हर्दक वंश – महात्मा बुद्ध के समय में बिम्बिसार मगध में शासन कर रहा था। बौद्ध साहित्य के अनुसार वह हर्यक वंश का था।
बिम्बिसार (545 ई.पू 493 ई.पू.) – Bimbisara
डॉ. भण्डारकर का मत है कि विम्बिसार (Bimbisara) प्रारम्भ में एक सेनापति था। परन्तु उसने बच्चियों को पराजित करके अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया और एक नवीन राज-वंश की स्थापना की। परन्तु यह मत न्यायसंगत नहीं प्रतीत होता. क्योंकि महावंश के अनुसार बिम्बिसार के पिता ने उसे अपना राज्य दिया था। उस समय बिम्बिसार की आयु 15 वर्ष की थी। बिम्बिसार के पिता के नाम के विषय में भी बड़ा मतभेद है। पुराण उसका नाम हेमजित् क्षेत्रीजा अथवा क्षत्रौजा बताते हैं। टर्नर आदि कुछ विद्वानों के अनुसार नाम भातिय अथवा भट्टिय था। जैन साहित्य उसे श्रेणिक बताता है।
बिम्बिसार के वैवाहिक सम्बन्ध —
बिम्बिसार एक कुशल राजनीतिज्ञ था। निर्बल मगध किसी भी समय कोशल, वत्स अथवा अवन्ती की विस्तारकारिणी उग्र नीति का शिकार हो सकता था। अतः बिम्बिसार ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए कई महत्वपूर्ण विवाह सम्बन्ध किये।
(1)कोशल की राजकुमारी महाकोशला से
उसने कोशल के राजा महाकोशल की पुत्री कोशलदेवी से विवाह कर लिया। कोशलदेवी प्रसेनजित् की बहन थी। इस विवाह से न केवल कोशल राज्य मगध का मित्र बन गया वरन् इसके साथ ही साथ मगध को एक लाख की वार्षिक आय का काशी-ग्राम भी प्राप्त हुआ जो कोशलदेवी को विवाह के समय उसके पिता ने दिया था। इससे मगध को सुरक्षा भी मिली, क्योंकि उसके और वत्स के मध्य में मित्र राज्य कोशल था।
(2) लिच्छवी में राजा चेतक की बहन से :
उसने वैशाली के लिच्छवि राजा चेटक की बहन चेल्लना (छल्ला) के साथ भी विवाह किया और इस प्रकार उसने परम विख्यात लिच्छवियों की मित्रता प्राप्त की। इस विवाह के पीछे राजनीतिक कारण के साथ-साथ सामरिक और आर्थिक कारण भी थे। विनयपिटक का कथन है कि लिच्छवि मगध की राजधानी पर रात्रि को आक्रमण करते रहते थे। उनके साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित करके यह खतरा टाला जा सकता था। पुनः वैशाली एक व्यापारिक नगरी थी और उसके द्वारा उसकी दक्षिणी सीमा पर बहने वाली गंगा नदी का प्रयोग व्यापारिक यातायात के लिये किया जा सकता ।
(3) उसका तीसरा विवाह मद्र देश की राजकुमारी खेमा के साथ हुआ था।
(4) महावग्ग के अनुसार बिम्बिसार के 500 रानियाँ थीं। सम्भव है कि उसने तत्कालीन कुछ अन्य राजवंशों के साथ भी विवाह सम्बन्ध स्थापित किये हों।
बिम्बिसार के मैत्री सम्बन्ध :
बिम्बिसार अवन्ती-नरेश प्रद्योत के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे। एक अवसर पर बिम्बिसार ने अपने प्रसिद्ध राजवैद्य जीवक को पाण्डुरोग से पीड़ित प्रद्योत की चिकित्सा के लिए भेजा था। गन्धार का राजा पुक्कुसाति और रोठक (सिन्ध) का राजा रुद्रायन भी उसके मित्र थे। पुष्करसी ने तो उसकी राजसभा में एक दूत भी भेजा था। इस प्रकार अपने समय का पूर्वी भारत का वह सर्वशक्तिशाली राजा था।’ अपने कूटनीतिक और वैवाहिक सम्बन्धों की सहायता से ही वह आक्रमणकारी नीति का श्रीगणेश कर सका।
बिम्बिसार का साम्राज्य विस्तार –
मगध और अंग की पुरानी शत्रुता थी। विधुरपण्डित जातक का कथन है कि राजगृह पर अंग ने अधिकार कर लिया था। अंग ने विम्बिसार के पिता को पराजित किया था। अतः सर्वप्रथम विम्विसार ने अंग-राज्य के ऊपर आक्रमण किया उसका राजा ब्रह्मदत्त मारा गया और अंग का राज्य मगध राज्य में मिला लिया गया। साम्राज्य स्थापना की ओर यह दूसरा कदम था। पहला कदम विवाह सम्बन्ध के द्वारा काशी प्राप्ति का था।
इन दो प्रदेशों की प्राप्ति से मगध की शक्ति और समृद्धि दोनों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। महावग्ग के कथनानुसार बिम्बिसार की अधीनता में 80,000 ग्राम थे। सम्भव है कि उसने कुछ अन्य प्रदेश भी जीते हो बुद्धचर्या से प्रकट होता है कि विम्बिसार के राज्य का विस्तार 300 योजन था।
मगध की प्राचीन राजधानी कुशाग्रपुर थी। इसे गिब्रज भी कहते थे। यह नगर उत्तर में स्थित बजि संघ के आक्रमणों के कारण सुरक्षित न था । बजियों के कारण ही एक बार इस नगर में आग लग गई और यह बहुत कुछ नष्ट हो गया। अतः यजियों का सामना करने के लिए बिम्बिसार ने पुरानी राजधानी के कुछ उत्तर में राजगृह नामक एक दूसरी राजधानी की स्थापना की।
ह्वेनसांग इसका उल्लेख करता है, यद्यपि फाह्यान के कथनानुसार नये राजगृह की स्थापना विम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने की थी। इस घटना के बाद वत्रियों की शत्रुता का मूलतः निराकरण करने के लिए विम्बिसार ने उनकी राजकुमारी चेल्लना से विवाह भी कर लिया।
शासन व्यवस्था –
उसे सहायता देने के लिए राज्य में छोटे-बड़े अनेक पदाधिकारी थे। इनमें उप-राजा, माण्डलिक राजा, सेनापति, सेनानायक, महामात्र व्यवहारिक महामात्र और ग्रामभोजक प्रमुख थे ।
(1) उप-राजा– अजातशत्रु चम्पा का उपराजा था।
(2) माण्डलिक राजा- ये सम्भवतः राजवंशीय और सामन्तवंशीय थे। इन्हें अनेक भू-प्रदेश दे दिये गए थे जहाँ ये राजाज्ञा से शासन करते थे।
(3) सर्वार्थक महामात्र यह प्रधानमन्त्री की भाँति होता था।
(4) सेनापति–सेनापति का पद किसी विश्वस्त और अनुभवी व्यक्ति को ही मिलता होगा।
(5) सेनापति महामात्र—ये सेनापति के नीचे के अन्य पदाधिकारी थे।
(6) व्यवहारिक महामात्र– ये आधुनिक भाषा में न्यायाधीश थे।
(7) ग्राम-भोजक – ये गाँव के मुखिया होते थे जो गाँव में राज-कर वसूल करने में योग देते थे।
सम्पूर्ण राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी राजा ही था तथापि प्रान्तों और ग्रामों को अपने स्थानीय शासन में काफी अधिकार प्राप्त थे। महावग्ग से प्रकट होता है कि बिम्बिसार की राजसभा में समस्त ग्रामों के प्रतिनिधियों (ग्रामिकों) को स्थान प्राप्त था।
न्याय-व्यवस्था :
राज्य की न्याय-व्यवस्था कठोर थी। कारावास के अतिरिक्त कोड़े लगाने, लोहे से दागने, जिह्वा काटने, पसलियाँ तोड़ने, अंगच्छेद और मृत्यु दण्ड देने की भी व्यवस्था थी। गलत सलाह देने के अपराध में बड़े से बड़ा पदाधिकारी भी पदच्युत कर दिया जा सकता था। राज्य की उचित सेवा करने पर पदाधिकारियों को पुरस्कार भी मिलते थे।
विद्या- कला का संरक्षण –
राज्य में विद्या-कला को प्रोत्साहन मिलता था। जीवक राज्य का प्रमुख वैद्य था। उसने तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त की थी और आयुर्वेद की कौमारभृत्य शाखा का विशेषज्ञ था। राजगृह में भवनों का निर्माण प्रसिद्ध वास्तुकार महागोविन्द ने किया था।
बिम्बिसार का धर्म-
बिम्बिसार एक धर्म-साहिष्णु शासक था। अतः कई धर्म उसे अपना अनुयायी बताते हैं। विनयपिटक का कथन है कि वह महात्मा बुद्ध के प्रभाव में बौद्ध हो गया था और उसने वेलुवन बौद्धसंघ को दान में दिया था। जैन ग्रन्थ उसे जैन बताते हैं। दीघनिकाय के अनुसार उसने सोनदण्ड नामक एक ब्राह्मण को चम्पा की आय दान में दे दी थी।
बिम्बिसार की शासन अवधि-
महावंश के अनुसार विम्बिसार ने 52 वर्ष तक राज्य किया था। परन्तु पुराणों में उसकी शासन अवधि केवल 28 वर्ष बताई गई है। अन्त में अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर बलात् सिंहासन पर अधिकार कर लिया।