यद्यपि भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना 12वीं शताब्दी के अन्त में शाहबुद्दीन गौरी द्वारा की गई थी, किन्तु भारत को जीतने का प्रथम प्रयास अरबों द्वारा 8वीं शताब्दी(711-13 ई०) में बसरा के गवर्नर के भतीजे मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में किया गया था।
मुहम्मद बिन कासिम ने सन् 711–713 ई. में भारत पर आक्रमण किया और सिन्ध व मुल्तान पर नियन्त्रण स्थापित करने में सफल रहा। यद्यपि यह नियन्त्रण मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु हो जाने के कारण बहुत थोड़े समय ही रह सका।
तत्पश्चात् सुबुक्तगीन और उसके पुत्र महमूद द्वारा सन् 995-1030 ई. में पुन: पंजाब पर आक्रमण किया गया। उन्हें अपने उद्देश्य में कुछ सफलता भी मिली, किन्तु वे भारत में स्थाई शासन स्थापित नहीं कर सके। अतः भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना का श्रेय शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी को ही दिया जाता है। किन्तु अरबों द्वारा सिन्ध की विजय पर विचार करने से पूर्व आठवी शताब्दी के आरम्भ में भारत की दशा पर प्रकाश डालना अति आवश्यक है।
अरबों की सिंध विजय के समय भारत की स्थिति:-
अरब आक्रमण से पूर्व भारत की राजनैतिक स्थिति (Political Condition of india before Arab invasion):
जहाँ तक राजनैतिक दशा का सम्बन्ध है, उस समय देश में कोई भी सर्वोच्च शक्ति नहीं थी। भारत विभिन्न राज्यों का संग्रह था और प्रत्येक राज्य स्वतन्त्र एवं सार्वभौम था।
अरबों के भारत आक्रमण से पूर्व भारत के किस क्षेत्र में किस राजवंश व किस शासक का शासन था? इसका सम्पूर्ण विवरण निम्नलिखित है।
काबुल घाटी:- (पूर्वोत्तर अफगानिस्तान का क्षेत्र)
ह्वेनसांग के अनुसार, काबुल की घाटी में एक क्षत्रिय राजा का शासन था और उसके उत्तराधिकारी नवीं शताब्दी के अन्त तक राज्य करते रहे। इसके उपरान्त लालीय (Lalliya) की अधीनता में एक ब्राह्मण वंश की स्थापना हुई।
अरबों द्वारा सिन्ध की विजय के समय अफगानिस्तान(काबुल घाटी) के शासक के नाम का सही ज्ञान नहीं था।
कश्मीर की स्थिति:-
सातवीं शताब्दी में कश्मीर में दुर्लभवर्धन ने हिन्दु वंश की स्थापना की ह्वेनसांग ने उसके शासन काल में कश्मीर की यात्रा की। उसके उत्तराधिकारी प्रतापदित्य ने प्रतापपुर की नींव रखी । ललितादित्य मुक्तापीड़ जो सन् 724 ई. में सिंहासन पर बैठा, पंजाब, कन्नौज, दरदिस्तान और काबुल का विजेता सिद्ध हुआ । वह अपने वंश का महत्वपूर्ण शासक था। उसके समय में सूर्य देवता के लिए मार्त्तन्ड मन्दिर बनवाया गया।
नेपाल का क्षेत्र:-
सातवीं शताब्दी में नेपाल, जिसके पूरब में तिब्बत व दक्षिण में कन्नौज का राज्य था, हर्ष के साम्राज्य में मध्यवर्ती राज्य था। अंशुवर्मन ने ठाकुरी वंश की स्थापना की। उसने अपनी कन्या का विवाह तिब्बत के शासक के साथ किया। हर्ष की मृत्यु के बाद तिब्बत व नेपाल की सेना ने चीन के राजदूत वांग ह्यूनसी (Wang hicun-tse) को कन्नौज के सिहासन का अपहरण करने वाले अर्जुन के विरुद्ध सहायता प्रदान की। सन् 730 ई. में नेपाल स्वतन्त्र हो गया।
असम के शासन:-
हर्ष की मृत्यु के उपरान्त भास्करवर्मन ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की। यह प्रतीत होता है कि वह अधिक समय तक स्वाधीन न रह सका। एक असभ्य व्यक्ति शिलास्तम्भ ने भास्करवर्मन को पराजित किया और इस प्रकार लगभग 300 वर्षों के लिए असम म्लेच्छों की अधीनता में चला गया।
कन्नौज की राजनीतिक स्थिति:-
अर्जुन ने हर्ष की मृत्यु के पश्चात् कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने चीन के राजदूत वान ह्यूंगसे का विरोध किया जो हर्ष को मृत्यु के उपरान्त वहाँ पहुँचा था। उसके कुछ साथियों को कारावास में डाल दिया गया और कुछ की हत्या कर दी गई। वान ह्यूंगसे किसी प्रकार बचकर नेपाल पहुँच गया और असम, तिब्बत व नेपाल से सहायता प्राप्त करके लौटा । युद्ध में पराजित हो जाने पर अर्जुन को बन्दी के रूप में चीन ले जाया गया।
कुछ समय के लिए कन्नौज पर प्रतिहारों का आधिपत्य स्थापित हो गया किन्तु बाद में उनका स्थान पालों ने ले लिया। दक्षिण पश्चिम व उत्तर भारत में राष्ट्रकूटों की शक्ति स्थापित हो गई। आठवीं शताब्दी के आरम्भ में यशोवर्मन कन्नौज के सिंहासन पर बैठा अपने पराक्रम से उसने कन्नौज को प्राचीन गौरव प्रदान किया। वह सिन्ध के राजा दाहिर का समकालीन था।
सिंध का राज्य:-
जब ह्वेनसांग भारत आया, सिन्ध में शुद्र शासक सिंहासन पर आसीन था। हर्ष ने सिन्ध पर विजय अवश्य प्राप्त कर ली थी, किन्तु उसको मृत्यु के उपरान्त सिन्ध पुनः स्वतन्त्र हो गया था। शुद्र वंश का अन्तिम शासक साहसी था। उसके ब्राह्मण मन्त्री छाछा ने उसके उपरान्त उसके राज्य पर अधिकार करके अपने नए वंश की नींव रखी।
छाछा के पश्चात् चन्द्र व चन्द्र के बाद दाहिर सिन्ध की गद्दी पर बैठे। इसी राजा दाहिर ने सिन्ध में अरबों का सामना किया था।
बंगाल का क्षेत्र:-
बंगाल में शशांक हर्ष का समकालीन था। इसके बाद बंगाल में अराजकता फैल गई। सन् 750 ई. में प्रजा ने गोपाल को अपना शासक चुना गोपाल ने सन् 750 से 770 ई. तक राज्य किया।
केंद्रीय राजपुताना का क्षेत्र:- (राजस्थान व समीपवर्ती क्षेत्र)
केन्द्रीय राजपूताना में मण्डोर के स्थान पर प्रतिहारों का सबसे पुराना व प्रसिद्ध राज्य था। हरिचन्द्र के परिवार ने वहाँ शासन किया। उनकी एक शाखा दक्षिण में कन्नौज की ओर स्थापित हो गई। राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने गुर्जर नेता को पराजित किया।
यह बताया जाता है कि अवंति के नागभट्ट प्रथम ने म्लेच्छ राजा की विशाल सेनाओं को नष्ट किया। उसने अरबों से पश्चिम भारत की रक्षा की नागभट्ट व दन्तिदुर्ग तक राज्य किया। धर्मपाल, देवपाल व महिपाल पाल वंश के प्रसिद्ध शासक हुए। दोनों ने अरबों के आक्रमणों से उत्पन्न अशान्ति का लाभ उठाने का प्रयास किया। यद्यपि आरम्भ में दन्तिदुर्ग को कुछ लाभ हुआ किन्तु वह लाभ स्थायी न रह सका। आरम्भ में असफल होने पर भी नागभट्ट ने अपनी मृत्यु के समय एक शक्तिशाली साम्राज्य छोड़ा था। उसके साम्राज्य में मालवा, राजपूताना व गुजरात के कुछ भाग सम्मिलित थे।
एलिचपुर व समीपवर्ती क्षेत्र:- (बरार, महाराष्ट्र)
डॉ. अल्टेकर के मतानुसार, राष्ट्रकूट लोग राजा नानराज युद्धासुर के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी अथवा सम्बन्धी थे। नानराज युद्धासुर ने सातवीं शताब्दी में एलिचपुर पर शासन किया था।
दन्तिदुर्ग की अधीनता में राष्ट्रकूटों ने ख्याति प्राप्त करना आरम्भ किया। उसने माही, महानदी और रेवा नदी के तटों पर संग्राम किए और कांची, कलिंग, कौशल, मालवा, लता व टंका के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।
उसने चालुक्य राजाओं को परास्त किया और वल्लभी पर विजय प्राप्त की। यह कहा जाता है कि उसने चालुक्यों से सर्वोच्च शक्ति छीन ली थी और हिमालय से सेतु की सीमा तक सारे अभिमानी राजाओं को नीचा दिखाया था। जब अरबों ने सिन्ध पर आक्रमण किया था, तब सिन्ध पर दन्तिदुर्ग का शासन था।
अरब आक्रमण के समय चालुक्य वंश का शासक:-
चालुक्य वंश का सबसे महान् राजा पुलकेशिन द्वितीय हर्ष का समकालीन था। सन् 655 से 681 ई. तक विक्रमादित्य प्रथम ने राज्य किया। उसके पुत्र विनयादित्य ने सन् 681 से 689 ई. तक शासन किया। उसका उत्तराधिकारी विजयादित्य हुआ। जिसने सन् 689 से 733 ई. तक शासन किया। वह अरबों के आक्रमण के समय राज्य कर रहा था।
अरब आक्रमण के समय पल्लव वंश का शासक:-
अर्थों के आक्रमण के समय पल्लवों का शासक नरसिंहवर्मन द्वितीय, था। उसने सन् 695 से 722 ई. तक राज्य किया। उसने ‘राजासिंह’ (राजाओं में सिंह), ‘आगमप्रिय’ (शास्त्रों का प्रेमी) और ‘शंकरभक्त’ (शिव का उपासक) की उपाधियाँ धारण की। उसने कांची में कैलाशनाथ का मन्दिर बनवाया।
निष्कर्ष:-
राजनैतिक दशा का उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन यह स्पष्ट कर देता है कि सिन्ध की विजय के समय एक भी ऐसा शक्तिशाली राज्य न था जो सफलतापूर्वक मुसलमानों के आक्रमण को रोक सकता। ऐसे गम्भीर संकट के समय भी देश के विभिन्न राज्यों में एकता की भावना का घोर अभाव था। यह युद्ध ऐसे लोगों के बीच नहीं था जिनके मन में देशभक्ति के विचार हों, वरन् यह युद्ध स्वामिभक्त या वेतनार्थी सैनिकों के बीच था जो महत्वाकांक्षी सम्राटों के निजी सहायक थे।
प्रथम अरब आक्रमण के समय भारत का शासन प्रबंध:-
उस समय राजतन्त्र की प्रथा प्रचलित थी। ज्येष्ठाधिकार के नियम का पालन होता था। कभी-कभी शासकों का चुनाव भी होता था। गोपाल, जिसने पाल वंश की स्थापना की थी, प्रसिद्ध राजनैतिक दलों द्वारा चुना गया था। संकट के समय राज्य के मुख्य अधिकारियों द्वारा शासकों का चुनाव होता था। थानेश्वर (कन्नौज) के राजा हर्ष के समय में भी ऐसी ही घटना हुई थी। स्त्रियों के शासक बनने के भी उदाहरण मिलते हैं।
राजा के अधिकार:-
राजा असीमित व निरंकुश अधिकारों का प्रयोग करते थे और शासन में वे दैवी आधिकारों में विश्वास रखते थे। राजा कार्यपालिका का प्रधान, सेना का मुख्य सेनापति और न्याय का स्रोत होता था। वह निरंकुश नहीं हो सकता था क्योंकि उससे धर्म के अनुसार राज्य करने की आशा की जाती थी।
मंत्री व्यवस्था:-
मन्त्रीगण राजा की सहायता करते थे। मन्त्रियों की संख्या स्थिति व आवश्यकता पर निर्भर रहती थी।
कुछ मन्त्रियों के नाम इस प्रकार थे- सन्धिविग्रहिक, सुमन्त, महादण्डनायक, महाबलाधिकृत अमात्य, अक्षपदाधिकृत इन मन्त्रियों के अतिरिक्त पुरोहित अथवा राजगुरू भी होता था जो धर्मविभाग का अधिकारी होता था। मन्त्री की स्थिति अपने चरित्र, योग्यता राजा द्वारा उस (पर) विश्वास पर निर्भर होती थी।
क्षेत्र विभाजन:-
उत्तर में प्रत्येक साम्राज्य कई प्रान्तों में बेटा हुआ था। इन प्रान्तों को ‘भुक्ति’ कहा जाता था। दक्षिण में वह मण्डलों में विभक्त था। इनके लिए कहीं-कहीं राष्ट्र अथवा देश शब्दों का प्रयोग किया गया है।
प्रत्येक प्रान्त उपरिक के अधीन होता था। प्रत्येक प्रान्त कई जिलों में विभक्त था। इन जिलों को ‘विषय’ कहते थे। उनके अधिकारी को विषयपति कहा जाता था। गाँव शासन-प्रबन्ध की प्राथमिक इकाई था। प्रत्येक गाँव में एक मुखिया और गाँवों के वृद्ध व्यक्तियों की एक पंचायत होती थी
गाँव का अध्यक्ष (अधिकारी) ‘अधिकारिन्’ कहलाता था। नगर का प्रबन्ध नगरपति के अधीन था । राज्य की आय का मुख्य साधन राजकीय भूमि से भूमिकर, अधीनस्थ राजाओं से भेंट चुंगी कर, सिचाई नावों व खदानों आदि पर कर थे। इसे ‘भाग‘ कहते थे।
तत्कालीन धार्मिक स्थिति:-
बौद्ध धर्म अवनति के कगार पर था, किन्तु फिर भी बिहार में पाल व बंगाल में रोग राजाओं के समय तक इस धर्म के अनुयायी मिलते थे। धर्मपाल ने सन् 780 से 830 ई. तक राज्य किया। इसने ‘विक्रमशिला’ नाम से एक विशाल बौद्ध विश्वविद्यालय (जिसमें 107 मन्दिर के 6 विद्यालय थे) को स्थापना की। जैन धर्म अधिक समय तक चलता रहा और विशेषकर दक्षिण के लगभग सभी राज्यों में जैन धर्म का थोड़ा बहुत प्रभाव शेष था । राष्ट्रकूट , चालुक्य , गंग और होयसल राज्यों में वैष्णव और शैव धर्म की स्थापना के पहले जैन धर्म प्रगति पर रह चुका ।
कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, रामानुज और माधवाचार्य जैसे प्रसिद्ध धार्मिक उपदेशकों ने हिन्दू समाज को धार्मिक मनोवृत्ति में परिवर्तन किया उपदेशकों द्वारा सुधारा हुआ हिन्दू धर्म एक शक्तिशाली धर्म बन गया। अधिकांश शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, किन्तु वे अन्य धर्मों के प्रति भी सहनशील थे। उस समय किसी प्रकार के धार्मिक अत्याचार नहीं किए जाते थे।
सामाजिक स्थिति:-
इस समय जाति प्रथा पहले से अधिक दृढ़ हो चुकी थी। हमें ब्रह्मणों के सैनिक बनने व क्षत्रियों के व्यापारी बनने के उदाहरण मिलते हैं। वैश्यों और शूद्रों ने शक्तिशाली राज्यों का शासन सम्भाला अन्ततीय विवाह निषिद्ध थे और अधिकांश लोग अपनी ही जाति में विवाह करते थे।
अधिकांश लोग शाकाहारी थे और वे प्याज व लहसुन तक का प्रयोग नहीं करते थे। अस्पृश्यता का प्रचार था। हिन्दू समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी। किन्तु स्त्रियों के लिए दूसरा विवाह करना निषिद्ध था। सती प्रथा का प्रचार हो रहा था।
शिक्षा भी प्रगति पर थी। देश में बहुत से विद्यालय व विश्वविद्यालय में जिनमें प्रत्येक प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। इन सबके होते हुए भी लोगों के जीवन पर अन्धविश्वासों का प्रभाव था। हिन्दू समाज परस्पर ईर्ष्या और विभिन्न विभाजनों के कारण मुसलमानों के आक्रमण सहन करने योग्य न था।
आर्थिक दशा:-
आर्थिक दृष्टि से देश समृद्ध था। अधिकांश लोग गाँवों में निवास करते थे और कृषि पर निर्भर थे। मिट्टी को अच्छी उत्पादकता और पर्याप्त होने के कारण लोग अपनी आवश्यकता से अधिक अन्न पैदा कर लिया करते थे। अतिरिक्त खाद्यान्न निर्यात कर दिया जाता था। खाद्यान्न फसलों के अतिरिक्त औषधि से सम्बन्धित जड़ी बूटियों, मसालों और चन्दन को खेती भी की जाती थी। इन वस्तुओं की विदेशों में अच्छी माँग थी।
उस समय की अर्थव्यवस्था ग्राम आधारित थी। प्रत्येक गाँव आत्मनिर्भर था और सामान्य उपयोग की वस्तुएँ पैदा करता था। गाँवों में कुछ लघु उद्योग भी कार्यरत थे। इन लघु उद्योगों में रस्सी बुनना, डलिया बनाना, इत्र व तेल आदि बनाने के उद्योग मुख्य थे।
व्यापार एवं उद्योग अच्छी स्थिति में थे। व्यापार पर वैश्यों का एकाधिकार था। यद्यपि व्यापार दुकानों से ही चलता था, लेकिन चलती-फिरती दुकानें और घोड़ों पर सामान लादकर भी बेचा जाता था। बंजारे लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर कृषि व अन्य उपयोगी वस्तुएँ लादकर देश के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र को ले जाते थे।
स्थानीय साहूकारों का भी ततकालीन अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान था ये साहूकार हुण्डी और ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराते थे।
यद्यपि तत्कालीन जनता प्रसन्न और सम्पन्न थी, किन्तु समाज के विभिन्न वर्गों की स्थितियों में काफी अन्तर था। जनता का सामान्य वर्ग बहुत अधिक सुखी नहीं था और धनाढ्य व्यक्ति वैभव का जीवन व्यतीत करते थे। समाज का धनाढ्य वर्ग निर्धन लोगों की मदद के लिए धर्मशालाएँ स्थापित करता था।
मध्यकालीन भारत से संबंधित पोस्ट्स
● मध्यकालीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत
● अलबरूनी कौन था? संक्षिप्त जानकारी
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय