Hindi sahityetihas lekhan me aacharya ramchandra shukla ka yogdan | आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्येतिहास लेखन परंपरा में योगदान

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Hindi sahityetihas lekhan me aacharya ramchandra shukla ka yogdan : हिंदी साहित्य इतिहास लेखन परंपरा में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्य संसार सदा सदा के लिए ऋणी है। दूसरे शब्दों में कहें तो हिंदी साहित्य इतिहास लेखन परंपरा में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने इस क्षेत्र में काफी ख्याति अथवा कीर्ति अर्जित की। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य इतिहास लेखन परंपरा को आगे बढ़ाते हुए हिंदी साहित्य का इतिहास (1929) नामक रचना की जो मूलतः नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा गया था।

Hindi sahityetihas lekhan me aacharya ramchandra shukla ka yogdan

बता दें कि हिंदी साहित्य इतिहास लेखन का पहला प्रयास फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी के द्वारा किया गया था तथा इसके बाद के विद्वानों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य किया। जिनमें जॉर्ज ग्रियर्सन, मित्र बंधुओं शिव सेंगर, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामकुमार वर्मा, नागरी प्रचारिणी सभा, डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा तथा डॉ नागेंद्र आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।

यदि बात करें आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा लिखित हिंदी साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथ की तो यह अब तक के इतिहास लेखन में किए गए प्रयासों में सर्वोपरि था। वास्तव में यदि आप कहें कि यह प्रथम व्यवस्थित व वैज्ञानिक इतिहास था तो यह किसी भी दृष्टिकोण से गलत नहीं होगा।

हिन्दी साहित्येतिहास लेखन परंपरा में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का योगदान―

साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान को निम्न बिंदुओं के तहत व्याख्यान किया जा सकता है—

1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल का दृष्टिकोण:-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ हिंदी साहित्य का इतिहास के आरंभ में ही अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया है जिसको उनके निम्न कथन के माध्यम से समझा जा सकता है।

“जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत-कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।” 

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उन्होंने विकासवादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया है।

2. सुस्पष्ट काल विभाजन:

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी इतिहास के मूल विषय को आरंभ करने के पहले ही हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के विशाल कालखंड को 4 काल खंडों में विभक्त कर दिया है जिसका मूल लाभ यह है कि इससे पाठक के मन में शंका और संदेह नहीं बचता है। इस काल विभाग के अंतर्गत उन्होंने अपनी योजना को एक निश्चित रूप में प्रस्तुत किया है। जो कि अब तक के किए गए प्रयासों में से सर्वश्रेष्ठ था।

3. भक्ति काल का विभाजन:-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संपूर्ण भक्ति काल को 4 भागो अथवा शाखा में बांटा है। इससे उन्हें भक्ति काल को दार्शनिक एवं धार्मिक आधार पर प्रतिष्ठित करने में तथा उसे शुद्धता प्रदान करने में आसानी हुई। उन्होंने पहले भक्ति काल को निर्गुण काव्यधारा तथा सगुण काव्य धारा नामक दो खंडों में विभाजित किया।

तत्पश्चात निर्गुण काव्यधारा को ज्ञानाश्रयी शाखा तथा प्रेमाश्रयी शाखा नामक दो भागों में तथा सगुण काव्य धारा को राम भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति शाखा में विभाजित किया है।

4. रचनाकारों की जीवनी लिखने के स्थान पर उनके रचनाओं के मूल्यांकन को महत्व देना:-

जहां अन्य इतिहासकार साहित्य इतिहास लेखन के समय रचनाकारों की जीवनी लिखने में अपने पथ से विचलित हो जाते हैं वही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ऐसा नहीं किया उन्होंने साहित्य के रचनाकारों की जीवनी लिखने की बजाय उनकी रचनाओं को तथा उसके मूल्यांकन को प्रमुखता देना उचित समझा। यह आचार्य रामचंद्र शुक्ल की एक महत्वपूर्ण विशेषता है जोकि परवर्ती इतिहासकारों द्वारा अनुकरणीय होने के कारण एक महत्वपूर्ण योगदान साबित हुआ।

5. सीमित रचनाकारों को ही स्थान देना:-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ में गिने-चुने कवियों को ही स्थान दिया। जहां मिश्र बंधु विनोद में कवियों की संख्या 5000 तक पहुंच गई है वहीं उन्होंने लगभग 1000 कवियों को ही उचित समझा। वसुधा इतिहास के इतने संक्षिप्त रूप में आचार्य शुक्ल ने इतनी अधिक कवियों का जैसा विस्तार पूर्वक प्रमाणिक और उदाहरण सहित विवेचन प्रस्तुत किए हैं इससे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की महानता स्पष्ट परिलक्षित होती है। तथा उनके इस महानता को उन्होंने साहित्येतिहास लेखन के समय योगदान रूप में प्रस्तुत किया।

6. काल विभाजन और नामकरण की समस्या को हल कर दिया:-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अब तक व्याप्त हिंदी साहित्य की कालखंड का काल विभाजन और नामकरण की समस्या को लगभग पूरी तरह से हल कर दिया। ‘पूरी तरह हल कर दिया’ यह इस लिए कहा जाता है क्योंकि लगभग सभी परवर्ती इतिहासकारों ने भी उनके ही द्वारा निर्धारित काल विभाजन को अपनाया।

उन्होंने हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार काल खंडों में विभाजित किया।  यह अति महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके द्वारा किया गया विभाजन आज तक निर्विवाद रूप से स्वीकृत है। जो कि कुछ इस प्रकार है―

वीरगाथा काल- विक्रम संवत 1050 – 1375

भक्ति काल- वि० सं० 1375 – 1700

रीति काल- वि०सं० 1700 – 1900

आधुनिक काल- वि० सं० 1900 से अब तक

7. आदिकाल को वीरगाथा काल नाम दिया:-

जहां हिंदी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते समय शुरुआती काल को हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे आदि काल कहा,मिस्र बंधुओ ने इसे प्रारंभिक काल कहा, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे बीजवपन काल कहा, राम कुमार वर्मा ने इसे चारण काल कहा तथा राहुल सांकृत्यायन ने इसे सिद्ध सामंत काल कहा।

वहीं दूसरी ओर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे अपने पैमाने पर वीर गाथा काल कह कर संबोधित किया। इसके लिए उन्होंने निम्न 12 रचनाओं को आधार बनाया जिनमें वीरता की गाथाएं गयी गयीं है।

आधार ग्रंथ : विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्ति लता, कीर्ति पताका, बीसलदेव रासो, खुमान रासो, पृथ्वीराज रासो, परमाल रासो, जयचन्द प्रकाश, जयमंजक जस चंद्रिका, खुसरो की पहेलियां, विद्यापति पदावली।

निष्कर्ष:- Hindi sahityetihas lekhan me aacharya ramchandra shukla ka yogdan

इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल सर्वोत्तम हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में अभूतपूर्व सफलता अर्जित की। उनका इतिहास कदाचित ऐसा पहला ग्रंथ है जिसमें अत्यंत सूक्ष्म एवं व्यापक दृष्टि, विकसित दृष्टिकोण, स्पष्ट विवेचन-विश्लेषण और प्रामाणिक निष्कर्षों का सन्निवेश मिलता है।  उपरोक्त विवेचन के अनुसार यह कहा जा सकता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्येतिहास लेखन परंपरा में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिए जिसका सम्पूर्ण हिंदी साहित्य चिरंतन काल तक ऋणी रहेगा।

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धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र:  हिंदी विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

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