अभिलेख | पुरातात्विक स्रोत के रूप में अभिलेख | आभिलेखिक स्रोत/साक्ष्य | Inscriptions | Abhilekhik srot

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भारतीय इतिहास संरचना में साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों साक्ष्यों का सहारा लिया जाता है। साहित्यिक साक्ष्यों के अंतर्गत भारतीय धार्मिक व लौकिक साहित्य तथा विदेशी विवरण भी आते हैं वहीं पुरातात्विक साक्ष्यों के अंतर्गत मुख्यतया आभिलेख (Inscriptions) , मुद्रा (सिक्के), स्मारक एवं भौतिक पुरावशेष आते हैं।

प्राचीन भारतीय इतिहास के पुरातात्विक स्रोत : अभिलेख

Inscriptions
Abhilekhik srot

 आज के इस लेख में हम प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों के रूप में पुरातात्विक साक्ष्यों की विवेचना अभिलेखों के संदर्भ में करेंगे। यहां आपको अभिलेख, जोकि एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्रोत है, के बारे में लगभग सभी कुछ बताएंगे।

आईये देखते हैं अभिलेख क्या  हैं? ऐतिहासिक स्रोत के रूप में अभिलेखों का महत्व , पुरातात्विक स्रोत के रूप में अभिलेख (Abhilekh) आदि। 

अभिलेख किसे कहते हैं | आभिलेख क्या है ?

प्राचीन समय में राजा महाराजा किसी न किसी उद्देश्य से पत्थरों, धातुओं या अन्य किसी भी स्थान पर उस समय की भाषा व लिपि में कुछ लेख लिखवाते थे। यही लेख जब उत्खनन में प्राप्त होते हैं तो इन्हें अभिलेखों की संज्ञा दी जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि “पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री अभिलेख कहलाते हैं।” प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। प्राचीन काल के शासक विभिन्न उद्देश्यों से आभिलेख लिखवाते थे और जगह जगह उन्हें स्थापित कराते थे।

अभि-लेख | आभिलेखिक स्रोत (ancient Inscriptions) :

पुरातात्त्विक स्रोतों अथवा साक्ष्यों के अन्तर्गत सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। ये अभिलेख पत्थर या धातु की चादरों पर उत्कीर्ण किये गये हैं, अतः उनमें हेर-फेर की सम्भावना नहीं थी। इन अभिलेखों की तिथि कभी-कभी उन पर लिखी होती थी, पर प्रायः अक्षरों की बनावट के आधार पर उनका तिथिक्रम ज्ञात कर लिया जाता है।

सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के हैं। अशोक का नाम उसके, सिर्फ हैदराबाद के मास्की और मध्यप्रदेश के गुज्जर्रा स्थलों से पाये जानेवाले अभिलेखों में मिलता है। उसके अन्य अभिलेखों में उसे देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा कहा गया है। इन अभिलेखों से अशोककाल के धर्म तथा राजस्व के आदर्श पर प्रकाश पड़ता है। अशोक के अधिकांश अभिलेख ‘ब्राह्मी लिपि’ में उत्कीर्ण हैं। केवल उत्तर-पश्चिमी भारत में लिए कुछ अभिलेख ‘खरोष्ठी लिपि‘ में हैं। इसके कुछ अभिलेख ‘आरमेइक लिपि’ में भी मिले हैं।

अशोक के बाद के अभिलेखों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है:

(i) सरकारी अभिलेख

(ii) निजी आभिलेख

1. सरकारी अभिलेख –

इनके अन्तर्गत या तो राजकवियों की लिखिी हुई प्रशस्तियाँ हैं या भूमि अनुदान पत्र प्रशस्तियों का प्रमुख उदाहरण ‘समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति‘ है जो अशोक स्तंभ पर उत्कीर्ण है, जिसमें उसकी विजयों और नीतियों का उल्लेख है। प्रशस्तियों के अन्य उदाहरणों में भोज की ग्वालियर प्रशस्ति, खारवेल का हाथी गुम्फा अभिलेख, गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, रुद्रदामन का गिरनार शिलालेख, स्कन्दगुप्त का भीतरी स्तंभलेख और जूनागढ़ शिलालेख, विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख और चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है।

भूमि अनुदान पत्र-

ये अधिकतर तामपत्रों पर उत्कीर्ण है, जिनमें भूमिखण्डों की सीमाओं के उल्लेख के साथ दान देने के अवसर का भी उल्लेख है। दानपत्रों में देनेवाले शासक की उपलब्धियों का भी वर्णन मिलता है, जो कभी-कभी अतिश्योक्तिपूर्ण भी होता है। बड़ी संख्या में पूर्व मध्यकालीन (600 A.D. 1200 AD) भूमि अनुदान पत्र मिलने से यह निष्कर्ष निकाला गया कि भारत में पूर्व मध्यकाल में सांमती अर्थव्यवस्था स्थापित हो गयी थी।

चट्टानों या स्तंभों पर खुदे अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों से उस शासक की राज्य सीमाओं का भी अनुमान लगाया जाता है, जैसे कि अशोक के अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों से उसके राज्य विस्तार पर प्रकाश पड़ता है।

2. निजी अभिलेख –

इन श्रेणी के अभिलेख बहुधा मंदिरों या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं। इन पर खुदी तिथियों से इन मंदिरों के निर्माण या मूर्ति प्रतिष्ठान का समय ज्ञात होता है। इस तरह ये अभिलेख मूर्तिकला और वस्तुकला के विकास पर प्रकाश डालते हैं। इन अभिलेखों से लिपि व भाषाओं के विकास पर भी प्रकाश पड़ता है जैसे पूर्व गुप्तयुग के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं जिनमें बौद्धधर्मजैनधर्म का उल्लेख है। गुप्त और गुप्तोत्तरकाल के अधिकतर अभिलेख संस्कृत भाषा में हैं और जिनमें विशेष रूप से ब्राह्मण धर्म का उल्लेख है।

निजी अभि-लेखों में तत्कालीन शासक, तत्त्कालीन राजनीतिक दशा और कभी-कभी शासन में सहायक पदाधिकारियों के पदों, विभिन्न प्रकार के तत्कालीन करों आदि का भी उल्लेख होता है। कुछ अभिलेखों से उन तथ्यों की पुष्टि होती है, जिनका उल्लेख हमें साहित्य में भी मिलता है। पतंजलि के महाभाष्य से पुष्यमित्र शुंग द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने की सूचना मिलती है, जिसकी पुष्टि उसी के वंशज धनदेव के अयोध्या अभिलेख से होती है।

समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति और खारवेल का हाथी गुम्फा अभि-लेख, उनकी विजय उपलब्धियों का ज्ञान कराता है। रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, उसके राज्य विस्तार की सूचना देता है। सातवाहन शासकों का पूरा इतिहास ही अभिलेखों से ज्ञात होता है। इसी प्रकार चोल, पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट और पाण्ड्य वंशों के इतिहास की विशद् जानकारी उनके शासकों के अभिलेख से होती है।

विदेशों से प्राप्त कुछ अभिलेख जैसे-एशिया माइनर के बोगजकोई से प्राप्त संधिपत्र 1400 ई० पू० संधिपत्र अभिलेख- जिसमें मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्य, जैसे वैदिक देवताओं का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि वैदिक आर्यों के शंज एशिया माइनर में भी रहते थे। इसी प्रकार पर्सिपोलिस और बेहिस्तून के अभिलेख के ईरानी सम्राट द्वारा सिन्धु घाटी पर अधिकार कर लेने का प्रमाण मिलता है।

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धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र० 
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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