अतरंजीखेड़ा | Ataranjikheda | अतरंजीखेड़ा पुरास्थल की सभी जानकारियां | atranjikhera history

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यह प्राचीन अतरंजीखेड़ा पुरास्थल उत्तर प्रदेश के एटा जिले में गंगा नदी की सहायक काली नदी के दाहिनी तट पर स्थित है। अलेक्जेण्डर कानिंघम ने सन् 1861-62 में इसी स्थान पर उत्खनन कराया था। उत्खनन के पश्चात् उन्हें विशेष प्रकार सं रंगा हुआ टीला प्राप्त हुआ था। इस टीले की पहचान अतरंजीखेड़ा (Ataranjikheda) के नाम से हुई। इस टीले में एक प्राचीन किले के अवशेष भी प्राप्त हुए जिनका संबंध चक्रवर्ती राजा वेण से था।

अतरंजीखेड़ा के टीले की लम्बाई 1127.26 मीटर, चौड़ाई 411.50 मीटर तथा ऊँचाई 6 मीटर से 20 मीटर तक है। आज तक हुए उत्खनन के फलस्वरूप अतिरंजीखेड़ा में दूसरी सहस्राब्दि ई० पू० से लेकर अकबर के शासन काल तक के सात प्रकार के सांस्कृतिक कालों के पुरावशेष मिले हैं।

अतरंजीखेड़ा (Ataranjikheda)
  1. गैरिक मृद्भाण्ड,
  2. कृष्णलोहित मृद्भाण्ड (1450-1200 ई० पू० ),
  3. चित्रित धूसर पात्र परंपरा (12500-600 ई० पू०),
  4. उत्तरी काली चमकीली पात्र परंपरा (600-50 ई० पू०) 5. कुषाण काल (50 ई० पू० -350 ई० पू०),
  5. गुप्त और राजपूत काल (350-1100 ईसवी),
  6. सल्तनत-मुगल काल (1100-1650 ईसवी)

गैरिक मृद्भाण्ड ( प्रथम सांस्कृतिक काल) – अतरंजीखेड़ा

अतरंजीखेड़ा (Ataranjikheda) की गैरिक मृद्माण्ड काल को प्रथम सांस्कृतिक काल कहते हैं। काले गेरुए रंग के मिट्टी के बर्तन अथवा हल्के लाल गेरुए रंग के मिट्टी के बर्तन इस काल के प्रमुख पात्र हैं। ये बर्तन पतली गढ़न के भी होते थे और मोटी गढ़न के के भी होते थे। गेरुए अर्थात् गैरिक मृद्भाण्डों पर चित्रकारी नहीं हुई है।

ऐसे मृद्भाण्ड भी मिलते हैं, जिन पर एक चौड़ी काली पट्टी है जैसे-घड़े के गर्दन पर ऐसे पात्र कम ही मिले हैं, जिन पर चित्रकारी हुई हो। लहरदार, रेखाएँ, पत्ती, चौखाने, टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ तथा अगुष्ठ नख अलंकरण कतिपय मृदभाण्डों पर प्राप्त हुए हैं अधिकतर गैरिक मृद्माण्ड सादे हैं।

इस काल में धान, जौ, दालों आदि को खेती भी होती थी। सिलबट्टे भी प्राप्त हुए हैं। प्रथम काल का समय निर्धारण करना कठिन है। चूँकि इस काल के मृद्भाण्ड सबसे निचले स्तर से प्राप्त हुए हैं अब अनुमानत: यह काल द्वितीय सहस्राब्दि ई० पू० से लेकर 1500 ई० पू० के बीच में रहा होगा।

द्वितीय सांस्कृतिक काल-

प्राचीन अतरंजीखेड़ा पुरास्थल इस काल की पात्र परंपरा कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड परंपरा है। ये पात्र बाहर से लाल रंग के हैं तथा ऊपरी तरफ तथा सम्पूर्ण भीतरी भाग काले रंग का है। इन पर चित्रकारी नहीं हुई है। पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर इस काल की कालावधि 1450 ई० पू० से 120 ई० पू० निर्धारित की गई है।

तृतीय सांस्कृतिक काल-

इस काल के चित्रित धूसर पात्र मिले हैं। ये चिकनी मिट्टी से बने हुए रहते हैं। अधिकांश पात्र चाक पर बनते थे कुछ को हाथ से बनाया जाता था। इन पात्रों पर चित्रण अभिप्राय भी संजोये हुए मिलते हैं। रेखाएँ बिन्दु समूह, वृत्त तथा स्वास्तिक आदि प्राय: हल्के काले रंग से पात्रों पर अंकित होते थे। पात्रों का रंग धूसर या सिलेटी होता था।

यद्यपि इस काल में चित्रित धूसर पात्र परंपरा के साथ-साथ कृष्ण लोहित पात्र परंपरा तथा कृष्ण लेपित पात्र परंपरा, लाल रंग की पात्र परंपरा आदि भी मिले हैं, जो मनुष्य के दैनिक जीवन से संबंधित हैं। इनमें तसला, कटोरा, हाड़ी, मर्तबान, घड़ा, मटका, चषक आदि हैं।

कृषि और पशुपालन के साक्ष्य तो प्रथम काल में ही मिले हैं, पर इस काल में धान, जौ तथा दालों के अतिरिक्त गेहूँ की भी खेती होने लगी थी। मिट्टी के बर्तनों, लौह उपकरणों के अतिरिक्त ताँबे तथा हड्डी की वस्तुएँ भी इस काल में प्रयोग में लायी जाती थी। पुरातात्विक आधार पर तृतीय सांस्कृतिक काल का निर्धारण 1200 ई० पू० से 600 ई० पू० के मध्य किया जा सकता है।

चतुर्थ सांस्कृतिक काल-

इस काल की अतरंजीखेड़ा (Ataranjikhera) की पात्र परंपरा उत्तरी कालो चमकीली पात्र परंपरा है। ये पात्र चाक पर बनाये जाते हैं। मिट्टी खूब गूंथकर बनाये जाते थे। इन पर विशिष्ट चमक होती थी। बर्तन प्राय: काले रंग के होते थे। ये पतले और हल्के होते थे। थाली, कटोरे, ढक्कनदार बर्तन, कलश, हॉडिया आदि काली चमकीलो पात्र परंपरा में मिले हैं।

यह काल चार उपकालों में विभाजित किया गया है। प्रथम उपकाल में भवन निर्माण में इंटों का प्रयोग नहीं हुआ है। दूसरे उपकाल में यत्र-तत्र ईंटों का प्रयोग होने लगा था।
तीसरे उपकाल में घूस-फूस, बाँस बल्ली से निर्मित कच्चे मकान मिलते हैं। कहीं-कहीं पकी ईंटों का भी प्रयोग हेने लगा था। मिट्टी की मूर्तियाँ भी इस काल में मिली हैं। चौथे उपकाल में पकी हुई ईंटों का प्रयोग भवन निर्माण में अधिकता से होने लगा था। हाथी, घोड़े, बैल, बकरी, भेड़, बाघ, शेर, बंदर आदि की मृण्मयमूर्तियाँ, चिड़ियों की चार मृण्मयमूर्तियाँ, मिट्टी तथा माणिक्य के मनके, हड्डी तथा हाथी दाँत से निर्मित वस्तुएँ तथा लोहे व ताँबे की वस्तुएँ आदि इस काल के उल्लेखनीय पुरावशेष हैं।

चतुर्थ सांस्कृतिक काल का निर्धारण 600 ई० पू० से लेकर 50 ई० पू० के बीच निर्धारित किया गया है।

पंचम काल –

इस काल के में कुषाणकालीन पुरावशेष पराप्त हुए हैं। लाल रंग के मिट्टी के – बर्तन तथा मिट्टी की बनी अनेक मृण्मयमूर्तियाँ इस काल में मिले हैं। भवन निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग होता था। मिट्टी का एक साँचा भी प्राप्त हुआ है, सम्भवत: यह सिक्के ढालने के प्रयोग में लाया जाता होगा। इस काल का समय निर्धारण 50 ई० पू० से 350 ईसवी के बीच निर्धारित किया गया है।

षष्टम् काल-

अतरंजीखेड़ा पुरातात्विक स्थल के इस काल का निर्धारण 350 से 1500 ईसवी के मध्य किया गया है। इस काल से उत्कृष्ट प्रस्तर प्रतिमाएँ मिली हैं। इस काल से गुप्तकालीन पुरावशेष भी प्राप्त हुए हैं, पर इनकी संख्या बहुत ही कम है। सामान्य रूप में इस काल को गुप्त राजपूत काल भी कहते हैं।

सप्तम काल-

इस काल का समय 1100 से 1650 निर्धारित किया गया है। यह अतरंजीखेड़ा (Ataranjikheda) का सबसे अन्तिम सांस्कृतिक काल है। इस काल में मृद्भाण्ड लखौरी ईंटों के साक्ष्य मिले हैं।

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