दिखायी पड़ती है। इस काल में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्णों में अधिकार और प्रभुसत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा के संकेत मिलते हैं। ये दोनों वर्ण निश्चित रूप से वैश्य वर्ण से उच्च थे उत्तर वैदिक साहित्य के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मणों को श्रेष्ठ उद्घोषित करते हैं, जबकि अन्य कुछ ग्रन्थों में क्षत्रियों को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ बताया गया है।
>> बाजसनेयी संहिता ब्राह्मण को राजा से श्रेष्ठ मानती है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि राजा पर निर्भर होने पर भी ब्राह्मण राजा से श्रेष्ठ है। राजा की शक्ति का आधार ब्राह्मण है। इसके विपरीत काठक संहिता और ऐतरेय ब्राह्मण में क्षत्रिय को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ कहा गया है इस प्रकार साहित्य में वर्णित ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की प्रतिस्पर्धा के विषय में विद्वानों का मत है: “इन उद्धरणों के आधार पर सामाजिक श्रेष्ठता के लिए ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के बीच किसी गंभीर संघर्ष का अस्तित्व मानना ठीक नहीं जान पड़ता। ब्राह्मणों ने कभी भी राजनीतिक प्रभुता के अधिकार का दावा नहीं किया, न ही क्षत्रियों ने पौरोहित्य कर्म हथियाने की कामना व्यक्त की। पराविद्या के क्षेत्र में अवश्य ही पुरोहितीय कर्मकाण्ड के विरुद्ध एक चुनौती का अस्तित्व दिखायी पड़ता है। इस चुनौती के मूल स्रोत परिव्राजक तथा निवृत्तिमार्गी श्रमण थे। “
इस काल में उपनिषदों के विकास के साथ यज्ञीय कर्मकाण्डों पर प्रहार होने लगा। जिसके फलस्वरूप पुरोहितवाद को धक्का लगा। फलत: इस युग में ब्राह्मण और क्षत्रिय एक दूसरे से अध्यात्म विद्या की शिक्षा ग्रहण करते हुए दिखायी पड़ते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में पुरोहित उद्दालक आरुणि और उसके पुत्र श्वेतकेतु को पांचाल शासक प्रवाहण जाबलि का शिष्य बताया गया है।
इसी प्रकार मिथिला के शासक जनक ने याज्ञवल्क्य से अध्यात्म ज्ञान सीखा था। जी० एस० पी० मिश्र के शब्दों में-” इसमें सन्देह नहीं कि जिस प्रकार ब्राह्मण त थत्रिय आर्थिक तथा व्यावसायिक दृष्टिकोण से समशील वर्ग नहीं रह गये थे, उसी प्रकार वैचारिकी के स्तर पर भी उनकी समशीलता विलुप्त हो चुकी थी। जहाँ एक ओर जनसंख्या का शिल्पों तथा वाणिज्य-व्यापार के विकास से परम्परागत वर्गों में विघटन हो रहा था, वहीं एक नवीन बौद्धिक उत्कर्ष से परम्परागत विश्वासों के संशोधन की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो गयी थी।”
ब्राह्मण-
उत्तर वैदिक काल के साहित्य से ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों का प्रमुख कर्तव्य अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान लेना था। उसे कुछ विशेषाधिकार जैसे–मृत्युदण्ड से मुक्ति, याज्ञिक कार्य करना, और पौरोहित्य कर्म करना आदि प्राप्त था। पौरोहित्य कर्म संभवतः वंशानुगत था। ब्राह्मण की हत्या जघन्य अपराध था। ब्राह्मण स्वामी के प्रति विश्वासघात करने पर दण्डनीय था।
>> शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मण को सभ्यता का प्रकारक माना गया है। समाज में उसकी स्थिति अत्यन्त उच्च थी। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि उसकी शरीर में देवता निवास करते हैं। तैत्तिरीय आरण्यक में उसे देवता माना गया है। अथर्ववेद में निर्देशित है कि उसे कष्ट मिलने पर जल में टूटी नाव के समान राजा का राज्य नष्ट हो जाता है ऐतरेय ब्राह्मण उसके पौरोहित्य का समर्थन करते हुए कहता है कि पुरोहित के अभाव में अर्पित की गयी राज्य की आहुतियाँ देवता स्वीकार नहीं करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण द्वारा दी गयी सत्ता से ही राजा शासन करता है। इस युग के साहित्य में ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों में सहयोग की कामना के संकेत भी मिलते हैं।
वस्तुतः ब्राह्मण को जो सम्मान दिया गया था, वह उसके आचरण और कर्म का प्रतिफल था। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि वह अपने आचरण और कर्म को मनोयोग से करता रहे।
क्षत्रिय-
इस युग में क्षत्रिय राजकुल से मुख्यत: सम्बद्ध था। क्षत्रियों को प्रशासनिक योग्यता और युद्ध कौशल में निपुण होना आवश्यक था। इस वर्ग को अध्ययन, यजन, दान देने आदि का अधिकार दिया गया था, किन्तु अनेक शासकों ने अध्यात्म विद्या का ज्ञान भी दिया। इस युग के शासक उच्च कोटि के दार्शनिक भी थे।ऐसे दार्शनिक शासकों में जनक, प्रवाहण जाबलि, अश्वपति, कैकेय आदि उल्लेखनीय हैं।
शतपथ ब्राह्मण में राजा जनक को उनके ब्रह्मज्ञान के कारण ‘ब्राह्मण’ कहा गया है। इस प्रकार क्षत्रियों को भी उत्तर वैदिक काल में एक शिक्षक, दार्शनिक और तत्त्वान्वेषी के रूप में उल्लिखित करना उनके सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि का संकेत करता है।
वैश्य-
उत्तर वैदिक काल में वैश्य वर्ग की स्थिति ब्राह्मण और क्षत्रिय से निम्न थी ऐतरेय ब्राह्मण में वैश्यों को ‘अन्यस्य बलिकृत’ कहा गया है। सैद्धान्तिक रूप से वैश्यों को ब्राह्मण और क्षत्रिय के समान अधिकार दिये गये थे। यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से समाज का सम्पन्न वर्ग था, किन्तु इनकी हीनता का जो वर्णन साहित्य में मिलता है, उसके लिए वैश्य स्वयं जिम्मेदार थे।
इस वर्ग को ब्राह्मण और क्षत्रिय की भाँति कई सामाजिक और धार्मिक अधिकार प्राप्त थे. जो शूद्रों को नहीं दिये गये थे। वैश्यों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत और यज्ञ सम्पादन का अधिकार प्राप्त था । इसके अतिरिक्त वैश्यों का मुख्य कार्य कृषि और पशुपालन था तैत्तिरीय संहिता में उन्हें पशु की कामना से यज्ञ करने वाला कहा गया है। कृषि और पशुपालन के अलावा वैश्य वर्ग व्यापार -वाणिज्य और शिल्प से भी जुड़े हुए थे। वैश्यों ने अपने धार्मिक दायित्वों का निर्वाह नहीं किया। उन्होंने अपना श्रम और समय धन कमाने में लगाया। परिणामस्वरूप यज्ञों, वेदाध्ययन आदि से उनका सम्बन्ध विच्छेद हो गया। वैश्यों द्वारा अपने धार्मिक दायित्वों का निर्वाह न करने से उनकी सामाजिक स्थिति में गिरावट आयी, जो उनकी हीनता की द्योतक थी। कालान्तर में धनिक वैश्य वर्ग से श्रेष्ठियों के विशिष्ट वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ।
शूद्र-
उत्तर वैदिक काल में परिवार का स्वरूप-
उत्तर वैदिक काल में विवाह-
उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा-
उत्तर वैदिक काल में शिक्षा-
उत्तर वैदिक काल में शिक्षा का स्वरूप और पद्धति पूर्व वैदिक युग की भांति ही परिलक्षित होती है। इस काल में बालक को उपनयन संस्कार के बाद गुरु के पास अध्ययन के लिए भेजा जाता था। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि तीनों वर्णों के बालक अपने परिवार से दूर गुरु के पास ब्रह्मचर्य आश्रम के अन्तर्गत शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाते थे। उपनिषदों में ‘गुरुकुल’ के स्थान पर ‘ आचार्य कुल’ का प्रयोग किया गया है। इस काल में दो प्रकार के गुरुकुल थे-गृहस्थ गुरु आश्रम और वनस्थ प्रवजित गुरु आश्रम गुरुकुल में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को अन्तेवासी या आचार्य कुलवासी कहा जाता था।
उत्तर वैदिक काल की दास-प्रथा-
जीवन के भौतिक आयाम-
भोजन:
वस्त्राभूषण-
आमोद प्रमोद/मनोरंजन :-
उत्तर वैदिक काल की अर्थव्यवस्था अथवा आर्थिक स्थिति-
कृषि :
पशुपालन-
उद्योग-धन्धे-
व्यापार-वाणिज्य-
उत्तर वैदिक काल का धार्मिक जीवन: धार्मिक स्थिति-
यज्ञीय परम्परा और देवोपासना-
उपनिषदिक दार्शनिक विचारधारा:-
उत्तर वैदिक काल का लोकधर्म:-
पिछली पोस्ट- इन्हें भी देखें
निष्कर्ष:-
ध्यान दें:- यह वैदिक संस्कृति का दूसरा भाग है। जैसा कि अपने पढ़ा इसमें उत्तर वैदिक संस्कृति की व्याख्या की गई है। पिछली पोस्ट में आपको पूर्व वैदिक काल की समस्त जानकारियां प्रदान की गयी हैं। जिसका link ऊपर दे दिया गया है। यह पोस्ट आपको किसी लगी comment में अवश्य बताएं।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय