Bharat ki bhaugolik visheshtaen : भारत की प्राचीन सभ्यता स्पष्ट रूप से एक सीमांकित उपमहाद्वीप में उदित हुई जिसकी उत्तर दिशा को संसार की विशालतम एवं सर्वोच्च पर्वत श्रेणी हिमालय की शृंखला घेरे हुए है जो अपने पूर्वी तथा पश्चिमी विस्तारों के साथ भारत को शेष एशिया तथा संसार से पृथक करती है। अवरोध की यह शृंखला कभी भी अलंग्य नहीं रही और सभी युगों में परिवासी एवं व्यापारी दोनों ही ऊंचे और निर्जन दरों के मार्ग से भारत में आते रहे, जबकि भारतीयों ने भी व्यापार तथा संस्कृति का विस्तार अपनी सीमाओं के बाहर इन्हीं मार्गों से किया। भारत की पृथकता किसी समय भी पूर्ण नहीं रही और इसकी अपूर्व सभ्यता के विकास पर पर्वत श्रेणियों के प्रभाव का मूल्यांकन प्रायः आवश्यकता से अधिक किया गया है।
हिमालय: Bharat ki bhaugolik visheshtaen
भारत के लिए हिमालय पर्वत का महत्त्व उसे पृथकता प्रदान करने में उतना नहीं है जितना कि इस सत्य में है कि वह उसकी दो महान सरिताओं का उद्गम स्थल है। वर्षा ऋतु में बादल उत्तर और पश्चिम की ओर उमड़ते हुए अपनी समस्त आर्द्रता इसके ऊंचे शिखरों पर उड़ेल देते हैं, जहाँ से सतत् द्रवित हिम द्वारा पोषित असंख्य धाराएँ दक्षिण की ओर बहती हैं और सिन्धु तथा गंगा की महान सरिता प्रणालियों में मिल जाती हैं। अपने मार्ग में वे कश्मीर और नेपाल की घाटियों जैसे छोटे और उपजाऊ पठारों में होकर बड़े मैदान में निकलकर बहने लगती हैं।
इन दो सरिता-प्रणालियों में से सिन्धु नदी जो अब मुख्य रूप से पाकिस्तान में है, आदिम सभ्यता का केन्द्र रही है और इसी ने देश को ‘हिन्दुस्तान’ नाम प्रदान किया है।
[भारतवासी इस नदी को ‘सिन्धु’ नाम से जानते थे और फारसवासियों ने ‘स’ के उच्चारण में कठिनाई होने के कारण इसे ‘हिन्दु’ कहकर पुकारा फारस से यह शब्द यूनान देश में पहुंचा जहाँ सारा भारत देश इस पश्चिमी नदी के नाम से विख्यात हुआ। प्राचीन भारतीय अपने उपमहाद्वीप को जम्बू द्वीप (जम्बू वृक्ष का महाद्वीप) अथवा भारतवर्ष (पौराणिक सम्राट भरत के पुत्रों का देश के नाम से पुकारते थे अन्तिम नाम आंशिक रूप में वर्तमान भारतीय सरकार द्वारा भी अपनाया गया है। मुस्लिम आक्रमण के साथ फारसी नाम ‘हिन्दुस्तान’ के रूप में आया तथा प्राचीन धर्म को मानने वाले निवासी हिन्दू कहलाये।
उपजाऊ मैदान:
पंजाब का उपजाऊ मैदान, जिसे सिन्धु को पाँच सहायक नदियाँ- झेलम, चिनाब, रावी, व्यास तथा सतलज आप्लावित करती हैं, ईसा से दो सहस्र वर्ष पूर्व उस उच्च सभ्यता का केन्द्र रहा है, जो सिन्धु के निचले मार्ग द्वारा समुद्र तक फैल गयी। सिन्धु नदी का निचला भाग जो अब पाकिस्तान में सिन्ध प्रान्त में है, अब ऊजड़ मरुभूमि से होकर बहता है, यद्यपि किसी समय वह भली प्रकार जलप्लावित एवं उपनाऊ प्रदेश था।
थार अथवा राजस्थान का मरुस्थल तथा छोटी-छोटी पहाड़ियाँ सिन्धु तथा गंगा के मैदानों को विभाजित करती हैं। दिल्ली के उत्तर-पश्चिम का सिंचित भाग कम से कम ईसा से एक सहस्र वर्ष पूर्व से ही घमासान युद्धों का रंगमंच रहा है। गंगा के मैदान का अर्द्ध-पश्चिमी भाग सदैव से भारत का आकर्षण केन्द्र बना रहा है।
इस क्षेत्र में दिल्ली से पटना तक का भाग जिसमें दोआब अथवा गंगा तथा इसकी सहायक नदी यमुना के मध्य का प्रदेश सम्मिलित है, सदैव से भारत का महत्त्वपूर्ण स्थल रहा है। इस प्रदेश में, जो कभी आर्यावर्त अर्थात् आर्यों की भूमि के नाम से प्रसिद्ध था, भारत की शास्त्रीय संस्कृति का निर्माण हुआ था। यद्यपि पीढ़ियों से चली आयी कृषि की अवैज्ञानिक प्राचीन परिपाटी, वृक्ष उन्मूलन एवं कुछ अन्य बातों ने अब इसकी उर्वरा शक्ति को क्षीण कर दिया है, तथापि पहले कभी यह संसार के सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्रों में से था तथा इसने कृषि प्रारम्भ होने के समय से ही अपनी उपज द्वारा एक विशाल जनसंख्या का भरण-पोषण किया। । बंगाल में गंगा अपने मुहाने पर एक बड़ा डेल्टा बनाती है, जिसने ऐतिहासिक काल में भी समुद्रतट पर पर्याप्त अधिकार रखा है। यहाँ पर यह ब्रह्मपुत्र नदी से मिलती है, जो तिब्बत से भारतीय सभ्यता के सुदूर-पूर्वी केन्द्र असम की घाटियों में होकर बहती है।
पर्वतीय भू-कटिबन्धीय क्षेत्र:
बड़े मैदान का दक्षिणी भाग एक पर्वतीय भू-कटिबन्ध है जो विन्ध्याचल की शृंखलाओं तक फैला है। ये किसी भी प्रकार हिमालय की श्रेणियों के समान प्रभावशाली नहीं हैं परन्तु ये प्राचीन काल में ‘हिन्दुस्तान’ हैं के नाम से प्रसिद्ध उत्तरी भाग तथा बहुधा ‘डकेन’ (जिसका अर्थ केवल दक्षिण है) नाम से प्रसिद्ध प्रायद्वीप के मध्य एक रोक का कार्य करती रही है। ‘डकेन’ शब्द का प्रयोग कभी-कभी सम्पूर्ण दक्षिणी प्रायद्वीप के लिए परन्तु अधिकतर दक्षिण भारत के उत्तरी तथा मध्यवर्ती प्रदेशों के लिए ही होता है। दक्षिण का अधिकांश भाग शुष्क तथा पर्वतीय पठार है जो दोनों ओर पश्चिमी तथा पूर्वी घाटों की पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ है। इन दोनों श्रेणियों में से पश्चिमी घाट अधिक ऊँचा है। अतः दक्षिण की अधिकतर नदियाँ जैसे महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी पूर्व की ओर बहकर समुद्र में मिलती हैं।
केवल दो बड़ी नदियाँ नर्मदा और ताप्ती पश्चिम की ओर बहती हैं। अपने मुहानों के समीप दक्षिण की नदियाँ मैदानों में होकर बहती है जो गंगा के मैदानों से छोटे हैं, परन्तु जनसंख्या में लगभग उन्हीं के समान हैं। प्रायद्वीप का दक्षिणी-पूर्वी भाग एक बड़ा मैदान है, जो तमिल प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध है, जिसकी कभी अपनी संस्कृति थी और जो आज भी पूर्णतः उत्तरी भारत की संस्कृति से सामंजस्य नहीं रखती। दक्षिणी भारत के द्रविड़ आज भी ऐसी भाषाएँ बोलते हैं जिनका उत्तरी भाषाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। दोनों भाषाओं के वर्ग पृथक हैं फिर भी उत्तरी तथा दक्षिणी भाषाओं के बीच पर्याप्त पारस्परिक सम्मिश्रण रहा है। भौगोलिक दृष्टि से श्रीलंका भी भारत का विस्तार ही है। इसके उत्तरी मैदान दक्षिणी भारत के मैदानों के तथा इसके मध्य के पर्वत पश्चिमी घाट के समरूप हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप :
यह उपमहाद्वीप उत्तर में कश्मीर से और दक्षिण में कुमारी अन्तरीप तक लगभग 2,000 मील लम्बा है और इसीलिए इसकी जलवायु में अतीव भिन्नता पायी जाती है। हिमालय क्षेत्र शीत-प्रधान है जिसमें यदाकदा हिमपात भी हो जाता है। उत्तरी मैदान जाड़ों में ठण्डे रहते हैं, दिन तथा रात के तापमान में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है जबकि ग्रीष्म ऋतु प्रायः असह्य होती है। ऋतु के अनुसार दक्षिण के तापमान में कम परिवर्तन पाया जाता है, यद्यपि पठार के अधिक ऊँचे भागों में शरद ऋतु की रातें शीतल होती हैं। तमिल प्रदेश निरन्तर गरम रहता है, परन्तु इसका तापमान उत्तरी मैदानों के ग्रीष्म के तापमान के समान कभी नहीं बढ़ता।
भारतीय जलवायु की सबसे बड़ी विशेषता यहाँ की मानसूनी वर्षा है। पश्चिमी घाट तथा श्रीलंका के कुछ भागों के अतिरिक्त, अक्टूबर से मई तक केवल नाममात्र को वर्षा होती है। अतः कृषि सम्बन्धी कार्य नदियों तथा स्रोतों के जल के विधिवत नियन्त्रण से ही हो सकता है तथा शीतकालीन उपज सिंचाई के द्वारा है ही सम्भव है। अप्रैल मास के अन्त तक फसल पक जाती है। गर्मियों में मैदानों का तापमान 110° फा. अथवा इससे भी अधिक बढ़ जाता है और तीव्र लू चलने लगती है, पतझड़ होने लगता है, घास पूर्णतः झुलस जाती है, वन्य पशुओं की जलाभाव से अधिक संख्या में मृत्यु होने लगती है। कार्य में शिथिलता आ जाती है तथा दिन में सन्नाटा छा जाता है।
तब सुदूर गगन में मेघ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और अल्पकाल में ही सागर तट से उमड़-घुमड़कर समस्त आकाश को अपनी सघन राशि से आच्छादित कर देते हैं। अन्त में जून मास में मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो जाती है और वायुमण्डल गर्जन-तर्जन से ध्वनित हो उठता है। तापमान शीघ्रता से कम हो जाता है और थोड़े ही समय में वसुन्धरा हरी-भरी एवं प्रफुल्लित हो उठती है। पशु, पक्षी तथा कीटाणु पुनः प्रकट हो जाते हैं, वृक्ष नव पल्लव धारण करते हैं तथा पृथ्वी दूर्वाच्छादिता हो जाती है। थोड़े-थोड़े विराम के उपरान्त मूसलाधार वर्षा दो मास तक निरन्तर होती रहती है और तत्पश्चात धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। वर्षा के दिनों में यात्रा एवं अन्य बाह्य कार्य करना दुरूह हो जाता है। प्रायः वर्षा ऋतु के बाद महामारियों का प्रकोप भी होता है, परन्तु इन कठिनाइयों के होने पर भी भारतीय विचारधारा में मानसून के आगमन का उतना ही में स्वागत होता है जितना यूरोप में वसन्तागने का। यूरोप में साधारणतः मेघों की गरजन एवं बिजली की कड़क अशुभ लक्षण माने जाते हैं परन्तु भारतीयों के लिए वे भय का कारण न बनकर, हृदय में वर्षा के प्रति स्वागत की भावना उत्पन्न करते हुए, कल्याण एवं सौभाग्यसूचक समझे जाते हैं।
प्राय: यह कहा जाता है कि भारत में प्रकृति की स्थिति एवं भारत का मानसून पर पूर्णतः आश्रित होना देशवासियों के चरित्र-गठन में सहायक हुआ है। आज भी बाढ़, अकाल एवं प्लेग जैसे महान प्रकोपों का सामना करना कठिन है और अतीत में तो उनका नियन्त्रण प्रायः असम्भव ही था। अनेक अन्य पुरातन सभ्यता वाले देशों जैसे यूनान, रोम और चीन के निवासियों को कठोर शीत से ही सन्तुष्ट होना पड़ता था जिससे उन्हें दृढ़ता एवं साधन-सम्पन्नता की प्रेरणा मिली। इसके विपरीत, भारत के ऊपर प्रकृति के वरदहस्त की छाया थी जो मानव को जीवनयापन की सामग्री देकर प्रतिकार में कुछ भी आशा नहीं करती परन्तु जिसे अपने भीषण प्रकोप में किसी भी मानव प्रयत्न द्वारा शान्त नहीं किया जा सकता। अतः यह कहा जाता है कि भारतीय चरित्र इसी कारण शान्तिप्रिय एवं भाग्यवादी तथा जीवन के सुख-दुख को बिना किसी आपत्ति के सहन करने का अभ्यस्त बन गया है।
निष्कर्ष:
इसमें सन्देह है कि यह निर्णय कहाँ तक उचित है। यद्यपि जीवन के प्रति शान्तिप्रियता का तत्त्व प्राचीन भारतीय विचारधारा में निश्चित रूप से विद्यमान था, और आज भी है परन्तु नीतिज्ञों ने इसे कदापि स्वीकार है नहीं किया। प्राचीन भारत तथा लंका के महान साहसिक कार्य, उनके सिंचाई के महान साधन, भव्य मन्दिर एवं विशाल क्रमबद्ध सैनिक आक्रमण, देशवासियों की निष्क्रियता की ओर संकेत नहीं करते हैं। यदि भारतीय चरित्र पर जलवायु का कोई प्रभाव रहा है तो हमारा विश्वास है कि वह सुविधा और सरलता के प्रति प्रेम का विकास अर्थात् प्रकृति द्वारा मुक्त रूप से प्रदत्त सरल आनन्द के प्रति आसक्ति ही है। इस प्रवृत्ति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया एक और आत्मत्याग और संन्यास की भावना तथा दूसरी ओर समय-समय पर कठोर श्रम-साध्य चेष्टा रही।
▪︎भारत की भौगोलिक विशेषताएँ संक्षिप्त विवरण
▪︎ क्या प्राचीन भारत में इतिहास लेखन दृष्टिकोण का अभाव था ?
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