सौर मण्डल (Solar system) का अभिप्राय सूर्य तथा उसके परिवार से है। सौर मण्डल का केन्द्र सूर्य है। सूर्य के चारों ओर उसके आठ ग्रह बौने ग्रह, क्षुद्र ग्रह, उप ग्रह, उल्का, धूमकेतु आदि आकाशीय पिण्ड परिक्रमा करते हैं।
Solar system | सौर मण्डल
सौर मण्डल के अन्तर्गत निम्नलिखित सम्मिलित हैं—
ग्रह (Planets)- बुध (Mercury), शुक्र (Venus), पृथ्वी (Earth), मंगल (Mars), बृहस्पति (Jupiter), शनि (Saturn), अरुण (Uranus), वरुण (Neptune ) |
बौने ग्रह (Dwarf planets)- यम ( Pluto), केरन (Charon), इरिस (Iris) तथा सिरीस (Ceres) |
उपग्रह (Satellites)- विभिन्न ग्रहों के अब तक ज्ञात 150 से अधिक उपग्रह ।
क्षुद्रग्रह (Asteroids)- मंगल तथा बृहस्पति की कक्षाओं के मध्य अनुमानतः एक लाख क्षुद्रग्रह जिनमें सिरीस, वेस्टा, इरोस, अपोलो तथा इकारस प्रमुख हैं।
धूमकेतु (Comets)-हजारों की संख्या में धूल एवं गैस के पिण्ड ।
उल्का (Meteoroids)- लोहे तथा पत्थरों के पिण्ड।
अन्तर्ग्रहीय धूल (Interplanetary dust)- एवं विद्युतीय रूप से निवेशित गैस (electrically charged gas) जिसे ‘प्लाज्मा’ (Plasma) कहते हैं।
अन्तर्ग्रहीय अन्तरिक्ष (Interplanetary Space)
आयतन की दृष्टि से सम्पूर्ण सौर मण्डल एक रिक्त स्थान दृष्टिगोचर होता है। यह रिक्त स्थान ही अन्तर्ग्रहीय माध्यम (interplanetary medium) है। इस रिक्त स्थान (void) में ऊर्जा के विभिन्न रूप तथा अन्तर्ग्रहीय धूल एवं अन्तर्ग्रहीय गैस सम्मिलित हैं। अन्तर्ग्रहीय धूल में सूक्ष्मदर्शी ठोस कण सम्मिलित होते हैं।
अन्तर्ग्रहीय गैस तथा निवेशित कणों का अधिकांशतः सूर्य से आने वाले प्रोटोन तथा इलेक्ट्रॉन प्लाज्मा का ) सतत प्रवाह है, जिसे सौर्यिक पवन (solar wind) कहा जाता है। सौर्यिक पवनों का धूमकेतु की पूँछ (tail) पर बहुत प्रभाव पड़ता है। • इन सौर्थिक पवनों का अन्तरिक्ष यानों की गति, पृथ्वी की संचार प्रणाली, विद्युतीय-प्रेषण आदि पर भी प्रभाव पड़ता है। सौर्यिक पवनों की गति पृथ्वी की कक्षा के निकट लगभग 400 घण्टे (Ko प्रति सेकण्ड होती है। वह बिन्दु जहाँ सौयिक पवन अन्तर्ग्रहीय माध्यम से मिलती है, ‘हीलियो-पॉज़’ (Helio-pause) कहलाता है, जो एक लगभग गोलाकार काल्पनिक रेखा है जहाँ सूर्य का प्रभाव समाप्त होता है।
हीलियो-पॉज़ की सीमा के भीतर अन्तरिक्ष जिसमें सूर्य तथा सूर्य का परिवार स्थित है, हीलियो मण्डल’ (Helio sphere) कहलाता है। सूर्य का चुम्बकीय क्षेत्र अन्तर्ग्रहीय अन्तरिक्ष की ओर विस्तृत है। सौर्यिक चुम्बकीय क्षेत्र (solar magnetic field) ग्रहों के निकटवर्ती क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण अन्तर्ग्रहीय अन्तरिक्ष में प्रभावी होता है।
क्वीपर पेटी (Kuiper Belt) : solar system information in hindi
क्वीपर-पेटी वरुण (Neptune) की कक्षा के पार, सूर्य से लगभग 30 से 100 खगोलीय यूनिट (astronomical unit) के मध्य विस्तृत एक तश्तरीनुमा (disc like) पेटी है, जिसमें अनेक छोटे हिम पिण्ड स्थित हैं। इस पेटी का नामकरण क्वीपर (Gerard Kuiper) के नाम पर किया गया, जिसने 1951 में खोज की थी। इस विशाल गोलाकार ‘मेघ’ को अब ‘ऊर्त मेघ’ (Oort cloud) के नाम से जाना जाता है। इसमें अरबों धूमकेतु बाह्यतम ग्रह से बहुत दूर, सूर्य की परिक्रमा करते हैं। ‘ऊर्त मेघ’ सौर मण्डल के द्रव्यमान (mass) के पर्याप्त भाग की रचना करता है।
सौर मण्डल की उत्पत्ति एक प्राचीन निहारिका गैस तथा धूल की घूमती हुई तश्तरीनुमा आकृति में हुई। सौर मण्डल आकाश-गंगा के एक कोने में, आकाश-गंगा के केन्द्र से लगभग 30,000 से 33,000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है। सौर परिवार के कुल द्रव्य (matter) का 99.85% भाग सूर्य में निहित है। ग्रह सौर परिवार के समस्त द्रव्य का मात्र 0.135% है। उपग्रह, धूमकेतु, क्षुद्रग्रह, उल्का तथा अन्तर्ग्रहीय माध्यम शेष 0.015% द्रव्य से निर्मित हैं।
सूर्य (Sun)
सूर्य तथा उसके पड़ोसी तारे सामान्यतः 250 किमी प्रति सेकण्ड की औसत गति से आकाश-गंगा के केन्द्र के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। इस दर से सूर्य 25 करोड़ वर्षों में आकाश-गंगा का एक चक्कर पूरा करता है। इस अवधि को ‘ब्रह्माण्ड वर्ष’ (cosmic year) कहते हैं। अन्य तारों की भाँति सूर्य में मुख्यतः में 71% हाइड्रोजन तथा 26.5% हीलियम तत्व पाये जाते हैं। सूर्य की नाभिकीय संघात से उत्पन्न होती है, जिसके लिये प्रति सेकण्ड 45.3×1013 टन हाइड्रोजन व्यय होती है।
इस गति से ऊष्मा पैदा करते हुए 500 करोड़ वर्ष के बाद सूर्य एक विशालकाय लाल दानव (red giant) बन जायेगा जो बुध तथा शुक्र को भी लील जायेगा। सूर्य लाल दानव के रूप में दस करोड़ वर्ष तक रहेगा, क्रमशः सिकुड़कर वह श्वेत वामन (white dwarf) तारा बन जायेगा, इस दौरान पृथ्वी पर सम्पूर्ण जीव जगत नष्ट हो जायेगा, समुद्र सूख जायेंगे तथा पृथ्वी चट्टानी बंजर हो जायेगी। अन्तरिक्ष में सूर्य एक लघु तारा ही है। एन्टारीज (Antares) नामक तारे में समस्त सौर परिवार समा सकता है।
सूर्य की सतह से निरन्तर ऊर्जा (energy) तथा ऊष्मा (heat) का विकिरण होता है। यह ऊर्जा ही पृथ्वी पर समस्त जीवन का कारण है। सूर्य की सतह पर 6000°C ताप पाया जाता है। इसकी सतह पर अनेक धब्बे (spots) पाये जाते हैं, जो विशालकाय गैस भंवर (vortices) हैं। ये धब्बे अनुमानतः सौर विस्फोटों से उत्पन्न होते हैं तथा प्रति 11 वर्ष बाद अधिकतम संख्या में देखे जाते हैं। अधिकतम विस्फोट होने पर चुम्बकीय झंझावात (magnetic storms) उत्पन्न होते हैं जो पृथ्वी पर रेडियो तरंगों के संचार में बाधा डालते हैं (चित्र 2 ) ।
Sun का चमकने वाला भाग दीप्तिमान स्तर या प्रकाशमण्डल ( photosphere) कहलाता है। प्रकाशमण्डल के ऊपर वर्णमण्डल (chromosphere) स्थित है जो लाल रंग का है। इस परत के पार प्रभामण्डलयुक्त सौर किरीट (corona) स्थित है, जो ग्रहण के समय दिखाई पड़ता है। प्रकाश-किरण सम्बन्धी खोजों से वर्णमण्डल तथा किरीटमण्डल के मध्य एक अति संकीर्ण क्षेत्र संक्रमण मण्डल (transition zone) का पता चला है। प्रकाशमण्डल का तापमान लगभग 6000°C, वर्णमण्डल का लगभग 32,000°C, संक्रमण क्षेत्र का लगभग 3,24,000°C तथा किरीटमण्डल का तापमान 27.00,000°C है।
अन्तरिक्ष में बहुत दूर तक फैला किरीटमण्डल एक्स-रे विकीर्ण करने की क्षमता रखता है। प्रत्येक स्तर की गैस का घनत्व उसके बढ़ते हुए उन्नतांश (altitude) के अनुसार घटता है। किरीटमण्डल सूर्य का सबसे कम घनत्व वाला क्षेत्र है। सूर्य के क्रोड (core) में जहाँ ताप नाभिकीय प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं, तापमान डेढ़ करोड़ डिग्री केल्विन (K) होने का अनुमान है।
सूर्य सभी दिशाओं में प्रोटॉन (हाइड्रोजन अणुओं के नाभिक) के रूप में अपने तत्व को लगातार उत्सर्जित करता रहता है। यह उत्सर्जन बहुत अधिक होता है, जिसे सौरज्वाला (prominences) कहा जाता है। सूर्य के वायुमण्डल के सतही स्तर किरीट से होती हुई यह ज्वाला पृथ्वी के आकार से 20 या 40 गुना आकार वाले विशाल मेघ के रूप में गर्म आयनित गैस को लगभग 100 किमी प्रति सेकण्ड की गति से निकालती रहती है।
प्रोटॉन की इससे कम किन्तु अनवरत धारा किरीट से निकलती रहती है तथा पूरे सौर मण्डल में व्याप्त हो जाती है। अमेरिकी भूभौतिकविद् यूजीन नार्मन पारकर (Eugene Norman Parker) ने इस धारा को सौर पवन (solar wind) कहा।
उपग्रहों के माध्यम से किए गये अध्ययनों से ज्ञात होता है कि सौर पवनें प्लाज्मा अर्थात् हाइड्रोजन व हीलियम की आयनित गैस से निर्मित होती हैं, जो ध्वनि से भी अधिक तीव्र गति से लगभग 640 किमी प्रति सेकण्ड की गति से सूर्य से बाहर की ओर बहती हैं। सूर्य के परिभ्रमण के कारण सौर पवन सर्पिल रूप में बहती है तथा इसमें चुम्बकीय क्षेत्र होते हैं। पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र इस सौर पवन को पृथ्वी से दूर भेजकर उसकी रक्षा करता है।
ग्रह (Planets) :
‘प्लैनेट’ ग्रीक शब्द ‘प्लेनेट्स’ से निकला है, जिसका अर्थ -‘घुमक्कड़’ (wanderer)। आकाश में सदैव स्थिर दिखाई देने वाले तारों से भिन्न ये ग्रह अपनी स्थिति बदलते रहते हैं, तथा कभी-कभी गायब भी हो जाते हैं। इसलिये इन्हें प्लैनेट या घुमक्कड़ कहा गया। पहले ज्ञात सात ग्रहों का नामकरण रोमन देवताओं के नाम से किया गया।
ग्रहों का विभाजन आन्तरिक तथा बाह्य ग्रहों में किया गया है। आन्तरिक ग्रहों में बुध, शुक्र, पृथ्वी तथा मंगल सम्मिलित हैं। आन्तरिक ग्रहों में पृथ्वी सबसे बड़ी है तथा सघन है। इन्हें पार्थिव ग्रह ( terrestrial planets) कहा जाता है। बाह्य ग्रहों में बृहस्पति, शनि, अरुण तथा वरुण आते हैं। बाह्य ग्रह आकार में बड़े हैं तथा इनके उपग्रहों की संख्या भी अधिक है। ये प्रायः हाइड्रोजन तथा हीलियम गैस से बने हैं। ये बृहस्पति के समान हैं। अतः इन्हें बार्हस्पत्य (Jovian) कहते हैं। ये सभी तेजी से घूमते हैं। इनका वायुमण्डल घना है। आन्तरिक ग्रहों की अपेक्षा बाह्य ग्रह हल्के पदार्थों से निर्मित हैं।
क्षुद्रग्रह (Asteroids) :
मंगल एवं बृहस्पति ग्रहों के मध्य अत्यन्त क्षुद्र (छोटे) पिण्ड पाये जाते हैं जिनकी अनुमानित संख्या 1,00,000+ है किन्तु इनकी कुल संहति चन्द्रमा की संहति का सौवां भाग है। इनमें सिरीस (Ceres) विशालतम क्षुद्रग्रह (940 किमी व्यास) है। 1801 में इसकी खोज हुई थी। पलास (Pallas), जूनो (Juno), वेस्टा (Vesta), इरोस (Eros) तथा इकारस (Icarus) अन्य प्रमुख लघु ग्रह हैं। अब तक लगभग 1800 ग्रह ज्ञात हो चुके हैं। लगभग 28 करोड़ किमी चौड़ी पेटी में ये क्षुद्रग्रह विभिन्न कक्षाओं पर सूर्य की परिक्रमा करते हैं।
कुछ क्षुद्रग्रह कक्षा में हैं अतः पृथ्वी के निकट आते हैं, जबकि अपोलो (Apollo) जैसे क्षुद्रग्रह पृथ्वी की कक्षा को काटते हैं। 1990 में सर्वप्रथम द्विशाखित (bifurcated) क्षुद्रग्रहों की खोज हुई। अनुमान है कि पृथ्वी तक पहुँचने वाले क्षुद्रग्रहों में से लगभग 10% द्विशाखित हैं। वैज्ञानिकों के मत में क्षुद्रग्रहों की उत्पत्ति किसी बड़े ग्रह के टूटने से हुई। इनमें से कई ग्रह केवल 1 किमी व्यास के हैं। क्षुद्रग्रहों के अतिरिक्त असंख्य खण्डित कण एवं धूल कण इस पेटी में पाये जाते हैं।
धूमकेतु या पुच्छल तारे (Comets) :
धूमकेतु का नामकरण सम्भवतः उनकी पूँछ (tail) के नाम पर किया गया है। लेटिन भाषा में ‘comet’ का अर्थ ‘लम्बे बालों वाला’ (long haired) होता है। धूमकेतु ऊर्त मेघ जैसे विशालकाय मेघ में उत्पन्न होते हैं, जो अनुमानतः सूर्य के चारों ओर व्याप्त हैं। किन्तु सभी धूमकेतुओं की पूँछ नहीं होती है। उनकी पूँछ तभी उत्पन्न होती है, जब वे सूर्य के निकट आते हैं। धूमकेतु अत्यधिक प्रकाशमान पुञ्ज हैं। इसके तीन भाग होते हैं—(i) दूरबीन से देखने पर सर्वप्रथम उनका सिर (head) दिखाई देता है, जिसे ‘कोमा’ (coma) कहा जाता है। यह एक धुँधले बिन्दु (hazy dot) के समान होता है। (ii) मध्य पिण्ड (core) या नाभिक (nucleus) जो ठोस तथा अति लघु आकार का होता है तथा (iii) पूँछ (tail) ।
सूर्य के निकट आने पर सौर्यिक ऊर्जा धूमकेतु के सिर को तप्त तथा हिमित गैसों को वाष्पीकृत कर देती है। ये गैसें पिण्ड से बाहर निकलकर धूमकेतु के सिर के पीछे एक प्रकाशमान पूँछ का निर्माण करती हैं। ज्यों ही धूमकेतु सूर्य के निकट पहुँचता है, सौर्यिक पवनें धूमकेतु की गैसों को सूर्य से दूर हटा देती हैं, जिससे लगभग 150 मीटर लम्बी एक सीधी पूँछ उत्पन्न जाती है। इस पूँछ की अधिकतम लम्बाई 250 मीटर हो सकती है। कुछ धूमकेतु इतने प्रकाशमान होते हैं कि वे दिन में भी देखे जा सकते हैं। धूमकेतुओं का घनत्व बहुत कम होता है। उनका घनत्व पृथ्वी के घनत्व की अपेक्षा 1000 करोड़वें भाग से भी कम होता है।
अब तक लगभग 650 धूमकेतुओं को वैज्ञानिक रूप से दर्ज किया जा चुका है। इनमें विशालतम धूमकेतु के नाभिक का व्यास 68 किमी तथा लघुतम धूमकेतु के नाभिक का व्यास 0.5 किमी है। छोटे धूमकेतु इतने चमकदार नहीं होते कि वे दृष्टिगोचर हो सकें।
धूमकेतुओं का कोई निजी व्यक्तित्व नहीं होता है। उनकी पहचान सूर्य के चारों ओर उनके पथ से होती है। इस दृष्टि से धूमकेतु दो प्रकार के होते हैं (i) निश्चित दीर्घवृत्तीय कक्षाओं पर अग्रसर होने वाले, तथा (ii) खुले वक्र की भाँति । दीर्घवृत्तीय कक्षाओं वाले धूमकेतु निश्चित अवधि वाले (periodic) होते हैं, वे सौर मण्डल के बाह्य शीतल भाग में धीमी गति से चलते हैं तथा सूर्य के निकट आने पर उनकी गति तीव्र हो जाती है।
उल्का (Meteors) :
ये टूटते हुए तारे (shooting star) की भाँति रात में दृष्टिगोचर होते हैं। किन्तु वास्तव में ये ठोस आकाशीय कण होते हैं जो पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करने पर घर्षण के कारण जलने लगते हैं। प्रायः ये जलने पर नष्ट हो जाते हैं। किन्तु कभी-कभी उल्कापात (meteorites) के रूप में पृथ्वी पर आकर गिरते हैं तथा खण्डित हो जाते हैं। इनकी रचना लोहे, निकिल, ऐलुमिनियम, ऑक्सीजन, गन्धक, आदि भारी पदार्थों से होती है अतः भूमि पर गिरने पर ये भूकम्प तथा विशाल गर्त उत्पन्न करते हैं। 30 जून, 1908 को इर्कुट्स्क (साइबेरिया) तथा 12 फरवरी, 1947 को पूर्वी साइबेरिया में उल्कापात से उत्पन्न गर्त आज भी देखे जा सकते हैं।
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धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ , उ०प्र०
छात्र: कलास्नातक तृतीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय