श्रृंगवेरपुर भारतीय पुरातत्व का एक प्राचीन पुरास्थल है।जहां एक ओर अनेकों भारतीय संस्कृत साहित्य व धर्म ग्रंथों में इस स्थल की आध्यात्मिक महत्ता है वहीं दूसरी ओर यहीं से प्राप्त पुरावशेषों की प्राप्ति से इस स्थल की पुरातात्विक महत्ता सिध्द है। आज यह श्रृंगवेरपुर स्थल भारत के एक प्रमुख पर्यटक स्थल के रूप में भी उभर कर सामने आ रहा है। यहां पर प्रतिवर्ष लगने वाला रामायण मेला प्रदेश भर में प्रसिद्ध है।
श्रृंगवेरपुर पुरास्थल : Shringver pur site in hindi
श्रृंगवेरपुर उत्तर प्रदेश के प्रयागराज शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर पश्चिम-उत्तर-पश्चिम की ओर गंगा नदी के बाएं तट पर स्थित है। दिव्य श्रृंगवेरपुर स्थल (अक्षांश 25°,35′ उत्तर ; देशान्तर 81°,39′ पूर्वी) राष्ट्रीय राजमार्ग-19 (NH-19) के इलाहाबाद बाईपास मार्ग पर स्थित है जोकि एक लिंक रोड के माध्यम से प्रयागराज लखनऊ मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। इस प्रकार यह एक सुगम यातायात व्यवस्था से सड़क संचार से जुड़ा हुआ है।
श्रृंगवेरपुर स्थल प्रयागराज के सोरांव तहसील व थाना नवाबगंज के अंतर्गत आता है जोकि सोरांव तहसील से लगभग 25 किमी० की दूरी पर गंगा नदी के पावन तट पर एक ऊंचे टीले पर अवस्थित है। अभी तक यह एक ‘सिंगरौर’ नामक एक छोटे से पौराणिक ग्राम के रूप में विख्यात था किंतु हाल ही में इसे एक ब्लॉक बना दिया गया है। ब्लाक बनने से अब यह बहुत तेजी से विकाशशील है।
श्रृंगवेरपुर : Shringverpur
अगर बात करें श्रृंगवेरपुर स्थल के नाम की तो ऐसा माना जाता है कि अति प्राचीन काल में यहां एक ‘श्रृंगी ऋषि’ निवास करते थे। इन्ही ‘श्रृंगी ऋषि’ के नाम पर ही यह स्थान श्रृंगवेरपुर नाम को प्राप्त होकर आज पूरे भारतवर्ष में ख्याति प्राप्त करने में जुटा है।
श्रृंगी ऋषि का उल्लेख बाल्मीकि रामायण , आध्यात्म रामायण , कालिदास के रघुवंशम , भवभूति रचित उत्तर रामचरित , तुलसीदास कृत रामचरित मानस तथा वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत समेत अनेकों पुराणों में किया गया है। श्रृंगी ऋषि के अतिरिक्त इन्ही धर्मग्रंथों से इनकी पत्नी शांता देवी तथा श्रृंगवेरपुर स्थान का भी उल्लेख मिलता है।
इस प्रकार यह श्रृंगवेरपुर स्थल मात्र एक स्थल न रहकर एक धार्मिक स्थल के रूप में श्रृंगवेरपुर धाम के नाम से विख्यात हुआ। यहीं एक ऊंचे टीले पर देवी शांता और श्रृंगी ऋषि का एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। जिसका चित्र नीचे दिखाया गया है-
श्रृंगवेरपुर धाम की पौराणिक/आध्यात्मिक मान्यता :
श्रृंगवेरपुर धाम महज एक धाम ही नहीं है। इसने युगों युगों के इतिहास को अपने अंदर समेटने का कार्य किया है। इसने समय की गति देखी है तथा यह आज भी युगों के तत्वों का साक्षी बना हुआ है।
यह एक प्रबल आध्यात्मिक मान्यता है कि जब त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को 14 वर्ष का वनवास दिया गया तब श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण तथा भार्या सीता के साथ सबसे पहले राजा दशरथ के मंत्री के साथ रथ से यहां आए और यहां के तत्कालीन राजा निषादराज गुह से मिले तथा यहां एक रात का विश्राम किया तत्पश्चात केवट की सहायता से गंगा नदी पार कर प्रयागराज की ओर गए। यहां पर आज भी निषादराज के भवन के अवशेष विद्यमान हैं जिसके कुछ चित्र नीचे दिखाए गए हैं-
अयोध्या के राजमंत्री आर्य-सुमंत्र के साथ यहां तक भगवान रथ से राजकुमार के वेशभूषा में आये थे। यहां वे निषादराज गुह से मिले तथा यहां से भगवान श्री राम ने मंत्री आर्य सुमंत्र को वापस अयोध्या भेज दिया तथा उन्होंने खुद चरणपादुका (खड़ाऊं) का भी त्याग कर के शेष वनवास नंगे पैर बिताए।
निषादराज गुह भगवान राम के गुरुकुल के सहपाठी व मित्र भी थे। यहां पर एक रात्रि शयन के बाद अगली सुबह श्री राम प्रयाग स्थित ऋषि भारद्वाज के आश्रम पहुँचे जोकि वर्तमान समय में प्रयागराज में भारद्वाज आश्रम के रूप में एक पार्क का रूप प्राप्त किये हुए है। इस श्रृंगवेरपुर स्थल पर भगवान के शयन के अवशेष व उस समय के पांच शीशम वृक्ष आज भी पूरी तरह विद्यमान हैं ऐसा माना जाता है। इस अवशेष की इमेज नीचे दी गयी है-
जहां भगवान श्री राम रात्रि शयन किये थे वह स्थान श्रृंगवेरपुर में ‘राम शयन आश्रम’ तथा जहां से श्री राम ने गंगा नदी पार की थी वह स्थल ‘राम चौरा’ नामक स्थल से जाना जाता है। श्री राम शयन आश्रम उस समय (त्रेता युग में) निषादराज गुह की वाटिका हुआ करती थी।
उपरोक्त पौराणिक मान्यता का स्रोत वाल्मीकि रामायण है।रामायण की अनुवादित रचना तुलसीदास कृत रामचरित मानस में भी इसके प्रत्यक्ष उल्लेख मिलते हैं। रामचरित मानस में इससे संबंधित अत्यंत सजीव वर्णन चौपाई छंद में अधोलिखित है-
“सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥”
…….रामचरित मानस
इस प्रकार यह श्रृंगवेरपुर धाम वही प्राचीन स्थल है जहां से भगवान राम को वनवास के समय भाई लक्ष्मण व पत्नी सीता समेत नाव पर बैठा कर गंगा नदी पार कराई थी। अतः आज यह भारत के दर्शनीय स्थानों में से एक है।
श्रृंगवेरपुर स्थल का पुरातत्व : Archaeology of Shringver pur site
श्रृंगवेरपुर स्थल के आध्यात्मिक महत्व को जानने के उपरांत आईये हम इसके ऐतिहासिक महत्व की ओर ध्यान दें तथा इसके पुरातात्विक अवशेषों को समझने का प्रयास करें।
श्रृंगवेरपुर पुरास्थल का उत्खनन शिमला उच्च अध्ययन संस्थान और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के संयुक्त तत्त्वावधान में बी० बी० लाल और के. एन. दीक्षित के निर्देशन में दिसम्बर सन् 1977 से 1986 तक हुआ। इस प्राचीन स्थल पर रामायण से जुड़े पुरातात्विक स्थलों से संबंधित एक परियोजना के अन्तर्गत भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के कार्यकाल में 1977 से 1981 तक अनवरत उत्खनन् कार्य हुआ। उस समय यहां पर इंदिरा गांधी जी का आगमन भी हुआ था।
उत्खनन् के दौरान यहाॅ से एक विशाल ईंट-निर्मित टैंक के अवशेष प्राप्त हुये जो 2000 वर्ष पूर्व के भारतीय हाइड्रॉलिक अभियन्त्रण का अद्भुत नमूना ह। अभियंताओं द्वारा गंगा से पानी लाने के लिये पहले एक नहर बनाई गई जिसे एक गड्ढे में विशेष रूप से छानकर एक प्रारम्भिक टैंक में लाने की व्यवस्था थी । तत्पश्चात् साफ पानी मुख्य टैंक से प्रवाहित होता था । टैंक के दूसरे छोर पर वतुर्लाकार बावली का भी निर्माण किया गया जो संभवतः धार्मिक अनुष्ठानों हेतु प्रयोग में आती रही होगी । अन्ततः व्यर्थ पानी पूर्व की ओर एक नाली के द्वारा पुनः गंगा नदी में निष्कासित कर दिया जाता था । सांस्कृतिक अनुक्रम की दृष्टि से इस स्थल से 11वीं शती ई० पू० से अभी तक की भौतिक संस्कृति से से जुड़ी सामग्री उपलब्ध हुई है जिसमें निम्नतम स्तर से गेरूये रंग के मृदभाण्डों की उपलब्धि महत्वपूर्ण है।
सांस्कृतिक अनुक्रम की दृष्टि से इस स्थल से 10वीं शती ई०पू० से लेकर शुंग- कुषाण गुप्त व परवती काल की भौतिक सस्कृति से जुड़ी सामग्री उपलब्ध हुई है। द्वितीय शती ई०पू० से प्रथम शती ई० में यह स्थल अपने चरमोत्कर्ष पर था जैसा कि उत्खनन में प्राप्त तत्कालीन सामग्री एवं ईंट निर्मित विशाल जलशय के निर्माण से सिद्ध होता है।
श्रृंगवेरपुर स्थल का पुरातात्विक इतिहास :
श्रृंगवेरपुर के उत्खनन के फलस्वरूप जो पुरावशेष तथा पुरानिधियाँ मिली है उनको सात विभिन्न सांस्कृतिक कालों में विभाजित किया गया है। यहाँ के अधिकांश सांस्कृतिक कालों के बीच में सातत्य देखने को मिलता है।
प्रथम काल : (1050-1000 ई० पू०)
प्रथम सांस्कृतिक काल गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति का है। गैरिक मृद्भाण्डों के अतिरिक्त सरकण्डों की छाप से युक्त मिट्टी के जले हुए टुकड़े मिले हैं जिनसे इंगित होता है कि ये लोग बॉस-बल्ली से निर्मित झोपड़ियाँ बनाते थे। मृण्मय चक्रिक खण्ड और कार्नेलियन के फलक का एक खण्डित टुकड़ा मिला है। इसके पश्चात् यह पुरास्थल सम्भवतः कुछ समय तक वीरान रहा।
द्वितीय काल : (950-700 ई० पू०)
द्वितीय सांस्कृतिक काल की प्रमुख पात्र परम्पराओं में कृष्ण लोहित, कृष्ण-लेपित और चमकाई गई धूसर पात्र परम्परा का उल्लेख किया जा सकता है। हड्डी के बने बेधक और बाण-फलक, हड्डी का एक लटकन, जैस्पर तथा मिट्टी के बने मन के अन्य महत्त्वपूर्ण पुरावशेष हैं।
तृतीय काल : (700-250 ई० पू०)
शृंगवेरपुर का तृतीय सांस्कृतिक काल उत्तरी काली ओपदार मृद्भाण्ड परम्परा से सम्बन्धित है। द्वितीय एवं तृतीय कालो के मध्य अन्तराल के नहीं अपितु सातत्य के साक्ष्य मिले है।
इस काल के पुरावशेष में मृद्भाण्डों के अतिरिक्त ताँबे के तीन बड़े कलश एक कड़कुल, नारी मृण्मूर्तियाँ, माणिक्य, मिट्टी, स्वर्ण के मनके, पशु-मूर्तियाँ, ताँबे और लोहे के उपकरण तथा आहत एवं लेखरहित ढले हुए सिक्के विशेष उल्लेखनीय है। भवन निर्माण में इस काल के अन्तिम चरण में पकी हुई ईंटों का उपयोग होने लगा था। स्वच्छता तथा सफाई के लिए लोग निजी घरो में मृत्तिका वलय कूपों तथा सोखता घड़ों का उपयोग करते थे।
पुरातात्त्विक आधार पर 600 ई० पू० से 300 ई० पू० के मध्य उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा का कालक्रम निर्धारित किया गया है। शृंगवेरपुर के उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा के स्तर से एकत्र किए गए एक नमूने की उष्मा दीप्ति तिथि 700 ई० पू० निर्धारित की गई है। यह नमूना मध्यवर्ती स्तर से एकत्र किया गया था। इसके आधार पर • तृतीय काल के प्रारम्भ की तिथि 700 ई० पू० निर्धारित की गयी है। यह उल्लेखनीय है कि भारत के विभिन्न पुरास्थलों के सन्दर्भ में ऊष्मा दीप्ति तिथियों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। अन्य देशों के सन्दर्भ में भी अभी तक तिथि निर्धारण की यह प्रणाली प्रयोग के स्तर पर ही है। अतः शृंगवेरपुर की ऊष्मा दीप्ति तिथि को उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा की प्राचीनता की अन्तिम तिथि नहीं माना जा सकता है।
चतुर्थ काल : (250 ई० पू० 200 ई०)
चतुर्थ काल को दो उपकालों में विभाजित किया गया है। – लाल रंग के मिट्टी के बर्तनों, शुंग कालीन मृण्मूर्तियाँ, अयोध्या के शासकों के सिक्के मिले है। शृंगवेरपुर के मुख्य टीले के उत्तर-पूर्व में पकी हुई ईटों से निर्मित आयताकार तालाब के साक्ष्य मिले हैं। यह तालाब उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 200 मीटर लम्बा है। उत्तर में जल के लिए प्रवेश द्वार और दक्षिण में निकास द्वार बना हुआ था। यह तालाब अपने किस्म का अद्वितीय उदाहरण है जिसमें नगर निवासियों के लिए पेयजल को साफ करने के लिए बहुत सुन्दर व्यवस्था थी। कुषाण काल में यहाँ के भवन पकी हुई ईंटो के बनाए जाते थे। कुल मिलाकर आर्थिक समृद्धि का संकेत मिलता है।
पंचम काल : (300-600 ई०)
पंचम काल में गहरे लाल रंग के मिट्टी के बर्त्तन प्रचलित थे। इस काल से गुप्त शैली की मृण्मूर्तियाँ मिली है। भवन टूटी-फूटी ईटों के बने हुए मिले हैं।
छठा काल : (1000-1300 ई०)
छठे काल का समय प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर छठी सातवी शताब्दी से तेरहवी शताब्दी ईस्वी के बीच में निर्धारित किया गया है। इस काल के एक मृद्भाण्ड मे कतिपय आभूषण और गाहड़वाल राजवंश के शासक गोविन्द चन्द्र (1114 1154 ई० ) के द्वारा चलाए गए चाँदी के तेरह सिक्के मिले है।
सातवां काल :
शृंगवेरपुर का पुरास्थल तेरहवीं शताब्दी ई० के पश्चात लगभग 400 वर्षों तक वीरान रहा। यहाँ पर अन्तिम चार सत्रहवी अट्टारहवी शताब्दी ई० में पुनः लोग आकर बसे । इस बात की पुष्टि यहाँ से प्राप्त पुरावशेषों से होती है।
शृंगवेरपुर के उत्खनन से मध्य गंगा घाटी की प्रारम्भिक संस्कृति के रूप में गैरिक नृद्भाण्डों की प्राप्ति विशेष महत्त्वपूर्ण है। द्वितीय सांस्कृतिक काल की कृष्ण-लोहित, कृष्ण-लेपित एवं धूसर पात्र परम्परा पश्चिमी बिहार तथा विन्ध्य क्षेत्र की ताम्रपाषाणिक संस्कृति से अनुप्राणित मानी जा सकती है। प्रथम शताब्दी ई के कुषाण कालीन पक्के के तालाब को शृंगवेरपुर के उत्खनन की विशिष्ट उपलब्धि माना जा सकता है।
निष्कर्ष :
इस वर्णन से आज हमने श्रृंगवेरपुर नामक स्थल को एक धर्मस्थल व एक पुरास्थल दोनों रूपों में जानने का एक प्रयास किया। इस प्रकार यह श्रृंगवेरपुर धाम कालातीत के अनेकों तथ्यों को स्वयं में समेटे हुए है। यह स्थान इतिहास व पौराणिकता को संयुक्त रूप देते हुए चिरंतन काल से उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरते हुए स्वयं को जिस तरह से न केवल संरक्षित किया बल्कि इसने लोगों को ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया। चाहे वह इतिहास में रुचि रखने वाला हो , पुरातत्व को जानने समझने वाला हो या फिर धार्मिक भावनाओं से युक्त व्यक्ति हो सभी तरह के व्यक्ति यहां पर नित्यप्रति आते हैं। इस प्रकार यह श्रृंगवेरपुर स्थल अपने आपमें एक अद्वितीय स्थान का अधिकारी है।
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धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र०
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय