पिछले लेख में हमने भारतीय संविधान की प्रस्तावना को जानने का प्रयास किया और साथ ही उससे जुड़ी अधिकाधिक बातों की चर्चा की गई है। आप इस लेख को पढ़ने के पूर्व या उपरांत पिछले लेख को अवश्य पढ़ लें।
पिछला लेख :
● प्रस्तावना क्या है? व भारतीय संविधान की प्रस्तावना
यहां आज हम बात करेंगे कि-
भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान का भाग है अथवा नहीं ?
अकसर यह विवाद संविधान के प्रस्तावना के संदर्भ में जुड़ा रहता है कि भारतीय संविधान की जो प्रस्तावना है वह संविधान का अभिन्न अंग (भाग) है या नहीं ? इस विवाद के कुछ मूल कारण हैं जिनके फलस्वरूप ऐसी स्थिति आज के समय मे बनी हुई है।
विवाद का कारण :
इस विवाद का मूल कारण यह है कि कई जगह भारतीय लेखों द्वारा संविधान की प्रस्तावना को संविधान का अभिन्न अंग माना जाता है। कभी-कभी न्यायालय द्वारा भी प्रस्तावना को संविधान का भाग नहीं माना जाता और कभी कभी मान लिया जाता है। इस कारण संविधानवेत्ताओं के समक्ष यह असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि प्रस्तावना संविधान का भाग है अथवा नहीं?
उपरोक्त कारणों के परिणामस्वरूप विद्वानों व आम जनमानस के मस्तिष्क में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या भारतीय संविधान के अंतर्गत सिर्फ वही भाग आते हैं जिनमें अनुच्छेदों और अनुसूचियों का वर्णन है अर्थात क्या अनुच्छेद 1 से अनुच्छेद 395 तक और अनुसूचियों , संशोधनोंं व धाराओं का वर्णन करने वाला हिस्सा ही संविधान का अंग है या संविधान में वो भाग भी आता है , जिसमें कोई भी अनुच्छेद नहीं हैं।
प्रस्तावना संविधान का भाग है या नहीं : विवाद-
प्रस्तावना संविधान का भाग है अथवा नहीं ? इस प्रश्न को समझने के लिए हमें संविधान सभा के सदस्यों द्वारा प्रस्तावना के प्रति किए गए बर्ताव को याद करने की आवश्यकता है।
गौरतलब है कि 13 दिसंबर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया था जो 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा पारित कर दिया गया। ऐसा माना जाता है कि यही उद्देश्य प्रस्ताव कालांतर में भारतीय संविधान की प्रस्तावना बना।
प्रस्तावना संबंधी अंतिम प्रस्ताव 17 अक्टूबर, 1949 को प्रस्तुत किया गया था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद ने प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह जो प्रस्तावना है इसे संविधान के एक भाग के रूप में स्वीकृत किया जाय। अर्थात “प्रस्तावना संविधान का महत्वपूर्ण अंग है।” उस समय यह प्रस्ताव 2 नवंबर, 1949 को स्वीकार कर लिया गया तथा संविधान का भाग बन गया।
Note: ☛ अधिकांशतः किसी अधिनियम की उद्देशिका विधान मंडलों के सदनों में बहस नहीं की जाती या मतदान नहीं होता। किंतु इसके विपरीत हमारे संविधान की उद्देशिका पर संविधान सभा में संविधान के किसी भी अन्य भाग की तरह पूरी बहस हुई थी , उसे विधिवत अधिनियमित तथा अंगीकृत किया गया था। उद्देशिका पर अंतिम मतदान कराते समय संविधान सभा के अध्यक्ष ने कहा था प्रस्ताव यह है कि उद्देशिका संविधान का अंग बने।
इस प्रकार जब हमारे संविधान सभा ने यह मानकर इसे पारित कर दिया की प्रस्तावना संविधान का भाग है , तो इससे स्पष्ट हो जाना चाहिए। किन्तु न्यायपालिका द्वारा कुछ किये गए निर्णयों से इस संबंध में विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गयी।
➠ गोपालन बनाम मद्रास (1950) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का विचार था कि संविधान की व्याख्या करने में प्रस्तावना न्यायालय के लिए बाध्यकारी नहीं है।
प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है – (बेरुबाड़ी मामला, 1960)
भारत के संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत बेरुवारी मुकदमे में भारत-पाकिस्तान समझौते के प्रसंग के अंतर्गत आठ न्यायाधीशों की पीठ की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश बी.पी. सिन्हा ने की, जिसने इस विषय पर विचार किया। न्यायाधीश गजेंद्र गडकर ने सर्वसम्मति की घोषणा कर दी।
न्यायालय ने निर्णय में कहा कि संविधान की प्रस्तावना निःसंदेह संविधान निर्माताओं ने विभिन्न प्रावधानों से परिलक्षित कर दिया कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है।
बेरुवारी मुकदमे के निर्णय का संक्षिप्त रूप :
1. संविधान को प्रस्तावना, संविधान निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुँजी हैं, इससे संविधान में शामिल विभिन्न प्रावधानों को स्पष्ट किया जा सके।
2. प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है।
3. यह संविधान के प्रावधानों के द्वारा सरकार को दी गई शक्तियों का स्रोत नहीं है।
4. इस प्रकार की शक्तियां संविधान में समाविष्ट एवं अंतर्निहित प्रदान कर की गयी हैं।
5. शक्तियों के संबंध में जो सत्य है, वहीं निषेध, सीमांकन व नियंत्रण के विषय में भी सत्य होता है।
6. संविधान की प्रस्तावना का पहला भाग सम्प्रभुत्ता की अवधारणा को सीमित करता। है जब वह सम्प्रभु शक्ति का प्रयोग कर किसी अन्तराष्ट्रीय संधि के द्वारा भारत किसी भूभाग को स्थानांतरित करने पर रोक लगाता है।
बेरुबारी मामला गोलकनाथ मुकदमें पर आधारित रहा। न्यायाधीश वॉनचू के अनुसार, “हम कई समान तर्कों के आधार पर यह विचार रखते हैं कि प्रस्तावना अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन को किसी भी प्रकार से निषिद्ध या नियंत्रित नहीं करती है।”
न्यायमूर्ति बच्छावत का विचार था कि “प्रस्तावना संविधान के अनुच्छेदों की अस्पष्ट भाषा को । नियंत्रित नहीं कर सकती।
प्रस्तावना संविधान का अंग है: (केशवानंद भारती मामला , 1973)
यह दुख के साथ-साथ रिकार्ड रखने का विषय है कि बेरुबारी बाद में जाने माने न्यायाधीशों ने संवैधानिक इतिहास को नजरअंदाज किया। संविधान सभा द्वारा अपनाए गए प्रस्ताव में अनेक शब्दों में कहा गया कि प्रस्तावना संविधान का ही अंग है। यह गलती केशवानंद वाद में सुधारी गई, जिसमें स्पष्ट किया गया कि प्रस्तावना संविधान के अन्य प्रावधानों की तरह ही संविधान का हिस्सा है। इस प्रकार केशवानंद भारती वाद ने इतिहास रचा।
केशवानंद भारती वाद में तेरह न्यायाधीशों की बेंच में से कुछ न्यायाधीशों के क्या विचार थे यह जानना बड़ा रुचिकर है कि पहली बार 13 न्यायाधीशों की पीठ प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत एक रिट याचिका को सुनवाई के लिए बैठी। 13 न्यायाधीशों में से 11 ने अलग राय व्यक्त की।
केशवानंद भारती वाद में न्यायालय की राय का अनुपात का पता लगाना आसान कार्य नहीं है, लेकिन प्रस्तावना के उद्देश्य से आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केशवानंद भारती वाद पर निर्णय इस पक्ष में था कि–
(क) संविधान की प्रस्तावना संविधान का अंग है।
(ख) प्रस्तावना न तो शक्ति का स्रोत है, न सीमित या निषिद्ध का स्रोत है।
(ग) संविधान की ऐसे प्रावधानों की व्याख्या करने में प्रस्तावना का अत्यधिक महत्व हैं, जिनमें प्रावधान की वृहद् और गहरी पहुंच को समझना हो या किसी प्रावधान में अस्पष्टता हो। ऐसे प्रावधानों में अर्थ में प्रस्तावना पर निर्भर रहा जा सकता है। जिन प्रावधानों का अर्थ व भाषा स्पष्ट हैं, उनको व्याख्या के लिए प्रस्तावना पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।
केशवानंद भारती वाद न्यायमूर्ति वाई. वी. चंद्रचूड़ द्वारा एक रुचिकर तर्क दिया गया, उनका कहना था कि प्रस्तावना संविधान का अंग है, लेकिन यह संविधान का प्रावधान नहीं है, इसलिए प्रस्तावना को बदलने के लिए आप संविधान में संशोधन नहीं कर सकते। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने माना कि यह विचार स्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
यह संविधान का हिस्सा है तथा यह अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन की परिधि से बाहर नहीं है। संविधान सभा के अभिलेख इस तरह के विवाद के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते। यह संविधान सभा की कार्यवाही से सर्वविदित है कि प्रस्तावना को मतदान के पश्चात् संविधान के अंग के रूप में स्वीकार किया गया था।
प्रस्तावना प्रकाश पुंज की भांति इतिहास का एक उद्दीप्त विचार व अवधारणा है, इसलिए तर्क दिया जाता है कि वर्तमान और भविष्य में कितना भी शक्तिशाली शासक क्यों न हो, वह ऐतिहासिक तथ्यों में संशोधन नहीं कर सकता।
यद्यपि इतिहास के तथ्यों में संशोधन नहीं किया जा सकता, परंतु प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है।
केशवानंद भारती वाद भारत के संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर होने के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण मोड़ भी था। महत्वपूर्ण संवैधानिक विषय पर न्यायिक निर्णय में इस वाद से आया बदलाव संवैधानिक कानून छात्रों के लिए आश्चर्यजनक व अत्यधिक रुचिकर है। प्रत्येक न्यायाधीश द्वारा अपनी राय उत्कृष्ट व मनपसंद शब्दों में व्यक्त की गई, जिनमें हमारे संविधान निर्माताओं की ‘हम भारत के लोग’ की भावना व्यक्त होती है।
न्यायमूर्ति डी. जी. पालेकर ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का अंग है, इसलिए यह अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन योग्य है। उन्होंने कहा कि मौलिक अधिकारों को प्रस्तावना का विस्तार मानना अतिशयोक्ति व आधा सत्य है।
न्यायमूर्ति एच आर खन्ना की राय में प्रस्तावना सविधान का अंग है। उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा का विकास कर इसे प्रस्तावना में प्रतिस्थापित स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के मूल्य से संबद्ध किया। उन्होंने कहा कि ये अधिकार अहस्तांतरणीय है, इसीलिए इनमें संशोधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन अधिकारों व मूल्यों को मनुष्य ने युगों के संघर्ष से संजोए रखा है।
न्यायमूर्ति खन्ना ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, जो कहता था कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है। उनके अनुसार, ‘प्रस्तावना संविधान से पहले चलती है। उनकी राय में प्रस्तावना भी अन्य प्रावधानों की तरह ही संविधान का अभिन्न हिस्सा है, इसलिए आधारभूत ढांचे को छोड़कर इसमें संविधान के अन्य प्रावधानों की तरह प्रस्तावना में भी संशोधन किया जा सकता है। आधारभूति या मूलभूत ढांचे को संशोधन की शक्ति पर प्रतिबंधक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति एस. एन. द्विवेदी ने भी न्यायमूर्ति ए. एन. रे के निष्कर्ष व निर्णय के समान ही अपने विचार रखे, जिसने कहा था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है। न्यायमूर्ति द्विवेदी ने प्रस्तावना को संविधान का अंग बताने के साथ-साथ इसे संविधान का प्रावधान भी घोषित किया।
निष्कर्ष में न्यायमूर्ति बेग ने कहा कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन की शक्ति पर कोई नियंत्रण नहीं है।
➨ इस प्रकार उद्देशिका को अब संविधान का एक अभिन्न अंग माना जाता है। फिर भी यह भी अपनी जगह सत्य है कि यह न तो किसी शब्द का कोई स्रोत है और न ही उसको किसी प्रकार से सीमित करता है।
➨ बोम्बई मामले (1994) में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एस आर रामास्वामी ने कहा उद्देशिका संविधान का अभिन्न अंग है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, संघात्मक ढांचा, राष्ट्र की एकता और अखंडता, पंथनिरपेक्षता , समाजवाद , सामाजिक न्याय तथा न्यायिक पुनरावलोकन संविधान के बुनियादी तत्वों में है।
➨ एलआईसी ऑफ इंडिया मामले (1995) में पुनः उच्चतम न्यायालय ने कहा की प्रस्तावना संविधान का आंतरिक हिस्सा है।
निष्कर्ष :
इस प्रकार तमाम वाद-विवाद के परिणाम स्वरुप निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि प्रस्तावना भारतीय संविधान का अभिन्न अंग है। किन्तु यह न तो किसी शक्ति का स्रोत है और न ही किसी शक्ति को सीमित करता है।
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धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
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