आचार्य रामचंद्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि (Aacharya Ramchandra shukla ji ki itihas drishti) का तात्पर्य यह है कि उनके अंदर ऐतिहासिक चेतना किस प्रकार थी। तथा वे किस प्रकार इतिहास के प्रति सजग थे। वास्तव में वे ऐसे प्रथम साहित्यकार व इतिहासकार के रूप में सामने आए हैं कि उनके सम्मुख कोई न टिक सका।
हमने पिछले पोस्ट में ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में योगदान‘ की व्याख्या की है। आप इस पोस्ट को पढ़ने के उपरांत उसको जरूर पढ़ें। क्योंकि वह पोस्ट आपको आचार्य रामचंद्र शुक्ल का व उनके ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ की महत्ता का अनुभव कराएगी।
आइये इस लेख को जारी करते हुए यह समझें कि कैसी थी―
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि : Aacharya Ramchandra shukla ji ki itihas drishti
भूमिका:-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास से साहित्येतिहास लेखन की नींव इतनी मजबूत रख दी कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को छोड़कर शेष इतिहासकार उनकी भद्दी नकल करते दिखाई देते हैं। किसी ने उनके कालविभाजन की तिथियों में हेर-फेर कर दिया तो किसी ने रचनाओं और रचनाकारों के रचना काल और जन्म-मृत्यु संवतों में ही थोड़ा हेर-फेर कर कुछ नया लिखने का भ्रम पाल लिया। किसी ने उनके द्वारा सुझाए गए किसी काल का वैकल्पिक नाम प्रस्तावित किया, तो किसी ने प्रत्येक काल की पृष्ठभूमि के रूप में उन्हीं की तरह सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक परिस्थितियों के ब्यौरों की भरमार लगा दी। शुक्ल जी के इतिहास का अध्ययन जैसे-जैसे गहन से गहनतर होता गया, नई-नई परतें उद्घाटित होती चली गई।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि को निम्न बिंदु के आलोक में समझा जा सकता है―
1. हिंदी साहित्य का सुव्यवस्थित इतिहास लेखन:-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी लगभग 1922-23 के आस पास कुछ ऐसे संक्षिप्त नोट्स तैयार किये जिसमे काल विभाग और रचना की भिन्न-भिन्न शाखाओं के निरूपण का एक कच्चा ढाँचा खड़ा किया था। विदित है कि बाद में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी शब्द सागर’ की भूमिका के रूप में ‘हिंदी साहित्य का विकास’ है लिखा था। वास्तव में यह हिंदी साहित्य का इतिहास ही था।
और इसे 1929 में संशोधित, प्रवर्धित और परिमार्जित करके ‘हिंदी साहित्य का इतिहास‘ नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया। बता दें कि इसका 1940 ई० में संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ जिसे हिंदी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित व वैज्ञानिक सहित्येतिहास होने का गौरव प्राप्त है।
इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने इसे 4 प्रणाव में लिख कर पूर्ण किया।
यह वास्तव में एक ऐसा इतिहास है जो कि हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को बड़ी सुगमता से समेटे हुए है। यह निश्चित रूप से आचार्य शुक्ल की व्यापक इतिहास दृष्टि का परिणाम और उपलब्धि है।
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2. काल विभाजन सम्बन्धी दृष्टिकोण:-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल विभाजन अथवा काल विभाग संबंधित दृष्टिकोण में बेहद स्पष्ट है। जिसकी पुष्टि उनके द्वारा लिखित हिंदी साहित्य का इतिहास में होती है उनके इस ग्रंथ में अनेक विशेषताओं के साथ ही काल विभाजन भी इसकी एक प्रमुख विशेषता है जिसे नकारा नहीं जा सकता। गौरतलब है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को 4 स्पष्ट काल खण्ड के रूप में बांटकर देखते हैं। दूसरे शब्दों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है। यह उनका तत्कालीन तथा परवर्ती युग को दिया गया एक महत्वपूर्ण योगदान भी है। उनकी इस महत्वपूर्ण कार्य विभाजन तथा उनका कालानुक्रमिक निर्धारण संबंधी अधिक ज्ञान के लिए आप पिछली पोस्ट में जाएं और पढ़ें।
पिछली पोस्ट- ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्येतिहास लेखन में दिया गया योगदान‘
3. साहित्येतिहास संबंधी दृष्टिकोण:-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास अथवा साहित्येतिहास संबंधी दृष्टिकोण उनकी दी हुई परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने साहित्येतिहास की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी है― “जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत-कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।”
उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल ने साहित्य इतिहास के प्रति एक निश्चित एवं सुस्पष्ट दृष्टिकोण रखते हुए युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में साहित्य के विकास क्रम की व्याख्या करने का प्रयास किया है।
4. जन समाज और साहित्य संबंधी आचार्य शुक्ल की दृष्टि:-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ऐसा मानना है कि साहित्य एक सामाजिक उत्पाद होता है अर्थात साहित्य की उत्पत्ति समाज के द्वारा होती है इसलिए साहित्य और समाज एक दूसरे से परस्पर रूप से अभिन्न हैं अथवा संबंधित हैं। यदि साहित्य और समाज एक दूसरे से संबंधित हैं तो साहित्य का इतिहास भी समाज से निश्चित रुप से जुड़ा होगा। उनके अनुसार साहित्य का विकास उसी दिशा में होगा जिस दिशा में समाज गतिशील रहेगा। उनके इन विचारों की पुष्टि उपरोक्त परिभाषा से भी स्पष्ट होती है।
5. उनके द्वारा रचनाओं का मूल्यांकन:-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किसी भी रचना कार्य के विषय में ज्यादा विचार करने के बजाय उनकी रचनाओं के विषय में सोंचना और उसका मूल्यांकन करना बेहतर समझा। यही कार्य उन्होंने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी किया है। उनका ऐसा कृत्य उनके इतिहास दृष्टि की व्याख्या करता है। तथा यह उनके द्वारा दिया गया साहित्येतिहास लेखन में एक प्रमुख योगदान भी है।
बता दें कि अपने इस कार्य में उन्होंने गिने चुने लगभग 1000 कवियों को ही अपने ग्रंथ में स्थान दिया।
6. भक्ति काल और आचार्य शुक्ल:-
सिद्धू नाथों की डेट अद्वैद परंपरा के बाद हिंदी साहित्य का जबरदस्त संक्रमण भक्ति भावना से हुआ था जिसे हम भक्ति काल कहते हैं।
भक्तिकाल के उदय के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि यह बाहरी आक्रमण (मुख्यतः इस्लाम आक्रमण) की एक प्रतिक्रिया अथवा परिणाम है।
आचार्य शुक्ला ऐसा मानते हैं कि जिस समय बाह्य आक्रमणकारी भारत में आकर भारत के हिंदू शाही छोटे-छोटे राजवंशों को पराजित कर अपना प्रभुत्व जमा चुके थे उस समय भारतीय समाज अपने आप को बहुत ही निर्बल और टूटा हुआ महसूस कर रहा था। ऐसी दशा में उनका भगवान और भक्ति की ओर आश्रित होना स्वाभाविक है। चूंकि समाज और साहित्य की गति सापेक्ष है अतः उस भक्ति भावना का विकास हिंदी साहित्य पर भी पड़ा।
निष्कर्ष:-
उपरोक्त महत्वपूर्ण बिंदुओं के आलोक में आचार्य शुक्ल के इतिहास दृष्टि का विवेचन करने के उपरांत हम यह देखते हैं कि आचार्य शुक्ल की दृष्टि अतीत से वर्तमान के सम्यक मेल से विकसित हुई है। उनकी इतिहास दृष्टि लगभग उन सभी पहलुओं से होकर गुजरती है जिनका उपयोग करें हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में हुआ है आचार्य शुक्ल जी का साहित्य इतिहास तथा उनकी इतिहास दृष्टि एक इतिहासकार के रूप में अद्वितीय तथा अनुकरणीय है जिसका लाभ परवर्ती इतिहासकारों को मिला।
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धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: हिंदी विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
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