उत्तर वैदिक काल तक आते-आते सम्पूर्ण वैदिक साहित्य लगभग पूर्ण रूप से रचित हो चुका था । किन्तु यह इतना विशाल साहित्य हो चुका था कि इनको संपूर्ण रूप से कंठस्थ करना लगभग असंभव था ।
अतः वैदिक साहित्य को मूर्त रूप बनाए रखने के लिए उसको उस संक्षिप्त करना आवश्यक हो गया इसके लिए सूत्र साहित्य की रचना हुई।
सूत्र काल : (700 ई०पू० – 300 ई०पू०)
सबसे पहले वैदिक साहित्य को ठीक ढंग से समझने और कंठस्थ करने के लिए 6 वेदागों की रचना हुई– शिक्षा , कल्प , निरुक्त , व्याकरण , ज्योतिष , छंद ।
इसके बाद कल्प नामक वेदांग के अंतर्गत सूत्र साहित्य की रचना हुई। सूत्रों को मुख्यतः 4 माना गया है।
सूत्र साहित्य :-
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● सूत्र साहित्य : श्रौत सूत्र , गृह्य सूत्र , धर्म सूत्र , शुल्व सूत्र
सूत्र ग्रंथ कल्प नामक वेदांग से निकले हैं । इनका वर्गीकरण कहीं-कहीं 3 भागों में किया गया है तो कुछ विद्वान है इन्हें 4 बताते हैं । ये निम्नलिखित हैं―
1. श्रौत सूत्र –
श्रौत सूत्र का विषय यज्ञ है। इसमें प्राचीन काल से चली आने वाली यज्ञ संबंधी क्रियाओं के आकार प्रकार विधि-निषेध आदि का वर्णन है अर्थात इनमें यज्ञीय विधि विधानों की विस्तार से चर्चा मिलती है।
2. गृह्य सूत्र :
गृह्य सूत्रों का प्रमुख विषय गृहस्थ जीवन है। इनमें मनुष्यों के आचार-विचार , कर्तव्य , उत्तरदायित्व , दैनिक उपासना , यज्ञ , संस्कार आदि के संबंध में विविध नियम हैं।
3. धर्म सूत्र :-
गृह्य सूत्र और धर्मसूत्र काफी हद तक समान है किंतु उनमें विशेष अंतर यही है कि जहां गृह्य सूत्र जीवन के विधि निषेध का सविस्तार वर्णन करते हैं वही धर्मसूत्र इसका अत्यंत संक्षिप्त में उल्लेख करते हैं तथा धर्मसूत्र में धर्म पर विशेष बल दिया गया है।
4. शुल्व सूत्र :- (कुछ विद्वानों द्वारा स्वीकृत सूत्र साहित्य)
इसे सूत्र साहित्य का विषय भी यज्ञीय और कर्मकांडीय है । इसमें यज्ञ की वेदिओं के नाम इनकी आकृति तथा अन्य ज्यामितीय आकृतियों के बारे में जानकारी मिलती है।
Note : इन सूत्र ग्रंथों की प्रकृति के अंतर्गत गौतम , बौधायन , आपस्तम्ब , वशिष्ठ आदि सूत्रकारों ने अलग-अलग कई अन्य सूत्र साहित्य ग्रंथों की रचना की है
प्राचीन भारतीय इतिहास का सूत्र काल : Sutra period in hindi –
सामान्यता 7वीं-6वीं शताब्दी ई० पू० से लेकर 3री० शताब्दी ईसा पूर्व तक का काल सूत्र काल कहा जा सकता है। सूत्रों में गौतम धर्मसूत्र सबसे प्राचीन माना गया है।
श्रौत सूत्र विषय में नितांत कर्मकांडीय होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्व बहुत कम है अथवा नहीं है। किंतु वहीं गृह्य और धर्म सूत्रों का गृहस्थ और सामाजिक जीवन से संबंध होने के कारण इसका अधिक ऐतिहासिक महत्व है।
इन सूत्र ग्रंथों से हमें सूत्रकालीन भारत की सभ्यता और संस्कृति की जानकारी मिलती है।
सूत्रकालीन सभ्यता :-
विभिन्न सूत्रों में वर्णित सूत्रकालीन सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक दशाओं का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित है–
सामाजिक व्यवस्था : प्राचीन भारत का सूत्र काल –
मुख्यतः गृह्य सूत्र और धर्म सूत्र से सूत्रकालीन सामाजिक जीवन की जानकारियां मिलती है।
परिवार :
उत्तर वैदिक काल के समान इस काल के समाज में संयुक्त परिवार के प्रथा थी। सबसे वरिष्ठ विवाहित सदस्य ही परिवार स्वामी होता था। परिवार में पुत्रियों की अपेक्षा पुत्रों का अधिक महत्व था किंतु परिवार के सदस्यों में पारस्परिक प्रेम रहता था।
वर्ण व्यवस्था :
वर्ण व्यवस्था के जटिल होने के साथ वर्णों का पारस्परिक विभेद काफी बढ़ गया।
ब्राह्मणों के सामाजिक प्रतिष्ठा पर तथा वे विविध प्रकार के करो और दंडो से मुक्त थे। प्रशासन में पुरोहित राजा से ऊपर माने जाते थे। गौतम के अनुसार राजा सभी का शासक होता था किंतु ब्राह्मणों का नहीं। आपस्तम्ब ने 10 वर्षीय ब्राह्मण को 100 वर्ष के क्षत्रिय से श्रेष्ठ बताया है।ब्राह्मणों के मुख्य कार्य अध्ययन-अध्यापन , यजन-याजन (यज्ञ आदि करना कराना) , तथा दान उपहार आदि लेना था।
क्षत्रियों का मुख्य कर्तव्य युद्ध तथा शासन करना था। ब्राह्मणों के भांति क्षत्रियों को भी अध्ययन , यज्ञ और दान आदि का अधिकार था।
समाज मे तीसरा स्थान वैश्यों का था जो मुख्यतः कृषि , पशुपालन , वाणिज्य के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे।
चौथा वर्ण शूद्रों का था। पाणिनि ने 2 प्रकार के शूद्रों का उल्लेख किया है– निरवसित (नगर के बाहर रहने वाले इसमें ‘चाण्डाल’ आते थे) , अनिरवसित (नगर की सीमा में रहने वाले- इसमें अनार्य और विजित लोग आते थे। इन्हें अपवित्र और अश्पृश्य माना जाता था।
चतुराश्रम व्यवस्था :- सूत्र कालीन सामाजिक स्थिति
वर्ण व्यवस्था के साथ-साथ व्यक्ति के जीवन को नियमित करने के उद्देश्य से आश्रम व्यवस्था का विधान किया गया। आश्रम चार थे- ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ तथा सन्यास ।
एक मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानी गई तथा 25-25 वर्ष की आयु प्रत्येक आश्रम के लिए निर्धारित की गई आश्रमों के नियम पूर्वक पालन पर बल दिया गया। साधारणतया ब्रह्मचर्य के पश्चात गृहस्थ आश्रम तदुपरांत वानप्रस्था आश्रम प्रारंभ होता था।
Note : ◆ चारों आश्रमों का विधान केवल द्विजों के लिए था। शूद्रों तथा स्त्रियों के लिए गृहस्थ आश्रम बताया गया है।
◆ द्विज के अंतर्गत ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य आते थे।
संस्कार :-
गृहस्थ आश्रम में अनेक संस्कारों का भी विधान किया गया। संस्कार व्यक्ति की शुद्धि के लिए आवश्यक समझे जाते थे। संस्कारों की संख्या के विषय में सूत्र कारों में मतभेद है गौतम ने इनकी संख्या 40 बताई है। मूलतः 16 संस्कार माने जाते हैं।
संस्कार जन्म से लेकर मृत्यु तक किया जाते थे इनमें विवाह , गर्भाधान , जातकर्म , नामकरण , अन्नप्राशन , चूड़ाकर्म , उपनयन आदि प्रमुख थे।
इनका विस्तृत वर्णन अगले लेखों में किया जाएगा।
स्त्रियों की दशा –
सूत्र काल में स्त्रियों की दशा वैदिक काल की अपेक्षा हीन थी तथापि परिवार में उन्हें सम्मानित स्थान प्राप्त था। स्त्रियां ब्रह्मचर्याश्रम का पालन कर शिक्षा प्राप्त करती थी।
समाज मे बाल विवाह का प्रचलन न था। विवाह के आठ प्रकारों ब्रह्म विवाह , दैव विवाह , प्रजापत्य विवाह , गांधर्व विवाह , विवाह राक्षस , पैशाच विवाह का उल्लेख वाला यंत्र है सूत्र तथा अनेक धर्मसूत्रों में मिलता है ।
बहु विवाह का प्रचलन था किंतु विधवा का अपने पति के संपत्ति पर अधिकार माना जाता था।
अधिकतर सूत्रकार तलाक प्रथा का विरोध करते हैं वशिष्ठ किसी भी परिस्थिति में पत्नी त्याग की अनुमति नहीं देते हैं तथा आपस्तंब ने इसके अपराध में पति के लिए कठोर दंड का विधान किया है।
कन्या को भी कुछ शर्तों पर स्वयमेव विवाह करने की अनुमति थी।
सूत्र कालीन आर्थिक जीवन :-
सूत्र काल में अधिकांशतः लोग गांवों में निवास करते तथा कृषि और पशुपालन द्वारा जीवन यापन करते थे।
कृषि और पशुपालन :
सूत्रों में खेती के प्रत्येक स्तर से संबंधित संस्कारों का उल्लेख है । बीज बोते समय , काटते समय लवनी करते समय तथा अन्न को बोरे में रखते समय अनेक विधि नियमों का पालन का विधान किया गया है। चावल और जौ मुख्य फसलें थीं।
पशुओं को अमूल्य संपत्ति समझा जाता था। गृह सूत्रों में पशुओं की वृद्धि तथा उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए अनेक प्रार्थनाएं मिलती है गायों को पवित्र मानने की धारणा तेजी से विकसित हो रही थी।
व्यापार-वाणिज्य :
वैश्विक व्यापार वाणिज्य करते थे गृह सूत्रों में पण्य सिद्धि नामक संस्कार का उल्लेख है जो व्यापार में लाभ पाने के लिए किया जाता था। संभवत इस समय सिक्कों का प्रचलन हो गया था। पाणिनि ने पाण , कार्षापण , पाद तथा वाह नामक सिक्कों का उल्लेख किया है ।
उद्योग धंधे –
उस समय तांबा , लोहा , पत्थर , मिट्टी आदि के बर्तन और उपकरण बनाए जाते थे । कताई बुनाई आज प्रचलित उद्योग था । वस्तुओं को रंगने का काम भी होता था शारीरिक श्रम को अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता था। दो पहिया वाला रथ सर्वाधिक लोकप्रिय परिवहन का साधन था। बैलों तथा घोड़ों से भार ढोने का काम लिया जाता था इसके अतिरिक्त गधे , ऊंट , हाथी आदि भी वाहन के रूप में प्रयोग किए जाते थे।
सूत्र कालीन भारत की राजनीतिक स्थिति –
धर्मसूत्रों में केवल राजतन्त्र का ही उल्लेख पाया जाता है क्योंकि वे इसी व्यवस्था के पक्षपाती हैं। वे राज्य को एक धार्मिक संस्था के रूप में देखते हैं जिसमें राजा एवं प्रजा दोनों दैवी इच्छानुसार अपना-अपना कार्य करते हैं। धर्म-सूत्रों में राजा की निरंकुशता पर रोक लगायी गयी है। अतः राजा का कर्त्तव्य है कि वह जातियों तथा वर्गों की न्यायपूर्वक रक्षा करें। सूत्र-काल में धर्म ही राजा की निरंकुशता का नियामक था। सम्राट कानूनों का निर्माता नहीं, बल्कि उनका पालक था। वह प्रजा से अपनी सेवाओं के बदले कर लेता था जो उसकी वृत्ति होती थी। बौद्धायन के अनुसार कर प्रजा की आय का छठाँ भाग होना चाहिए। कर को राजा की ‘वृत्ति’ कहा गया है।
सम्राट ब्राह्मण पुरोहितों की सलाह पर कार्य करता था। प्रशासन में ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान था। पुरोहितों के अतिरिक्त प्रसिद्ध ब्राह्मणों की एक परिषद् भी होती थी जो धार्मिक, राजनैतिक एवं न्याय सम्बन्धी मामलों में राजा को सलाह देती थी। राजपद आनुवंशिक होते थे। गौतम धर्मसूत्र में करों की एक लम्बी सूची मिलती है। कृषि द्वारा उत्पादित वस्तुओं, व्यापार-वाणिज्य की वस्तुओं, आयात-निर्यात की वस्तुओं, पशुओं, फलों, दवाओं आदि सभी पर कर लगते थे। विद्वान, ब्राह्मण, अनाथ स्त्रियाँ, विद्यार्थी, संन्यासी, वृद्ध आदि राजकीय करों से मुक्त थे। युद्धों में सम्राट स्वयं सेना का नेतृत्व करता था। ग्राम शासन की प्रारम्भिक इकाई थी। ‘ग्रामणी’ गाँव का मुखिया होता था। जो युद्ध के समय सैनिक एवं शान्ति के समय नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह करता था।
न्याय व्यवस्था :
सूत्रों के काल में ही हमें विकसित न्यायदान प्रणाली का चित्र देखने को मिलता है। न्याय करते समय विविध जातियों एवं कुलों की प्रथाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों आदि का पूरा ध्यान रखा जाता था। राजा ही मुख्य न्यायाधीश होता था अपराधियों को उचित दण्ड देना उसका पवित्र कर्तव्य था। सूत्रकार कठोर दण्डों के समर्थक हैं। किन्तु सूत्रकालीन न्याय व्यवस्था वर्ग-भेद पर आधारित थी। एक ही अपराध में शूद्र के लिये कठोर तथा द्विज के लिये साधारण दण्ड दिये जाते
निष्कर्ष :
इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदों के बाद वैदिक काल के बाद सूत्र काल में वैदिक प्रभाव स्पष्ट देखने को मिलता है ।किंतु उसमें कुछ आवश्यक सुधार किए गए थे हालांकि यह सुधार नकारात्मक भी थे। जाति प्रथा बलवती हो रही थी स्त्रियों की स्थिति में भी गिरावट हो रही थी। धीरे-धीरे भारतीय समाज अनेक नियम के बंधनों में बंधता जा रहा था। जिसका प्रभाव बाद के दिनों में नकारात्मक देखने को मिला।
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धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय