Bauddha dharma : छठी शती ईसा पूर्व का काल धार्मिक पुनर्जागरण काल के नाम से भी जाना जाता है। वर्णव्यवस्था मे आए जटिलता, ख़र्चीले वैदिक कर्मकांड के स्वरूप, ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को चुनौती देने वाले श्रमण परम्परा के क्षत्रिय और उन्हें मिलने वाले राजकीय संरक्षण के कारण नवीन नास्तिक संप्रदाय की उत्पत्ति हुई। जिनमें मुख्य रूप से गौतम बुद्ध द्वारा प्रवर्तित बौद्ध धर्म (Bauddha dharma), महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित जैन धर्म, मक्खलिपुत्त गोशाल द्वारा स्थापित आजीवक संप्रदाय प्रमुख नास्तिक संप्रदायों में से एक है। आज बौद्ध धर्म एक अंतर्राष्ट्रीय धर्म है जिसके अनुयायी विश्व के अनेक देशों में फैले हुए है।
विरक्ति : Gautam buddha
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाव-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई । दास दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकी वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे. बाल पक गए थे. शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धरधर कॉपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को • निकला तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। वेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से वल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोव रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि धिक्कार है जवानी को जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।
गौतम बुद्ध का गृह त्याग :
पुत्र के जन्म के पश्चात् 29 वर्ष की आयु में बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के लिए अपना घर त्याग दिया, बौद्ध ग्रंथों में इसे महाभिनिष्क्रमण कहा गया है। इस समय महात्मा बुद्ध का सारथि चन्ना, उनका घोड़ा कंथक उनके साथ थे। लगभग 6 वर्षो तक बुद्ध भटकते रहे. इस दौरान एक सन्यासी, पहले आलार कालाम ने उन्हें ध्यान योग सिखाया, इसके बाद उन्होंने राज-गृह में उठक अथवा रुद्रक रामपुत से शिक्षा ग्रहण की दो आचार्यों से शिक्षा प्राप्त करने बाद भी उन्हें संतोष न हुआ| सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-वावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर कौंटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग : एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दोकि उनका सुरीला स्वर हीं न निकले। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ यह बात सिद्धार्थ को इतना जँच गयी कि वे मान गए कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है और इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है। उनके इस बदले हुए व्यवहार को देखकर उनके साथ कठोर तप साधना करने वाले पाँच अन्य सन्याशी मित्रो ने उनका साथ छोड़ दिया ।
बुद्धत्व या ज्ञान की प्राप्ति : Bauddha dharma
• ३५ वर्ष की आयु में वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की तथा सुजाता नांगक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआवह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मन्नत पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की वीर भरकर पहुँची सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ बुद्ध’ कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया। गया के निकट महात्मा बुद्ध के एक पीपल या बोधि (pipul or कि चरम शांति मनुष्य के अपने हृदय में ही है और वहीं इसे खोजा जाना चाहिये, इसे संबोधि कहा जाता है। ज्ञान प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ बुद्ध कहलाये बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति को निर्वाण कहा गया है।
महा धर्मचक्रप्रवर्तन : बौद्ध धर्म का इतिहास
महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश वाराणसी के निकट सारनाथ मे ब्राह्मण योगियों (आञ्ज, अस्सजि, भद्धिय, कौडिन्य और वप्प) को दिया, बौद्ध परम्पराओं में इसे धर्मचक्र प्रवर्तन (dharmacakra-pravartana) के नाम से जाना जाता है जबकि महायान परम्परा के अनुसार द्वितीय धर्म प्रवर्तन गृद्धकुत पर्वत (रत्नागिरी) पर दिया गया। सारनाथ में ही बौद्ध संघ की स्थापना हुई महात्मा बुद्ध द्वारा पहले दीक्षित गए शिष्यों में राजगीर के सारिपुत्र और मोग्गलान प्रसिद्ध हैं। महात्मा बुद्ध के अन्य शिष्यों में आनंद (मुख्य शिष्य एवं साथी), कस्सप या कश्यप (सर्वाधिक शिक्षित), उपाली (विनय का विद्वान) और एक धनी युवक यश प्रमुख हैं। बुद्ध के समय में अनेक राजाओं जैसे कोशल के प्रसेनजीत तथा मगध के बिम्बिसार एवं अजातशत्रु, उदयन आदि ने उनकी शिक्षाओं को मान्यता दी और उनके शिष्य बने।
बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार :
ज्ञान प्राप्ति के बाद भी महात्मा बुद्ध बोधगया नामक स्थान पर लगभग 7 सप्ताह तक रहे तत्पश्चात उन्होंने अपने ज्ञान को प्रसारित करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपना मत लोगों तक पहुँचाना प्रारम्भ किया और इस उद्देश्य से वे नगर नगर में भ्रमण करने लगे। वे वर्षा ऋतु के 4 मास तक किसी विहार में विश्राम करते थे तथा शेष 8 मास तक वे लोगों तक जा जाकर लोगों को अपने नवप्रवर्तित धर्म से जोड़ते थे।
उन्होंने अपने जीवन के 40 वर्षों तक मानव जीवन को नया संदेश दिया और बौद्ध धर्म (Bauddh dharm) का प्रचार प्रसार किया। इस बीसीज उन्होंने तत्कालीन प्रभावशाली शासकों जैसे- बिम्बिसार, आजातशत्रु, प्रसेनजित, अनाथपिंडक आदि तथा धनी व्यापारियों को न केवल बौद्ध धर्म की दीक्षा प्रदान की बल्कि उनसे राजकीय संरक्षण भी प्राप्त किया।
महात्मा बुद्ध का अंत : Gautam buddha history
जीवन के अंतिम काल में बुद्ध धर्म का प्रचार करते हुए कुशीनगर (आधुनिक कसिया, जि० देवरिया, उत्तरप्रदेश) पहुँचे। वहीं चुन्द नामक सुनार के घर भोजन करने के पश्चात (संभवतः सूअर का मांस खाने से’) उदरविकार पैदा हुआ और 80 वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु (महापरिनिर्वाण) हो गई। अपने जीवनकाल में ही बुद्ध ने बौद्धधर्म को स्थायित्व प्रदान कर दिया था। ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष, सबके लिए संघ के द्वार खुले हुए थे। उनकी मृत्यु के पश्चात भी नए धर्म का निरंतर विकास होता रहा और आज यह एक अंतरराष्ट्रीय धर्म के रूप में विश्व पटल पर विद्यमान है।