Origin of life on Earth in Hindi : पृथ्वी एवं मानव का कार्यात्मक सम्बन्ध रहा है। मनुष्य की समस्त क्रिया-कलापों की प्रणेता पृथ्वी ही होती है। मानव की सभी गतिविधियाँ, चाहे वे ऐहिक हों अथवा स्वर्गिक, पृथ्वी पर ही केन्द्रित होती हैं। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने पृथ्वी के मातृत्त्व स्वरूप को सहजतया अंगीकार कर लिया।
वेदों में पृथ्वी का वर्णन
यह तथ्य अथर्ववेद के एक मंत्र से स्पष्ट हो जाता है, जिसमें भूमि (पृथ्वी) को माता एवं समस्त जीवधारियों को उसकी सन्तान के रूप में कल्पित किया गया है-“माता भूमि : पुत्रोऽहं पृथिव्याः” वैदिक साहित्य में पृथ्वी को मही, दृलृहा तथा प्रदीप्त अर्थात् महान्, दृढ़ और आर्जुनी प्रभृति संज्ञाओं से अभिहित किया गया है।
पृथ्वी की उत्पत्ति कब हुई : Origin of life on Earth in Hindi
हमारी पृथ्वी को सौर परिवार का अभिन्न अंग स्वीकार किया जाता है किन्तु इसकी उत्पत्ति विषयक धारणा भूगर्भशास्त्रियों एवं पुरातत्वविदों में रहस्यात्मक तथ्य बनी हुयी है। ऋग्वैदिक आख्यान के अनुसार इन्द्र ने पृथ्वी को ऊपर उठाया और उसे प्रपथत् अर्थात् विस्तृत किया।
पौराणिक मान्यता के अनुसार जल के विकार से गन्धतन्मात्व की सृष्टि हुई और गन्धतन्मात्व से पृथ्वी उत्पन्न हुई।
परन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों का विचार है कि पृथ्वी सौर मण्डल का एक ग्रह है। आज से लगभग चार-पाँच अरब वर्ष पहले किसी कारणवश यह उससे पृथक् होकर उसके चारों ओर परिभ्रमण करने लगी।
सम्पूर्ण सौरमण्डल का व्यास लगभग 1173 किमी0 है और पृथ्वी सूर्य से लगभग 149600,000 किमी0दूर है जिस समय यह सूर्य से अलग हुई उस समय यह दहकते हुए गैसीय पिण्ड के रूप में थी।
शनैः शनैः यह शीतल हुई। हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन जैसी गैसों के परस्पर संयोग से जलवाष्प, अमोनिया, मीथेन, इथेन आदि सरल यौगिक बने।
ठण्डी होने पर गैस पहले द्रव में परिवर्तित हुई, तदनन्तर ठोस रूप में बदलने लगीं पृथ्वी के ठण्डी होने के कारण इसमें जो सिकुड़न आयी, उससे कहीं धरातल ऊँचा हुआ तो कहीं नीचा क्रमशः वातावरण में मौजूद जलवाष्प के रूप में गिरकर पृथ्वी को ठण्डा करने लगा। नीचे स्थानों में वर्षा के जल भर जाने के कारण महासागर नदियाँ, झीलें आदि अस्तित्व में आयीं।
पृथ्वी का ताप जब सीमाबद्ध हुआ, तब इस पर-जीव जन्तुओं तथा वनस्पतियों का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार जल तथा थल दोनों ही इसमें से निकल आये। चन्द्रमा भी यहीं से निकला। चूंकि सूर्य से पृथ्वी तथा पृथ्वी से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई अतः इन्हें क्रमशः सूर्य-पुत्री और पृथ्वी पुत्र कहा जाता है। यह जहाँ से निकलकर आकाश में दिखाई पड़ता है, वहीं गहरा स्थान प्रशान्त महासागर है ।
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चन्द्रमा
चन्द्रमा धीरे-धीरे शीतल हुआ। अब सूर्य और पृथ्वी की दूरी बढ़ी। पृथ्वी अपनी वार्षिक गति के अनुसार 365 1/4 दिनों में सूर्य के चारों ओर एक बार घूमने लगी। पृथ्वी को अपनी धुरी पर चक्कर लगाने में पहले से अधिक समय लगा। इसी एक चक्र के गणना की अवधि 24 घण्टे मानी गयी इस प्रकार एक इकाई की अवधि 24 ঘण्टे है।
ऐसी संभावना की जाती है कि भविष्य में बढ़ती शीतलता, रात्रि और वर्ष की लम्बी अवधि के कारण पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। अतः सूर्य से उद्भूत होकर हमारी पृथ्वी आज भी उससे जीवन-धारण करती है। सूर्य ही दिन-रात एवं ऋतु परिवर्तन का मूल कारण है।
पृथ्वी पर जीवोत्पत्ति एवं विकास | Prithvi par jivan ki utpati
प्राणिशास्त्रियों ने पृथ्वी पर दस लाख से अधिक जीवधारियों की प्रजातियों को चिह्नित किया है। लगभग 800,000,000 वर्ष पूर्व यहाँ जीवधारी उत्पन्न होकर एक विकास क्रम में बढ़ते गये। इसी की अन्तिम कड़ी मनुष्य है जो सर्वाधिक विकसित प्राणी है। मनुष्य का आगमन पृथ्वी पर एक क्रमिक विकास में हुआ।
सबसे पहले पृथ्वी पर कौन उत्पन्न हुआ?
पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कैसे, कहां हुई? यह एक बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न है। यहाँ पहले वनस्पतियाँ उत्पन्न हुई, फिर मछलियाँ, तत्पश्चात् रेंगने वाले जीव-जन्तु एवं अन्त में मानव समप्राणी का प्रादुर्भाव हुआ। इसकी अन्तिम कड़ी बन्दर और वनमानुष हैं जिससे आदिम मानव पृथ्वी पर आया।
धरती पर जीवन कब से है?
प्रजीव युग (आर्कोजोइक एज) काल से ही पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति की कल्पना की जाती है। यद्यपि उनका कोई अस्तित्व नहीं मिला है पर इसी समय धरती पर जीवन आया होगा। पहले यह कोमल और आकार विहीन था, शीघ्र ही इसका विनाश हुआ फिर गर्म जल पर छोटे-छोटे पौधे तथा चिपचिपे जन्तु उत्पन्न हुए।
इनमें कुछ सजीव थे और कुछ निर्जीव, निर्जीव की अपेक्षा सजीव आकार में अधिक बड़े थे ये अपने आस-पास से ही जीवन निर्वाह की सामग्रियाँ संग्रहीत करते हुए समान जीवोत्पन्न करते थे।
चूंकि सबसे पहले जीव सूक्ष्म थे इसलिए इस काल को प्रोटोजोइक एज (सूक्ष्मजीव काल) कहा जाता है।
इसी क्रम में आगे छोटे-छोटे जीवधारियों से बड़े-बड़े जीवधारी उद्भूत हुए।
बड़े-बड़े पादपों के बाद मछलियाँ उत्पन्न हुई। कुछ मछलियाँ एक किनारे रहती थीं तो दूसरी गहरे जल में। पहले ये अस्थिविहीन थीं। बाद में रीढ़ की हड्डी वाली मछलियाँ हुई जो बड़ी होती थीं। ये भूमि के समीप रहना पसन्द करने लगीं।
अब यहाँ पौधे भी उत्पन्न हुए। तब फिर बिना पानी के भी ऊँची भूमि पर रहने वाली मछलियों में केकड़ा बना। ये दलदलों में भी रहने लगीं। चूंकि इस युग में मछलियों का रूप दिखलाई पड़ता है। इसलिए इस युग को मत्स्य युग (एज ऑव फिशिज) कहा जाने लगा।
पादप भी पहले से बड़े होने लगे। फिर वहाँ जंगल उगे और रगड़ खाकर आग लगने से वे जल गए। उत्खनन में आज उनके अवशेष कोयले के रूप में निकलते हैं विकास क्रम की अग्रिम कड़ी में यहाँ पंखदार और दो पैरों वाले जानवर भी उत्पन्न हुए जो अब विलुप्त हो गये हैं।
पृथ्वी पर क्रमशः हिम युग तथा उष्ण युग आता है। उष्ण काल में पौधे और जीव जन्तु निकलते थे पर उण्ड से, जितने भी जीवधारी और पादप थे वे नष्ट हो जाते थे जल जम जाता था। अब रेंगने वाले जीव कछुए, बड़ियाल, सर्प आदि उत्पन्न हुए। ये अण्डा देते थें।
इस समय कोणदार वृक्ष भी उत्पन्न हुए। पर जब शीतकाल समाप्त हुआ और फिर गर्मी आई तब विभिन्न आकार-प्रकार के रेंगने वाले कीड़े पैदा हुए जिनके अगले पाँव मजबूत होते थे। किन्तु ये जीवित नहीं रह सके तथा समाप्त हो गये।
अब पक्षियों और मानव सम प्राणियों का उदय हुआ। चूंकि यह युग रेंगने वाले जीवधारियों का था इसलिए इस काल को मेसोजोइक एज कहा जाता है।
अब सागर के विस्तारित होने से भू-प्रकृति में वृत्ति आयी। जो भाग सागर से बचा रहा वहाँ मानव सम प्राणी उत्पन्न हुआ। परिस्थिति के अनुसार इनके शरीर में अनेकशः परिवर्तन होने लगे जैसे-शरीर पर सुरक्षा के लिए बाल उगना, सन्तति उत्पन्न करना, उन्हें दूध पिलाना, पालना तथा उनकी सुरक्षा करना।
वे सामूहिक जीवन व्यतीत करते तथा झुण्डों में रहते थे। ये प्रमुख थे-कुत्ते, भेड़िए, चीते, पुरातन घोड़े आदि।
इसी क्रम की अन्तिम कड़ी हैं-वनमानुष और लंगूर आदि। ये जंगलों में रहते तथा दो हाथों की सहायता से अपना काम करते थे। इनका मस्तिष्क अधिक विकसित हुआ। अतः ये जीवन-निर्वाह की आवश्यकताएँ पूरा कर सकते थे।
इन्हीं मानव सम प्राणियों के बाद मानव का प्रादुर्भाव हुआ। इसे नवजीवन युग मानव सम प्राणी युग (केनोजोइक युग) कहते हैं। इसके प्रारम्भिक काल ( तृतीयक युग ) में मानव का अस्तित्व बनने लगा तथा चतुर्थक काल में मानव का अस्तित्व तैयार हो चुका या।
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निष्कर्ष: prithvi ki utpatti
इस प्रकार हम देखते हैं कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति एक बहुत ही रोचक विषय है। हम देखते हैं कि जीवन का विकास एक बहुत ही दीर्घकालिक निरंतर परिवर्तन के बाद हुआ है। सबसे पहले छोटे जीव जंतुओं का पृथ्वी पर उत्पन्न होना फिर क्रमशः वनस्पतियां और बड़े जीव व मानव का आना प्रकृति में संतुलन स्थापित करता है।
अंततः युग युगांतर बीतने के बाद पृथ्वी पर मानव का के आदिम रूप का आविर्भाव हुआ। मानव की उत्पत्ति के बाद धीरे धीरे उनका विकास आरंभ हुआ। मानव के विकास के बाद विश्व के अनेक क्षेत्रों में सभ्यताएं विकसित हुईं। जिसका क्रमवार अध्ययन इसी नियमित रूप से आगे के पोस्ट्स में किया जाएगा।
नोट: यह पृथ्वी की उत्पत्ति और जीवन के विकास का प्रथम पोस्ट है, आगे के पोस्ट्स में इसको आगे बढ़ाया जाएगा। पूर्ण जानकारी के लिए अग्रिम पोस्ट्स जरूर पढ़ें।
इस catagory के अन्तर्गत आपको विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का अध्ययन कराया जाएगा।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
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