गणतन्त्रात्मक संगठन –
महात्मा बुद्ध की संगठनात्मक प्रतिभा का सर्वप्रमुख उदाहरण उनके द्वारा बौद्ध संघ की स्थापना है। महात्मा बुद्ध का जन्म एक गणतन्त्रात्मक राज्य में हुआ था। अतः गणतन्त्रात्मक प्रणाली के संस्कार उनके मस्तिष्क पर भलीभाँति दृढ़ हो चुके थे। उनका भिक्षु संघ वस्तुतः एक धार्मिक गणतन्त्र था। उसमें समस्त सदस्यों के अधिकार समान थे। यहीं न कोई छोटा था और न कोई बड़ा।
महात्मा बुद्ध ने अपना कोई उत्तराधिकारी भी नियुक्त न किया था। उन्होंने अपने निर्वाण के समय स्वयं कहा था कि ‘आनन्द शायद तुम ऐसा सोचो कि हमारे शास्ता चले गये, अब हमारा शास्ता नहीं! आनन्द ! इसे ऐसा मत समझना। मैंने जो धर्म और विनय उपदेश किये हैं, प्रज्ञप्त किये हैं, मेरे बाद वे ही तुम्हारे शास्ता होंगे।’
महापरिनिव्वाण सुत्तान्त का कथन है कि महात्मा बुद्ध ने सम्पूर्ण भिक्षु संघ को एकत्र कर उन्हें 7 अपरिहरणीय धर्मों का उपदेश दिया था-
(1) भिक्षुओं! जब भिक्षु लोग एक साथ एकत्र होकर बहुधा अपनी सभाएँ करते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि समझना, हानि नहीं ।
(2) भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु लोग एक हो बैठक करते रहेंगे, एक हो उद्यान करते रहेंगे और एक ही संघ के कार्यों को सम्पन्न करते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि समझना, हानि नहीं।
(3) भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु लोग बौद्ध संघ के विहित नियमों का उल्लंघन नहीं करेंगे, संघ-विरुद्ध नियमों का अनुसरण नहीं करेंगे, पुरातन भिक्षु-नियमों का पालन करते रहेंगे तब तक उनकी वृद्धि होगी, हानि नही।
(4) भिक्षुओं ! जब तक बौद्ध धर्म के भिक्षु लोग उच्चतर धर्मानुरागी, चिर प्रब्रजित, संघ के जन्मदाता, संघ के नायक स्थविर भिक्षुओं का सत्कार करते रहेंगे, उनकी बात को सुनने तथा ध्यान देने योग्य समझते रहेंगे, तब तक उनकी वृद्धि होगी, हानि नहीं।
(5) भिक्षुओं! जब तक भिक्षु लोग पुनः पुनः उत्पन्न होने वाली तृष्णा के वश में नहीं पड़ेंगे, तब तक उनकी वृद्धि होगी, हानि नहीं।
(6) भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु लोग वन कुटीरों में निवास करने की इच्छा वाले रहेंगे, तब तक उनकी वृद्धि होगी, हानि नहीं।
(7) भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु लोग यह स्मरण रखेंगे कि भविष्य में अच्छे ब्रह्मचारी संघ में सम्मिलित हों और सम्मिलित हुए लोग बह्मचारी रहते हुए सुखपूर्वक निवास करें, तब तक भिक्षु संघ की वृद्धि होगी, हानि नहीं।
बौद्ध संघ की कार्य प्रणाली : Buddhist union
संघीय कार्यों में प्रत्येक भिक्षु के अधिकार समान थे। के लिए. संघ की उपस्थिति आवश्यक थी अन्यथा वह कार्य अवैधानिक समझा जाता था। 2 अनुपस्थित व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के द्वारा अपना मत प्रकट करा सकता था। संघ की सभा में सब के बैठने की व्यवस्था करने वाले पदाधिकारी को ‘आसन प्रज्ञापक’ कहते थे।’ प्रस्ताव रखने के पूर्व उसकी सूचना दे दी जाती थी। इस सूचना को ‘नति’ कहा जाता था। प्रस्ताव का प्रस्तुत करना ‘अनुस्सावन‘ अथवा ‘कम्मवाचा‘ कहलाता था। तत्पश्चात् प्रस्ताव पर विवाद होता था। जिस विषय पर सदस्यों में मतभेद होता था उसे अधिकरण कहते थे।
प्रत्येक सदस्य स्वतन्त्रतापूर्वक अपना मत (छन्द) दे सकता था। जो व्यक्ति प्रस्ताव को स्वीकार करते थे वे मौन रहते थे। कभी-कभी मत विभाजन शलाकाओं के द्वारा होता था। ये शलाकाएँ भिन्न-भिन्न रंग की होती थी। जो अधिकारी शलाकाओं का वितरण और संग्रह करता था उसे ‘सलाकागाहापक’ कहते थे। मत-दान दो प्रकार का होता था गुप्त (गुल्हक) और प्रत्यक्ष (विचतक) निर्णय बहुमत से होता था।
बहुमत द्वारा हुए निर्णय को ये भूमस्सिकम्‘ अथवा ‘ये भयसीयम्‘ कहते थे। प्रत्येक प्रस्ताव तीन बार प्रस्तुत और स्वीकृत किया जाता था। तभी वह अधिनियम बनता था। कभी-कभी प्रस्ताव विशेष विचार के लिए किसी उप समिति (उच्चाहिका) के सुपुर्द कर दिया। जाता था।
संघ के अधिवेशन के लिए कम से कम 20 भिक्षु सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य थी। ‘यह ‘कोरम’ (quorum) था। इसके बिना प्रत्येक अधिवेशन और अधिनियम अवैध समझा जाता था
बौद्ध संघ का संगठन – Bauddha sangha
प्रारम्भ में कोई भी व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण कर भिक्षु हो सकता था और संघ में प्रवेश पा सकता था। परन्तु कालान्तर में इस उन्मुक्त और निस्सीम अधिकार का दुरुपयोग होने लगा। उदाहरणार्थ, बहुत से अपरिपक्क अवस्था के तरुण क्षणिक भावना के वशीभूत होकर गृहत्याग कर देते और संघ में प्रविष्ट हो जाते थे महावग्ग का कथन है कि मगध की जनता अपने बहुसंख्यक नवयुवकों को प्रवज्या ग्रहण करते देख कर व्यग्र हो उठी थी।
इसी प्रकार इसी ग्रंथ में अन्यत्र उल्लेख है कि, बौद्ध संघ में अनेक अज्ञानी और अनधीत व्यक्ति घुस आये थे। बहुत से व्यक्ति संघ में इसलिए प्रविष्ट हुए थे कि जिससे वे जनता के दान की सहायता से संघ में सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकें।
” चुल्लवग्ग में ऐसे कलहप्रिय एवं अपनभाषी भिक्षुओं का उल्लेख है जो संघ के अधिवेशनों में व्यर्थ का वाद-विवाद करते थे। मिलिन्दपन्हों ऐसे परिव्राजकों का उल्लेख करता है जो राजा के अत्याचारों से पीड़ित होकर, डाकुओं से भयभीत होकर, ऋणी होने के कारण अथवा जीविकोपार्जन के निमित्त प्रव्रज्या ग्रहण करते थे।
मगध-नरेश बिम्बिसार ने यह आज्ञा प्रसारित की थी कोई भी व्यक्ति बौद्ध भिक्षुओं को हानि न पहुँचायें।’ इस आज्ञा से लाभ उठाने के लिए चोर, डाकू, हत्यारे, ऋणी आदि बौद्ध भिक्षु बन गये होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं। इस प्रकार के संघ-प्रवेश के पीछे कोई धार्मिक भावना न थी।
परिस्थिति-सुधार करने के लिए यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि संघ प्रवेश के लिए कुछ शर्तें बना दी जायें। नई नियमावली के अनुसार 15 वर्ष की अवस्था से कम का युवक संघ-प्रवेश न पा सकता था। चोर, हत्यारों और ऋणी व्यक्तियों के लिए संघ-प्रवेश की आज्ञा न रही। 2 युवकों के लिए अब यह आवश्यक हो गया कि गृहत्याग के पूर्व वह अपने माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर लें। क्लीव, दास और रोगी भी अब संघ प्रवेश न पा सकते थे।
नारियों का संघ-प्रवेश-
नारियों को भी बौद्ध संघ में प्रविष्ट होने की आज्ञा मिल गई थी। कालान्तर में अनेकानेक भिक्षुणियों ने धर्म प्रचार में महत्वपूर्ण योग देकर महात्मा बुद्ध के इस विश्वास को सार्थक बनाया। इस योग के कारण खमा, पटाचारा, किसा, गौतमी, विशाखा आदि नारियाँ भारतीय इतिहास में अमर हैं।
उपसम्पदा –
संघ प्रवेश को उपसम्पदा कहते थे। बौद्ध धर्म में इसका वही महत्व था। जो ब्राह्मण धर्म में उपनयन संस्कार का संघ में प्रविष्ट हो जाने पर भिक्षु को किसी आचार्य के निरीक्षण में रह कर कुछ वर्षों तक अध्ययन करना पड़ता था। इस काल को ‘निस्साय’ कहते थे। इसका वही महत्व था जो ब्राह्मणों में ब्रह्मचर्याश्रम का।
आवास
देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिक्षुओं की बस्तियाँ (उपनिवेश) थीं। इन्हें आवास कहते थे। प्रत्येक आवास में अनेक भिक्षु-विहार होते थे और प्रत्येक विहार में भिक्षुओं के निवास के लिए अनेक कक्ष (कमरे) बने होते थे।
बौद्ध संघ के भिक्षुओं के नियम-
समय-समय पर सारे भिक्षु एक स्थान पर एकत्र होते थे और ‘पातिमोक्ख’ 6 का पाठ करते थे। पातिमोक्ख बौद्ध भिक्षुओं के निमित्त विधि-निषेधों का संग्रह था। कालान्तर में ‘उपोसथ’ का विकास हुआ। कुछ विशेष पवित्र दिवसों पर सारे भिक्षुओं का एकत्र होकर धर्म-चर्चा करना ही ‘उपोसथ’ था। इस उपोसथ में ‘पातिमोक्ख भी पढ़ा जाने लगा। उपोसथ में सम्मिलित होने के पूर्व पूर्वकृत अपराधों की स्वतः स्वीकृति के द्वारा प्रत्येक भिक्षु को ‘परिशुद्ध’ करनी पड़ती थी।
संघ को अपने भिक्षु सदस्यों के ऊपर पूरा अधिकार था। उसने उनके जीवन को नियन्त्रित करने के लिए तथा नियम विरुद्ध कार्य करने वाले भिक्षुओं को दण्डित करने के लिए एक विस्तृत विधान बनाया था। उसका विधान राज्य को भी मान्य था। बौद्ध संघ विश्व में परिव्राजकों का सर्वप्रथम संगठन था और कदाचित् सबसे अधिक जनतन्त्रात्मक और विकासात्मक भी।