क्या प्राचीन भारत में इतिहास लेखन दृष्टिकोण का अभाव था ? | Historical sense in ancient indians in hindi | Best information UPSC

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डॉ० आर०सी० मजूमदार का मत है: “इतिहास लेखन के प्रति भारतीयों की विमुखता भारतीय संस्कृति का भारी दोष है। इसका कारण बताना सरल नहीं है। भारतीयों ने साहित्य की अनेक शाखाओं से सम्बन्ध स्थापित किया और उनमें से कई विषयों में विशिष्टता भी प्राप्त की, किन्तु फिर भी उन्होंने कभी गम्भीरतापूर्वक इतिहास लेखन की ओर ध्यान नहीं दिया।”

अल्बरूनी (Alberuni) ने भी लगभग ऐसे ही विचार प्रकट किए हैं, यथा: “हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की ओर अधिक ध्यान नहीं देते। वे घटनाओं को काल क्रम के अनुसार लिपिबद्ध करने में अत्यन्त असावधानी से काम लेते हैं और जब कभी ऐतिहासिक जानकारी के लिए उन पर दबाव डाला जाता है तो उत्तर देने में समर्थ न होने पर वे कोई कहानी सुनाना आरम्भ कर देते हैं।”

प्राचीन भारत में इतिहास लेखन की परंपरा :

Historical sense in ancient indians
Historical sense in ancient indians

इतिहासकार एक वैज्ञानिक की भाँति उपलब्ध सामग्री की समीक्षा करके अतीत का सही चित्रण करने का प्रयास करता है। उसके लिये साहित्यिक सामग्री, पुरातात्त्विक साक्ष्य और विदेशी यात्रियों के वर्णन सभी का महत्त्व है। प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिये पूर्णतः शुद्ध ऐतिहासिक सामग्री विदेशों की अपेक्षा अल्प मात्रा में उपलब्ध है। यद्यपि भारत में यूनान के हेरोडोटस या रोम के लिवी जैसे इतिहासकार हुए. अत: कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह मानसिक धारणा बन गई थी कि भारतीयों को इतिहास की समझ ही नहीं थी।

लेकिन, ऐसी धारणा बनाना भारी भूल होगी। वस्तुतः प्राचीन भारतीय इतिहास की संकल्पना आधुनिक इतिहासकारों की संकल्पना से पूर्णत: अलग थी। वर्तमान इतिहासकार ऐतिहासिक घटनाओं में कारण कार्य संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं लेकिन प्राचीन इतिहासकार केवल उन घटनाओं या तथ्यों का वर्णन करता था जिनमें आम जनमानस को कुछ सीखने को मिल सके।

महाभारत में इतिहास की जो संकल्पना दी गई है उससे भारतीयों की इतिहास विषयक संकल्पना उद्भाषित होती है। महाभारत के अनुसार ऐसी प्राचीन लोकप्रिय कथा जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की व्यावहारिक शिक्षा मिल सके ‘इतिहास’ कहलाती है।

प्राचीन भारत में भारतीय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक समझते थे। इसीलिये प्राचीन भारत का इतिहास राजनीतिक कम और सांस्कृतिक अधिक है। भारतीय इतिहासकारों का दृष्टिकोण पूर्णतया धर्मपरक था, किंतु धर्म के अतिरिक्त अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारण थे जिन्होंने भारत में अनेक आंदोलनों संस्थाओं और विचारधाराओं को जन्म दिया।

अत: भारतीय इतिहास का सार्वभौमिक स्वरूप जानने के लिये इन तथ्यों का अध्ययन करना आवश्यक है।

प्राचीन भारतीयों में इतिहास बोध (Historical sense in ancient Indians) :

कुछ लेखकों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि प्राचीन भारत के लोगों में ऐतिहासिक बोध था ही नहीं, किन्तु उपर्युक्त विचार को अब सामान्यतः स्वीकार नहीं किया जाता। डॉ० ए०बी० कीथ (A.B. Keith) जैसे विद्वान् भी यह स्वीकार करते हैं कि भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना का प्राचीन काल में भी अभाव नहीं था, इसका प्रमाण कुछ ग्रन्थों तथा तथ्यों से प्राप्त होता है। भारतीयों की प्राचीनता और उनकी विकसित सभ्यता के रूप से दृष्टि हटाकर उनमें ऐतिहासिक चेतना के अभाव को ढूँढ़ना हास्यास्पद होगा।”

किन्तु डॉ० कीथ यह भी कहते हैं कि “इतने विशाल संस्कृत साहित्य में इतिहास को कोई प्रमुख स्थान प्राप्त न हो सका और संस्कृत साहित्य के महान् युग में एक भी ऐसा लेखक नहीं हुआ जिसे समालोचनात्मक इतिहासज्ञ (critical historian) कहा जा सके। ” डॉ० कीथ ने इस तथ्य के विभिन्न कारण ढूँढ़ने की चेष्टा की है।

उसका विचार है कि यूनान पर होने वाले ईरानी आक्रमण ने जिस प्रकार हैरोडोटस (Herodotus) के इतिहास को प्रेरणा प्रदान की, वैसी प्रेरणा भारतीय राजनीतिक घटना-चक्रों से भारतीय विद्वानों को प्राप्त न हो सकी। भारत की जनता पर उस समय की राजनीतिक घटनाओं का इतना प्रभाव नहीं पड़ा कि उनमें सर्वसाधारण को भाग लेना पड़े।

ईसा पूर्व पहली शताब्दी में भारत पर होने वाले विदेशी आक्रमण सम्भवतः इतने महत्त्वपूर्ण न थे कि लोगों में राष्ट्रीय भावना जाग्रत कर सकते। यही बात सिकन्दर, यूनानियों, पार्थियों, शकों, कुषाणों तथा हूणों के आक्रमणों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। भाग्यवादी भारतीयों के विरक्त रहने का कारण यह विचार था कि सभी घटनाएँ उनकी बुद्धि और दूरदर्शिता से परे हैं। उन्होंने चामत्कारिक घटनाओं को दिव्य कर्म, इन्द्र-जाल और माया जाल स्वीकार किया।

भारतीय बुद्धि विशेष घटनाओं की अपेक्षा सामान्यता को अधिक महत्त्व प्रदान करती है। सुनी-सुनाई बातों और वास्तविकता के अन्तर को समझने की उन्होंने कभी चेष्टा न की। परिणामस्वरूप घटनाओं के क्रम की पूर्ण उपेक्षा कर दी गई और कालानुक्रम की ओर ध्यान न दिया गया।

प्राचीन भारत में भी होता था इतिहास लेखन | प्राचीन भारत में इतिहास लेखन दृष्टिकोण

आधुनिक इतिहासकारों ने इतिहास में केवल राजनीतिक तथ्यों का वर्णन करना ही अपना कर्त्तव्य नहीं समझा बल्कि उनके वर्णन में आम जनमानस भी उतना ही महत्त्व रखते हैं जितना कि सम्राटों अथवा साम्राज्यों के उत्थान और पतन। वह उन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं बौद्धिक परिवर्तनों का विश्लेषण एवं अध्ययन करता है, जिनके द्वारा मनुष्य उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके अपने जीवनकाल को पूर्व की अपेक्षा अधिक सुखमय बनाने का प्रयत्न करता है।

अतः प्रसिद्ध इतिहासकार कोसांबी के अनुसार उत्पादन के साधनों और उनके पारस्परिक संबंधों का तिथि क्रमानुसार अध्ययन करने से ही विकास के कालक्रम की विस्तृत जानकारी मिल सकती है।” उनके अनुसार इसके आधार पर हम यह जान सकते हैं कि जनसाधारण किस प्रकार अपना जीवन यापन करते थे। अतः हम कह सकते हैं प्राचीन भारत में इतिहास लेखन दृष्टिकोण काफी  व्यापक था।

प्राचीन भारतीय विद्वानों में ऐतिहासिक चेतना थी या नहीं ?

भारतीय विद्वानों का विचार यह है कि भारतीयों में निश्चय ही ऐतिहासिक चेतना विद्यमान थी। ऐतिहासिक निबन्ध की विशाल विविधता और अन्य अनेक तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना विद्यमान थी।

डॉ० पी०के० आचार्य का कथन है कि कलिंग के राजा खारवेल, रुद्रदमन, समुद्रगुप्त, कन्नौज के सम्राट् हर्ष और चालुक्य, राष्ट्रकूट, पाल तथा सेन वंशी राजाओं के शिलालेखों से विश्वसनीय तिथियों सहित पर्याप्त ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। इन अभिलेखों से तत्कालीन राजाओं और दान-दाताओं की वंशावलियों, राजाओं के कार्यों और दान की अवस्था का पता चलता है। इन शिलालेखों से ज्ञात होता है कि धर्मार्थ संस्थाओं के स्थापक कौन थे? उन्हें प्रतिष्ठित करने वाले पुरोहितों के विषय में भी जानकारी भी उन्हीं से प्राप्त होती है।

कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंशी राजाओं को बादामी के चालुक्य वंशी आरम्भिक राजाओं की जानकारी राजवंशीय अभिलेखागारों (archives) से ही प्राप्त हुई। दक्षिणी कोंकण के शीलहर राजाओं (Silaharas) ने अपने शिलालेखों तथा अपने शासक राष्ट्रकूट वंशी राजाओं के शिलालेखों की रक्षा की। उन्होंने राजावलियों और वंशावलियों को संकलित किया और उन्हें सुरक्षित रखा। पूर्वी चालुक्यों द्वारा दिए गए अनुदानों में वंश के सभी राजाओं के नाम दिए गए हैं जो वंश के संस्थापक से आरम्भ होते हैं।

कलिंग के पूर्वी गंग वंशी राजाओं ने अपनी वंशावलियों में तत्कालीन राजाओं का भी विस्तृत वर्णन किया है। नेपाल की एक लम्बी वंशावली में उस देश के राजाओं के नाम, राज्य-काल और सिंहासनारूढ़ होने की तिथियाँ दी गई हैं। उड़ीसा की वंशावलियों में 3102 ईसा पूर्व तक के कलियुग के राजाओं की लगातार सूची दी गई है। उनके राज्य काल की अवधियाँ ही नहीं बल्कि मुख्य घटनाओं की तिथियाँ भी दी गई हैं।

जैन-मतावलम्बियों के पास ‘पट्टावलियाँ’ हैं जिनमें वर्धमान महावीर की मृत्यु तक की सभी घटनाएँ लिखी हैं। पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में ऐसे भोज-पत्र हैं जिनमें भारत के प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में विश्वसनीय और सुनिश्चित बातें लिखी हैं। सर आर०जी० भण्डारकर और पीटरसन द्वारा संग्रहीत साहित्यिक पुस्तकों की भूमिकाओं और टिप्पणियों (colophons) में बहुत सी ऐतिहासिक तिथियाँ तथा अन्य सामग्री मिलती है।

सोमदेव ने लिखा है कि “उसने चैत्र शक् संवत् 881 (959 ई०) में अपनी कृति “यशस्तिलक पूर्ण की जब कृष्णराज देव चालुक्य राज्य करता था।” पम्प द्वारा रचित “पम्प भारत” अथवा “विक्रमार्जुन-विजय” में राजा अरिकेसरिन का उल्लेख किया गया है और उसके साथ उसकी गत सात पीढ़ियों का भी उल्लेख किया गया है। जल्हण ने देवगिरि के भिल्लम, सिंहोना, कृष्ण, मल्लुगी आदि यादव राजाओं का उल्लेख किया है।

निष्कर्ष :

इन सभी बातों से स्पष्ट है कि न केवल प्राचीन हिन्दुओं में बल्कि समस्त भारतीयों में इतिहास लेखन का व्यापक दृष्टिकोण था और उन्होंने अपने ढंग से इतिहास लेखन का कार्य भी किया था। हां अंतर इतना है कि बाद के इतिहासकार जहां तथ्यों और तिथियों को केंद्र मानकर उनका वर्णन करना ही इतिहास समझते हैं वहीं भारतीयों में इतिहास की एक व्यापक अवधारणा थी।

वे जितना राजाओं और राजवंशों की घटनाओं का वर्णन करना महत्वपूर्ण समझते थे उतना ही सामान्य जनमानस की समस्याओं और उनसे संबंधित अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं को अपने लेखन में स्थान दूत था। इस प्रकार निश्चय ही प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना थी जिससे प्राचीन इतिहास सम्बन्धी पर्याप्त सामग्री प्राप्त की जा सकती है।

धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र० 
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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