हिन्दी साहित्य में आदिकाल के नामकरण के सम्बन्ध में विद्वानों में जितनी मत भिन्नता दिखाई देती है उतनी किसी अन्य काल के विभाजन में नहीं दिखती। सभी विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से उपयुक्त प्रमाणों द्वारा इस काल के नामकरण के औचित्यता को सिद्ध करने का प्रयास किया है। आदिकाल के नामकरण की विस्तारता पर न जाकर हम संक्षिप्त रूप से इसके मुख्य नामों का यहाँ पर विवेचन कर रहे हैं। जहाँ तक इस काल के नामकरण (आदिकाल का नामकरण) का प्रश्न है आदिकाल को चारण काल, संधिकाल, वीरगाथा काल, आधार काल एवं सिद्ध सामन्त युग आदि नामों से अभिहित किया गया है।
चारण काल – hindi sahitya ke adikal ka namakaran
चारण काल पर कर्नल टाड महोदय ने अपनी पुस्तक एनल्स एण्ड एन्टी क्विटीज ऑव राजस्थान में लिखा है आदि कालीन साहित्य की रचना चारणों ने की है। राजदरबारों में यह चारण रहा करते थे जो अपने आश्रयदाता राजाओं की कीर्ति, उनके शौर्य पराक्रम तथा उनके उत्साह की प्रभावोत्पादक कवितायें लिखा करते थे। इस प्रकार के चारणों का एक वर्ग राजदरबारों में फैला हुआ था जो कवि कर्म द्वारा अपनी जीविका चलाता था इसलिए जार्जु ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम आदि काल के लिए चारण काल नाम का प्रयोग किया है।
कालान्तर में लाला सीताराम अवध वासी ने अपने द्वारा संपादित ‘सलेक्शन फ्राम हिन्दी पोइट्री’ नामक ग्रन्थ में उसका प्रयोग किया था। डॉ० रामकुमार वर्मा ने भी अपने आलोचनात्मक इतिहास में इसी काल को मान्यता दी है।
मगर यह नामकरण ठीक नहीं है। कर्नल टाड का ग्रन्थ किंवदन्तियों, मनगढन्त बातों, असामाजिक सूचनाओं और सुनी-सुनायी कथाओं का संग्रह मात्र है। यह नामकरण उसी पर आधारित होने के कारण उचित नहीं प्रतीत होता। इतिहास की खोज से ज्ञात होता है कि चारण जाति का आगमन सिन्ध की ओर से चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हुआ था। राजस्थान के राजाओं से उनका सम्पर्क पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ था। इसलिए बारहवीं तेरहवीं शताब्दी के रचनाकारों को चारण कहना युक्तिसंगत नहीं है।
यदि हम उस काल के सारे रचनाकारों को चारण मान लेंगे तो उस अवधि की समस्त रचनायें चाटुकारिता मात्र बन कर जायेंगी। उस कालखण्ड में ‘पृथ्वीराज रासो’, विजय पाल रासो जयमयंक जसचन्द्रिका तथा जयचन्द्र प्रकाश आदि जो भी रचनाएँ लिखी गयी थीं, उनके कृतिकार भट्ट थे, चारण नहीं थे इसलिए इस काल को ‘चारण काल’ कहना युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता।”
सिद्ध सामन्त युग – हिंदी साहित्य के आदिकाल के नामकरण की समस्या
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी काव्यधारा’ में इस काल को ‘सिद्ध-सामन्त युग’ कहा है। आठवीं शताब्दी में शबरपा सरहपा, नवीं शताब्दी में लुईपा, विरुपा सिद्ध कवियों की रचनाएँ मिलती हैं, सिद्धों ने दोहों में रूढ़ियों और पाखंडों का विरोध किया है। नालंदा के विद्वान् सरह ने तो शृंङ्गार की रस पूर्ण कविताएँ लिखी हैं। अधिकतर गुरुस्तुति, साधना वैराग्य आदि से सम्बन्धित रचनाएँ हैं। उनकी कृतियों को धार्मिक रचनाएँ कहना ही ठीक प्रतीत होता है।
किन्तु इसी कालखण्ड में जैन कवियों की उत्कृष्ट कोटि की रचनाएँ देखने को मिलती हैं। आठवीं शताब्दी में स्वयंभू देव और नवीं शताब्दी में पुष्यदन्तु जैसे महाकवि की उपस्थिति को देखते हुए यदि इसे केवल सिद्ध युग कहेंगे तो उच्चकोटि के जैन कवियों की उपेक्षा हो जायेगी। इससे साहित्य की अनेक प्रवृत्तियों की अनदेखी करना ठीक नहीं होगा। ‘सामंत’ शब्द एक विशिष्ट राजनैतिक स्थिति का सूचक शब्द है।
सामन्तयुग में रहते हुए भी जैन कवियों ने तत्कालीन धार्मिक रूढ़ियों को जोरदार खण्डन किया और तत्त्कालीन नायकों को अपने काव्य का चरित नायक नहीं बनाया। इस युग की आर्थिक और सामाजिक अवस्था का वर्णन करते हुए राहुल जी ने सेठों, महन्तों, पुरोहितों और सामन्तों के विलासी जीवन का चित्रण किया है। उनका कथन है कि बिलासी होते हुए भी सामन्त मृत्यु से तनिक भी भयभीत नहीं होते थे। पाठक को जब तक तत्कालीन समाज के इतिहास का ज्ञान न होगा तब तक उस समय के साहित्य के इतिहास को भी वह समझ नहीं सकेगा।
प्रो० अवस्थी का कथन उचित है कि यदि सामन्तों के संरक्षण में लिखे गये काव्य के कारण यदि इस काल का नाम सामन्त काल रखा जाये तो रीतिकालीन समस्त काव्य को इसी श्रेणी में रखना पड़ेगा क्योंकि अधिकांश रीतिकालीन रचनाएँ सामन्तों के आश्रय में ही लिखी गयी हैं। रीतिकालीन सामन्तों आश्रय में जो कविताएँ लिखी गयी हैं उसके सम्बन्ध में अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए राहुल जी लिखते हैं कि ‘वह अधिकांश थोथी चापलूसी है, यह हमें मालूम है।
किन्तु सम्पूर्ण रचनाओं को चाटुकारिता से युक्त नहीं माना जा सकता है। जो इस काल की उत्कृष्ट कोटि की रचनाएँ हैं उनको किस वर्ग में रखा जायेगा? वस्तुतः इस नामकरण में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य की अवहेलना कर दी गयी है। वह तथ्य यह है कि साहित्य के सत्य और इतिहास या गणित के सत्य में अन्तर है। साहित्य में इतिहास के सत्य पर बहुत बल नहीं देते। दुष्यन्त अपने समय का लम्पट राजा रहा होगा किन्तु दुर्वासा के शाप की कल्पना करके कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में उसे नायक बना डाला।
साहित्य का सत्य भावना कल्पना का सत्य होता है। यहाँ पर प्रमदाओं के पदाधातु से अशोक पुष्पित होता है। हंस में नीर क्षीर विवेक होता है, पपीहा स्वाति नक्षत्र का ही जल पीता है, चकोर अंगारे चुन्ता है। साहित्य में अभिव्यक्ति कौशल और संवेदनाओं की प्रभावोत्पादकता का महत्त्व है। इसलिए केवल सिद्ध कहने से जैन आदि कवियों की महत्त्वपूर्ण कृतियों की उपेक्षा हो जायेगी और सामन्त कहने से साहित्यिक का बोध नहीं होगा अतः इस काल का नामकरण सिद्ध सामन्त युग रखना ठीक नहीं लगता।
संधि काल – आदिकाल का नामकरण
डॉ० रामकुमार वर्मा ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में इस काल का नाम संधिकाल रखा है। उन्हीं के शब्दों में…”अतः जब साहित्य के वृन्त पर जनभाषा अपनी पंखुरियाँ खोलना प्रारंभ करती है तो उसके ऊपर पुरातन अनुबन्धों का आग्रह तो रहता ही है। जनता के मनोभावों से प्रेरित ऐसे साहित्य में प्राचीन शैली के भीतर नवीन प्रयोगों की कसमसाहट दीख पड़ती है। यह कसमसाहट धीरे-धीरे उभरती हुई अपने पंख खोलती है और अपने लिए साहित्य में मान्यता प्राप्त कर लेती है। अत: अपने विकास में साहित्य ऐसे स्थल पर आ जाता है जहाँ दो भाषाओं या दो शैलियों में सन्धि होती है और साहित्य के इस काल के सन्धिकाल कहना ही अधिक समीचीन है।” डॉ० मोहन अवस्थी डॉ० वर्मा के इस मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि, “लेकिन संधि-काल की तो कोई स्थिति ही नहीं है क्योंकि हर दो कालों के बीच संधि होती है। फिर संधिकाल से साहित्य की किसी गतिविधि का ज्ञान भी नहीं शता” इसलिए इस काल को संधिकाल नहीं कहा जा सकता।
▪︎ हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा
वीरगाथा काल – हिन्दी साहित्य के इतिहास में आदिकाल का नामकरण
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्यिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए इस काल को वीरगाथा काल कहा है। उन्होंने जिन साहित्यिक ग्रन्थों के आधार पर प्रवृत्ति का निश्चय किया था उनके नाम हैं पृथ्वीराजरासो, खुमाण रासो, परमाल रासो, जयमयंक, जस चन्द्रिका, जय चन्द्र प्रकाश, रणमल्ल छन्द, विद्यापति की पदावली और खुसरो की रचनाएँ।
नवीन शोधों के आधार पर पृथ्वीराज रासो, खुमाण रासो, परमाल रासो, विजय पाल रासो अब अप्रामाणिक सिद्ध हो चुके हैं। मधुकर कवि कृत जय मयंक जय चन्द्रिका और भट्ट केदार रचित जयचन्द्र प्रकाश का उल्लेख केशव दास लिखित ‘राठौर’ की ख्याति में उपलब्ध है। ‘हम्मीर रासो’ की भी कोई पाण्डुलिपि मिली नहीं है। लक्ष्मीघर रचित प्राकृत पैंगलम् में उद्धृत ‘चलिय वीर हम्मीर को देख कर शुक्ल जी ने समझा था कि यह हम्मीर रणथंभौर के नरेश वीर हम्मीर होंगे किन्तु आधुनिक शोध से ज्ञात हुआ है कि अरबी शब्द अमीर संस्कृत में गूढ़ा हुआ शब्द हमीर हैं।
अरबी अमीर शब्द का अर्थ है धनी शासक, हाकिम संस्कृत हम्मीरं शब्द तुर्क बादशाह का ही अर्थ प्रदान करता है। सन् 1168 ई० के गाहड़वाल शासक विजयचन्द्र के दान पत्र में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे पूर्व भी गोविन्द देव की प्रशस्ति में लिखा गया है….“हम्मीर न्यस्त बैरं महस्य समरक्रीड़ायां याँ विधत्ते।” इस प्रकार पहले तो सारी सामग्री ही अप्रामाणिक सिद्ध हो गया दूसरे सभी रांसों काव्यों की ‘वीर गाथात्मकता भी असिद्ध हो गयी है। ‘पृथ्वीराज रासो’ मूलतः एक प्रेमकाव्य है जिसमें युद्धों का वर्णन मुख्य रस शृङ्गार को अधिक प्रगाढ़ बनाने के लिए किया गया है। बीसलदेव रासो तो पूरा का पूरा तंजार काव्य ही है। सन्देश रासक ढोला मारूरा दूहा, चन्दायन तथा विद्यापति की पदावली भी शृंगार सम्बन्धी कृतियाँ ही है। बौद्ध और जैन काव्य तो धार्मिक रचनाएँ है। इन सबसे शुक्ल जो की वीरगाथात्मक अवधारणाएँ स्वतः निरस्त हो जाती हैं। इसलिए इस काल का नामकरण ‘वीरगाथाकाल’ नहीं रखा जा सकता।
प्रारम्भिक काल – hindi sahitya ke adikal ka namakaran
मिश्र बन्धुओं ने इस काल को प्रारम्भिक काल कहा है और उसे पुनः दो खण्डों-पूर्व प्रारम्भिक और उत्तर प्रारम्भिक नामक वर्गों में विभाजित किया है। यह नामकरण भी सर्वधा अवैज्ञानिक है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस पर व्यंग्य करते हुए लिखा है कि…“सारे ने रचनाकाल को आदि, मध्य पूर्व उत्तर इत्यादि खण्डों में आँख मूंद कर बाँट देना, यह भी न देखना कि किस खण्ड के भीतर क्या आता है क्या नहीं, किसी वृत्त संग्रह को इतिहास नहीं बना सकते।” इस प्रकार इस नाम को भी उपयुक्त नहीं माना जा सकता।
आदिकाल –
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर इसका नामकरण वीरगाथा काल तो किया था, फिर भी सर्वप्रथम उन्होंने ही इसका नाम आदिकाल लिखा था। आदिकाल नाम की स्वीकृति डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी दी है। उन्होंने लिखा है कि “यदि पाठक भ्रामक धारणा से सावधान रह सके तो यह नाम बुरा नहीं है।”
आदिकाल नाम पर आपत्ति प्रकट करते हुए डॉ० मोहन अवस्थी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास में लिखा है कि-“आदि शब्द के विरुद्ध सबसे बड़ी और सर्वप्रथम आपत्ति यह है कि यह शब्द अपनी व्यंजना के कारण अत्यन्त भ्रामक है। आदि’ शब्द से विकासधारा की प्रारम्भिक अवस्था का बोध होता है। जिस प्रकार सृष्टि का आदि उसकी ऊबड़-खाबड़ असभ्य दशा का सूचक है उसी प्रकार साहित्य का आदिकाल चिन्तन की प्रथम सीढ़ी की ओर संकेत करता है और कल्पना, छन्द प्रबन्ध आदि के बाल प्रयास का सूचक है किन्तु जिस काल पर हम विचार कर रहे हैं वह इस धारणा के एकदम प्रतिकूल साहित्यिक सम्पन्नता वैचारिक परिपक्वता का काल है।”
▪︎ आचार्य रामचंद्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि
आधार काल –
डॉ० अवस्थी लिखते है कि इस काल में देशी भाषाओं का विकास हो रहा था इसलिए हम इसे भाषा का आदिकाल कह सकते हैं परन्तु भाव, शैली, रस, सन्देश, छन्द सभी क्षेत्रों में वह अत्यन्त आय एवं स्वयं पूर्ण है। हिन्दी साहित्य की अगली पीढ़ी ने उसका ‘मुक्त हृदय से उपभोग किया है। इस दृष्टि से इसे आधारकाल नामकरण में ‘वीरगाथा काल’ आदि कालु, चारणकाल संधिकाल, सिद्ध सामन्त युग आदि नामों से उत्पन्न होने वाली प्रान्ति की गुंजाइश नहीं है। अतः हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को ‘आधार काल’ नाम देना मैं अत्यन्त उपयुक्त, सार्थक एवं सुसंगत समझता हूँ।
किन्तु यह नामकरण भी अत्यन्त भ्रामक है। आदिकाल को आधार काल कहने पर भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल को आधेय काल मानना पड़ेगा। विभिन्न काल खण्डों में भिन्न भिन्न प्रकार के प्रभाव हमारे समाज पर पड़ते रहे हैं। सबसे बड़ा तो राजनीतिक प्रभाव था। मुस्लिम आक्रमण से उत्पन्न प्रभाव अपनी सामाजिक एवं धार्मिक सुरक्षा के लिए किये जाने वाली इस देश की बहुसंख्यक जाति की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया।
उसके पश्चात् इस्लाम धर्मावलम्बी विदेशी शासकों के यहाँ बस जाने पर उपजी गंगा-जमुनी संस्कृति से प्रभावित साहित्य का एक अपना अलग ही रूप है जिसके बीज प्रारम्भिक काल में नहीं मिलते। इसी प्रकार अंग्रेजी शासन में अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन से उपजी बुद्धिवादी यथार्थवादी दृष्टि से लिखा गया काव्य फिर गद्य की विविध विधाओं का विकास जो आधुनिक काल में दिखलायी पड़ता है उसके बीज तथा कथित आरम्भिक काल में उपलब्ध नहीं है। वे सारी प्रवृत्तियाँ अनेक प्रकार के प्रभावों से उत्पन्न होती है जो 10वीं शताब्दी में कहीं दिखलायी नहीं पड़ती।
निष्कर्ष : आदिकाल का नामकरण
साहित्य का इतिहास अलग-अलग काल खण्डों में उपजी साहित्यिक प्रवृत्तियों एवं उनके कारणों का विश्लेषण करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। ‘आदि’ शब्द किसी काल के प्रारम्भ को भी संकेतित करता है। साहित्यिक कालक्रम को बतलाने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इससे किसी प्रकार की प्रान्ति नहीं उत्पन्न होती। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रस्तावित एवं समर्थित होने के कारण हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल को आदिकाल कहना सबसे उपयुक्त है।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र०
छात्र: हिंदी साहित्य विभाग, कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय