मध्य पुरापाषाण काल की विशेषताएं :
निम्न पुरापाषाण काल के जमाव के ऊपर और पुरापाषाण काल के जमाव के बीच में मध्य पुरापाषाण काल का स्तर मिलता है। इसमें निम्न पुरापाषाण काल की उपकरण तकनीक तथा निर्माण साम्रगी में परिवर्तन दिखता है। इस काल का ज्ञान 1954 ई0 तक बहुत कुछ पुराविदों को स्पष्ट रूप से नहीं था, क्योंकि अलग वर्ग के उपकरणों का पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका था, यद्यपि इनकी छिटपुट उपलब्धियाँ होती थीं।
इस विभिन्नता का आभास कर जिन निम्न पुरापाषाण कालीन स्थलों से ये सामग्रियाँ मिलीं वहाँ के क्रम में इसे सिराज II कहा गया। फर इसकी वास्तविक पहचान प्रवरा पदी तट पर स्थित नेवासा के खोज से हो सकी। यहाँ के प्राप्ति को डॉ. संकालिया ने सिराज 1. 11 तथा III में बांटा।
द्वितीय सिरीज द्वितीय मैवेल के जमाव से प्राप्त किया गया है। ये पहले की अपेक्षा छोटे और सुडौल हैं। इनके निर्माण के लिए चर्ट तथा जैस्पर पत्थरों का प्रयोग किया गया है। इनमें पलक तथा स्क्रैपर प्रमुख हैं जो फलक के बने हैं। इसी से मध्य पूर्व पाषाण काल का माना गया है। इससे भी स्पष्ट प्रमाण प्रो. जी. आर. शर्मा के निर्देशन में किये गये बेलन घाटी की खोजो से मिलता है। इसमें द्वितीय प्रवेल जमाव में जहाँ प्रथम जमाव से प्राप्त निम्न पुरापाषाण कालीन उपकरणों से भिन्नता है, वहीं तृतीय ग्रैवेल जमाव में इससे भी भिन्न उपकरण प्राप्त होते हैं।
अतः स्पष्ट है कि भारत में मध्य पुरापाषाण काल था। ऊपर के विवरण के आधार पर मध्य पुरा-पाषाण काल की निम्न विशेषताएँ ज्ञात होती हैं:
(1) इनकी प्राप्ति द्वितीय त्रैवेल जमाव से हुई है। ये जमाव अधिक मोटे हैं। लगता है उस समय जलवायु में अधिक आर्द्रता थी। यह बात दूसरी है कि कहीं-कहीं नदी के जमाव के बहाव के कारण बड़े टुकड़े भी जुट गए हैं। पर साधारण तथा इस जमाव में छोटे पत्थर के टुकड़े ही जमे हैं।
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(2) इसकी प्राप्ति नदी के जमावों के अतिरिक्त पहाड़ों की ढलानों तथा नीची पहाड़ियों से प्राप्त हुए हैं। लगता है कि इस समय लोग पहाड़ों की ऊँचाइयों से नीचे उतर कर न्यवसित होने लगे थे।
(3) इस संस्कृति का विस्तार अब भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त हुआ है-कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, मैसूर, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात आदि।
(4) यहाँ प्राप्त उपकरणों में हस्तकुठार तथा क्रोड उपकरणों की प्रमुखता अब समाप्त हो जाती है। अब छोटे तथा सुडौल और तेज कार्यांग वाले औजार जैसे खुरचनी, बेधक आदि बहुलता से प्राप्त होते हैं। ये अब वाटिकाश्म से न बनकर फ्लेक या फ्लेक ब्लेड से बनाये जाने लगे। इसी से इसको कुछ पुराविदों ने फ्लेक-ब्लेड-स्क्रैपर परम्परा कहा है। इसमें ब्लेड बनाने की प्रौद्योगिकी के विधि पर आधारित हैं। यहाँ के उपकरणों में खुरचनी की विभिन्न विधियों प्रकाश में आई हैं जिनका नामकरण उनके कार्यांगों के आधार पर किया है।
(5) उपकरणों के निर्माण के लिए क्वार्टजाइट का प्रयोग समाप्त होने लगा था। अब चर्ट, बसाल्ट, जैस्पर, फ्लिट आदि का प्रयोग अधिक किया जाने लगा था।
(6) विधि निर्धारण के लिए यहाँ उपकरणों के साथ बड़ी संख्या में जीवाश्मों की प्राप्ति का उपयोग नहीं किया जा सका है। इसका कारण है कि इनका विकास क्रम अभी तक अज्ञात है, अतः रेडियो कार्बन तिथि को ही आधार बताया गया है। इस आधार पर इनकी रेडियो कार्बन तिथि 50000 ई. पू. से 30000 ई. पू. निर्धारित किया गया है।
(7) इनका आवास वन ही था। ये धीरे-धीरे नीचे की पहाड़ी ढलानों पर उतरने लगे थे। जंगल में ही रहते थे तथा जंगली पशु और वहाँ की प्राकृतिक उत्पादन ही उनका खाद्य पदार्थ रहा होगा।