Neolithic period | नवपाषाण काल | नवपाषाण कालीन संस्कृति | Navpashan kaal

0

नवपाषाण काल (Neolithic period) का मानव की भौतिक प्रगति के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस काल में कृषि एवं पशुपालन सर्वप्रथम प्रारम्भ हुए। वे मानव समाज जो आखेट एवं संचय की अर्थव्यवस्था से आगे नहीं बढ़ पाए, वे सभ्यता का विकास नहीं कर सके। कास्य काल की सभ्यताओं के उदय एवं विकास के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि नव पाषाणकाल की अर्थव्यवस्था ने प्रस्तुत किया।

Neolithic period

नवपाषाण काल : Neolithic period

नवपाषाण काल की इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को लक्ष्य करके ही प्रसिद्ध विद्वान् गार्डन चाइल्ड ने इस परिवर्तन को नवपाषाण काल की क्रान्ति कहा था। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने प्रारम्भ से ही नवपाषाण काल के विभाजन को स्वीकार किया था, जान लुम्बक ने प्रारम्भ में ही पुरापाषाण एवं नूतन पाषाणकाल का विभाजन किया था। इन्होंने इस वैभिन्य का निम्नलिखित आधार प्रस्तुत किया है—

(1) पुरापाषाणिक उपकरण फलकीकरण विधि से निर्मित हैं, किन्तु नवपाषाण काल के मानव ने फलकीकरण विधि से इच्छित आकार प्रदान करने के पश्चात् उसे तरास तथा रगड़कर चमकीला बनाने का प्रयास किया, जो उसकी सौन्दर्यप्रियता का द्योतक है।

(2) पुरापाषाणकाल का मानव तथा लगभग दोनों अब विलुप्त है या उनका स्वरूप पूर्णतः परिवर्तित हो गया हैं, किन्तु नूतन पाषाणकालीन मानव एवं पशु परम्परा आज भी प्रचलित है।

(3) पुरापाषाणकाल का मानव पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर था। आखेट एवं प्राकृतिक वनस्पतियों पर ही वह जीवन निर्वाह करता था, किन्तु नूतन पाषाणकाल में वह पशुपालन तथा कृषि में भी अभ्यस्त हो गया।

जान लुम्बक ने उपर्युक्त धारणा 1865 ई0 में व्यक्त किया था। उस समय मध्य पाषाणकाल की कल्पना ही न थी, किन्तु जब मध्य पाषाण युग का अस्तित्व स्वीकार किया गया। जो नवपाषाण काल को उसी का विकसित रूप कहा जाने लगा। पशुपालन एवं कृषि का जो प्रयोग मध्य पाषाणयुगीन मानव ने प्रारम्भ किया, नव पाषाणकालीन मानव ने उसे अपने आर्थिक जीवन का मुख्य आधार बनाया।

धीरेन्द्रनाथ मजूमदार के अनुसार, “नव पाषाण से तात्पर्य उस पाषाणयुगीन संस्कृति से है जिसमें केवल खाद्य संग्रह के स्थान पर खाद्यउत्पादन समझ बूझकर किया गया तथा पशुपालन भी किया जाने लगा। पत्थर के चिकने पाषाण कुठार नामक उपकरण मिट्टी के पकाये वर्तन नव पाषाण संस्कृति के निर्णायक, लक्षण माना गये है।” गार्डन चाइल्ड का मत है, “नवपाषाण काल में खाद्योत्पादन की अर्थव्यवस्था का प्रारम्भ हो गया।… नवपाषाण काल में शिकार और खाद्य-संग्रह के साथ पशुपालन प्रारम्भ हो गया। नव पाषाणकाल में पत्थर के चिकनाए उपकरण तथा मिट्टी के पके हुए बर्तनों का मुख्य रूप से निर्माण हुआ।”

कृषि एवं पशुपालन :

मानव ने नव पाषाण युग में कृषि एवं पशुपालन की ओर से किस प्रकार उन्मुख हुआ। ये कौन-सी परिस्थितियाँ थीं, जिससे वह कृषि एवं पशुपालन के लिए उद्यत हुआ। सर्वप्रथम विश्व के किस क्षेत्र में कृषि का विकास हुआ? प्रारम्भ में इस क्रान्ति का श्रेय पारिस्थितिकी को दिया था। मध्य पाषाण युग के अन्तिम चरण में ही भयंकर अकाल एवं अभाव की स्थिति उत्पन्न हुई। इसकी पूर्ति के लिए कृषि का विकास हुआ, किन्तु यह धारणा विश्वसनीय नहीं प्रतीत होती, क्योंकि कृषि से शीघ्र या तुरन्त खाद्यात्र उत्पन्न करना असम्भव है। यह एक मन्द प्रक्रिया के पश्चात् ही अन्य उत्पन्न कर सकती है।

कुछ पाश्चात्य पुरातत्त्ववेत्ताओं का अनुमान है कि उत्तर या उच्च पुरापाषाणकाल के पश्चात् विश्व की जलवायु में अद्भुत परिवर्तन हुआ। उत्तरी यूरोप हिम के स्थान पर हरित वनों से आच्छादित हो गया। पुनः जलवायु में अद्भुत परिवर्तन हुआ। उत्तरी यूरोप हिम के स्थान पर हरित वनों से आच्छादित हो गया। पुनः जलवायु जब और कुछ शुष्क होने लगी, तो ये घास के हरे-भरे रेगिस्तान के रूप में परिणत होने लगे। इस परिवर्तित परिस्थितियों में आखेट पर जीवन निर्वाह दुष्कर हो गया तथा खाद्य समस्या उत्पन्न हुई।

स्त्रियाँ वन्य घासों में खने योग्य बीज ढूँढ़ती थीं तथा उन्हें वही ज्ञात हो कि यही एक बीज कई बीजों को उत्पन्न करता है। कुछ गीली मिट्टी में बीज डालकर उसके पौधे तैयार किये गये होंगे तथा जब उन पौधों से अनेक दाने उन्हें प्राप्त हुए होंगे, तो निश्चित ही उन्हें इससे लाभ हुआ होगा। इसी प्रक्रिया से कृषि का विकास हुआ।

जब वनों का धीरे-धीरे अभाव होने लगा तथा अन्य पशुओं से उन्हें अनेक भय भी रहने लगा, तो कुछ सीधे एवं सरल पशुओं को भी उसने पालना आरम्भ किया। वास्तव में कृषि एवं पशुपालन दोनों का विकास समान परिस्थितियों में ही हुआ होगा। गाय, भैंस, भेड़, बकरी तथा सूअर इत्यादि पशु घास एवं चारों पर आधारित थे। मानव भी वहीं निवास करता था, जहाँ भूमि हरित घास से युक्त हो।

अतः ये पशु मानव आवास के निकट ही रहने लगे। धीरे-धीरे मानव इन पशुओं से परिचित हो गया तथा पशु कुछ निडर हो गये। साथ ही अपनी खाद्य समस्या की पूर्ति के लिए मानव ने इन पशुओं को बाँधकर रखने लगा होगा, जिससे उसे आखेट के लिए अधिक श्रम न करना पड़े। मानव-पशु सम्पर्क से ही पशुपालन का विकास हुआ।

कृषि या पशुपालन सर्वप्रथम कहाँ विकसित हुआ ? इस सम्बन्ध में अधिकांश इतिहासकारों की यह धारणा है कि भारत में यह एक आयातित क्रान्ति है। आज से लगभग तृतीय दशक एशिया में प्रारम्भ हुआ। कम से कम 10,000 से 60,000 ई० पू० के मध्य पश्चिम एशिया में कृषि एवं पशुपालन के निश्चित प्रमाण मिलते हैं यहाँ जग्रोस पर्वत क्षेत्र, सीरिया, फिलीस्तीन, जार्डन क्षेत्र तथा तुर्की तक के क्षेत्र को उर्वर चन्द्र कहा गया है।

मिस्र से पश्चिमोत्तर भारत तक यह कृषि क्रान्ति विस्तृत थी। इस क्षेत्र में गाय, बकरी, भेड़ तथा सूअर आज भी वन्य रूप में प्राप्त होते हैं। इन्हीं वन्य जीवों को सर्वप्रथम पालतू पशु के रूप में पाला गया होगा। गेहूँ तथा जौ का प्रयोग 10,000 वर्ष पूर्व से ही ज्ञात होता है उर, रेडिड, हस्सुन, जर्मोलेवन्त तथा अनातोलिया के उत्खनन से नव पाषाणयुगीन अन्न के लक्षण प्राप्त हुए हैं। भारत को यहीं से कृषि कला में प्रोत्साहन एवं प्रेरणा प्राप्त हुई।

मृदभाण्ड परम्परा

मिट्टी के बर्तनों का निर्माण नव पाषाणकाल की एक अन्य प्रमुख विशेषता मानी जाती है। यद्यपि सर्वत्र प्रारम्भ से ही मिट्टी के बर्तन नहीं मिलते हैं। आरम्भ में मिट्टी के बर्तन हस्तनिर्मित होते थे। बर्तनों के निर्माण में मंद गति के चाक को इस दिशा में प्रगति का अगला कदम माना जा सकता है। चाक का आविष्कार मानव की तकनीकी प्रगति की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। प्रारम्भिक मिट्टी के बर्तनों की सतह पर चित्रकारी की प्रक्रिया भी विशेष लोकप्रिय मिट्टी के बर्तनों के अतिरिक्त नव पाषाणकाल के पुरास्थलों से प्राप्त तकुए तथा करघे के मुण्मय पुरावशेषों से यह इंगित होता है कि ऊन, सन् और कपास के धागों से वस्त्र तैयार किये जाते थे।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)
To Top
close