पुरातात्विक उत्खनन कैसे होता है | पुरातात्विक उत्खनन की 2 विधियां | 2 methods of archaeological excavation in hindi

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पुरातात्विक उत्खनन कैसे होता है : भौतिक अवशेषों द्वारा अतीत के अध्ययन को पुरातत्व कहते हैं। पुरातत्व अंग्रेजी भाषा में Archaeology कहा जाता है। यह यूनानी भाषा के दो शब्दों Archaois तथा logos शब्दों से मिलकर बना है। जिसमे archaois का अर्थ है ‘पुरातन’ तथा logos का अर्थ है ‘ज्ञान’ , इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ है ‘पुरातन ज्ञान’। 

पुरातत्व वह विज्ञान है जिसके माध्यम से पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदाई कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

आज हम इस लेख के माध्यम से पुरातात्विक उत्खनन की विधियों के बारे में समझने का प्रयास करेंगे।

पुरातात्विक उत्खनन कैसे होता है
पुरातात्विक उत्खनन कैसे होता है

पुरातात्विक उत्खनन की विधियां :

पुरातत्व में उत्खनन का विशेष महत्व है क्योंकि इसी के माध्यम से भूगर्भ में छिपी हुई पुरा-वस्तुओं को प्रकाश में लाया जाता है। बीसवीं शती के पूर्व तक उत्खनन का कार्य अव्यवस्थित ढंग से किया जाता था। इसके प्रारम्भिक स्तर पर निर्धारित क्षेत्र में दूर-दूर तक गड्ढे खोदे जाते थे और यदि किसी भवन अथवा दीवार का कोई अंश मिल जाता था, तो उसके ज्ञान के लिये इन्हें मिला दिया जाता था। किन्तु कालान्तर में वैज्ञानिक तकनीक विकसित होने के फलस्वरूप व्यवस्थित ढंग से उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया। सम्प्रति उत्खनन की दो प्रमुख विधियां व्यवहार में लाई जाती है

1. लम्बवत् उत्खनन (Vertical Excavation) 

2. क्षैतिज उत्खनन (Horizontal Excavation)

उत्खनन की 2 विधियां (2 methods of excavation) :

इनका विवरण इस प्रकार है-

1. लम्बवत उत्खनन : (Vertical Excavation)

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें किसी स्थान की लम्बा-लम्बी खुदाई की जाती है। यह खुदाई तब तक चलती रहती है जब तक कि प्राकृतिक मिट्टी (Natural Soil) न मिल जाये। इसमें ऊपर से नीचे खोदा जाता है। यह सामान्यतः स्थल के कुछ भाग तक ही सीमित होती है। इसके द्वारा सम्पूर्ण सभ्यता का प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता अपितु हम विभिन्न संस्कृतियों के कालक्रम का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

दूसरे शब्दों में इससे यह जानकारी मिलती है कि सम्बन्धित स्थल कितने समय तक तथा किन व्यक्तियों द्वारा विकसित किया गया। इसी कारण ह्वीलर ने इस विधि को ‘काल मापन अथवा संस्कृति मापन’ (Time Scale or Culture Scale) की संज्ञा प्रदान की है।  

लम्बवत उत्खनन का महत्व :

इस उत्खनन के द्वारा यह जाना जा सकता है कि उस क्षेत्र में किस संस्कृति के लोग कब आये तथा उनका विनाश कब हुआ। यह विधि विभिन्न संस्कृतियों के पूर्वापर क्रम तथा पारस्परिक सम्बन्ध ज्ञात करने में भी सहायता करती है। चूँकि यह उत्खनन एक सीमित क्षेत्र में ही किया जाता है, अतः इसके माध्यम से किसी संस्कृति अथवा सभ्यता का सम्पूर्ण चित्र हमारे सम्मुख उपस्थित नहीं हो पाता है। इससे किसी संस्कृति के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि पक्षों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती जो मानव के विस्तृत इतिहास लेखन के लिये आवश्यक है।

अतः लम्बवत् उत्खनन किसी संस्कृति के कालक्रम एवं स्तरीकरण के ही ज्ञान में सहायक हो सकता है। ह्वीलर के शब्दों में ―

“By vertical excavation is meant the excavation of a restricted area in depth with a view to ascertaining the succession of cultures or of phases and so producing a time scale or culture scale for the site.”

इस प्रकार यह उत्खनन की एक अपूर्ण पद्धति है।

क्षैतिज उत्खनन : (Horizontal Excavation)

इससे तात्पर्य है समस्त टीले अथवा उसके बृहत भाग की खुदाई करना। इसमें खुदाई लम्बवत् न होकर विस्तार में की जाती है। इस तरह की खुदाई से हम सम्बन्धित स्थल की काल विशेष की संस्कृति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही सम्बन्धित सभ्यता के अप्रत्यक्ष अवशेष भी प्राप्त कर सकते हैं। इससे यह उद्घाटित होता है कि सभ्यता को विकसित करने में किसी स्थान विशेष का क्या योगदान रहा। किसी सभ्यता के सम्यक् स्वरूप का निरूपण क्षैतिज उत्खनन के माध्यम से ही होता है।

ह्वीलर के अनुसार क्षैतिज उत्खनन से तात्पर्य किसी संस्कृति का सर्वांगीण परिचय प्राप्त करने के लिये किसी पुरास्थल के काल विशेष से सम्बन्धित सम्पूर्ण अथवा उसके विस्तृत भाग की खुदाई करना है – “By horizontal excavation is meant the uncovering of the whole or large part of specific phase in the occupation of an ancient site in order to reveal fully its layout and function.” 

क्षैतिज उत्खनन की आवश्यकता व प्रयोग :

इस प्रकार क्षैतिज उत्खनन किसी स्थान विशेष की सम्पूर्ण संस्कृति के ज्ञान के लिये आवश्यक है। इस विधि का प्रयोग सर जॉन मार्शल ने 1944-45 ई० में तक्षशिला के सिरकप के टीले पर करके पार्थियन युग की संस्कृति का चित्रण प्रस्तुत किया था। इसी प्रकार मोहेनजोदड़ो के क्षैतिज उत्खनन से वहाँ के भवनों, सड़कों, गलियों, नालियों, दुर्ग, नगर विन्यास आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ लेकिन लम्बवत् उत्खनन के अभाव में उनके विकास क्रम की कोई जानकारी नहीं हो पाई।

क्षैतिज उत्खनन व्यय साध्य होने के कारण बहुत कम किया गया है। फलस्वरूप उत्खननों से प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक अवस्थाओं के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र हमारे सामने प्रस्तुत नहीं हो पाता।

क्षैतिज उत्खनन का महत्व :

पुराविद् उत्खनन की उपर्युक्त दोनों विधियों को एक दूसरे की पूरक मानते हैं। किसी भी स्थान पर दोनों का प्रयोग अलग-अलग नहीं किया जा सकता। अतः उत्खनित क्षेत्र की पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिये लम्बवत् तथा क्षैतिज दोनों का प्रयोग आवश्यक है। लम्बवत् उत्खनन द्वारा किसी क्षेत्र की प्राचीनता, उसके निवासियों के स्वरूप तथा उनके उत्थान-पतन की जानकारी मिल जाती है। तत्पश्चात् क्षैतिज विधि से उत्खनन करके उस स्थल की सभ्यता या संस्कृति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

इस प्रकार किसी स्थल का क्षैतिज करने के पहले लम्बवत् उत्खनन द्वारा उसके स्तर विन्यास का विधिवत अध्ययन कर लेना अभीष्ट है। अन्यथा सभ्यता का निर्धारण ठीक ढंग से नहीं किया जा सकता। वस्तुतः इन दोनों विधियों से प्राप्त जानकारी से ही हम किसी काल के इतिहास एवं उसकी संस्कृति का पुनर्निमाण कर सकते हैं।

ह्वीलर ने लम्बवत् उत्खनन को क्षैतिज उत्खनन का पूर्वगामी माना है। दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में उनका कहना है कि लम्बवत् उत्खनन गाड़ी के बिना ही रेल समय-सारिणी है जबकि क्षैतिज उत्खनन समय-सारिणी के बिना ही रेलगाड़ी है।’ (Vertical digging is railway time-table without train and the horizontal digging is railway train without time-table.)

जिस प्रकार समय-सारिणी से क्रमश: एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन की जानकारी तो हो जाती है लेकिन संस्कृति रूपी गाड़ी के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता। इसी प्रकार क्षैतिज उत्खनन बिना समय-सारिणी के रेलगाड़ी की भाँति है जिसके विषय में यह ज्ञात नहीं हो पाता कि कब छूटी, किन-किन स्टेशनों पर रुकी तथा कहाँ पहुँची। इसी प्रकार क्षैतिज उत्खनन से किसी सभ्यता के विस्तार क्रम का ज्ञान नहीं हो सकता।

अस्तु उत्खनन की दोनों विधियों का प्रयोग करके ही हम सभ्यता के सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। यह आवश्यक है कि पहले किसी पुरास्थल का लम्बवत् उत्खनन कर उसकी संस्कृतियों का क्रम निर्धारित किया जाय तथा फिर विभिन्न संस्कृतियों अथवा किसी संस्कृति विशेष के पुरास्थल का क्षैतिज उत्खनन करवाया जाय। तभी संस्कृति अथवा सभ्यता के कालानुक्रमिक विकास एवं सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। किसी भी पद्धति के अभाव में संबंधित संस्कृति विषयक सम्पूर्ण पक्ष उजागर नहीं हो सकता।

निष्कर्ष : पुरातात्विक उत्खनन कैसे होता है

इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी भी पुरास्थल की खोज के बाद उसका उत्खनन करने के लिए उपरोक्त दोनों विधियों का प्रयोग किया जाता है। उक्त दोनों विधियों के उपयुक्त प्रयोग से इतिहास की अधिक से अधिक जानकारियां प्रमाणित अवस्था मे मिलती हैं साथ ही इतिहास में पुरातत्त्व का योगदान दिन प्रतिदिन बढ़ता है।

इस प्रकार हमने आज पुरातात्विक उत्खनन की 2 विधियां के बारे में जाना। यह जानकारी आपको उपयोगी लगी हो और पसंद आई हो तो इसे अपने मित्रों के साथ अवश्य शेयर करें।

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धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र० 
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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