हड़प्पा सभ्यता की कला (Hadappa sabhyata ki kala) के अन्तर्गत प्रस्तर, धातु एवं मृणमूर्तियों का उल्लेख किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त मुहरें, मनके और मृद्भाण्ड एवं लघु कलाएँ इसके सौन्दर्यबोध को इंगित करती हैं। ये कलाएँ हड़प्पा सभ्यता के लोगों की सुरुचि की परिचायिका हैं। मेसोपोटामिया और मिस्र की मूर्तिकला से सैंधव सभ्यता की मूर्तिकला की तुलना नहीं की जा सकती है, क्योंकि सैंधव सभ्यता के मूर्तिकला की उत्कृष्ट मूर्तियाँ तत्कालीन तकनीकी प्रगति की परिचायिका हैं।
मृण्मूर्तियों तथा विस्मयकारी मुहरों का निर्माण अत्यंत कुशलता के साथ किया गया है। हड़प्पा सभ्यता की कला एवं शिल्प की दृष्टि से प्रागैतिहासिक युग का स्वर्णिम युग है। उनकी मृण्मूर्तियाँ, धातु मूर्तियाँ, प्रस्तर-मूर्तियाँ, मृद्भाण्ड कला, मुहरें तथा मनके विशेष उल्लेखनीय हैं
(1) हड़प्पा सभ्यता की वास्तुकला- हड़प्पा सभ्यता की कला
हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के भग्नावशेषों से यह सिद्ध होता है कि यहाँ भवन निर्माण कला का समुचित विकास हुआ था। यहाँ के भवनों में बाहरी तड़क-भड़क का अभाव है और इनके आरामदेह, आकर्षक तथा मजबूत होने में कोई सन्देह नही। खुदाई से चार प्रकार के भवनों का आभास मिलता है-नागरिकों के मकान, सार्वजनिक भवन, सार्वजनिक स्नानागार तथा ढकी हुई नालियाँ पायी जाती हैं। मकानों की नींवे गहरी और चौड़ी तथा दीवारें मोटी और पकायी हुई ईंटों से बनायी गयी है। घरों की फर्श पक्की ईंटों की बनी है। प्रत्येक घर में दरवाजे और खिड़कियाँ हैं तथा ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों के टूटे अंश अब भी दिखायी पड़ते है। प्रत्येक घर में आँगन होते थे और आँगन के चारों ओर कमरे बने होते थे।
मोहनजोदड़ों में एक ही विशाल भवन का अवशेष मिला है जो राजप्रासाद-सा प्रतीत होता है। हड़प्पा में अन्य खण्डहरों के अवशेष भी मिले हैं। इन भवनों की संरचना से प्रतीत होता है कि सैंधव सभ्यता के लोग वास्तुकला में काफी प्रगति कर चुके थे।
(2) हड़प्पा सभ्यता की मूर्तिकला- Hadappa sabhyata ki kala
हड़प्पा सभ्यता (Harappan art in hindi) में विभिन्न प्रकार की धातुओं की मूर्तियाँ बनायी जाती थी। खुदाई से मिले प्रस्तर मूतियाँ, मृण्मूर्तियाँ, धातु मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं।
हड़प्पा सभ्यता में मृण्मूर्तियाँ विशेष लोकप्रिय थीं। ये अधिकांश मूर्तियाँ हस्तनिर्मित हैं। किन्तु कुछ मूर्तियाँ साँचे में बनी हैं। इन मूर्तियों को अच्छी तरह पकाया गया है। इस काल की मृण्मूर्तियों को तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं—(1) नारी मृणमूर्तियाँ (2) पुरुष मृण्मूर्तियाँ तथा (3) पशु-पक्षी मृणमूर्तियाँ
नारी मृण्मूर्तियों की हड़प्पा सभ्यता में बहुलता है। ये मूर्तियाँ उर्ध्वभाग में वस्त्रालंकृत हैं, जबकि मेसोपोटामिया की नारी मूर्तियाँ नग्न हैं। इन मूर्तियों के सिर पर पंख की भाँति आभूषण हैं जिसके फँदनेदार फीते लटके हैं। कुछ मूर्तियों के सिर उष्णीश हैं। कण्ठाहार, मेखला, कर्णठप्पे, कर्णफूल, चूड़ियों तथा अन्य आभूषणों से अलंकृत इन नारी मृण्मूर्तियों का मातृदेवी कहा गया है। कुछ मूर्तियों में तो वह शिशु को कोटि से सटाये या स्तनपान कराती हुई भी बनायी गयी है। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों से पलंग पर लेटी मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
पुरुष मृण्मूर्तियों पुरुषों से हीनतर हैं। ये मूर्तियाँ प्रायः नग्न हैं। कुछ मूर्तियाँ दाढ़ीयुक्त हैं। कुछ पुरुष मूर्तियाँ तो शृंगयुक्त हैं, कुछ सींगदार मुखौटे भी उपलब्ध हुए हैं। मोहनजोदड़ों की एक पुरुष मूर्ति के दो सिर हैं। साँचे में बने एक समान हैं। दो मूर्तियों के पद नृत्य मुद्रा में हैं।
पशुओं में बैल, भैंसा, बकरी, कुत्ता, हाथी, सूअर, गैंडा, भालू, बन्दर तथा खरगोश इत्यादि की मृण्मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। सरकोटदा से एक पहियेदार बैल की मूर्ति प्राप्त हुई है। रंगपुर तथा लोथल से अश्व-मूर्तियों की उपलब्धि का प्रतिपेदन किया गया है। गिलहरी एवं सर्प की मूर्तियाँ भी विशेष उल्लेखनीय हैं। जलचर जीवों में मत्स्य, कच्छप, घड़ियाल तथा पक्षियों में मोर, तोता, कबूतर, गौरैया, मुर्गा, चील तथा उल्लू की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
सैंधव संस्कृति में पाषाण का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है। हड़प्पा से दो पुरुष पाषाण मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। एक मूर्ति वत्स को प्राप्त हुई है जो लाल बलुए पत्थर की है तथा दूसरी मूर्ति रामसाहनी को प्राप्त हुई थी जो काले पत्थर की है। कुषाण पाषाण की मूर्ति नृत्यरत है। मोहनजोदड़ों से 11 मानव पाषाण मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इन्हीं में वह प्रसिद्ध योगी की मूर्ति है जो अर्द्धान्मीलित नेत्र, ध्यानमुद्रा, नासिकाग्र दृष्टि दाढ़ीयुक्त मूँछरहित तथा त्रिफुल्ली युक्त शाल ओढ़े है। मिस्र, क्रीट तथा मेसोपोटामिया में भी इसी प्रकार के त्रिफुल्ली अलंकरण प्राप्त हुए हैं। एक मूर्ति की क्रीट पारदर्शी वस्त्र है। ये मूर्तियाँ चूने-पत्थर, श्वेत पत्थर तथा बलुए पत्थर से बनी है।
सैंधवयुगीन धातु मूर्तियाँ मोहनजोदड़ो तथा लोथल से प्राप्त हुई हैं। मोहनजोदड़ों की साँचे में ढली 14 सेमी. लम्बी कांस्य की नर्तकी मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है। यहाँ से कांस्य का भैंसा भेंड़ जैसी पशु मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। लोथल से ताम्र के बैल, कुत्ता, खरगोश और चिड़ियों की मूर्तियों में कृत्ते की सर्वाधिक कलात्मक हैं।
(3) मुहर निर्माण कला- Sindhu ghati sabhyata ki kala
सैंधव सभ्यता से अब तक लगभग 2000 से अधिक मुहरें प्राप्त हुई हैं जो कला, धर्म, लिपि की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं। ये मुहरें सिलखड़ी, काचली, गोमेद, चर्ट तथा मिट्टी की बनी हैं। लोथल तथा देशलपुर से ताम्र मुहरें भी प्राप्त हुई हैं। बेलनाकार, धनाकार, वर्गाकार, आयताकार, वर्तुलाकार तथा वृत्ताकार रूप में उपलब्ध इन मुहरों पर किसी पशु का अंकन तथा संक्षिप्त लेख उत्कीर्ण हैं मुहरों पर अधिकांशतः बिना डील वाले बैल का अंकन है। एक शृंगी पशु भी अधिकांश मुहरों पर अंकित है।
अन्य पशुओं में हाथी, व्याघ्र, गैण्डे तथा गलककम्बलयुक्त डीलदार साँड विशेष उल्लेखनीय हैं। पशुपति आकार वाली मुहर तो सर्वविदित ही है। इसमें त्रिमुखी पुरुष पद्मासन मुद्रा में बैठा है, सिर पर सींग है, कलाई से कन्धे तक चूड़ियाँ बनी हैं। दाहिने व्याघ्र तथा हाथी एवं बायें भैंसा एवं गैंडा की आकृतियाँ हैं। इसकी चौकी के नीचे दो हिरण बैठे हैं। मोहनजोदड़ों एवं लोथल की कुछ मुद्राएँ नौकाकृत हैं। कुछ मुहरों पर कई पशु, पीपल के वृक्ष तथा स्वास्तिक एक साथ बने हैं।
(4) सिंधु सभ्यता की लेखन कला-
सैंधव निवासी लेखन कला से परिचित थे। इनकी मुहरों, ताम्रपट्टों, यहाँ तक कि कालीबंगा एवं सुरकोटदा के मृद्भाण्डों पर अनेक लेख मिले हैं। दुर्भाग्य से कोई विस्तृत लेख नहीं उपलब्ध हुआ है। सबसे बड़ा लेख मात्र 17 अक्षरों का समूह है।
बी. बी. लाल की धारणा हे कि यह लिपि दाहिने से बायें की ओर लिखी जाती थी। अभी तक किसी भी लिपि विशेषज्ञ को इसके उद्बाचन में पूर्ण सफलता नहीं प्राप्त हुई है। डॉ.एस.आर.राव जैसे कुछ विद्वान निरन्तर इसे पहचानने एवं पढ़ने में प्रयत्नशील हैं। आशा है कि कभी-न-कभी यह लिपि पठनीय हो जायेगी।
(5) सैंधव मृद्भाण्ड कला-
हड़प्पा सभ्यता के स्थलों से उत्खनन से अच्छी तरह पकाये गये मृद्भाण्डों के ठीकरे प्राप्त हुए हैं जो 2.5 सेमी. मोटे मृत्तिका चद्दर के बने हैं। मी. ऊँचे तथा 1/2 मी. चौड़े मृद्भाण्ड बनाकर सैंधव निवासियों ने धातु पात्रों का रूप प्रस्तुत किया था। छिद्रयुक्त जार, छोटी बड़ी तश्तरियाँ तथा बड़े-बड़े कुंडे उत्खनन से उपलब्ध हुए हैं। घड़े, कलश, तसले, थालियाँ, प्याले तथा नाँद के निर्माण में ये सिद्धहस्त थे।
निष्कर्ष :
इनके मृद्भाण्ड आँवे में पकाये जाते थे जिसके अवशेष मोहनजोदड़ों से प्राप्त हुए हैं। उन्हें माँड़ों को रँगने का भी ज्ञान था। अधिकांश मृद्भाण्ड लाल या गुलाबी रंग के हैं जिनके ऊपर लाल रंग का चमकदार लेप है। प्रारम्भिक बर्तन अलंकरणविहीन है किन्तु बाद में उन्हें अलंकरण करने की कला भी ज्ञात हो गयी। विभिन्न ज्यामितीय गोकृतियों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों एवं लिपियों से इन्हें अलंकृत किया गया है। पीपल, खजूर, ताड़, नीम तथा केला जैसे पशुओं का चित्रण इनके मृद्भाण्डों पर होता था।