प्रस्तावना क्या है ? What is Preamble
प्रत्येक संविधान के प्रारम्भ में सामान्यतया एक प्रस्तावना या उद्देशिका (Preamble) होती है जिसके द्वारा संविधान में मूल उद्देश्यों व लक्ष्यों व दर्शन को स्पष्ट किया जाता है।
इस प्रस्तावना का मुख्य प्रयोजन संविधान निर्माताओं के विचारों तथा उद्देश्यों को स्पष्ट करना होता है जिससे संविधान की क्रियान्विति तथा उसके पालन में संविधान की मूल भावना का ध्यान रखा जा सके।
Note : प्रस्तावना को सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में शामिल किया गया था, इसके बाद भारत समेत कई देशों ने इसे अपनाया।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना :
भारतीय संविधान के उद्देश्य और उसके आधारभूत दर्शन का प्रतिबिंब संविधान की प्रस्तावना में देखा जा सकता है–
उद्देशिका / प्रस्तावना (Preamble) :
“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली
बंधुता बढ़ाने के लिये
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी , संवत दो हजार छः विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
Note : 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम , 1976 के द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में – ‘समाजवादी’ तथा ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए तथा इसके अलावा ‘राष्ट्र की एकता’ शब्दों के स्थान पर ‘राष्ट्र की एकता और अखण्डता‘ शब्द कर दिये गए।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना से निम्न बातें स्पष्ट होती हैं–
1. संविधान का स्रोत :
भारतीय संविधान का स्रोत भारत के लोग अर्थात जनता है। क्योंकि संविधान का निर्माण भारत की जनता की ओर से निर्वाचित संविधान सभा के सदस्यों ने किया और उन्हीं के द्वारा इसे अंगीकृत किया गया।
2. राज्य का स्वरूप :
भारतीय संविधान की प्रस्तावना यह स्पष्ट करती है कि भारत एक पूर्ण संप्रभु , समाजवादी , पंथनिरपेक्ष , लोकतांत्रिक , गणराज्य है।
3. भारतीय संविधान के उद्देश्य की स्पष्टीयता :
प्रस्तावना के अनुसार भारतीय संविधान के निम्न उद्देश्य हैं–
i. नागरिकों को सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुलभ कराना।
ii. विचार , अभिव्यक्ति , विश्वास , धर्म और उपासना की स्वतंत्रता उपलब्ध कराना।
iii. प्रतिष्ठा और अवसर की समता को सुनिश्चित करना।
iv. व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाना।
(अर्थात) इसमें उन महान अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं की घोषणा की गई है जिन्हें भारत के लोगों ने सभी नागरिकों के लिए सुनिश्चित बनाने की इच्छा की थी।
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4. संविधान के प्रवर्तन की तिथि :
प्रस्तावना भारतीय संविधान के लागू होने की तिथि बताती है- 26 नवंबर 1949 ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत दो हजार छः विक्रमी)।
विशेष : उद्देशिका में भारतीय राजव्यवस्था एवं सरकार के स्वरूप के साथ साथ नागरिकों के अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं का भी वर्णन किया गया है।
प्रस्तावना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
➢ भारतीय संविधान की प्रस्तावना का सीधा सम्बंध उस उद्देश्य प्रस्ताव से है जिसे पं० नेहरू ने 13 दिसंबर 1946 ने संविधान सभा मे पेश किया। इसे संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को पारित किया था। बाद में इसी उद्देश्य प्रस्ताव से संविधान की प्रस्तावना (Preamble) बनी।
➢ पंडित नेहरू का यह उद्देश्य प्रस्ताव राष्ट्रीय आंदोलन के लक्ष्यों तथा महात्मा गांधी के विचारों और भावनाओं पर आधारित था।
➢ संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बी.एन. राव ने नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव के आधार पर प्रस्तावना का प्रारूप तैयार किया।
➢ संविधान की प्रारूप समिति ने इस प्रारूप पर विचार किया तथा इसमें आवश्यक संशोधन करके संविधान के कार्यों के आखिरी चरण में इसे पारित किया ताकि यह संविधान के विभिन्न प्रावधानों के अनुरूप हो।
➢ आपात स्थिति के दौरान 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ , ‘पंथनिरपेक्ष’ , ‘और अखण्डता’ शब्दों को जोड़ दिया गया।
प्रस्तावना का महत्व :
सभी संविधानों में प्रस्तावना का अपना महत्व होता है। ठीक उसी प्रकार भारतीय संविधान के प्रारंभ में वर्णित प्रस्तावना का संविधान निर्माण में तथा अन्य कई महत्व हैं। ये निम्नवत् हैं–
1. उद्देशिका में उस आधारभूत दर्शन तथा राजनीतिक धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों का उल्लेख है जो हमारे संविधान के आधार स्तंभ है।
2. उद्देशिका में जनता की भावनाएं तथा आकांक्षाएं सूक्ष्म रूप से समाविष्ट हैं।
3. प्रस्तावना जटिल संवैधानिक परिस्थितियों में प्रकाश स्तंभ के रूप में कार्य करती है एवं शासन को भी उसके दायित्वों का बोध कराती है।
4. उद्देशिका में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को समानता और बंधुता से जोड़ते हुए स्थापित करने का प्रयत्न किया गया।
5. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बीसवीं शताब्दी के समग्र राजनीतिक और सामाजिक दर्शन का सार देखा जा सकता है।
6. प्रस्तावना न्यायालय के लिए भी पथ प्रदर्शक का कार्य करती है जहां कानून जटिल एवं अस्पष्ट होते हैं वहां न्यायाधीश प्रस्तावना की ओर आशाभरी निगाहों से देखते हैं।
प्रस्तावना / उद्देशिका को किसने क्या कहा ?
➥ संविधानविदों ने उद्देशिका को संविधान की आत्मा के समान माना है।
➥ संविधान सभा के सदस्य सर अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर के अनुसार संविधान की प्रस्तावना हमारे दीर्घकालिक सपनों का विचार है।
➥ महात्मा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना को ‘मेरे सपनों का भारत’ कहकर संबोधित किया था।
➥ भारतीय संविधान के उद्देश्य में में किए गए सफल संयोजन की अर्नेस्ट बार्कर (लोकतांत्रिक शासन के विषय में आधुनिक चिंतन) ने भूरि भूरि प्रशंसा की है।
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘principal of Social and political theory’ के प्रारंभ में इस प्रस्तावना को ज्यों का त्यों उद्धृत किया है। तथा उन्होंने लिखा कि “भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इस पुस्तक के समस्त तर्क संक्षेप में समाहित हैं और वह इस पुस्तक की कुंजी के रूप में कार्य कर सकती है।”
➥ सुभाष कश्यप ने प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा है।
➥ सुब्बा राव के शब्दों में ,”प्रस्तावना संविधान की आकांक्षाओं तथा आदर्शों को स्पष्ट करती है।”
➥ बेरुबाड़ी के मामले में , उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर सहमति प्रकट की थी कि “उद्देशिका संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी है।”
➥ गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने विचार व्यक्त किया कि संविधान की उद्देशिका उन सिद्धांतों का निचोड़ है जिनके आधार पर सरकार को कार्य करना है।
वह “संविधान की मूल आत्मा है, शाश्वत है, अपरिवर्तनीय है।”
➥ भारतीयचंद्र भवन बनाम मैसूर राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भाग 4 में वर्णित निर्देशक तत्वों तथा भाग 3 में वर्णित मूल अधिकारों को भी उद्देशिका में अच्छी तरह समझा जा सकता है।
➥ माननीय उच्चतम न्यायालय के शब्दों में, “हमारे संविधान का प्रसार उद्देशिका में वर्णित बुनियादी तत्वों पर खड़ा है यदि इनमें से किसी भी तत्व को हटा दिया जाए तो सारा ढांचा ही रह जाएगा और संविधान वहीं रह जाएगा। अर्थात अपना व्यक्तित्व और पहचान खो देगा।”
➥ डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी ने कहा है कि , “हमारे संविधान की आत्मा(प्रस्तावना) में मनुष्य की सभ्यता के आधुनिक विकास क्रम का हृदयस्पंदन है। उसकी अंतरात्मा न्याय , समता , अधिकार एवं बंधुत्व के भाव से अभिसिंचित है।”
➥ “प्रस्तावना संविधान को समझने की कुंजी है।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना के बारे में अनेक विद्वानों ने अपने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किए हैं।
प्रस्तावना में उल्लिखित शब्दों के अर्थ :
★ हम भारत के लोग-
उद्देशिका या प्रस्तावना का आरंभ हम भारत के लोग शब्द से होता है इसका तात्पर्य यह है कि- संविधान का मूल स्रोत भारत की जनता है , वही समस्त शक्तियों का केंद्र बिंदु है ।
संविधान द्वारा प्रदत्त संप्रभुता जनता में निहित है तथा भारतीय संविधान इसकी इच्छा का परिणाम है।
यह शब्द संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की उद्देशिका में प्रयुक्त शब्द ‘हम संयुक्त राष्ट्र के लोग’ के समान है।
इस प्रकार इस से दो बातें स्पष्ट होती है- प्रथम संविधान के द्वारा अंतिम प्रभुसत्ता भारतीय जनता में निहित है। द्वितीय संविधान निर्माता भारतीय जनता के प्रतिनिधि हैं।
★ सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न-
उद्देशिका के अनुसार भारत एक “सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न” राष्ट्र होगा इसका अर्थ है कि भारत अपनी आन्तरिक एवं बाह्य मामलों में किसी विदेशी सत्ता या शक्ति के अधीन नहीं है। वह अपनी आन्तरिक एवं विदेश नीति निर्धारित करने के लिए तथा किसी भी राष्ट्र के साथ मित्रता एवं संधि करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है।
यद्यपि वर्ष 1949 में भारत ने राष्ट्रमण्डल की सदस्यता स्वीकार करते हुए ब्रिटेन को राष्ट्रमण्डल का प्रमुख माना। साथ ही भारत ने अपने संविधान में स्पष्ट कर दिया है कि भारत पूर्ण प्रभुता संपन्न होगा और अपने राष्ट्राध्यक्ष का स्वयं निर्वाचन करेगा। राष्ट्रमंडल की सदस्यता उसे किसी प्रकार से उसकी संप्रभुता को किया प्रभावित नहीं करेगी । वह ब्रिटिश सम्राट को केवल राष्ट्रमंडल का अध्यक्ष मानेगा अपना राज्याध्यक्ष नहीं।
★ समाजवादी-
42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा उद्देशिका में समाजवादी” शब्द जोड़ा गया। भारत का समाजवाद लोकतांत्रिक समाजवाद है जो नेहरू की अवधारणा पर आधारित है।
समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सरकारी नियंत्रण होता है और यह नियंत्रण कम या ज्यादा हो सकता है। जबकि साम्यवादी समाजवाद में राज्य का नियंत्रण अधिक कठोर होता है। लोकतांत्रिक समाजवाद में नियंत्रण अपेक्षाकृत कम होता है। हमारा समाजवाद आर्थिक समानता, आय के समान वितरण, वंचित वर्गों के जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा उन्हें अधिकाधिक सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने पर बल देता है।
अर्थात् भारत ने बीच का रास्ता अपना कर मिश्रित व्यवस्था को जन्म दिया है।
संविधान के विभिन्न उपबंधों जैसे– आर्थिक न्याय भाग-4 विशेषतः अनुच्छेद 39, 39 (ख) तथा 39 (ग) के तहत समाजवादी दृष्टिकोण प्रदर्शित होता है। इन अनुच्छेदों में यह प्रतिध्वनित होता है कि देश के भौतिक साधनों का यथासंभव समानता के आधार वितरण होगा तथा धन का संकेन्द्रण कुछ ही हाथों तक सीमित नहीं रहेगा।
Note: भारतीय समाजवाद मार्क्सवाद और गांधीवाद का मिला-जुला रूप है जिसमें गांधीवादी समाजवाद की ओर ज्यादा झुकाव है।
★ पंथनिरपेक्ष-
इसे भी 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा जोड़ा गया। यह संविधान भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज व्यवस्था स्थापित करने का प्रबंध करता है। जबकि हमारे पड़ोसी देश अफगानिस्तान, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका ने धार्मिक राज को स्वीकार किया है।
इसे धर्म के विरोधाभास के रूप में नहीं देखा जा सकता, भारत में राज्य का कोई धर्म नहीं है। धर्मनिरपेक्ष राज्य का आशय है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होता। राज्य अपने कार्य के लिए धर्म को आधार नहीं मानता तथा धर्म के नाम पर राज्य नागरिकों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता। राज्य धर्म को व्यक्ति विश्वास की वस्तु समझता है तथा के धर्म और राजनीति की पृथकता में विश्वास करता है।
हमारा धर्मनिरपेक्ष स्वरूप सकारात्मक है। इसमें अल्पसंख्यकों की संस्कृति और शैक्षणिक अधिकारों की न केवल रक्षा की गई है अपितु पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशेष व्यवस्था भी की गई है।
★ लोकतांत्रिक-
लोकतंत्र से तात्पर्य है ‘लोगों का तंत्र’ अर्थात ‘जनता का शासन’। लोकतंत्र में जनता अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाती है। दूसरे शब्दों में शासन चलाने का अधिकार सिर्फ उन्हीं को है जो जनता द्वारा निर्वाचित हैं। इसे आम प्रतिनिधि प्रणाली कहा जाता है। शक्ति का स्रोत आम जनता है इसलिए लोकतंत्र में जनता को जनार्दन माना जाता है।
★ गणराज्य-
यह संविधान में एक गणराज्य स्थापित करने की व्यवस्था करता है। अर्थात भारत का राष्ट्राध्यक्ष निर्वाचित होगा न कि वंशानुगत। वंशानुगत व्यवस्था में राज्य का प्रमुख (राजा या रानी) उत्तराधिकारिता के माध्यम से पड़ पर आसीन होता है जैसा कि ब्रिटेन में है। वहीं गणतंत्र/गणराज्य व्यवस्था में राज्य प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिए चुन कर आता है जैसे अमेरिका व भारत आदि देशों में है।
गणराज्य के सभी नागरिक समान होते हैं वह किसी भी लोकपद हेतु निर्वाचित हो सकते हैं।
★ सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक न्याय-
न्याय तीनों रूपों में शामिल है–
1. सामाजिक न्याय- सामाजिक न्याय का तात्पर्य यह है कि किसी भी व्यक्ति के साथ जाति , वर्ण , लिंग , धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा तथा सभी के साथ इन उपरोक्त से उठकर समान व्यवहार किया जाएगा। साथ ही प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हो।
2. आर्थिक न्याय- आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और धन संपदा का केवल कुछ ही हाथों में केंद्रीकृत ना हो जाए।
अतः आर्थिक कारणों के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नहीं किया जाएगा इसमें संपदा, आय व संपत्ति की असमानता को दूर करना भी शामिल है।
3. राजनीतिक न्याय- राजनीतिक न्याय से तात्पर्य है कि भारत में निवास करने वाले सभी व्यक्ति को समान रूप से नागरिक व राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो।
★ स्वतंत्रता-
भारतीय संविधान के अंतर्गत न केवल न्याय , वरन इसके साथ ही स्वतंत्रता को भी संविधान का लक्ष्य घोषित किया गया है। हमारे संविधान निर्माता नकारात्मक स्वतंत्रता की धारणा से नहीं वरन ऐसी सकारात्मक स्वतंत्रता से प्रेरित थे जिनके आधार पर व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास संभव होता है।
इसी आधार पर उनके द्वारा विचार अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता को संविधान में स्थान दिया गया है। स्वतंत्र न्यायपालिका की धारणा को अपनाते हुए संविधान के अंतर्गत स्वतंत्रता की रक्षा के साधन की भी व्यवस्था की गई है।
★ समानता-
समानता स्वतंत्रता की पूरक है और हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा समानता को दो आयामों में अपनाया गया है; यह है ‘प्रतिष्ठा की समानता’ और ‘अवसर की समानता’। अवसर की समानता वह साधन है जिसके आधार पर प्रतिष्ठा की समता को प्राप्त किया जा सकता है।
समानता समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने के उपबंध हैं।
★ बंधुत्व-
बंधुत्व का अर्थ है ‘भाईचारे की भावना’।
प्रस्तावना द्वारा अपने सभी नागरिकों में ऐसी बन्धुता (fraternity) बढ़ाने का संकल्प लिया गया है जो व्यक्ति के गरिमा तथा राष्ट्र की एकता और अखण्डता’ को सुनिश्चित करने वाली है, अखण्डता शब्द को 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया है।
साथ ही उद्देशिका के अन्तिम भाग में संविधान को अंगीकृत करने तथा अधिनियमित करने की तिथि का वर्णन किया गया है जिसके अनुसार संविधान सभा ने संविधान को 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत तथा अधिनियमित करके राष्ट्र को समर्पित किया था। हमारे संविधान निर्माता एक ऐसे कल्याणकारी राज्य (Welfare state) की स्थापना करना चाहते थे जो “बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” पर आधारित हो।
निष्कर्ष:-
इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना बेहद महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। इसमें शासन के उद्देश्यों का उल्लेख है। इसका उपयोग संविधान के अस्पष्ट उपबन्धों के निर्वाचन में किया जा सकता है। किन्तु यह संविधान के स्पष्ट प्रावधानों को रद्द (override) नहीं करता है और न्यायालय द्वारा इसे चुनौती नहीं दिया जा सकता। परंतु इसका संशोधन किया जा सकता है किन्तु उस भाग का नहीं जो संविधान का आधारभूत ढाँचा (Basic Structure) है।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: राजनीति विज्ञान विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
➜ अगले लेख में हम एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु पर चर्चा करेंगे कि क्या प्रस्तावना भारतीय संविधान का अंग है अथवा नहीं? साथ ही बात करेंगे उन सभी विचारों पर जो इस प्रश्न को समझने के लिए उत्तरदायी हों।
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