भारत में तुर्कों की सफलता और राजपूतों की असफलता के कारण | Bharat me turkon ki vijay ke karan

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भारत पर तुर्की आक्रमण गज़नी के शासक महमूद गज़नवी द्वारा (1000-30 ई.) तक किया गया और महमूद गज़नवी ने उत्तर भारत के राजपूत शासकों को पराजित करके तुर्कों के सैनिक शक्ति को सिद्ध कर दिया था। इसके बाद मुहम्मद गोरी ने गज़नी के राज्यपाल बनने के बाद भारत पर (1175-1206 ई.) तक आक्रमण करके तुर्कों की राजनैतिक सत्ता स्थापित कर दी। इन दोनों आक्रमणों के विरुद्ध भारतीय राजपूत योद्धा असफल हुए। यह आश्चर्यजनक बात है कि भारत जैसे विशाल क्षेत्र के अनेक राजा मध्य एशिया के एक छोटे से राज्य के शासकों से एक-एक करके पराजित हो गए।

भारत में तुर्कों की सफलता और राजपूतों की असफलता के कारण

भारत में तुर्कों की सफलता और राजपूतों की असफलता के कारण :

तुर्कों की सफलता के कारणों के विषय में समकालीन इतिहासकार हसन निज़ामी, मिनहाज़ु सिराज़, फ़ख़ेमुदव्विर में से प्रथम दो ने तुर्की सफलता को दैवी कृपा माना है। आश्चर्य का विषय है कि उनकी दृष्टि में रणनीति, सैनिक चाले या अन्य सामरिक स्पष्टीकरणों का कोई महत्व नहीं था। फ़ख़ेमुदव्विर की पुस्तक “आदाबुलहर्ब” में दो अत्यन्त महत्वपूर्ण सैनिक कारणों पर प्रकाश डाला गया है। पहला तुर्की युद्ध रण प्रणाली में गतिशील युद्ध तंत्र के रूप में अश्वारोही सेना की भूमिका और दूसरा, भारतीय पक्ष की सामंती सेना की दुर्बलता। इसके अतिरिक्त तुर्कों की सफलता पर प्रकाश डालने वाला कोई समकालीन स्रोत उपलब्ध नहीं है।

तुर्कों की सफलता और राजपूतों की पराजय पर इतिहासकारों द्वारा अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है तथा विभिन्न स्पष्टीकरण दिए गए है।

अंग्रेज इतिहासकार एल्फिन्सटन का मानना है कि, “चूँकि मुहम्मद गोरी की सेना में सैनिकों की भर्ती भारत तथा आक्सस नदीं के बीच के क्षेत्र में रहने वाले समस्त लड़ाकू प्रान्तों से की गयी थी और जिसे सल्जूकियों तथा उत्तरी तातारियों की सेना से युद्ध करने का अनुभव था। इसलिए हमें यह आशा नहीं करनी चाहिए कि छोटे-छोटे प्रान्तों में विभक्त भारत के सज्जन तथा शांतिप्रिय लोगों पर थोपे गये इन युद्धों से न तो उन्हें कुछ लाभ हो सकता था. न ही उनका राज्य विस्तार। मुहम्मद गोरी की सेना के पर्याप्त प्रतिरोध की आशा इनसे नहीं की जा सकती थी।

लेनपूल तथा बिंसेट स्मिथ का मत है कि तुर्क ठंडे प्रदेश के निवासी थे और माँसाहारी होने के कारण अधिक शक्तिशाली योद्धा थे, इसलिए वे भारत में सफल रहे। इसके विपरीत भारतीय शांतिप्रिय प्रवृत्ति के थे और युद्धों के प्रति उनमें विशेष उत्साह की भावना नहीं थी।

सर जदुनाथ सरकार ने अरब पठान तथा तुर्क जाति में इस्लाम द्वारा प्रदत्त तीन मूल गुणों को उनकी सफलता के लिए सहायक माना है। प्रथम, जहाँ तक कानूनी स्थिति और धार्मिक विशेषाधिकारों का संबंध है, वहाँ पूर्ण समानता और सामाजिक संगठन। इससे समस्त नस्लीय और जातीय भेदभाव समाप्त हो गए और भाई चारे की भावना का विकास हुआ। दूसरे, अपने भाग्य को पूर्णतः ईश्वर के इच्छा के नियतवादी विश्वास के कारण मुस्लिम सैनिक युद्ध में सर्वथा मृत्यु-भय से मुक्त होकर लड़ते थे। तीसरे, मद्यपान न करना, क्योंकि ‘कुरान’ के अनुसार मद्यपान करना पाप था तथा राज्य द्वारा दंडनीय। इसके विपरीत मद्यपान ने भारत के राजपूतों तथा अन्य हिन्दू सैनिकों का सर्वनाश कर दिया। नशे के कारण भारतीय रणभूमि में दूरदर्शी रणनीति, आकस्मिक आक्रमण के समय युद्ध कौशल प्रदर्शन की क्षमता खो बैठते थे और अपनी सेना की समुचित सुरक्षा भी नहीं कर पाते थे।

परन्तु इन सभी तथ्यों को विशेष महत्व नहीं दिया जा सकता। के. ए. निज़ामी और मुहम्मद हबीब इसका खण्डन करते हुए लिखते है कि, भारतीय इस कारण पराजित हुए कि वे शांतिप्रिय थे, उनमें युद्ध के प्रति बड़ी घृणा थी, ऐतिहासिक तथ्यों से सिद्ध नहीं होता। युद्ध राजपूतों का पेशा था और 11-12वीं शताब्दी में भारतवर्ष का अंतर्देशीय इतिहास संघर्षो युद्धों, पारस्परिक विरोधों और कलह की एक लम्बी कहानी है।

आगे लिखते है, तुर्कों की इस सफलता का कारण मुसलमानों के धार्मिक जोश में ढूंढ़ना भी अनैतिहासिक होगा। वास्तव में अधिकांश तुर्क जनजातियां जो इस युग में भारत आई, पूर्णतः इस्लाम धर्म में परिवर्तित नहीं हो पायी थी और उनके अनेक सरदार इस धर्म के विषय में अल्पज्ञानी थे। इससे यह संभावना समाप्त नहीं होती कि जब तुर्क मूर्तिपूजक और बहुदेववादी पूजा और संस्थाओं का सामना करने आए तो उनकी धार्मिक भावनाओं को भड़काने का प्रयत्न किया गया, चाहे वे कितनी ही अशुद्ध क्यों न रही हो। यह एक ‘अस्थाई प्रवृत्ति’ ही रही होगी न कि एक ‘स्थायी उद्देश्य’ या उनके (तुर्कों) के अभियानों का प्रेरक तत्व ।

वास्तव में तुर्कों की सफलता का वास्तविक कारण भारत की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सैनिक दुर्बलताओं में निहित था ।

राजनीतिक कारण

भारत में उस समय राजनीतिक एकता का पूर्ण अभाव था। भारत अनेक छोटे-छोटे प्रान्तों में विभक्त था। इनके शासक राज्य विस्तार और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की भावना के कारण एक दूसरे राज्यों से परस्पर सहयोग की जगह परस्पर संघर्ष में लगे रहते थे। इस एकता के अभाव में सामन्तीकरण की प्रक्रिया का भी योगदान था क्योंकि न केवल भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था बल्कि प्रत्येक राज्य छोटे-छोटे सामंती क्षेत्रों में भी विभक्त था। इन आपसी संघर्षों और प्रतिस्पर्धा के कारण राजपूत राजा मिलकर तुर्कों के आक्रमण का सामना नहीं कर पाए, जिसके परिणामस्वरूप तुर्कों की विजय हुई।

आर्थिक कारण

राजनीतिक अनेकता और सामंती प्रथा का दुष्परिणाम आर्थिक जीवन के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। उस समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था, परन्तु सामंती प्रथा के प्रचलन के कारण भूमि कर पर राजा का पूर्ण नियंत्रण न होकर अनेक सामंतों का भी उस पर नियंत्रण हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि शासक के हाथ में आय के साधन सीमित हो गए और राज्य की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली सैनिक संगठन का बोझ उठाना उसकी क्षमता से परे था। दूसरी ओर तुर्कों के राज्य केन्द्रीय सत्ता के अधीन होने के कारण आर्थिक रूप में सुव्यवस्थित थे और तुर्क सुल्तानों के लिए शक्तिशाली सैनिक संगठन को बनाए रखना बहुत कठिन नहीं था। परिणामस्वरूप तुर्क विजय प्राप्त करने में सफल हुए।

सामाजिक कारण

के.ए. निज़ामी और मुहम्मद हबीब राजपूतों की पराजय का वास्तविक कारण वर्ण तथा जाति के आधार पर समाज का कई वर्गों में विभाजन को मानते है। छुआछूत की भावना तथा भू-स्वामियों द्वारा निम्न वर्ग के खेतिहर तथा अन्य श्रमिकों के शोषण के कारण समाज दुर्बल हो रहा था। इन दुर्बलताओं ने सामाजिक एकता की भावना ही नष्ट कर दी थी। शोषित वर्ग में देशभक्ति की भावना का होना संभव नहीं था। केवल दुर्गों ने कुछ प्रतिरोध किया किन्तु जब शत्रु ने ग्रामीण क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया तब वे असहाय हो गए। यदि भारतीय शासक सुरक्षा योजनाओं में जनता का सहयोग प्राप्त करने में सफल हो जाते तो यही दुर्ग और गढ़ अपनी सम्पूर्ण आक्रमण शक्तियां एक स्थान पर संगठित कर महत्वपूर्ण सुरक्षा के केन्द्र बन जाते। किन्तु विद्यमान सामाजिक परिस्थितियों में ये दुर्ग सुरक्षा के लिए बेकार सिद्ध हुए और अपने ही क्षेत्रों की रक्षा न कर रखे परमात्मा सरन के अनुसार “जाति प्रथा ही तुर्कों के विरुद्ध राजपूतों की असफलता का प्रमुख कारण थी।”

वर्ण व्यवस्था ने राजपूत राज्यों की सैनिक क्षमता नष्ट कर दी। चूँकि युद्ध करना एक वर्ग विशेष (क्षत्रियों) का ही पेशा था इसलिए सेना में भर्ती एक विशेष वर्ण तक सीमित थी। अधिकांश जनता को सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। छुआछूत की भावना ने सैनिकों में श्रम विभाजन असंभव कर दिया था और एक ही व्यक्ति युद्ध से लेकर पानी भरने तक अनेक कार्य करता था।

उच्च वर्ग की श्रेष्ठता की धारणा के कारण वे विदेशों से भी समुचित संघर्ष नहीं स्थापित कर पाये और देश में पृथकतावादी प्रवृत्ति ने घर कर लिया। समुद्री यात्रा को धार्मिक पाप माना जाने लगा। अल-विलादुरी का कथन है कि “हिन्दुओं को यह दृढ़ विश्वास है कि उनके देश जैसा (श्रेष्ठ) अन्य कोई देश नहीं है, इनके राजा के समान अन्य राजा नहीं है, उनके शास्त्रों के समान कोई शास्त्र नहीं है। यदि वे यात्रा करके अन्य देश के लोगों से मिले तो उनका मत शीघ्र ही परिवर्तित हो जाएगा।” अलबरूनी ने लिखा है- “उनके पूर्वज इतने संकीर्ण नहीं थे, जितनी कि वर्तमान पीढ़ी है।” इन अलगाववादी प्रवृत्ति के कारण भारत का विदेशों से सम्पर्क स्थापित नहीं हो पाता था जिसके कारण विदेशों के नवीन राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा युद्ध-कौशल संबंधी विकास के ज्ञान से भारतीय समाज लाभ नहीं उठा सका। दूसरी ओर विदेशो से भारत का व्यापार पर्याप्त मात्रा में होता था और भारत की अतुल धन-सम्पदा तथा अन्य बातों का विदेशी आक्रमणकारियों को निश्चित ज्ञान था।

तुर्कों की सामाजिक परिस्थिति इससे भिन्न थी। इस्लाम धर्म में जाति-प्रथा, वर्ण व्यवस्था जैसी बुराइयों को महत्व न देकर सामाजिक एकता की भावना पर अधिक बल दिया गया था। परिणामतः मुसलमानों में सामाजिक भेद-भाव का रूप उतना जटिल और गंभीर नहीं था जितना कि हिन्दू समाज में था। उनकी सेना में सभी वर्गों से योग्य और सक्षम सैनिक प्राप्त किए जा सकते थे, जिनमें देशभक्ति और राज्य की रक्षा करने की भावना थी जबकि भारत में मुख्य रूप से उच्च वर्ग के ही लोग प्रशासनिक तथा सैनिक पदों पर नियुक्ति होते थे। अतः निम्न वर्ग में देशभक्ति और विदेशी आक्रमण के विरुद्ध लड़ाई करने की आशा नहीं की जा सकती थी। इस प्रकार सामाजिक बुराइयों ने राजपूतों को तुर्कों के विरुद्ध पराजित करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। धार्मिक कारण

धर्म पर भी एक विशेष सम्प्रदाय का एकाधिकार भारतीय समाज में था। भारत की अधिकांश जनता को मंदिर की झांकी तक देखने की अनुभूति नहीं थी। मंदिर में प्रवेश और पूजा पाठ तो दूर की बात थी। इस कारण भी समाज में स्वतंत्रता का अभाव था। नियतिवादी और भाग्यवादी विश्वास के कारण भारतीय विदेशी आक्रमण तथा दुःखों को पूर्वजन्म के कर्मों का फल मानते थे। परिणामस्वरूप एकजुट होकर जनसाधारण वर्ग ने तुर्की आक्रमण का प्रतिरोध नहीं किया।

सैनिक कारण

वर्ण-व्यवस्था ने राजपूत राज्यों की सैनिक क्षमता नष्ट कर दी। चूँकि युद्ध करना एक वर्ग-विशेष का ही पेशा था इसलिए सेना में भर्ती एक विशेष वर्ण तक ही सीमित थी। अधिकांश जनता को सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। छूआछूत की भावना ने सैनिकों में श्रम विभाजन असंभव बना दिया था और एक ही व्यक्ति युद्ध से लेकर पानी भरने तक अनेक कार्य करता था।

भारतीय तथा तुर्की सेनाओं के युद्ध क्षेत्र में संगठन और युद्ध रणनीति में अंतर था। तुर्क सेना के मुख्य आधार गतिशील अश्वारोही सैनिक और अस्त्र के रूप में तीरंदाजी था जबकि राजपूतों को अपनी हाथी की सेना पर अधिक विश्वास था, किन्तु ये हाथी अपनी धीमी गति और आकार में बड़ा होने के कारण आसानी से शत्रु के शिकार बन जाते थे और कभी-कभी तीरों की बौछार से भयभीत होकर अपनी ही सेना को रौंद डालते थे। तुर्क युद्ध के अंतिम चरण में आमने-सामने की मुठभेड़ में शत्रु पर हमला के लिए हाथियों का प्रयोग करते थे।

शुद्ध सामरिक दृष्टि से भी भारतीय सेना मध्य एशिया में युद्ध कौशल में हुए विकास के प्रति जागरूक नहीं थी। जबकि तुर्की सेनानायक मध्य एशिया में विकसित विभिन्न प्रकार की रणनीति तथा युद्ध के दाव पेंच के प्रयोग में निपुण थे। तुर्क अपनी सेना कई टुकड़ों में बाँटते थे जो बारी-बारी से शत्रु दल पर आक्रमण करते थे। जबकि राजपूत सेना एक साथ मैदान में धावा बोलती थी और अंतिम क्षण तक लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना पसंद करते थे। यह प्रवृत्ति उनकी सैन्य शक्ति को कमजोर करती थी। इसके विपरीत तुर्क लोग अपनी पराजय निकट देख अधिक से अधिक सैनिको को रणभूमि से बाहर निकालने की कोशिश करते थे। ऐसी स्थिति में राजपूत सेना का पराजित होना निश्चित था। भारतीय सेनाओं में इस गतिशीलता के तत्व का सर्वथा अभाव था। सर जदुनाथ सरकार लिखते हैं- “तुर्क आक्रमणकारियों के हाथियारों और घोड़ो ने निःसंदेह भारतीयों पर सामरिक श्रेष्ठता प्रदान थी। तुर्की की युद्ध सामग्री तेजी से चलने वाले ऊँटों पर लादकर ले जायी जाती थी जिन्हें अपने लिए भोजन की आवश्यकता नहीं होती थी। वे रास्ते में उपलब्ध पेड़ों की पत्तियों और जड़ों से अपना पेट भर लेते थे। जबकि राजपूतों की युद्ध-सामग्री मंदगति से चलने वाली बंजारों द्वारा प्रचलित बैलगाड़ी से लाई जाती थी।”

आर.सी. स्मेल ने बताया हैं, तुर्की सेना की गतिशीलता के बाद उनकी सेना की दूसरी मुख्य विशेषता अस्त्र के रूप में तीरंदाजी थी। तुर्क चलते-चलते घोड़ों की काठी पर बैठकर धनुष का प्रयोग करते थे। इससे उन्हें राजपूतों की भारी भरकम और धीमी गति से चलने वाली सेनाओं की तुलना में अधिक लाभ प्राप्त होता था।

राजपूतों के मुख्य रणकेन्द्र किले थे जिन्हें तोड़ने के लिए तुर्कों ने मंजनिक और अर्रादा नामक यंत्रों का प्रभावशाली प्रयोग किया था। जनसाधारण की उदासीनता के कारण ग्रामीण क्षेत्र तुर्कों की अधीनता में शीघ्र आ जाते थे। ऐसी स्थिति में नगर या किले के अंदर से अधिक दिनों तक तुर्कों का प्रतिरोध कर पाना राजपूतों के लिए अत्यन्त कठिन था। इसके अलावा राजपूतों की सेना भी सामंती आधार पर संगठित थी। जो राजा के प्रति पूर्ण निष्ठावान नहीं होती थी। तुर्कों के गुप्तचर शत्रु पक्ष की कमजोरियों का ज्ञान प्राप्त करके उसका पूरा लाभ उठाते थे। तुर्कों को विजय से धन, यश, राज्य आदि के लाभ की इच्छा के कारण उनमें युद्ध के समय अधिक उत्साह तथा जोश का होना सर्वथा स्वाभाविक था। इस प्रकार राजपूतों की पराजय में तुर्कों की सैनिक श्रेष्ठता की भूमिका प्रमुख थी।

निष्कर्ष :

इस प्रकार हम यह देखते हैं कि तुर्कों के विरुद्ध राजपूतों की असफलता के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सैनिक कारण प्रमुख थे। राजपूत पराजित अवश्य हुए, फिर भी राजपूत राज्यों ने लंबे समय तक तुर्की शासन का प्रतिरोध किया।

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