दाशराज्ञ युद्ध (Battle of ten kings in hindi) न केवल भारतीय इतिहास का बल्कि पूरे विश्व के इतिहास में पहला ज्ञात युद्ध है। यह आज से लगभग 3000+ वर्ष पूर्व युद्ध भारतीय उपमहाद्वीप की भूमि पर घटित हुआ था।
इसका दाशराज्ञ युद्ध नाम ही इसी कारण पड़ा क्योंकि यह युद्ध एकसाथ दस राजाओं द्वारा लड़ा गया। दस राजाओं का एक संघ ऋग्वैदिक काल के भरत जन के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ और अंततः भरत जन के तत्कालीन राजा सुदास को युद्ध करना पड़ा।
आज के इस लेख में हम इसी महत्वपूर्ण युद्ध के बारे में विस्तारपूर्वक समझेंगे। आईये जानते हैं दाशराज्ञ युद्ध : कारण व परिणाम को ―
दाशराज्ञ युध्द का इतिहास : Battle of ten kings in hindi
ऋग्वेद काल में भारतीय आर्य कई जनों में विभक्त थे। इस जनों का वृहद् परिचय हमें ऋग्वेद के उस सूक्त से मिलता है, जहाँ राजा सुदास के साथ लड़े गए दश राजाओं (दाशराज्ञ) के युद्ध का उल्लेख हुआ है। इसे ऋग्वैदिक युग की महानतम् सामरिक घटना मानी जा सकती है।
दाशराज्ञ युद्ध का कारण :
सुदास भरत वंश में उत्पन्न तथा तृत्सुजन का अधिपति था। उसका राज्य पंजाब में सरस्वती और दृशद्वती नदियों के मध्य में स्थित था, जिसे मनुस्मृति में “ब्रह्मवर्त’ प्रदेश कहा गया है। सुदास के पुरोहित विश्वामित्र थे, जिनका जन्म कुशिक कुल के. में हुआ था। सुदास ने अपने पुरोहित विश्वामित्र की सहायता से बिपाशा और शुतुद्रि नदियों के अन्तवर्ती प्रदेश में अपने शत्रुओं को पराजित कर अनेक विजयें प्राप्त की थीं।
परन्तु किसी कारणवश कुछ समय के उपरान्त सुदास ने विश्वामित्र से रुष्ट होकर उनके स्थान पर वशिष्ठ को अपना पुरोहित बना लिया। सुदास के इस कार्य से विश्वामित्र को बहुत क्रोध हुआ। उन्होंने बदला लेने की भावना से सुदास के विरुद्ध पश्चिमी पंजाब में छोटे-छोटे जन राज्यों के रूप में निवसित ऐसे दस जनों (राजाओं) का एक शक्तिशाली संघ तैयार किया। पराक्रमी विश्वामित्र के नेतृत्व में इन दस राजाओं के संघ की सेनाएँ भरत वंशी नृपति सुदास से युद्ध करने के लिए परुष्णी (वर्तमान रावी) नदी के तट पर एकत्रित हुई। ऋग्वेद में इस महत्वपूर्ण युद्ध को ‘दाशराज्ञ’ युद्ध नाम से सम्बोधित किया गया है।
दाशराज्ञ युध्द किस नदी के किनारे/कहाँ लड़ा गया :
दाशराज्ञ युध्द में भरत शासक वंश का विरोध जिन 10 राजाओं (कबीला प्रमुखों) द्वारा किया गया उनमें से पांच आर्य काबिले थे तथा पांच अनार्य काबिले थे। इस कबीले संघ का नेतृत्व पुरु नामक कबीला कर रहा था। यह युद्ध वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब में परुषणी (रावी) नदी के तट पर लड़ा गया। इस युध्द का एक मात्र स्रोत ऋग्वेद है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के “सप्तम मण्डल” में हुआ है।
दाशराज्ञ युध्द का परिणाम :
राजा सुदास के विरुद्ध जिन दस जनों के अधिपतियों ने संयुक्त मोर्चा अथवा संघ बनाया था, उनके नाम ऋग्वेद में निम्नलिखित मिलते हैं पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, अलिन, दस्यु, पक्थ, भलानस, विषाणी तथा शिव। इस युद्ध में विश्वामित्र द्वारा संगठित दस राजाओं के संघ की पराजय हुई तथा वशिष्ठ के नेतृत्व में राजा सुदास की विश्वामित्र के संघ पर विजय प्राप्त हुई। इस पराजय से भयाक्रान्त पुरु राजा संवरण ने युद्ध-स्थल से भाग कर सिन्धु नदी के तटवर्ती एक दुर्ग में आश्रय ग्रहण कर लिया था।
दाशराज्ञ युद्ध का प्रभाव :
ज्ञातव्य है कि पुरु, यजु, अनु. तुर्वश तथा द्रुह्य ऋग्वैदिक आर्यों के प्रमुख जन अथवा कबीले थे। ऋग्वेद में इन्हें ‘पञ्चजनाः‘ एवं ‘पञ्चकृष्टयः’ जैसे नामों से सम्बोधित किया गया है। इन पञ्चजनों की ही तरह संवरण का पुरुजन तथा सुदास का भरत जन भी था। भरत जन की ही एक शाखा ‘त्रित्सु’ कही जाती थी। त्रित्सु जन का अधिपति अतिथिग्व दिवोदास बड़ा ही शक्तिशाली राजा था। उसने अपने पराक्रम से अपने पड़ोसी यदु, पुरु और तुर्वशु आदि जनों के अतिरिक्त तत्कालीन दास राजा शम्बर तथा शक्तिशाली पणियों को भी परास्त किया था। सुदास मूलतः इसी दिवोदास का उत्तरवर्ती वंशज तथा नृपति था, जिसे अपने पराक्रम से त्रित्सु-भरत जनों की शक्ति को पंजाब के अधिकांश क्षेत्रों में विस्तृत कर लिया था।
महाभारत एवं पौराणिक अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त त्रित्सु, भरत एवं पुरु जन कुछ समय के उपरान्त परस्पर मिल-जुल गए। पुराणों से यह भी ज्ञात होता है, कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने पञ्चाल जनपद को जीतकर प्रयाग तक अपने राज्य को के विस्तृत कर लिया था। राजा कुरु की इन विजयों के परिणामस्वरूप त्रित्सु-भरत जन अंततः महाराज कुरु की सत्ता में आत्मसात् होकर कुरु जन नाम से ही पहिचाने जाने लगे। यद्यपि ऋग्वेद में कुरु जन का स्पष्ट उल्लेख प्राप्य नहीं हैं तथापि एक मंत्र में त्रासदस्यव नृपति कुरु श्रवण’ का उल्लेख अवश्य मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में वर्णित राजा कुरु वही थे, जिन्हें ऋग्वेद में कुरु श्रवण नाम से आख्यात किया गया है।
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धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र०
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय