पाल वंश | Pala dynasty in hindi | पाल वंश का इतिहास | Pal vansh ka itihas

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 पाल वंश का इतिहास मध्यकालीन भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पाल वंश के शासक भारत के पूर्वी हिस्से पर शासन करते थे तथा बंगाल , बिहार और अन्य समीपवर्ती क्षेत्रों को मिलाकर एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त किए। 

पाल वंश के शासकों ने पूर्वी भारत पर लंबे समय के लिए न केवल राजनीतिक स्थायित्व प्रदान किया बल्कि वे स्थिर जीवन की परिस्थितियां भी प्रदान किये। उन्होंने कृषि के विकास के लिए तालाबों-नहरों का निर्माण व विकास किया , व्यापार वाणिज्य को बढ़ावा दिया , कला व साहित्य को संरक्षण प्रदान किया , मंदिरों का निर्माण कराया तथा पुराने विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार व नए विश्वविद्यालय का निर्माण भी कराया। 

पाल शासकों ने प्रतिहारों व राष्ट्रकूटों के साथ कन्नौज के त्रिपक्षीय संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कई बार सफलता भी प्राप्त किये। 

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पाल वंश : 【770ई० – 1161ई०】

पाल वंश का इतिहास

जानकारी के स्रोत : पाल वंश की जानकारी हमें पुरातात्विक , साहित्यिक तथा विदेशी विवरणों तीनों से होती है।

पुरातात्विक स्रोतों में इस वंश के कुछ प्रमुख लेख आते हैं । ये निम्नवत् हैं – 

धर्मपाल का खालिमपुर लेख , देवपाल का मुंगेर लेख , नारायण पाल का भागलपुर ताम्रपत्र अभिलेख , नारायण पाल का बादल स्तंभ लेख , महिपाल प्रथम के बानगढ़ , नालंदा तथा मुजफ्फरपुर से प्राप्त लेख आदि। 

   साहित्यिक स्रोतों में संध्याकर नन्दीकृत ‘रामचरित’ उल्लेखनीय है। इसके अलावा तिब्बती लेखक तारानाथ के ग्रंथ भी इस वंश की महत्वपूर्ण जानकारियां देते हैं।

पाल वंश के पूर्व व्याप्त अराजकता–

बंगाल पर हर्ष की विजय और बाद में 637 ई० में गौड़ नरेश शशांक की मृत्यु के पश्चात बंगाल में अराजकता का दौर शुरू हुआ। यह लगभग 1 शताब्दी तक चला। बाद में हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कश्मीर के शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ ने कन्नौज पर अधिकार करने के बाद बंगाल के क्षेत्र में भी आक्रमण किया और लूटपाट करके ही संतुष्ट होकर लौट गया। इसी बीच बंगाल को कुछ अन्य बाह्य आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा क्योंकि उस समय वह क्षेत्र शासक विहीन क्षेत्र था जिस पर कोई भी आसानी से अभियान कर सकता था। 

वहां के लोगों द्वारा गोपाल को शासक चुनना : 

ऐसे में वहां के स्थानीय कुलीनों द्वारा यह अनुभव किया गया कि यदि यहां एक शक्तिशाली केंद्रीय शासन स्थापित किया जाता तो इस प्रकार की अराजकता व अव्यवस्था की स्थिति को सुधारा जा सकता था। अतः 8वीं सदी के मध्य में अशांति एवं अव्यवस्था से ऊब कर बंगाल के प्रमुख नागरिकों ने गोपाल नामक एक सुयोग्य सेनानायक को अपना शासक चुन लिया। इसे मत्स्य न्याय कहा गया। 

पाल वंश की स्थापना : 

सेनानायक चुना जाने के उपरांत गोपाल ने 750 ई० में एक नए राजवंश की स्थापना की जो भारतीय इतिहास में ‘पाल वंश’ के रूप में विख्यात हुआ। यह एक क्षत्रिय राजवंश था जिसने बंगाल में लगभग 400 वर्षों तक राज्य किया। इतने दीर्घकालिक शासनकाल में पाल वंश के इतिहास में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों के दृश्यों से बंगाल की अभूतपूर्व प्रगति हुई।

पाल वंश का इतिहास : 

पाल साम्राज्य मैप
पाल सम्राज्य का अधिकतम विस्तार

पाल वंश का शासन पूर्वी भारत पर 750 ई० से 1161 ई० तक रहा। इसका प्रथम शासक गोपाल रहा इसने ही पाल वंश की स्थापना 750 ई० में की थी। उसका पुत्र धर्मपाल इस वंश का पहला महान शासक हुआ। इसके ही समय में पाल वंश का विस्तार हुआ और इसी के समय में कन्नौज त्रिपक्षीय संघर्ष का आरंभ हुआ। इसके बाद देवपाल शासक बना। 

गोपाल : 750–770 ई०

पाल वंश की स्थापना का श्रेय गोपाल को जाता है। गोपाल क्षत्रिय था तथा इसके पिता का नाम वप्यात था जो सेनानी के रूप में प्रसिद्ध था। 

गोपाल चुनाव के समय का एक मुख्य नेता था जिस कारण उसने शासक और सेनानी के रूप में प्रसिद्धि पाई। गोपाल ने बंगाल में शांति और सुव्यवस्था स्थापित की तथा विजयें की।  उसका आरंभिक राज्य पूर्वी बंगाल में था किंतु अंतिम समय तक उसने पूरे बंगाल पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया। 

देवपाल के मुंगेर लेख में वर्णन मिलता है कि गोपाल ने समुद्र तट तक की पृथ्वी की विजय की। किंतु यह वर्णन अलंकारिक मात्र है संभवत उसने बंगाल के समुद्र तट तक विजय की थी। वर्तमान समय में हमें गोपाल की राजनीतिक उपलब्धियों के विषय में इससे अधिक कुछ ज्ञात नहीं है। 

गोपाल एक बौद्ध मतावलंबी शासक था तथा उसने नालंदा में एक विहार का निर्माण करवाया। तारानाथ बताता है कि गोपाल ने ओतान्तपुर का प्रसिद्ध विहार बनवाया। 

धर्मपाल : (770 ई० – 810 ई०)

गोपाल के बाद उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र धर्मपाल पाल वंश की गद्दी पर बैठा। 

 इस समय तक उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति काफी जटिल हो चुकी थी। उसके प्रतिद्वंदी के रूप में राजपूताना और मालवा के क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का उदय हो चुका है तथा दक्षिण भारत के दक्कन क्षेत्र पर राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। इन्ही के साथ उत्तर भारत में वर्चस्व के लिए धर्मपाल का संघर्ष हुआ। 

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प्रारम्भिक पराजय : 

जिस समय पाल वंश में धर्मपाल का शासन था उस समय उसका प्रतिहार प्रतिद्वंदी वत्सराज था। इससे पहले कि धर्मपाल अपनी स्थिति मजबूत कर पाता वत्सराज ने धर्मपाल पर आक्रमण कर गंगा के दोआब में किसी स्थान पर उसे पराजित किया। राधनपुर लेख में वर्णन है कि “वत्सराज ने गौड़ (बंगाल) राजा का राजकीय ऐश्वर्य सुगमतापूर्वक हस्तगत कर लिया , वह गौड़ राजा का 2 श्वेत राजक्षत्रों को उठाकर ले गया। 

परंतु बच्चा राजा राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हुआ और राजपूताना के रेगिस्तान में भागने को विवश हुआ। ध्रुव ने धर्मपाल को भी पराजित किया और दक्षिण की ओर लौट गया। इसका धर्मपाल ने पूरा लाभ उठाया। 

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कन्नौज विजय : 

ध्रुव द्वारा वत्सराज की पराजय का धर्मपाल को भरपूर लाभ  मिला। सर्वप्रथम धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण के कर वहां के शासक इन्द्रायुध को पराजित कर अपने अधीन शासक चक्रायुध को बैठाया।  इसके बाद उसने कन्नौज में एक दरबार का आयोजन किया। इसमें बहुत से सामंत सरदार सम्मिलित हुए जिनमें भोज , मत्स्य , मद्र , कुरु , यदु , यवन , अवन्ति , गंधार और कीर के शासक प्रमुख हैं। 

खलिमपुर तथा भागलपुर के लेखों से पता चलता है कि  किन शासकों ने धर्मपाल के दरबार में कांपते हुए मुकुट से सम्मानपूर्वक सिर झुकाया और उसकी अधिराजी स्वीकार की। इस प्रकार वह इस काल मे समस्त उत्तरापथ का स्वामी बन बैठा। 

11वीं सदी के गुजरात के कवि सोड्ढल ने धर्मपाल को ‘उत्तरापथस्वामी‘ की उपाधि से विभूषित किया। 

धर्मपाल की पुनः पराजय :

धर्मपाल उत्तर भारत के नवस्थापित साम्राज्य को अक्षुण्ण नहीं रख सका। शीघ्र ही धर्मपाल को एक और चुनौती का सामना करना पड़ा।

 प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज विजय कर लिया और उसके शासक चक्रायुध को वहाँ से खदेड़ दिया।अतः नागभट द्वितीय और धर्मपाल का युद्ध अवश्यम्भावी था। सम्भवतः मुंगेर के निकट एक घमासान युद्ध हुआ जिसमें नागभट्ट ने धर्मपाल को परास्त किया। 

किन्तु एक बार फिर राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय ने नागभट्ट द्वितीय को पराजित कर दिया। इसके बाद धर्मपाल और चक्रायुध ने यह सोचकर उसकी अधीनता स्वीकार ली कि गोविंद तृतीय के पुनः लौटने के बाद वह फिर से कन्नौज व उत्तर भारत का स्वामी बन जायेगा। 

उसकी आशानुरूप ऐसा ही हुआ। शीघ्र ही गोविंद तृतीय दकन लौट गया और धर्मपाल को एकबार पुनः अवसर मिला अपनी सैनिक आकांक्षाओं की पूर्ति का। वह एक बार फिर से कन्नौज पर अधिकार करके एक विस्तृत साम्राज्य का शासक बन गया और अपने अंत तक बना रहा। 

अपनी महानता के अनुरूप उसने परमेश्वर , परमभट्टारक , महाराजाधिराज की उपाधियां प्राप्त की। इस प्रकार निःसंदेह वह पाल वंश का एक महान शासक था। 

सम्राज्य विस्तार : 

 धर्मपाल का साम्राज्य तीन भागों में बटा हुआ था। बंगाल और बिहार का उसके प्रत्यक्ष अधिकार में थे।  कन्नौज का राज्य उसके अधीन था क्योंकि वहां उसने शासक नियुक्त किया था । पंजाब , राजपूताना , मालवा और बरार के शासक उसकी प्रभुता मानते थे। 

तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार धर्मपाल का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से लेकर दिल्ली तक तथा जालंधर से लेकर विंध्य पर्वत तक फैल गया था।

वह एक बौद्ध धर्मानुयायी शासक था। उसके लेखों में उसे ‘परमसौगात‘ कहा गया है। उसने विक्रमशिला तथा सोमपुरी में प्रसिद्ध विहारों की स्थापना की। उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा नालंदा विश्वविद्यालय का पुनुरुद्धार किया। 

तारानाथ के अनुसार उसने 50 धार्मिक विद्यालयों की स्थापना की थी। किन्तु शासक के रूप में उसकी धार्मिक असहिष्णुता एवं कट्टरता नहीं थी। 

देवपाल : (810 ई० – 850 ई०)

धर्मपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवपाल सिंहासन पर बैठा। वह सुयोग्य पिता का सुयोग्य पुत्र था। उसने न केवल अपने पैतृक साम्राज्य को बनाए रखा बल्कि उसमें वृद्धि भी की। यह पाल वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। तथा उसने अपने पिता के ही समान परमेश्वर , परमभट्टारक , महाराजाधिराज जैसी उपाधियां धारण कीं। 

ऐसा बताया गया है कि हिमालय से विंध्य तक और पूर्वी सागर से पश्चिमी सागर तक समस्त उत्तरी भारत के शासकों से उसने शुल्क/कर प्राप्त किया था। 

देवपाल की विजयें : 

उसने उत्कलों को नष्ट किया , प्रगज्योतिषपुर अथवा असम का विजय किया , हूणों का दम्भ चूर किया और गुर्जरों तथा द्रविड़ शासकों को भी नीचा दिखाया। 

आभिलेखिक स्रोतों से पता चलता है कि- जब जयपाल के नेतृत्व में देवपाल की सेनाएँ निकट आयीं तो प्राग्ज्योतिष (असम) के राजा ने बिना युद्ध किए समर्पण कर दिया।

 उसी प्रकार उत्कल के राजा ने भी राजधानी छोड़ दी और भाग गया। 

हूणों के छोटे-छोटे कई राज्य थे। उनमें से एक उत्तरापथ में हिमालय के निकट था। उसे देवपाल ने विजय किया। 

वहाँ से वह कम्बोज की ओर गया। 

नागभट द्वितीय के पुत्र रामभद्र प्रतिहार पर देवपाल ने आक्रमण किया और उसे परास्त किया। राजा भोज प्रतिहार को भी देवपाल ने परास्त किया। 

देवपाल को राष्ट्रकूटों की तीन पीढ़ियों से संघर्ष करना पड़ा। किन्तु सभी कठिनाइयों के सामने उसने उत्तरी भारत में अपनी सर्वोच्चता को स्थिर रखा। प्रतीत होता है कि देवपाल ने राष्टकूट शासक अमोघवर्ष को भी परास्त किया। यह सम्भवतः उसने उन राज्यों की सहायता से किया जो राष्ट्रकूटों को अपना शत्रु समझते थे।

देवपाल भी बौद्ध मत का आश्रयदाता था। इसने मगध में अनेक मंदिर और विहार बनवाए तथा कला और शिल्पकला को संवेग प्रदान किया। इसके समय मे भी नालंदा बौद्ध ज्ञान के केंद्र के रूप में पूर्ववत विद्यमान रहा।

 इस प्रकार देवपाल अपने वंश का महानतम शासक था ।जिसके नेतृत्व में पाल साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। 

देवपाल के उत्तराधिकारी : 

देवपाल का शासन पाल वंश के चर्मोत्कर्ष को व्यक्त करता है। देव पाल की मृत्यु के बाद पाल वंश पतनोन्मुख हो उठा। 

विग्रहपाल : (850 से 853-54 ई०)

देवपाल की मृत्यु के बाद विग्रहपाल शासक बना। कुछ विद्वान उसे देवपाल का पुत्र तो कुछ उसे भतीजा मानते हैं। वहीं देवपाल के एक पुत्र राज्यपाल की मृत्यु उसके शासनकाल में ही हो गयी थी। 

विग्रहपाल ने केवल 3 या 4 वर्ष राज्य किया उसके बाद उसने अपने पुत्र नारायणपाल के पक्ष में राज्य त्याग कर साधु बन गया। 

नारायणपाल : (854 ई० – 908 ई०)

विग्रहपाल के बाद नारायणपाल राजा बना।  यह भी शांत और धार्मिक प्रवृत्ति का शासक था। इसने 50 वर्ष से अधिक शासन किया। 

860 ई० के आस पास  राष्ट्रकूटों पाल शासक को पराजित किया जिसका लाभ प्रतिहार शासकों को मिला। प्रतिहार शासक भोज तथा महेंद्रपाल ने इन्हें पराजित कर पूर्व की ओर अपना साम्राज्य विस्तृत किया। पाल शासक के हाथ मगध तथा दक्षिणी बिहार निकल गया तथा उत्तरी बंगाल पर भी कुछ समय तक प्रतिहारों का अधिकार रहा। इसके साथ ही उड़ीसा और असम के पाल सामंतो ने भी विद्रोह कर न केवल स्वयं को स्वतंत्र किया बल्कि राजसी उपाधियां भी धारण की। 

इस समय पाल शासक नारायणपाल का राज्य बंगाल के एक भाग तक सीमित हो गया। 

किन्तु 908 ई० में अपनी मृत्यु के पूर्व नारायणपाल ने प्रतिहारों से उत्तरी बंगाल और दक्षिणी बिहार वापस ले लिए। यह राष्ट्रकूटों द्वारा प्रतिहारों की पराजय के बाद ही सम्भव हो सका। संभव है कि नारायणपाल को भी राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय ने परास्त किया हो ।

किंतु जो भी हो 908 ई० में अपनी मृत्यु के पहले नारायण पाल ने बंगाल और बिहार पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।

राज्यपाल ➝ गोपाल द्वितीय ➝ विग्रहपाल द्वितीय : 

नारायणपाल के पश्चात पाल वंश का अंतिम शासकों ने 80 वर्ष तक शासन किया।  इन शासकों के समय में पाल शक्ति का लगातार ह्रास होता रहा। विग्रहपाल द्वितीय के समय तक आते-आते पालों का बंगाल पर से शासन समाप्त हो गया। अब वे केवल बिहार में शासन कर रहे थे। अर्थात पाल वंश लगभग पतन को प्राप्त हो चुका था। 

महीपाल प्रथम : (988 ई – 1038 ई०)

पाल साम्राज्य लगभग समाप्त ही होने वाला था कि इस वंश की गद्दी पर महिपाल प्रथम जैसा एक शक्तिशाली शासक बैठा। 

उसके अभिलेखों की प्राप्ति स्थानों से प्रतीत होता है कि उसके अधीन पाल साम्राज्य की शक्ति एक बार पुनः जागृत हुई। महीपाल प्रथम के राज्य में दिनाजपुर , मुजफ्फरपुर , पटना , गया और तिप्पेरा जैसे दूर दूर स्थान शामिल थे। 

शासक बनने के बाद महीपाल प्रथम ने कंबोज वंश की एक गौड़ शासक से उत्तरी बंगाल छीना। सारनाथ लेख (1026 ई०) काशी क्षेत्र पर उसके अधिकार का सूचक है। इस प्रकार यह देवपाल के बाद सबसे शक्तिशाली शासक था। 

किन्तु कर्णाकों के साथ महिपाल के युद्ध में तीरभुक्ति के छीन जाने का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा महीपाल को 1023 ई० में राजेन्द्र चोल द्वारा भी पराजित होना पड़ा किन्तु वह चोलों को गंगा के पार होने नहीं दिया। किन्तु इससे पालों का बहुत नुकसान नहीं हुआ किन्तु महीपाल के राज्य के अंत में उसके राज्य विस्तार में कमी अवश्य हुई। 

महिपाल प्रथम ने भी बौद्ध धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया तथा उसने मंदिर और विहार बनवाए।

जयपाल / नयपाल : (1038 ई० – 1055 ई०)

महीपाल की मृत्यु के बाद पाल वंश की अवनति आरम्भ हुई। जयपाल महीपाल का उत्तराधिकारी हुआ। इसके काल में कालचुरी शासक गांगेयदेव का पुत्र कर्ण ने पाल साम्राज्य पर आक्रमण किया किंतु नयपाल ने कर्ण को परास्त करने में सफलता पाई। 

विग्रहपाल तृतीय : (1055 ई० – 1070 ई०)

नयपाल के बाद उसका पुत्र विग्रहपाल तृतीय राजा बना। इस समय भी पाल और कालचुरियों में फिर संघर्ष हुआ किन्तु इसमें पालों ने विजय पाई। कालचुरी शासक कर्ण को पराजय के बाद अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह विग्रहपाल से करना पड़ा। 

किन्तु 1068 ई० से थोड़ा पहले विग्रहपाल तृतीय ने चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ से पराजय का सामना किया। किन्तु आभिलेखिक स्रोतों से पता चलता है कि विग्रहपाल तृतीय का अब भी गौड़ (बंगाल) और मगध दोनों पर अधिकार था।

महीपाल द्वितीय : 

विग्रह पाल की मृत्यु के बाद उसके तीन पुत्रों – महिपाल द्वितीय , शूरपाल तथा रामपाल के मध्य उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ। महीपाल द्वितीय ने अपने दोनों भाईयों को कारागार में डाल कर इसमें सफलता पाई। 

इसके समय मे उसके सामंत अधिक शक्तिशाली हो गए। उनमें एक गया मण्डल का सामंत विश्वादित्य था और दूसरा ढेक्करी का शासक ईश्वरघोष था। इन्होंने विद्रोह किया तथा इसी बीच चाशिकैवर्त (माहिष्य) जाति के लोगों ने दिव्य (दिव्योक) के नेतृत्व में विद्रोह किया। दिव्य ने महीपाल द्वितीय की हत्या कर दी और स्वयं गद्दी पर बैठा। 

दिव्य के बाद उसका भतीजा भीम शासक बना। इस बीच रामपाल किसी तरह कारागार से भाग निकला।

रामपाल :  (1077–1120 ई०)

कारागार से मुक्त होने के बाद रामपाल ने राष्ट्रकूटों की मदद से एक सेना तैयार की तथा भीम को मारकर अपने पैतृक राज्य को प्राप्त किया तथा 1120 तक शासन किया। उसने उत्तरी बिहार और असम की विजय भी की। इसके बाद उसने कलिंग और कामरूप पर आक्रमण किया। 

पूर्वी बंगाल के राजा यादववर्मा ने रामपाल का संरक्षण प्राप्त करने की चेष्टा की। किसी कारण से लगभग 1120 में रामपाल ने गंगा में कूदकर आत्महत्या कर ली। 

कुछ विद्वान इसे ही पालवंश का अंतिम शासक मानते हैं। 

रामपाल के बाद : 

अभिलेखों में रामपाल के बाद कुमारपाल , गोपाल द्वितीय तथा मदनपाल के नाम मिलते हैं । ये शासक अत्यंत निर्बल और अयोग्य थे। मदनपाल ने 1161 ई० तक पाल वंश की बागडोर सम्हाले रखा। किन्तु पाल वंश का विघटन लगातार हो रहा था जो 1161 ई० में पूर्ण हो गया। 

इस प्रकार 12वीं सदी के अंत मे पाल राज्य सेनवंश के अधिकार में चला गया। 

पाल शासन का महत्व : 

➣ पाल वंश का शासन प्राचीन भारतीय इतिहास की उन राजवंशों में से एक महत्वपूर्ण शासन था जिन्होंने एक लंबे समय तक किसी क्षेत्र में शासन किया। 

➣ पाल शासकों ने लगभग 400 वर्षो तक बंगाल और बिहार के क्षेत्र में राजनीतिक व सांस्कृतिक दृष्टियों से अभूतपूर्व विकास किया। 

➣ पाल शासक बौद्ध मतानुयायी थे जिन्होंने पतनोन्मुखी बौद्ध धर्म को न केवल राजकीय प्रश्रय प्रदान किया बल्कि उसका पुनरुद्धार किया।

➣ पालों ने बिहार और बंगाल में अनेक चैत्य , विहार एवं मूर्तियां बनवायीं। किन्तु वे कुछ हद तक धर्म सहिष्णु भी थे। उन्होंने ब्राम्हणों को भी दान दिया तथा मंदिरों का निर्माण भी कराया। 

➣ पाल वंश के शासकों ने शिक्षा और साहित्य को भी संरक्षित किया। इस उद्देश्य से उन्होंने सोमपुरी , उदंतपुरी तथा विक्रमशिला में शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। इनमें से विक्रमशिला कालांतर में एक ख्याति प्राप्त अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय बन गया। इसका महत्व नालंदा विश्वविद्यालय से थोड़ा ही कम था। इसकी स्थापना धर्मपाल ने की थी। 12वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय की उन्नति होती रही । 1203 ई० में मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने इसे ध्वस्त कर दिया । 

➣ इस काल के प्रमुख संरक्षित विद्वानों में संध्याकर नंदी का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने ‘रामचरित’ नामक ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थ की रचना की।  अन्य विद्वानों में हरिभद्र , चक्रपाणि दत्त , वज्रदत्त आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। 

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निष्कर्ष :- 

इस प्रकार हम देखते हैं कि गोपाल द्वारा स्थापित पाल वंश का लगभग 400 वर्षों तक बंगाल और बिहार के क्षेत्र में एकछत्र शासन चलता रहा। इस वंश के इतिहास में उतार चढ़ाव आते रहे किन्तु जैसे तैसे यह साम्राज्य 1161 ई० तक चलता रहा। तथा अंततः सेन वंश के पक्ष में इस वंश का अंत हो गया। 

धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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