त्रिपक्षीय संघर्ष न केवल कन्नौज के इतिहास में अपितु सम्पूर्ण भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और रोमांचक घटना है। यह उत्तर भारत के कन्नौज नगर व समीपवर्ती क्षेत्र को लेकर तत्कालिक तीन शक्तियों के बीच हुआ एक संघर्ष है जिसे भारतीय इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष के रूप में जाना जाता है।
त्रिकोणीय संघर्ष :
यह संघर्ष लगभग 200 वर्षों तक चला। मुख्यतः यह 8वीं से 10वीं सदी तक चलने वाला एक दीर्घकालिक संघर्ष है जिसमें पूर्वी भारत के पाल वंशीय शासक , पश्चिम व मध्य भारत के गुर्जर प्रतिहार वंशीय शासक तथा दक्कन व दक्षिण भारतीय क्षेत्र के राष्ट्रकूट शासक शामिल थे।
इस संघर्ष में कभी पालों की विजय होती रही तो कभी राष्ट्रकूट भारी रहे , तथा कई बार राष्ट्रकूट वंशीय शासक इस पर अपना अधिकार जमाते दिखे। परंतु इस त्रिपक्षीय संघर्ष का परिणाम अंततः प्रतिहारों के पक्ष में रहा जबकि इन तीनों में सबसे शक्तिशाली राष्ट्रकूट रहे।
आज हम इसी त्रिपक्षीय संघर्ष की व्याख्या विस्तारपूर्वक करेंगे। इसकी पूर्ण समझ के लिए आप इस पूरे लेख को ध्यानपूर्वक पढ़ें ।
कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष :
महाजनपद काल से गुप्त काल तक जो स्थिति पाटलिपुत्र की थी वही गुप्तों के बाद हर्षवर्धन के समय से कन्नौज की हो गयी थी।
हम जानते हैं कि मौर्यों के पतन के बाद एक बार पुनः गुप्तों ने उत्तर भारत में राजनीतिक एकता को स्थापित करने का प्रयास किया और सफल भी रहे । तथा गुप्त वंश के पतन के बाद यही कार्य हर्षवर्धन ने करना चाहा वह भी अंशतः इसमें सफल हुआ। तथा हर्ष की मृत्यु के बाद एक बार पुनः उत्तर भारत में विकेंद्रीकरण का समय आया।
त्रिपक्षीय संघर्ष किसके बीच हुआ ?
लगभग 750 ई० से 1000 ई० के मध्य उत्तर और दक्षिण भारत में कई साम्राज्यों का उदय हुआ। इनमें 3 सर्वप्रमुख थे – पाल वंश जो 9वीं सदी के मध्य तक पूर्वी भारत पर छाया रहा , प्रतिहार साम्राज्य जो 10वीं सदी के मध्य तक पश्चिम भारत और गंगा की ऊपरी वादी पर राज्य करता रहा और राष्ट्रकूट साम्राज्य जो दकन के क्षेत्र पर राज्य करता रहा । इन्हीं के मध्य कन्नौज को लेकर परस्पर संघर्ष होता रहता था। इसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष के रूप में जाना जाता है।
तीनों राजवंशो का शासित क्षेत्र |
आपस में टकराव के बावजूद इनमें से हर एक ने बड़े बड़े क्षेत्रों में स्थिर जीवन की परिस्थितियां प्रदान की , कृषि का विकास किया , मंदिरों , तालाबों और नहरों का निर्माण कराया तथा कला और साहित्य को भी संरक्षित किया।
राष्ट्रकूट साम्राज्य , जिसनें 7वीं सदी के मध्य से 10वीं सदी के उत्तरार्ध तक दकन पर शासन किया , उपरोक्त तीनों में सबसे लंबा चला । यह दक्षिण भारत पर शासन करते हुए अलग अलग समयों में उत्तर भारतीय राजनीति को भी नियंत्रित करता रहा। ऐसा करने वाला यह प्रथम साम्राज्य था तथा बाद में यही कार्य मराठों ने भी किया।
यह अपने समय का न केवल सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था बल्कि इसने आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में भी उत्तर व दक्षिण भारत के मध्य पुल का कार्य किया।
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त्रिकोणीय संघर्ष के कारण :
हम जानते हैं कि हर्षवर्धन के समय से ही कन्नौज की स्थिति बेहद महत्वपूर्ण हो गई थी । अब उत्तर भारत पर नियंत्रण के लिए कन्नौज पर नियंत्रण पाना आवश्यक हो गया था । उस समय नवनिर्मित साम्राज्य में प्रतिस्पर्धा की होड़ लगी हुई थी अतः कन्नौज पर अधिकार की लालसा तीनों में स्वाभाविक थी । ऐसे में एक निर्णायक स्थिति को प्राप्त करने के लिए तीनों में संघर्ष अथवा युद्ध अवश्यम्भावी हो गया।
इसके अतिरिक्त पाल और प्रतिहार बनारस से लेकर दक्षिण बिहार तक के क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए आपस में टकराते रहे। वहीं दूसरी ओर मालवा और गुजरात पर नियंत्रण के लिए प्रतिहार व राष्ट्रकूट आपस में टकराते रहे।
ये दोनों क्षेत्र व्यापार व समृद्ध संसाधन की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण रहे।
आखिर क्यों था कन्नौज का इतना महत्व ?
★ हर्ष के पश्चात कन्नौज विभिन्न शक्तियों के मध्य एक आकर्षण का केंद्र बन गया। इसे वही स्थान प्राप्त हुआ जो गुप्तयुग तक मगध का था तथा आगे चलकर यही स्थान दिल्ली को प्राप्त हुआ। इस संबंध में प्रो० राधाकृष्ण चौधरी का कहना है– “जिस प्रकार प्राचीन काल में बिना पाटलिपुत्र का स्वामी हुए कोई सम्राट नहीं कहलाता था उसी प्रकार हर्षोत्तर भारत में बिना कन्नौज का स्वामी हुए कोई सम्राट महान नहीं हो सकता था।”
★ राजनीतिक महत्व के साथ साथ कन्नौज का आर्थिक महत्व भी कम न था। क्योंकि कन्नौज एक ऐसे भौगोलिक परिक्षेत्र में था जहाँ से सम्पूर्ण गंगा-यमुना वादी को नियंत्रित किया जा सकता था जोकि हमेशा से कृषि का सर्वोत्तम क्षेत्र था। तथा इसे अलावा गंगा और यमुना के मध्य अवस्थित होने के कारण यह जल व स्थल के व्यापारिक मार्गों को भी नियंत्रित करता था। इस प्रकार यह व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण था।
★ उपरोक्त के अलावा कन्नौज तत्कालीन तीन महाशक्तियों की महत्वाकांक्षा का नगर था।
त्रिकोणीय संघर्ष के पूर्व उत्तर भारत मे वर्चस्व का संघर्ष–
हर्ष की मृत्यु के बाद लगभग 75 वर्षों तक कन्नौज की राजनीतिक स्थिति अज्ञात है। संभवतः उस समय कन्नौज पर चीनी आक्रमण हुआ था। अज्ञातकाल के बाद ज्ञात इतिहास में हम कन्नौज पर यशोवर्मन नामक शासक को बैठा पाते हैं । यशोवर्मन ने अनेक विजयें व उपलब्धियां हासिल की। उस समय उसका समकालीन कश्मीर का शासक ललितादित्य था।
यशोवर्मन और ललितादित्य ने संयुक्त रूप से अरबों के खिलाफ मोर्चा स्थापित किया किन्तु शीघ्र ही इनके संबंध खराब हुए और ललितादित्य ने यशोवर्मन को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इसके अलावा ललितादित्य ने आगे बढ़कर बंगाल के निर्बल शासक को मार डाला।
इस प्रकार कुछ समय तक वह उत्तर भारत का स्वामी बन रहा किन्तु गुर्जर प्रतिहारों और पालों के उदय के साथ ही उसकी शक्ति समाप्त हो गयी और कन्नौज में आयुध वंशीय वज्रायुध का शासन हुआ।
त्रिपक्षीय संघर्ष की कहानी :
त्रिकोणीय संघर्ष का प्रारंभ प्रतिहारों ने किया। उस समय प्रतिहार शासक वत्सराज (775–800 ई०) था। उसका समकालीन पाल शासक धर्मपाल (770–810 ई०) तथा राष्ट्रकूट शासक ध्रुव (780–94 ई०) था।
वत्सराज–धर्मपाल–ध्रुव का संघर्ष और धर्मपाल की विजय :
प्रतिहार शासक वत्सराज कन्नौज के शासक को अपदस्थ करके अपने अधीन इन्द्रायुध को बैठाया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर बंगाल (गौड़) के शासक धर्मपाल पर आक्रमण किया इसमें धर्मपाल पराजित हो ही रहा था किन्तु युद्ध निर्णायक हो पाता इससे पहले राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने प्रतिहार शासक पर आक्रमण करके वत्सराज को बुरी तरह हरा दिया। वत्सराज राजपुताना (राजस्थान) के रेगिस्तान में शरण लेने के लिए बाध्य हुआ। ध्रुव नरेश ने कोई और विजय नहीं की और उसने प्राप्त लूट के ही माल से संतोष करके दक्षिण को लौट गया।
इधर पाल शासक धर्मपाल मैदान खाली देख कन्नौज पर अधिकार कर लिया और इन्द्रायुध को हटाकर अपने अधीन चक्रायुध को कन्नौज की गद्दी पर बैठाया। इसके बाद उसने एक शानदार दरबार लगाया जिसमें पंजाब और पूर्वी राजस्थान आदि के शासकों ने धर्मपाल की अधिराजी स्वीकार की। निःसंदेह धर्मपाल अब उत्तरापथ का स्वामी था।
नागभट्ट द्वितीय – गोविंद तृतीय – धर्मपाल का काल :
राष्ट्रकूट साम्राज्य में ध्रुव (780-94 ई०) के बाद गोविंद तृतीय (794-814 ई०) शासक बना और उधर दूसरी ओर प्रतिहारों में वत्सराज के बाद नागभट्ट द्वितीय (800-33ई०) शासक बना।
नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज के शासक चक्रायुध को हराकर कन्नौज प्राप्त किया और आगे बढ़कर मुंगेर के पास उसने धर्मपाल को भी पराजित किया। किन्तु एक बार फिर राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय ने 806-07 ई० में न केवल नागभट्ट पर आक्रमण कर उसे पराजित किया बल्कि वह विजय करता हुआ हिमालय तक पहुँच गया। किन्तु इसके पहले वह धर्मपाल और चक्रायुध को पराजित कर पाता , जो नागभट्ट के पराजय के समय पुनः पदासीन हो गए थे , उन्होंने यह सोचकर आत्म समर्पण कर दिया कि वह पुनः विजय करके लौट जाएगा और कन्नौज पर फिर उसका अधिकार हो जाएगा।
उसकी आशानुरूप ऐसा ही हुआ। चूंकि दकन के अधीन सरदारों ने विद्रोह कर दिया अतः गोविंद तृतीय को विजित क्षेत्र छोड़कर जाना पड़ा किन्तु मालवा व गुजरात उसके अधीन रहा। इस बीच धर्मपाल व चक्रायुध ने पुनः कन्नौज को हथिया लिया।
इसी बीच धर्मपाल और बाद में गोविंद तृतीय की मृत्यु हो गयी और क्रमशः देवपाल पाल वंश का तथा अमोघवर्ष राष्ट्रकूट साम्राज्य का शासक बना। गोविंद तृतीय और धर्मपाल की मृत्य के बाद प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय को थोड़ी अधिक सफलता मिली।
देवपाल–रामभद्र–अमोघवर्ष का काल और देवपाल की विजय :
गोविंद तृतीय के वापस लौटने के बाद गुर्जर प्रतिहारों में पुनः संघर्ष छिड़ गया। इस बार पाल शासक देवपाल (810-50 ई०) था और प्रतिहार का निर्बल शासक रामभद्र था क्योंकि 833 ई० के आस पास नागभट्ट द्वितीय की मृत्यु हो गयी थी । रामभद्र देवपाल का सामना करने में असमर्थ रहा और इस बार राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष भी दक्षिण की राजनीति में उलझा रहा। इसका लाभ उठाकर देवपाल ने रामभद्र को पराजित किया और कन्नौज पर अधिकार कर अन्य कई समीपवर्ती राजवंशो को अपनी अधीनता स्वीकार कराई।
किन्तु वह ज्यादा समय तक स्थायी न रह सका और उसका सामना सबसे शक्तिशाली प्रतिहार शासक मिहिरभोज (भोज) से हुआ।
देवपाल–मिहिरभोज–कृष्ण द्वितीय का काल :
रामभद्र के बाद प्रतिहारों की गद्दी पर मिहिरभोज (936-85 ई०) बैठा। प्रारम्भ में उसे देवपाल ने पराजित किया।
किन्तु देवपाल के अंतिम समय में भोज ने उसे हराया।
कालांतर में 850 ई० में देवपाल की मृत्यु हो गयी और बाद के पाल साम्राज्य के शासक विग्रहपाल (850-54 ई०) , नारायणपाल (854-98 ई०) , राज्यपाल , गोपाल द्वितीय आदि निर्बल व अयोग्य रहे।
इसके बाद राष्ट्रकूट शासक भी बदलकर कृष्ण द्वितीय (878-914 ई०) हो गया था। उसने भी मिहिरभोज पर आक्रमण करके उसे पराजित किया। किन्तु यह उसकी प्रारम्भिक असफलताएं थी जो बाद में सफलता में तब्दील हुईं।
इसके बाद कमजोर पालों पर राष्ट्रकूटों ने भी आक्रमण किया और उन्हें हराया।
देवपाल के उत्तराधिकारी–कृष्ण द्वितीय और मिहिरभोज का काल :
पालों पर राष्ट्रकूटों के आक्रमण से मिहिरभोज को अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर मिला। उसने चेदि तथा गहलोत वंशो के साथ मैत्री स्थापित किया। इसके बाद भोज ने भी देवपाल के उत्तराधिकारी को पराजित किया। इस समय राष्ट्रकूटों का चालुक्यों से संघर्ष चल रहा था जिसमें चालुक्य विजयी हुए। इसका फायदा भोज ने उठाया और राष्ट्रकूटों (कृष्ण द्वितीय) पर आक्रमण कर मालवा तथा गुजरात पर अधिकार कर लिया साथ ही उसने कन्नौज पर स्थायी अधिकार करके उसको अपनी राजधानी बनाया और चतुर्दिक विकास किया।
इस प्रकार कन्नौज पर प्रतिहार वंशी मिहिरभोज के अधिकार के बाद त्रिकोणीय संघर्ष लगभग समाप्त हो चुका था जिसमें प्रतिहारों ने विजय प्राप्त कर ली थी किन्तु आपसी टकराव जारी रहा।
महेन्द्रपाल के वर्चस्व का काल :
राजा भोज की मृत्यु के बाद महेंद्रपाल प्रथम (885-910 ई०) प्रतिहार वंश की गद्दी पर बैठा। इसके समय मे भी भोज द्वारा विजित क्षेत्र बना रहा और प्रतिहारों का सितारा चमकता रहा। महेन्द्रपाल I (प्रतिहार) और नारायण पाल (पाल) के मध्य टकराव जारी रहा जिसमें हमेशा पालों की हारें होती रहीं।
इस समय भी राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय चालुक्यों के साथ युद्ध मे उलझा रहा।
अंतिम संघर्ष : महेन्द्रपाल के उत्तराधिकारी (महिपाल) और इंद्र तृतीय का काल –
महेन्द्रपाल के बाद प्रतिहारों की गद्दी पर महिपाल बैठा और उधर राष्ट्रकूटों का शासन इंद्र तृतीय ने संभाला। तथा अब पाल वंश एकदम से कमजोर स्थिति को प्राप्त कर चुका था जिसका अब कन्नौज के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा और वे एक छोटे से क्षेत्र पर 12वीं सदी तक शासन करते रहे।
महिपाल के समय में 915-18 ई० के मध्य राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय ने पुनः कन्नौज पर आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा। इस समय महिपाल को कन्नौज छोड़कर भागना पड़ा परंतु इंद्र तृतीय के वापस लौट जाने के बाद उसने पुनः कन्नौज पर अधिकार कर लिया था। इसके बाद कन्नौज और मध्य भारत पर तुर्कों के आक्रमण तक प्रतिहारों का शासन बना रहा और निःसंदेह प्रतिहारों की त्रिपक्षीय संघर्ष में विजय प्राप्त हो चुकी थी।
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निष्कर्ष :
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
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