Bauddha kaal ki samajik sthiti | बौद्ध काल की सामाजिक स्थिति | Social condition of india in Buddha period

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 बुद्ध काल में भारत की सामाजिक स्थिति बड़े परिवर्तन और उथल-पुथल का समय थी।  जाति व्यवस्था मजबूती से कायम थी, लेकिन कठोर पदानुक्रम और महिलाओं और निचली जातियों के अनुचित व्यवहार के प्रति असंतोष की भावना बढ़ रही थी।  व्यापारी वर्ग के उदय ने पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को भी चुनौती दी, क्योंकि व्यापारियों ने पारंपरिक अभिजात वर्ग के प्रतिद्वंद्वी धन और शक्ति जमा करना शुरू कर दिया।


 इस संदर्भ में, बुद्ध की शिक्षाओं ने समाज के बारे में सोचने का एक नया तरीका पेश किया।  उन्होंने सिखाया कि सभी लोग समान हैं, चाहे उनकी जाति या लिंग कुछ भी हो, और हर किसी में आत्मज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है।  समानता और करुणा के इस संदेश ने कई लोगों को प्रभावित किया और बौद्ध धर्म जल्द ही भारतीय समाज में एक बड़ी ताकत बन गया।

बौद्ध काल की सामाजिक स्थिति


 बुद्ध की शिक्षाओं का महिलाओं के जीवन पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।  वैदिक काल में महिलाओं को बड़े पैमाने पर धार्मिक और सामाजिक जीवन से बाहर रखा गया था।  हालाँकि, बुद्ध ने सिखाया कि महिलाएं भी पुरुषों की तरह ही ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम थीं, और उन्होंने महिलाओं के लिए बौद्ध संघ (भिक्षुओं और Nuns का समुदाय) खोल दिया।  यह एक क्रांतिकारी कदम था और इससे भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधारने में मदद मिली।


 बुद्ध काल में भारत की सामाजिक स्थिति जटिल एवं गतिशील थी।  बुद्ध की शिक्षाओं ने समाज के बारे में सोचने का एक नया तरीका पेश किया, और उन्होंने पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने में मदद की।  इससे बड़े बदलाव और उथल-पुथल का दौर शुरू हुआ, लेकिन इसने एक अधिक न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज की नींव भी रखी।


बौद्ध काल की सामाजिक दशा:

भारतीय विधि और न्याय व्यवस्था का उद्भव इसी काल में हुआ। पहले कबायली कानून चलते थे, जिसमें वर्ग भेद नहीं था। लेकिन ब्राह्मण साहित्य से ज्ञात होता है कि इस समय तक समाज में परम्परागत चारों वर्णों में कठोरता आ गई तथा जातिगत बंधन व भेदभाव स्पष्ट हो चुके थे। सूत्र साहित्य जिसका सम्पादन संभवतः बौद्ध धर्म के प्रचार का मुकाबला करने के लिए किया गया था, में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य की गणना 'द्विजाति' में की गई, जो उपनयन तथा अध्ययन के अधिकारी थे। धर्मसूत्रों में प्रत्येक वर्ण के लिए अपने-अपने कर्त्तव्य तय कर दिये गये तथा वर्णभेद के आधार पर ही व्यवहार विधि (सिविल लॉ) तथा दण्ड विधि (क्रिमिनल लॉ) बनी।


● विष्णु धर्मसूत्र में दस साल के ब्राह्मण को 100 साल के क्षत्रिय से श्रेष्ठ बताया गया है। (मनुस्मृति में भी) तथा उसे क्षत्रिय का पिता मानने के लिए कहा गया है। 

● गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि राजा को चाहिए कि वह पुरोहित ब्राह्मण को इन छः दण्डों से मुक्त रखें 1. शारीरिक यातना, 2. कारावास, - 3. अर्थदण्ड (जुर्माना), 4. देश निष्कासन, 5. अपमानित करना एवं 6. मृत्युदण्ड ।


वहीं बौद्ध-जैन ग्रंथों में जन्मजात श्रेष्ठता के विचार का खण्डन किया गया है। बुद्ध के अनुसार 'शील तथा प्रज्ञायुक्त मनुष्य ही ब्राह्मण हैं। इसी आधार पर वे स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं। वे ब्राह्मणों के 5 वर्ग बताते हैं-

1. ब्रह्म समां (ब्रह्मा के समान)

2. देव समां (देवताओं के समान) 

3. मर्यादा (जो अपने जातीय गौरव का पालन कर रहा हो चुका हो)

4. सभिन्न मर्यादा (जो अपनी जातीय मर्यादा से च्युत चुका हो।)

5. ब्राह्मण चांडाल (वह ब्राह्मण जो चांडाल के समान हो) 


आर्थिक विषमताओं के कारण ब्राह्मण बहुसंख्यक वर्ण विरोधी कर्म भी करने लगे थे। दस ब्राह्मण जातक में वैद्य, नौकर तथा गाड़ी हांकने वाले, कर संग्रह करने वाले, भूमि खोदने वाले, फल मिठाई बेचने वाले, कृषक आदि कर्म करने वाले 10 प्रकार के ब्राह्मणों का वर्णन है। हालांकि आपद्ध धर्म में भी ब्राह्मणों को मनुष्यों, तरल पदार्थों, सुगन्धियों, कपड़े, चमड़े, अनाज आदि का व्यापार करने का निषेध किया गया है। त्यागी, तपस्वी, ऋषि कर्मा ब्राह्मणों को 'वास्तविक ब्राह्मण' कहा जाता था।


इस समय ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रतिस्पर्धा ने अधिक जोर पकड़ लिया था। बौद्ध-जैन ग्रंथों में अनेकशः पहले क्षत्रिय वर्ण का बाद में ब्राह्मण वर्ण का उल्लेख हुआ है। बौद्ध साहित्य में शाक्य तथा कोलिय क्षत्रियों को कृषि कर्म करते दिखाया गया है। जातकों में मालाकार, नलकार, कुम्भकार आदि कर्म करते क्षत्रियों का उल्लेख है। चूंकि इस काल में राजतंत्रात्मक राज्यों की शक्ति बढ़ गई थी, अतः क्षत्रिय वर्ग की प्रभुता बढ़ी।

गंगाघाटी में नगरीय क्रांति के कारण, व्यापार वाणिज्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। फलतः वैश्य वर्ग समाज का सबसे सम्पन्न वर्ग बन गया। राजनैतिक तथा साम्पतिक शक्ति से वंचित हो जाने के कारण ब्राह्मणों की सामाजिक प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। इस समय शूद्रों की दशा सबसे खराब थी। अस्पृश्यता की भावना ने जड़ जमा ली थी। शूद्रों को दास, शिल्पी तथा कृषि मजदूर के रूप में द्विजों की सेवा करने के लिए कहा गया। बौद्ध तथा जैन संघों ने उन्हें प्रवेश की अनुमति भले ही दे दी, लेकिन उनकी स्थिति सुधार की कोई सुध नहीं ली। 

बुद्ध स्वयं ब्राह्मण, क्षत्रियों तथा गृहपतियों की सभा में गये, लेकिन शूद्रों की सभा में जाने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। बुद्ध ने शूद्र को 'अनार्य' कहा है। (जबकि कौटिल्य ने 'आर्य' कहा है) पाणिनी ने उन्हें दो वर्गों में विभाजित किया है- 1. अनिर्वासित (अबहिष्कृत) एवं 2. निर्वासित (बहिष्कृत)।


सांख्यान सौत सूत्र के अनुसार शूद्र भी 'ओदन' तथा 'महाव्रत' नामक संस्कार में अन्य तीन वर्णों के साथ भाग ले सकता था। अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह के आधार पर का निर्धारण सर्वप्रथम बौधायन ने किया। प्रारम्भिक बौद्ध ग्रंथों में 'हीन सीप्प' शब्द का प्रयोग निम्न जातियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इनमें प्राय: 5 जातियों का उल्लेख हुआ है-चाण्डाल, निषाद, वेण, रथकार तथा पुक्कुस । बौद्ध ग्रंथों में अस्पृश्यता के लिए हीन शिष्य, हीन जाति, निषाद, चाण्डाल आदि शब्द मिलते हैं।

जैन ग्रंथ 'पन्नवणा' में देश, जाति, कुल, कर्म, भाषा तथा शिल्प के आधार पर 5 प्रकार के आर्य बताए गये हैं। मातंग जातक, चितसंभूत जातक, सेतकुतु जातक आदि में चाण्डाल प्रति बरती जाने वाली घृणा का वर्णन मिलता है।


स्त्रियों की दशा :


बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि स्त्रियों की दशा वैदिक काल में निम्नतर हो गई थी। चुल्लवग्ग जातक से ज्ञात होता है कि बुद्ध प्रारम्भ स्त्रियों के संघ में प्रवेश के विरोधी थे। लेकिन जब उन्हें अनुमति दी गई तो आठ कठोर प्रतिबंधों के साथ। किन्तु बौद्ध साहित्य में विदूषी भिक्षुणियों के उदाहरण भी मिलते हैं। भिक्षुणी खेमा अपने समय की अत्यन्त विदुषी महिला थी। सुभद्रा नामक भिक्षुणी का उल्लेख 'संयुक्त निकाय' में मिलता है। थेरीगाथा के संकलन में सुमा, सुमेधा तथा अनोपमा नामक भिक्षुणियां प्रमुख थीं। 


थेरीगाथा में सन्दर्भ मिलता है कि भिन्न-भिन्न जाति, कुल, धर्म से प्रवर्जित होने वाली महिलाओं में ब्राह्मण कुल से कुल 18 थेरी (मैत्रिका, दंतिका, सोमा, भद्राकापिलायिनी, नंद उत्तरा, मुक्ता, उत्तमा आदि) क्षत्रिय कुल में 2 थेरियां (आतरा तथा सिंहा), शाक्य कुल से 7 थेरियां (पूर्णा, तिष्या, मित्रा, सुन्दरी नन्दा, प्रजापति गौतमी आदि), वेश्य कुल से 7 थेरियां (धम्मदिन्ना, सुजाता, अनुपमा, पटाचारा आदि) विभिन्न राजवंशों की चार थेरियां (सुमना, वृद्ध आलविका, क्षेमा/खेमा, सुमेधा थीं। अड्डड्कासी तथा विमला वैश्याएं थीं, तो पद्मावती तथा आम्रपाली गणिकाएं, जिन्होंने संघ में दीक्षा ली।

 इसी प्रकार पूर्णिका-दासी पुत्री, चापा बहेलिया सरदार की तथा शुभा-सुनार की पुत्री थी। सोमा थेरी श्यामा ने अपनी प्रिय सखी की मृत्यु के कारण शोक मग्न होकर प्रवज्या ली। उब्बिरी, कोशल नरेश प्रसेनजीत की राजमहिषी होने के उपरांत भी अपनी कन्या की मृत्यु के कारण निरन्तर श्मशान में विलाप करती थी। तथागत के उपदेश से उसने अपने शोक विमुक्ति की उदघोषणा की।


विवाह : 


अनुलोम, प्रतिलोम अन्तवर्ण व बहु विवाह का प्रचलन था। दहेज प्रथा का प्रचलन प्रारम्भ हो गया था। विवाह के आठ प्रकारों में सबसे अधिक लोक प्रतिष्ठित प्रकार 'प्राजापत्य विवाह' था। विवाह की आयु सामान्यतः 16 वर्ष लड़कियों के लिए मान्य थी। कोशल राज प्रसेनजीत ने श्रावस्ती के मालाकार की कन्या मल्लिका के साथ अनुलोम विवाह किया था। वत्सराज उदयन ने अवन्ती कन्या वासवदत्ता से गान्धर्व विवाह किया। समाज में सती प्रथा प्रचलित नहीं थी।

 अपवाद स्वरूप यूनानी लेखक केवल पंजाब की कठ जाति में इस प्रथा के प्रचलन का वर्णन करते हैं। अविवाहित कन्या के लिए पाणिनी ने 'कुमार' शब्द का प्रयोग किया है। जिस समय वह विवाह योग्य हो जाती थी, उस समय उसे 'वर्या' कहा जाता है। अपनी इच्छा से पति चुनने वाली कन्या को 'पतित्रा' कहा जाता था।


निष्कर्ष : 

निष्कर्षतः, बुद्ध काल में भारत की सामाजिक स्थिति महान परिवर्तन एवं उथल-पुथल का समय थी।  बुद्ध की शिक्षाओं ने समाज के बारे में सोचने का एक नया तरीका पेश किया, और उन्होंने पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने में मदद की।  इससे बड़े बदलाव और उथल-पुथल का दौर शुरू हुआ, लेकिन इसने एक अधिक न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज की नींव भी रखी।


 समानता, अहिंसा और करुणा पर बुद्ध की शिक्षाओं का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा।  उन्होंने महिलाओं और निचली जातियों के जीवन को बेहतर बनाने में मदद की, और उन्होंने एक अधिक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण समाज बनाने में मदद की।  बौद्ध धर्म के प्रसार से भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी वृद्धि हुई।


 बुद्ध की शिक्षाओं का आज भी समाज पर गहरा प्रभाव है।  वे सभी सामाजिक वर्गों और पृष्ठभूमि के लोगों के लिए आशा और मुक्ति का संदेश देते हैं।  वे हमें याद दिलाते हैं कि सभी लोग समान हैं, और हर किसी में आत्मज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है।

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