ब्रिटिश संविधान और शासन व्यवस्था किसी लिखित व्यवस्था पर आधारित नहीं हैं। इसका अधिकांश भाग जैसे राजपद, मन्त्रिमण्डल तथा पार्लियामेंट सम्बन्धी मौलिक व्यवस्था लिखित कानूनों द्वारा न की जाकर उन रीति-रिवाजों, प्रथाओं तथा परम्पराओं (Traditions of British constitution) द्वारा की जाती है। जिनका पिछले लगभग 300 वर्षो में शनैः शनैः विकास हुआ है। इनको मिल (Mill) ने संविधान की अलिखित मान्यतायें कहा था और सर विलियम आन्सन जिनको संविधान के रीति-रिवाज कहता है। डाइसी ने अपनी पुस्तक ‘कानून और संविधान’ (1885) में इनको संविधान की प्रथायें कहा था और इनके लिये आज यही संज्ञा प्रचलित है । डाइसी ने इनके लिए कन्वेन्शन (covention) शब्द का प्रयोग किया था। प्रथा शब्द कन्वेन्शन का हिन्दी अनुवाद है।
प्रथाओं और कानून में अन्तर : Traditions of British constitution
यह स्पष्ट है कि प्रथायें वैधानिक नहीं होतीं यद्यपि वास्तव में संवैधानिक व्यवस्था को निर्धारित एवम् नियमित करती है। कानून से वह निम्नलिखित बातों में भिन्न होती हैं
(1) कानून लिखित होता है; प्रथायें अलिखित,
(2) कानून नियमित पद्धति से विधानमण्डल द्वारा बनाया जाता है, प्रथाओं का शनैः शनैः रीति-रिवाजों द्वारा विकास होता है,
(3) कानून किसी निश्चित समय से कार्यान्वित किया जाता है, प्रथाओं के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता,
(4) कानून निश्चित, परिमित एवं नियमित होता है, प्रथायें अनिश्चित, अपरिमित एवं अनियमित होती हैं,
(5) कानून का उल्लंघन करना अपराध है जिसके लिए न्यायालय दण्ड देते हैं, परन्तु प्रथाओं का उल्लंघन करना कोई वैधानिक अपराध नहीं है। अर्थात् कानून को न्यायालय द्वारा लागू कराया जा सकता है, प्रथाओं को नहीं। न्यायालय केवल कानूनों को स्वीकार करते हैं। प्रथाओं का कोई भी वैधानिक प्रभाव न्यायालयों के लिये नहीं होता।
जैनिंग्स के विचार. परन्तु सर आइवर जैनिंग्स के मतानुसार प्रथाओं और कानूनों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। उनका विचार है कि दोनों का ही सार अथवा आधार सार्वजनिक स्वीकृति है।
दूसरे, बहुत से कानून स्वयं प्रथाओं एवं परम्पराओं पर आधारित होते हैं। वास्तव में उनका निर्माण ही समाज में प्रचलित वास्तविक व्यवहार को वैधनिक मान्यता देने के लिये किया जाता है। उदाहरणार्थ, 1931 के वेस्टमिनस्टर कानून की प्रस्तावना (Preamble) में अनेक प्रथाओं को स्थान दिया गया है।
तीसरे, अनेक पदों एवं संस्थाओं को, जिनका उद्भव और विकास प्रथाओं द्वारा हुआ था, कानून ने मान्यता दी है। उदाहरणार्थ प्रधान मन्त्री का पद मूलतः प्रथाओं पर आधारित है। अठाहरवीं शताब्दी के आरम्भ में ही इसका संस्थापन हो गया था परन्तु 1916 में चेकर्स एस्टेट एक्ट तथा 1937 में मिनिस्टर्स ऑफ क्राउन एक्ट ने इस पद को स्वीकार किया है। मंत्रिमंडल का उद्भव भी प्रथाओं द्वारा हुआ। 1937 के एक्ट ने इस संस्था को भी स्वीकार किया है।
चौथे, स्वयं न्यायालयों ने अनेक मामलों में कानून की व्याख्या करने में संवैधानिक प्रथाओं को मान्यता दी है। न्यायालय संवैधानिक प्रथाओं से अनभिज्ञ नहीं होते और कभी-कभी उनका प्रयोग किये बिना नहीं रह सकते।
पाँचवे, बिटिश शासन-व्यवस्था की सभी संस्थायें या तो प्रथाओं द्वारा संस्थापित हुई हैं या उन संस्थाओं द्वारा इनकी व्यवस्था की गई है जो स्वयं प्रथाओं पर आधारित है। अथवा थीं। इस प्रकार इनके अधिकार भी प्रथाओं पर आधारित हैं अथवा उन संस्थाओं की देन हैं जो स्वयं प्रथाओं पर आधारित थीं। स्वयं पार्लियामेंट का कानून बनाने का अधिकार परम्परागत हैं, किसी कानून पर आधारित नहीं है। पार्लियामेंट के कानूनों को न्यायालय सर्वोच्च मानते हैं और पार्लियामेंट कोई भी कानून निर्मित कर सकती है। परन्तु पार्लियामेंट का यह अधिकार और उसकी यह स्थिति तथा उसके संगठन, उसकी कार्यपद्धति और इसके अधिकारों का अधिकांश भाग प्रथाओं का ही परिणाम है।
उपरोक्त वर्णन से जैनिंग्स ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कानून और परम्पराओं में कोई मौलिक अथवा तात्विक (substantial) अन्तर नहीं है यद्यपि दोनों में तीन प्रकार के भेद को जैनिंग्स भी स्वीकार करता है :
(1) कानून का उल्लंघन किये जाने पर न्यायालय निर्णय दे सकते हैं और फिर कोई सन्देह नहीं रह जाता कि कानून का उल्लंघन किया गया है। यदि कानून का उल्लंघन सरकार ने किया है तो उसका कर्त्तव्य है कि अपने अवैध कार्य को वैध करने के लिए नवीन कानून निर्मित करे अथवा जिस कानून का उल्लंघन हुआ है उसमें संशोधन करे। प्रथा का उल्लंघन निश्चित नहीं किया जा सकता और न ही प्रथा का उल्लंघन होने पर उसे वैध करने की आवश्यकता है।
(2) प्रथायें सतत व्यवहार के परिणामस्वरूप विकसित होती हैं और यह कहना कठिन हैं कि किस समय कोई व्यवहार प्रथा (convention) का रूप धारण कर लेता है। परन्तु कानून किस समय से लागू होता है और उसका किस समय अन्त होता है यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है।
(3) प्रथाओं की अपेक्षा कानून के प्रति अधिक आस्था होती है, इसका डर भी अधिक होता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसका उस सरलता से उल्लंघन नहीं किया जा सकता जिस सरलता से प्रथाओं का किया जा सकता है। सरकार द्वारा कानून का उल्लंघन प्रथाओं की अपेक्षा अधिक गम्भीर एवं शोचनीय माना जाता है। अतः कानून के उल्लंघन से अधिक असन्तोष फैलने की सम्भावना व आशंका रहती है।
प्रथाओं के उद्देश्य : ब्रिटेन के संविधान में परंपरा
प्रथायें कानून नहीं होतीं परन्तु वह कानून के विरुद्ध भी नहीं होतीं। वह कानून से परे अथवा कानून के अतिरिक्त (extra legal) होती हैं। वास्तव में वह कानून अथवा संविधान की सहायक होती हैं और इस बात को निर्धारित करती हैं कि संविधान व्यवहार में किस प्रकार लागू होगा। संविधान की कठोरता, उसकी संकीर्णता एवम् जटिलता को दूर कर प्रधायें उसे लचीला, उदार एवं सरल बना देती हैं जिस कारण उसके लागू किये जाने में कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होती।
बर्क ने प्रथाओं को “संविधान की चलन शक्ति” कहा था क्योंकि वे ही यह निर्धारित करती हैं कि वैधानिक नियम वास्तव में किस ढंग से लागू होंगे और दूसरे, बर्क के अनुसार, प्रथाओं का यह उद्देश्य होता है कि संविधान व्यवहार में समकालीन प्रचलित संवैधानिक धारणाओं के अनुकूल विकसित होता रहे। जैनिंग्स के शब्दों में, “प्रथायें ही संकुचित वैधानिक व्यवस्था को • और प्रत्येक वैधानिक व्यवस्था कालान्तर में संकुचित हो जाती है— परिवर्तनशील सामाजिक आवश्यकताओं तथा राजनीतिक विचारों के अनुकूल बनाती हैं। ऐसा न होने पर वैधानिक व्यवस्था कुछ ही समय उपरान्त कालातीत होकर अनुपयोगी और संभवतः असहनीय बन जायेगी। प्रथायें ही संविधान को निरंतर प्रगतिशील परिस्थितियों में कार्यान्वित हो सकने के योग्य बनाती रहती हैं। अतः किसी भी संविधान का वास्तविक और संपूर्ण ज्ञान प्रथाओं के बिना अधूरा ही रह जायेगा और ब्रिटिश संविधान तो मूलतः प्रथाओं का ही परिणाम है।
ब्रिटिश शासन-व्यवस्था के मुख्य भाग, सम्राट, मंत्रिमण्डल और पार्लियामेंट अधिकांश रूप से अपने कार्य संचालन में प्रथाओं द्वारा ही नियमित हैं। इस कथन की पुष्टि इन तीनों भागों से संबंधित प्रथाओं का अवलोकन करने से हो जाती हैं।
मंत्रिमंडल सम्बन्धी प्रथायें :
कैबिनेट का उद्भव और उसका विकास प्रथाओं द्वारा ही हुआ और वास्तव में 1937 तक उसको कोई वैधानिक मान्यता नहीं दी गई थी। आज भी उसका संगठन और कार्य संचालन प्रथाओं द्वारा नियमित होता है। इन प्रथाओं में कुछ महत्त्वपूर्ण इस प्रकार हैं संसद में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के नेता को प्रधानमंत्री बनाया जाना, उसके परामर्श पर मंत्रिमंडल का निर्माण करना, मंत्रिमंडल के सब सदस्यों को बहुमत दल से ही चुना जाना, अर्थात् साधारणतया मंत्रिमण्डल का एक दलीय होना (ब्रिटेन में राष्ट्रीय संकट के समय अथवा युद्ध के समय मिश्रित मंत्रिमंडलों का निर्मित किया जाना अपवाद मात्र है), मंत्रिमण्डल के सब सदस्यों का एकमत होना, किसी एक के मन्त्रिमण्डल से असहमत होने पर अपना विरोध अथवा असहमति प्रकट करने से पूर्व पदत्याग देना, मन्त्रिमण्डल के सदस्यों का सामूहिक तथा व्यक्तिगत रूप से पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदायी होना, मन्त्रिमण्डल का कॉमनसभा में बहुमत न रहने पर त्यागपत्र दे देना, तथा सम्राट को कॉमन सभा के भंग करने की परामर्श देकर पुनर्निर्वाचन द्वारा अपने पक्ष में बहुमत प्राप्त करने का अवसर होना (इसे संवैधानिक शब्दावली में “जनता से अनुरोध” करने का अधिकार कहा गया है), आदि।
राजपद सम्बन्धी प्रथाएँ :
प्रथाओं ने राजाधिकारों को मन्त्रिमण्डल के हाथों में हस्तान्तरित कर दिया और शासन संचालन में सम्राट का भाग नाममात्र रह गया। यद्यपि सिद्धान्त में सम्राट ही इनका उपयोग करता है परन्तु इनका उपयोग मन्त्रिमण्डल के आदेशानुसार ही कर सकता है जिसको मन्त्रिमण्डल की ‘मंत्रणा’ (advice) कहा जाता है। इस मन्त्रणा का वह उल्लंघन करे तो गम्भीर संवैधानिक संकट उत्पन्न हो सकता है।
पार्लियामेंट सम्बन्धी प्रयाएँ :
पार्लियामेंट के संगठन, कार्यपद्धति तथा उसके सदनों के परस्पर सम्बन्ध नियमित करने वाली अनेक प्रथायें हैं, उदाहरणार्थ लॉर्डसभा के न्यायिक कार्यों में केवल न्यायिक सदस्यों (law lords) का भाग लेना, यद्यपि वैधानिक रूप से लॉर्डसभा का कोई भी सदस्य पुनर्विचार के लिए आये मुकदमों का अन्तिम निर्णय करने में भाग ले सकता है। पार्लियामेंट का वर्ष में कम से कम एक अधिवेशन आयोजित किया जाना, कॉमनसभा के कार्यसंचालन का प्रबन्ध सब दलों की सहमति से किया जाना, पार्लियामेंट की इच्छा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा, शान्ति के लिए समझौता अथवा सन्धियों का न किया जाना यद्यपि युद्ध, शान्ति और सन्धियाँ कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में हैं। समितियों के संगठन में सब प्रमुख दलों को सदन में उनकी शक्ति के अनुपात में स्थान दिया जाना, आदि।