इलाहाबाद शहर से उत्तर तथा पश्चिम यमुना के किनारे स्थित आज का कौशाम्बी ग्राम बौद्ध कालीन नगरी कौशाम्बी के अवशेषों पर बसा है।
कौशाम्बी की उत्खनित सामग्रियों में मुख्यतः तीन वस्तु अवशेष विशेष उल्लेखनीय है : (१) घोषीताराम विहार, (२) सुरक्षा प्राचीर और (३) पाषाण निर्मित प्रासाद।
कौशाम्बी पुरास्थल का इतिहास : Kaushambi site in hindi
कौशाम्बी नामक पुरास्थल इलाहाबाद (प्रयागराज) शहर से दक्षिण पश्चिम दिशा में 51.5 किलोमीटर की दूरी पर यमुना नदी के बायें तट पर स्थित है। कौशाम्बी की भौगोलिक स्थित 25°20 उत्तरी अक्षांश एवं 81°23 पूर्वी देशान्तर के मध्य है। कौशाम्बी कोसम इनाम गढ़वा कोसम खिराज और अनव-कुनवी नामक गाँवों के बीच है। प्रारम्भ में कौशाम्बी इलाहाबाद जनपद में स्थित था लेकिन वर्तमान में 4 मार्च 1997 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के कार्यकाल में इसे एक पृथक जिले का स्वरूप प्रदान कर दिया गया।
कौशाम्बी की पौराणिक मान्यता :-
कौशाम्बी का उल्लेख उत्तर वैदिक काल के बाह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों में मिलता है। वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत में कौशाम्बी की स्थापना का श्रेय ‘कुशाम्ब’ को दिया गया है। पौराणिक परम्परा कौशाम्बी का सम्बन्ध हिस्तनापुर के कुरु राजवंश से जोड़ती है जिसके अनुसार अभिमन्यु पुत्र परीक्षित के बाद पाँचवीं पीढ़ी में निचक्षु के शासन काल में जब हस्तिनापुर गंगा की भयंकर बाढ़ में नष्ट हो गया था, तब उसने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया था बौद्ध तथा जैन धर्मों के प्राचीन साहित्य में भी कौशाम्बी का अनेक बार उल्लेख मिलता है। ‘अंगुत्तर निकाय के अनुसार छठी शताब्दी ई० पू० में कौशाम्बी वत्स महाजनपद की राजधानी थी और इसकी गणन छः महत्त्वपूर्ण नगरों में की जाती थी।
उत्खनन का इतिहास –
कौशाम्बी को भारतीय पुरातत्त्व के मानचित्र पर रखने का श्रेय अलेक्जेण्डर कनिधम को है जिन्होंने 1861 ई० में यहाँ की यात्रा की थी। कनिर्धम ने 1871 ई0 मे कौशाम्बी के अवशेषों पर रिपोर्ट प्रकाशित की और स्पष्ट किया कि कोसम ही प्राचीन कौशाम्बी था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से सन् 1936-37 एवं 1937-38 दो उत्खनन सत्रों में एन०जी० मजूमदार ने अशोक स्तम्भ क्षेत्र में उत्खन्न कराया था।
तत्पश्चात कौशाम्बी का वैज्ञानिक उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष स्व० प्रो० गोवर्द्धन राय शर्मा ने कराया था। घोषीताराम एक बौद्ध विहार था। गौतम बुद्ध के समय इस बौद्ध विहार का निर्माण हुआ था। इस विहार का इतिहास उत्खनन के आधार 6०० ई० पू० से 6०० ई० तक का है। घोषीताराम के उत्खनन से 16 निर्माण कालों का ज्ञान मिलता है। उत्खनन में प्राप्त लौह भाण्ड तथा इसकी एक मुद्रा एवं अन्तिम काल में नगर के जलने के प्रमाण के कारण यह अनुमान लगाया जाता है कि इस विहार का विनाश बाहरी आक्रमण के कारण हुआ था।
इसके निचले स्तरों से उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड प्राप्त होने के कारण इसको प्राचीनता 600 ई० पू० के आस-पास सिद्ध होती है। यहाँ के उत्खनन की दूसरी उपलब्धि सुरक्षा प्राचीर का अवशेष है। यह 42 चौड़ी है। इस प्राचीर के उत्खनन से दूसरे 25 कालों का ज्ञान होता है। मृद्भाण्डों के आधार पर इनका वर्गीकरण चार चरणों में किया गया है :
(१) प्रथम चरण– यह चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के पूर्व का चरण है। इस चरण में नावादा टोली, रंगपुर, सोमनाथ तथा पश्चिमी भारत के कई हड़प्पा कालीन तथा पूर्ववर्ती संस्कृतियों के मिलते-जुलते प्रकार के मृद्भाण्ड उपलब्ध हुये हैं।
(२) द्वितीय चरण- इस चरण में प्रथम चरण के ही प्रचलित मृद्भाण्ड मिले हैं परन्तु इन मृद्भाण्डों में कृष्ण लोहित मृद्भाण्डों की अधिकता है। साथ ही इसमें चित्रित धूसर मृद्भाण्ड भी प्राप्त हुये हैं। परन्तु ये उतने अच्छे नहीं हैं जितना कि हस्तिनापुर तथा अन्य स्थलों से प्राप्त हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। सर्व प्रमुख कारण लगता है कि चित्रित धूसर मृद्भाण्डों के निर्माण केन्द्र से दूर होने के कारण यहाँ उत्तम कोटि के मृद्भाण्डों का निर्माण नहीं हो सका होगा अथवा यह भी सम्भव है कि यहाँ से प्राप्त चित्रित धूसर मुद्भाण्ड यहाँ उपलब्ध भाण्डों के अन्त के प्रमाण के द्योतक है। इस काल में रजत एवं दाम्र को आहत मुद्राएँ तथा भीमराज की मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं।
(३) तृतीय चरण— इस चरण में उत्तरी कृष्णमार्जित मदभाण्ड प्राप्त होते हैं। साथ ही रजत एवं ताम्र मुद्रायें प्राप्त हुई हैं तथा कौशाम्बी के विभिन्न राजवंशों की विविध मुद्रायें भी मिली हैं।
(४) चतुर्थ चरण— इसमें अलग-अलग राजाओं की मुद्रा से प्राप्त हुई है। इसका महत्वपूर्ण अवशेष पाषाण निर्मित प्रासाद है जिसके तीन मुख्य विकास काल है :
प्रथम काल में बिना गढ़े हुये पत्थर के टुकड़ों को चूने के मसाले से जोड़ कर दीवार का निर्माण हुआ। दीवार पर सम्भवतः प्लस्तर भी लगा हुआ था।
दूसरे काल में गढ़े हुए पत्थर लगाये गये बाहर की ओर बीच के भाग में पूर्ववत् पत्थर के टुकड़ों का प्रयोग हुआ है।
तीसरे काल में प्रासाद का विनाश प्रारम्भ होता है। दीवारों में बाहर की ओर गढ़े हुये पत्थर लगाये गये हैं, परन्तु बीच में ईंट का भी प्रयोग हुआ है। किनारों पर बुर्जों का निर्माण हुआ है तथा उनमें परिवर्तन भी किया गया है तथा दीवारों पर चूने का मोटा प्लस्तर भी लगा है।
कौशाम्बी का काल-निर्धारण :
प्रथम काल में उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड नहीं मिले हैं। दूसरे काल में उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड तथा मुहरें प्राप्त हुई हैं जिसमें दूसरी शताब्दी की ईसा पूर्व लिपि में “महरजसधो’ लिखा है। तीसरे काल में उत्तरी कृष्णमार्जित मुद्भाण्ड का हास दिखायी देता है। इस चरण मे ऊपरी स्थलों के बगल में भाड़ के दो प्रकार प्राप्त हुये हैं जो अन्य स्थलों ईसा के प्रारम्भिक शताब्दी में प्राप्त होते हैं।
जहाँ तक सुरक्षा प्राचीन से सम्बन्ध में प्रो० जी० आर० शर्मा का मत है कि हड़प्पा सभ्यता में प्राचीर बनाने के लिये मिट्टी का बाँध बनाया जाता था और बाहर की ओर पक्की ईंटें लगायी जाती थीं। कौशाम्बी में भी इसी प्रकार के मिट्टी का बाँध बना है और बाहर की ओर ईंटें टेढ़ी और चौड़ी लगी है। ये दीवारें सीधी नहीं बनी थीं, बल्कि तीरछी थीं। इस आधार पर प्रो० शर्मा ने इस निर्माण के पीछे हड़प्पा का प्रभाव माना है। चौथे काल में चौकोर बुर्ज बना है। लगता है कि चौकोर बुर्ज सर्वप्रथम सैन्धव सभ्यता में प्रयोग हुये थे। इस प्रकार कौशाम्बी के निर्माण के पीछे सैन्धव सभ्यता का प्रभाव प्रबल रूप से प्रकट होता है। यदि मेरठ से सैन्धव सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं तो कौशाम्बी में इसका प्रभाव दीखना कोई आश्चर्य नहीं प्रकट करता।
कौशाम्बी से प्राप्त प्रमुख अवशेष :
कौशाम्बी की उत्खनित सामग्रियों में मुख्यतः तीन वस्तु अवशेष विशेष उल्लेखनीय है : (1) घोषीताराम विहार, (2) सुरक्षा प्राचीर और (3) पाषाण निर्मित प्रासाद।
(1) घोषीताराम विहार : कौशाम्बी पुरास्थल
यहाँ एक बौद्ध विहार घोषीताराम का निर्माण किया गया था। इसका इतिहास उत्खनन के आधार पर छठीं शताब्दी ई० पू० से आरम्भ होकर ईसवी शती तक मिलता है। घोषीताराम के उत्खनन में 16 निर्माण काल मिले हैं। उत्खनन में प्राप्त तोरमाण की एक मुद्रा तथा अन्तिम काल में जलने के चिन्ह के कारण समझा जाता है कि इसका विनाश हूण आक्रमण के कारण हुआ था। इस विहार का निर्माण भगवान बुद्ध के समय में हुआ होगा क्योंकि इसके निचले सतह पर उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड मिले हैं जिनकी तिथि लगभग 600 ई० पू० मानी जाती है। घोषीताराम में कुछ ऐसी मुद्रायें भी मिली हैं जिनपर घोषीताराम विहार है।
(2) सुरक्षा दीवार
इस की ऊँचाई ४२’ ५ ” है। इसके उत्खनन से 25 कालों का ज्ञान होता है। मृद्भाण्डों के आधार पर इन कालों का वर्गीकरण चार मुख्य चरणों में किया गया है। प्रथम चरण प्राचीर तक है और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड से पूर्व का है। इस चरण में नावादा टोली, मध्यभारत, रंगपुर, सोमनाथ तथा पश्चिम भारत के कई उत्तर हड़प्पा कालीन तथा परवर्ती संस्कृतियों के मृद्भाण्डों से मिलते-जुलते मृद्भाण्ड प्रकार मिले हैं।
दूसरे चरण में भी प्रथम चरण के कुछ प्रकार प्रचलित थे। परन्तु यहाँ बाहुल्य कृष्ण लोहित मृद्भाण्डों का है। इस चरण में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड भी मिले हैं। परन्तु वे उतने अच्छे नहीं है जितना हस्तिनापुर अथवा अन्य स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इसके दो कारण हैं:
(१) चित्रित धूसर मृद्भाण्डों के केन्द्र से दूर होने के कारण यहाँ उत्तम कोटि के भाण्ड नहीं निर्मित होते थे। साथ इसका यह भी कारण है कि यहाँ के मृद्भाण्ड चित्रित धूसर मृद्माण्ड के अन्तग्योतक है। हैं
तीसरे चरण से उत्तरी कृष्णमार्जित मुद्भाण्ड मिलते हैं। इस काल में चाँदी के पंचमार्क सिक्के तथा कौशाम्बी के विभिन्न राजाओं की राज मुद्राएँ भी मिलती हैं। यहाँ से प्राप्त सामग्रियाँ तिथि क्रमानुसार निम्न भागों में बाँटी जा सकती हैं :
(i) प्राक हड़प्पा तथा चित्रित धूसर मृद्भाण्ड, ताम्राष्मकाल तथा सैन्धव सभ्यता (2500-1500 BC) काल की सामग्रियाँ हैं। नावादा टोली से मिलते-जुलते भाण्ड कौशाम्बी से भी मिले हैं।
(ii) चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ।
(iii) उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड ।
(iv) पंच मार्क सिक्के तथा गुप्तकाल से पहले के सिक्के मिलते हैं।
(3) प्रस्तर महल
इसका निर्माण तीन मुख्य कालों में हुआ है। प्रथम काल में अनगढ़ पत्थर के टुकड़ों को चूने में मिलाकर इसकी दीवार बनवायी जाती थी तथा दीवारों पर प्लस्तर भा लगाया जाता था । द्वितीय चरण में दीवाल में सामने की ओर गढ़े हुए पत्थर लगाये गये हैं पर बीच के भाग में पूर्ववत् पत्थर के टुकड़ों का प्रयोग हुआ है। तृतीय चरण प्रासाद के विनाश के बाद आरम्भ होता है । दीवारों में बाहर की ओर गढ़कर पत्थर लगाये गये हैं । परन्तु बीच में पहले की तरह पत्थरों का प्रयोग किया गया है । कोने के गुम्बजों पर बुर्ज का निर्माण तथा परिवर्धन हुआ है। इस चरण में दीवारों पर चूने का मोटा प्लस्तर भी है ।
प्रथम चरण में उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड का अभाव है। दूसरे चरण के साथ उत्तरी कृष्णमार्जित भाण्ड का आरम्भ तथा इस काल का ध्वंस भा ज्ञात होता है । इस ध्वंसावशेषों में उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड तथा एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर दूसरी शताब्दी ई० पू० की लिपि में महरजसधो पढ़ा जाता है। तीसरे चरण में उत्तरी कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड का ह्रास होता है। इस चरण के ऊपरी स्तर से लाल भाण्ड के प्रकार मिलते हैं जो अन्य स्थलों से ई० सन् की आरम्भिक शताब्दियों में प्राप्त हुए हैं ।
(4) सुरक्षा दीवार
सुरक्षा दीवार में प्रो० जी० आर० शर्मा के अनुसार हड़प्पा सभ्यता के तत्व मिलते हैं:
(१) जैसे हड़प्पा सभ्यता में प्राचीर बनाने के लिए मिट्टी का बाँध बनाया जाता था तथा बाहर की ओर पक्की ईंट का प्रयोग होता था। वैसे यहाँ भी किया गया है।
(२) ईंटों की जुड़ाई में टोड़िया-पट्टी (English bondge) का प्रयोग किया गया है।
(३) दीवाल सुरक्षा विहीन ही बनी है और प्राचीर पीछे बनी है।
(४) चौकोर बुर्ज बनाये गये हैं।
(५) सैन्धव सभ्यता के नीचे के स्तर पर एक छोटा-सा मार्ग है जो बायीं ओर से खुला है तथा Corbelled Arch से ढ़का हुआ है वैसा यहाँ भी मिला है।
यदि मेरठ जिले में सैन्धव सभ्यता के अवशेष मिले हैं तो इसका कोई कारण नहीं कि इलाहाबाद (कौशाम्बी) में उसका प्रभाव न पड़ा हो।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र०
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय