हर्यक वंश (Haryak vansh) के पहले मगध का इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं है। मगध का उल्लेख पहली बार अथर्ववेद में मिलता है। ऋग्वेद में यद्यपि मगध का उल्लेख नहीं मिलता, तथापि कीकट (किराट) नामक जाति और इसके शासक प्रमगंद का उल्लेख मिलता है। इसकी पहचान मगध से की गई है। मागध और व्रात्यों का उल्लेख वैदिक साहित्य में उपेक्षा और अवहेलना की दृष्टि से किया गया है। अथर्वसंहिता के व्रात्यभाग में ब्राह्मण-सीमा के बाहर रहनेवाले व्रात्य को पुंश्चली या वेश्या और मगध से संबद्ध कहा गया है। वेदों में मगध के ब्राह्मणों (ब्रह्मबंधु) निम्न श्रेणी का माना गया है; क्योंकि उनके संस्कार ब्राह्मण-विधियों के अनुसार नहीं हुए थे।
बृहद्रथ वंश –
वैदिक साहित्य से मगध के इतिहास की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। इसमें प्रमगंद के अतिरिक्त मगध के अन्य किसी शासक का उल्लेख नहीं हुआ है। मगध के प्राचीन इतिहास की रूपरेखा महाभारत तथा पुराणों में मिलती है। इन ग्रंथों के मुताबिक मगध के सबसे प्राचीन राजवंश का संस्थापक बृहद्रथ था। वह जरासंध का पिता एवं वसु चैद्य – उपरिचर का पुत्र था। मगध की आरंभिक राजधानी वसुमती या गिरिव्रज की स्थापना का श्रेय वसु को ही था। बृहद्रथ का पुत्र जरासंध एक पराक्रमी शासक था, जिसने अनेक राजाओं को पराजित किया। अंततोगत्वा उसे श्रीकृष्ण के निर्देश पर भीम के हाथों पराजित होकर मरना पड़ा। रिपुंजय इस वंश (बृहद्रथ) का अंतिम शासक था। वह एक कमजोर और अयोग्य राजा था। अतः, उसके मंत्री पुलिक ने उसकी हत्या करवाकर अपने पुत्र को गद्दी पर बिठाया। इसी के साथ मगध में एक नए राजवंश का उदय हुआ। जैनग्रंथों में राजगृह के दो शासकों—समुद्रविजय तथा गया का भी उल्लेख मिलता है, परंतु उनकी वंशावली स्पष्ट नहीं है।
हर्यक वंश की स्थापना – Haryak vansh ka itihas
बृहद्रथ वंश के पश्चात मगध में जो नया राजवंश सत्ता में आया, वह हर्यंक वंश के नाम से विख्यात है। जहाँ पुराण इस वंश को शैशुनाग वंश मानते हैं, वहीं बौद्ध एवं जैनग्रंथों में इस वंश को हर्यक वंश कहा गया है। इस वंश के संस्थापक शिशुनाग या सुसुनाग थे। इस वंश का प्रथम महान शासक बिम्बिसार हुआ, जिसने मगध साम्राज्य की नींव रखी।
बिम्बिसार (544-492 ई० पू० ) और मगध का विस्तार –
बिम्बिसार के प्रारंभिक जीवन के विषय में बहुत स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। संभवतः, वह दक्षिणी बिहार के एक छोटे सैनिक अधिकारी का पुत्र था; परंतु महावंश एवं अन्य ग्रंथों में उसे भट्ठिय या भाटियों का पुत्र बताया गया है। अश्वघोष के बुद्धचरित में बिम्बिसार को हर्यक कुल से संबद्ध बताया गया है। बिम्बिसार ‘सेणिय’ अथवा ‘श्रेणिक’ के नाम से भी जाना जाता था। किंवदंतियों के अनुसार, 14 वर्ष की अल्पायु में ही उसके पिता ने उसका राज्याभिषेक किया। उसका राज्याभिषेक संभवतः 544 ई० पू० में हुआ । उसके राज्याभिषेक के साथ ही मगध साम्राज्यवाद के विकास की वह प्रक्रिया प्रारंभ होती है, जिसकी परिणति अशोक के समय में कलिंग युद्ध के पश्चात हुई।’
जिस समय बिंबिसार गद्दी पर आया, उस समय मगध की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उसके इर्द-गिर्द के शासक अपनी शक्ति के विस्तार में लगे हुए थे। वृज्जि संघ, जो मगध के उत्तर में स्थित था, की सैनिक शक्ति का विस्तार हो रहा था। अन्य राज्यों द्वारा भी विस्तारवादी नीति अपनाई जा रही थी। कोशल और अवन्ती के शासक अपनी-अपनी सीमा का विस्तार कर रहे थे। तक्षशिला और अवन्ती के शासकों के आपसी संबंध भी कटु थे। ऐसी परिस्थिति में अपने राज्य का विस्तार करने के पूर्व बिम्बिसार ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के उद्देश्य से मित्रता एवं वैवाहिक संबंध स्थापित करने की नीति अपनाई ।
बिम्बिसार का सबसे पहला काम था अवन्ती और गांधार के शासकों से मित्रता करना । अपने प्रयासों से उसने अवन्ती के राजा प्रद्योत और गांधार के राजा पौष्करसारिन में समझौता करवाकर दोनों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध कायम कर लिए। इतना ही नहीं, जब राजा प्रद्योत पाण्डुरोग (पीलिया) से प्रस्त था तब बिम्बिसार ने अपने प्रसिद्ध वैद्य जीवक को राजा का उपचार करने को भेजा। इससे दोनों की मैत्री प्रगाढ़ हो गई।
यूरोप के हैप्सबर्ग और बोरबन्स राजवंशों के राजाओं की तरह बिंबिसार ने भी तत्कालीन राजवंशों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसकी यह नीति अत्यंत सफल हुई। जिन राज्यों से बिंबिसार ने वैवाहिक संबंध स्थापित किए, वे राज्य मगध के मित्र बन गए। इसके साथ-साथ मगध को नए क्षेत्र एवं धन भी प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं, इन मित्रराज्यों ने मगध को उत्तर तथा पश्चिम की तरफ अपना पाँव फैलाने में भी मदद दी ।
बिम्बिसार ने मद्र (पूर्वी पंजाब), कोशल एवं वैशाली के लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। मद्र की राजकुमारी खेमा ही बिम्बिसार की प्रधान रानी बनी। कोशल की राजकुमारी कोशल देवी (महाकोशल की पुत्री तथा पसेनदि या प्रसेनजित की बहन) अपने साथ दहेज में काशीग्राम भी साथ लाई जिससे वार्षिक एक लाख का भू-राजस्व प्राप्त होता था। बिम्बिसार ने लिच्छवि राजकुमारी चेलना से भी विवाह किया। इस विवाह का प्रभाव अजातशत्रु के शासनकाल पर पड़ा।
कूटनीति और वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात बिंबिसार ने राज्य विस्तार के लिए सैनिक अभियान का सहारा लिया। मगध के पड़ोस में अब सबसे शक्तिशाली राज्य अंग ही था। अतः, बिम्बिसार ने अंग-विजय की योजना बनाई।
उसने अंग पर आक्रमण कर वहाँ के राजा ब्रह्मदत्त को पराजित कर मार डाला और राज्य पर अपना कब्जा जमा लिया। अजातशत्रु को नए प्रदेश के प्रशासन का भार सौंपा गया। इस प्रकार कूटनीति, वैवाहिक संबंधों और सैनिक अभियान के द्वारा बिंबिसार ने मगध राज्य का विस्तार किया।
इतना ही नहीं, बिम्बिसार ने नए राज्य की प्रशासनिक एवं आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ की। उसने एक सशक्त और कुशल प्रशासन की व्यवस्था की। उसने प्रशासन पर अपनी दृढ़ पकड़ बनाए रखी। अनेक अक्षम पदाधिकारियों को पदमुक्त कर दिया गया। राज्य के उच्च पदाधिकारी (राजभट्ट) विभिन्न श्रेणियों में विभक्त थे, जैसे सभात्तक, सेनानायक, वोहारिक इत्यादि । न्याव पर विशेष बल दिया गया। वोहारिक न्यायाधीश के समकक्ष थे। अपराधियों को कड़ी सजा दी जाती थी। मृत्यु दंड, अंग-भंग और शारीरिक यातना देने की प्रथा प्रचलित थी।
ग्रामभोजक गाँवों में शांति व्यवस्था बनाने और लगान वसूली का काम करते थे। स्थानीय स्वशासन में स्थानीय तत्त्वों को महत्त्व दिया गया लेकिन उन पर केंद्रीय सरकार का अंकुश बनाए रखा गया। उसने यातायात और संचार व्यवस्था को भी विकसित किया। महावगा के अनुसार बिम्बिसार के राज्य में 80,000 शहर थे, परंतु इस विवरण पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ह्वेनसांग बिम्बिसार द्वारा बनवाए गए मार्ग और नए नगर का उल्लेख करता है, लेकिन फाहियान के अनुसार अजातशत्रु ने राजगृह के नए नगर का निर्माण करवाया।
बिंबिसार के जीवन का दुःखद अंत हुआ। पालि एवं प्राकृत-साहित्य से विदित होता है कि बिंबिसार के पुत्र युवराज कूणिक अजातशत्रु ने अपने पिता को गिरफ्तार कर लिया या उसकी हत्या कर स्वयं सिंहासन पर बैठ गया। इसमें सच्चाई जो भी हो, परंतु अजात-शत्रु शासक बनते ही मगध-साम्राज्यवाद का तेजी से विस्तार हुआ। वस्तुतः, बिम्बिसार ने जिस साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को आरंभ किया था, अजातशत्रु ने उसका विस्तार किया।
अजातशत्रु (492-462 ई० पू०) और मगध का चरमोत्कर्ष –
492 ई० पू० में कूणिक अजात शत्रु मगध का राजा बना। उसके शासनकाल में मगध साम्राज्यवाद का चरमोत्कर्ष हुआ और वह राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर पहुँच गया। प्रो० रायचौधुरी के शब्दों में, “प्रसिया (या प्रशा, यूरोप) के फ्रेडरिक द्वितीय की तरह अजातशत्रु ने अपने पिता की नीति का ही पालन किया, यद्यपि पिता से उसके संबंध कभी अच्छे नहीं रहे। उसका शासन हर्यक वंश का चरमोत्कर्ष काल था ।” इसने सैनिक अभियान आरंभ करने के पूर्व अपनी राजधानी एवं राज्य की सुरक्षा का प्रबंध किया। इस उद्देश्य से उसने राजगृह की किलेबंदी सुदृढ़ की।
राजगृह में एक नई चहारदीवारी बनवाई गई। राजगृह से दूर गंगा और सोन के संगम पर पाटलिग्राम में एक दुर्ग का भी निर्माण किया गया, जो बाद में मगध की नई राजधानी बनी। अपनी आंतरिक स्थिति सुदृढ़ कर अजातशत्रु ने सैनिक अभियान आरंभ किया।
कोशल के साथ संघर्ष –
अजातशत्रु को सबसे पहले कोशल राज्य के साथ युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध का तात्कालिक कारण कोशला देवी (बिम्बिसार की रानी) को मिले काशीग्राम के राजस्व का रुकना था। बिम्बिसार की हत्या के पश्चात कोशला देवी की भी मृत्यु हो गई, परंतु काशीग्राम का राजस्व मगध को पूर्ववत मिलता रहा। कोशल-नरेश प्रसेनजित अपने बहनोई की हत्या और बहन की मृत्यु से विक्षुब्ध हो उठा। उसने पितृहंता अजातशत्रु को काशीग्राम का राजस्व देना अनुचित समझा और इसे बंद करवा दिया। क्रुद्ध होकर अजातशत्रु ने कोशल पर आक्रमण कर दिया। कोशल और मगध में लंबे समय तक युद्ध चला। इस युद्ध में कभी प्रसेनजित पराजित होता, तो कभी अजातशत्रु। एक बार प्रसेनजित को हारकर श्रावस्ती भाग जाना पड़ा; परंतु उसने हिम्मत नहीं हारी। दूसरी बार प्रसेनजित ने अजातशत्रु पर विजय प्राप्त कर उसे बंदी बना लिया; परंतु रिश्ते का लिहाज कर (अजातशत्रु प्रसेनजित का भाँजा था) उसने अजातशत्रु को स्वतंत्र कर दिया। इसके बाद दोनों पक्षों में समझौता हो गया। प्रसेनजित ने काशीग्राम राजस्व सहित पुनः अजातशत्रु को वापस लौटा दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी पुत्री वजीरा का विवाह भी मगधराज अजातशत्रु के साथ कर दिया। फलतः दोनों राज्य एक-दूसरे के मित्र बन गए।
वैशाली पर विजय –
इस शासक का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य वैशाली के लिच्छवियों को परास्त करना था। जैनसाहित्य से इस युद्ध के कारणों पर प्रकाश पड़ता है। कहा जाता है कि मृत्यु से पूर्व बिम्बिसार ने अपना प्रसिद्ध हाथी सेयणग (सेचनक) और अठारह लड़ियोंवाला हीरे का हार अपनी पत्नी चेलना से उत्पन्न पुत्रों, हल्ल और बेहल्ल, को दे दिया था। राजा बनने के बाद, अपनी रानी पउमावई या पद्मावती के उकसाने पर, अजातशत्रु ने इन दोनों वस्तुओं की माँग की। इन्हें वापस देने के बदले दोनों भाई अपने नाना के पास वैशाली भाग गए। इसपर क्रुद्ध होकर अजातशत्रु ने युद्ध आरंभ कर दिया। सुमंगल विलासिनी (बुद्धघोष की टीका) में युद्ध का एक अन्य कारण दिया गया है। इसके अनुसार कीमती पत्थरों या सुगंधित पदार्थों की खान के स्वामित्व को लेकर झगड़ा और मगध के शासक के साथ लिच्छवियों का विश्वासघात इस युद्ध का कारण था। युद्ध का एक अन्य संभावित कारण यह था कि एक साम्राज्यवादी शासक अपने पड़ोस में, भय या ईर्ष्यावश किसी अन्य शक्तिशाली राज्य का अस्तित्व स्वीकार करने को तैयार नहीं था । महापरिनिब्बानसुत्त से ज्ञात होता है कि जिस समय गौतम बुद्ध राजगृह में थे, उसी समय अजातशत्रु वैशाली – विजय की तैयारी कर रहा था। अजातशत्रु ने कहा था- “मैं वज्जियों का उन्मूलन कर दूँगा, चाहे वे कितने ही बली और ताकतवर क्यों न हों। मैं इन वज्जियों को उजाड़ दूंगा, मैं इन्हें नेस्तनाबूद कर दूँगा।”” उसने अपने निश्चय की सूचना बुद्ध के पास भी भिजवाई।
युद्ध आरंभ करने के पूर्व दोनों पक्षों ने तैयारी की। अजातशत्रु ने पाटलिग्राम में एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जहाँ से युद्ध का संचालन किया जा सके। उसने अपने मंत्री वस्सकार को वैशाली भी भेजा, जिससे लिच्छवियों की एकता भंग की जा सके। वैशाली के शासक (चेटक) ने भी वृज्जिसंघ की सभा बुलाकर सबकी राय से युद्ध का निर्णय किया। वृज्जिसंघ को अनेक मगधविरोधी राज्यों का समर्थन प्राप्त हुआ। प्रो० रायचौधुरी ने ठीक ही लिखा है, “मगध-कोशल और मगध-वज्जि के युद्ध इक्का-दुक्का युद्ध की घटनाएँ नहीं थीं, वरन् मगध के बढ़ते प्रभाव के विरोध में चल रहे आंदोलन के प्रतीक भी थे। जिस प्रकार एक बार रोम के प्रभाव के विरुद्ध सैमनाइटों, इट्रस्कनों तथा गॉलों को संघर्षरत होना पड़ा था, उसी प्रकार मगध के विरुद्ध धुंधुआते धुँए ने भी युद्ध की लपटों का रूप ग्रहण कर लिया। “
मगध और वैशाली के बीच लंबे समय तक युद्ध चलता रहा। यह युद्ध करीब 16 वर्षों (484-468 ई० पू०) तक चला। इस युद्ध में मगध की विजय युद्ध के नए उपकरणों महासिलाकण्टग (पत्थर फेंकनेवाली मशीन) तथा रथमूसल ( गदायुक्त गाड़ी) की मदद से हुई। लिच्छवियों के साथ-साथ पराजित राज्यों-काशी, विदेह, मल्ल इत्यादि पर भी मगध का आधिपत्य कायम हो गया।
अवन्ती और मगध-
मगध के बढ़ते प्रभाव से आतंकित होकर अवंती के शासक ने भी मगध पर आक्रमण की योजना बनाई। अवन्ती के इस संभावित आक्रमण से सुरक्षा के लिए अजातशत्रु को राजगीर की नई किलेबंदी करनी पड़ी थी। अवन्तीराज प्रद्योत बिम्बिसार (जो उसका मित्र था) की हत्या से दुखी और क्रुद्ध था । इसलिए उसने मगध पर आक्रमण की योजना बनाई, परंतु वह मगध पर आक्रमण नहीं कर सका।
अजातशत्रु के पश्चात मगध का विकास –
462 ई० पू० में अजातशत्रु की मृत्यु हुई। अपने सैनिक पराक्रम से उसने मगध को एक महाजनपद से साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के अनुसार अजातशत्रु के अधीन मगध के अतिरिक्त अंग, वाराणसी, वैशाली के इलाके भी थे। उसके उत्तराधिकारियों ने उसके कार्य को आगे बढ़ाया।
अजातशत्रु के पश्चात उसका पुत्र उदायिन् या उदायिभद्र मगध का शासक बना। पुराणों के अनुसार अजातशत्रु का उत्तराधिकारी दर्शक बना परंतु बौद्ध और जैन साहित्य उदायिन को ही अजातशत्रु का उत्तराधिकारी मानते हैं। वह भी चंपा में गवर्नर था। उसने भी अपने माता-पिता की हत्या कर गद्दी प्राप्त की। उसके समय की सबसे प्रसिद्ध घटना है मगध की राजधानी का स्थानांतरण । राजधानी अब (457 ई० पू० ) राजगृह से हटाकर पाटलिपुत्र में स्थापित की गई। इस समय अवन्ती की शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी और वह मगध को अपने प्रभाव में लाने का स्वप्न देख रहा था। संभवतः, मगध और अवन्ती के बीच युद्ध भी हुए, परंतु इस युद्ध का कोई निर्णायक फल उदायिन् के समय में नहीं निकल सका। पुराणों के अनुसार उदायिन् के बाद नन्दिवर्धन और महानंदी राजा बने, लेकिन श्रीलंका के बौद्धग्रंथों के अनुसार अनुरुद्ध, मुण्ड और नागदासक उदायिन् के उत्तराधिकारी थे। इन सभी शासकों ने करीब 32 वर्षों तक राज्य किया। उदायिन् के उत्तराधिकारी (अनुरुद्ध, मुण्ड एवं नागदासक) प्रभावशाली शासक नहीं थे। अतः, इनके समय में मगध के विकास की गति अवरुद्ध हो गई।