प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का जन्म
☞ प्राचीन भारतीय सामाजिक संगठन का आधार वर्ण व्यवस्था है। वर्ण व्यवस्था पर सभी भारतीय सामाजिक इतिहासकार एक मत हैं। ऐसे इतिहासकारों का मत है कि भारत में प्रागैतिहासिक काल में ही वर्ण व्यवस्था का जन्म हो चुका है।
☞ नेहरू के शब्दों में 'हिन्दुस्तानियों में विश्लेषण करने की अदभुत बुद्धि रही है और उनमें न केवल विचारों बल्कि कार्यों की अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने के लिये उत्साह भी दिखाया है। आर्यों ने समाज को तो चार प्रमुख विरोधी प्रकृतियों में भी समझौता कायम किया है।'
वर्ण व्यवस्था का अर्थ
भारतीय समाज में वर्ण का प्रयोग शाब्दिक दृष्टिकोण से तीन अर्थों में किया है- (1) वर्णन करना (2) बर्णन करना या चुनाव करना (3) रंग सेनार्ट का वर्ण व्यवस्था का अर्थ निम्न है-
☞ 'वर्ण का अर्थ है गुण और धर्मों के अनुसार समाज के लोगों की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक तथा आत्मिक विशेषताओं का वर्णनावरण अथवा चुनाव करने का तात्पर्य यह है कि समाज के सभी लोगों को उनकी व्यावसायिक विशेषता के आधार पर व्याख्या करना उनका वर्गीकरण करना।
☞ रंग वर्ण के प्रजातीय अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है। इसके अनुसार शारीरिक विशेषताओं के आधार पर समाज के सभी लोगों का अलग-अलग वर्गों में विभाजन है।'
☞ भारतीय सामाजिक परम्परागत के अन्तर्गत वर्ण का विकास समाजिक संस्तरण की एक पद्धति के रूप में हुआ। इसके साथ ही साथ वर्ण व्यवस्था भेद तथा समाज की नैतिक तथा आध्यात्मिक भिन्नताओं को भी स्पष्ट करता है।'
वर्ण की परिभाषा- वर्ण की परिभाषा सामाजिक इतिहासकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की है। कुछ विद्वानों की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-
☞ (1) सेनार्ट की वर्ण की परिभाषा- 'वर्ण शब्द का प्रयोग कार्यों ने ऋग्वेद में आर्यों एवं दासों में भेद करने के लिए किया था।
☞ (2) हट्टन की वर्ण की परिभाषा- 'चार वर्णों के साथ चार रंग भी शामिल है। ब्राह्मणों के साथ श्वेत, क्षत्रियों के साथ लाल (रक्त) वैश्यों के साथ पीला तथा शूद्रों के साथ कृष्ण (काला)।'
☞ (3) पोप की. वर्ण की परिभाषा- 'संस्कृत शब्द वर्ण, जिसका अर्थ रंग है। जो यह व्यक्त करता है कि आर्य ब्राह्मणों एवं आदिवासियों के रंग-भेद के आधार पर जाति भेद के आधार पर जाति भेव मूल रूपों में आश्रित हैं।'
☞ (4) डा० घुरिए की वर्ण की परिभाषा- वर्ण का अर्थ रंग है और इस भाव में ऐसा दिखाई पड़ता है कि वह शब्द आर्यों तथा दासों के क्रमशः गोरे तथा काले रंग में भेद करने के हेतु प्रयोग हुआ था। वर्ण शब्द में रंग की भावना इतनी शक्तिशाली रूप में थी, कि जब बाद में चार वर्ण व्यवस्थित रूप में उभरे तब चारों वर्गों के लिए अलग-अलग चार रंग निर्धारित किये गये।'
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का साहित्य रूप
आमतौर से निम्न रूप में देखा जाता है-सच बात तो यह है कि भारत में वर्ण व्यवस्था का आधार भारतीय वातावरण पर रखा गया। भारतीय वातावरण में लिखे गये ग्रन्य-वेद, महाभारत, गीता, उपनिषद, मनुस्मृति तथा पाराशार वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति की जानकारी के प्रमुख आधार के रूप हैं।
☞ डा0 कीथ के शब्दों में 'ऋग्वेद के अनुसार परम पुरूष अर्थात ईश्वर ने ही समाज को सूक्त' के अनुसार ब्राह्मणोस्य मुखसीय बाहुह राजन्य कृतः। सरूतदस्य यदि वैश्य, षदाभ्यों शूद्रों आजापाता।. ईश्वर के मुख से ब्राह्मण की, भुजाओं से क्षत्रियों की, डर से वैश्यों तथा पैरो से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है।'
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का आधार
प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था का आधार गुण तथा कर्म थे। मनुष्य की विभिन्न वृत्तियों के आधार पर वणों का निर्माण होता था। जो व्यक्ति जिस कार्य में निपुण होता था उसी के आधार पर उसका वर्ण हो जाता था।
☞ भारतीय वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का आधार बास्तव में भारतीय मानव समाज में पाई जाने बाली चार प्रकार की मनोवृत्तियाँ हैं, जिनको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र के नाम से पुकारा गया है। वे चार वृत्तियों नहीं मानव की चार प्रवृत्तियाँ हैं जो कि साधारण रूप में आत्मा की जीवन यात्रा की दशाएँ भी निर्धारित करती है।
☞ प्राचीन भारतीय समाज में समाज के दो तत्व थे-आर्य तथा अनार्य। आयर्यों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। सभी में विवाह आदि के सम्बन्ध स्थिर होते थे। आर्यों की भाँति अनार्यों में भी इसी प्रकार की एकता स्थापित हुई। धीरे-धीरे आर्य और अनायर्यों में मिलाप होने लगा। अतः रक्त की शुद्धता के लिये संघर्ष हुआ और तदुपरान्त आर्यों के कार्यों में बाधा पड़ने लगी।
☞ फलस्वरूप आर्यों ने अपने को तीन वर्गों में विभाजित कर लिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य तथा आर्यों तथा अनार्यों के सम्पर्क ये जो संताने उत्पन्न हुई उसे चौथा वर्ग शूद्र कहा गया।
(1) गुणों के आधार पर वर्ण व्यवस्था
☞ इस सिद्धान्त के अनुसार सभी व्यक्ति जन्म के समय शूद्र होते हैं और ज्यों-ज्यों व्यक्ति गुणों को अपनाता जाता है, त्यों-त्यों उसका वर्ण भी बदलता जाता है। संस्कारों द्वारा ही व्यक्ति को जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में प्रवेश कराया जाता है और वह गुण को धारण करता है अन्यथा सभी जन्म में शूद्र होते हैं। अत: जीवन वृत्ति और गुण ही मुख्य आधार हैं जिन पर विभिन्न वर्गों को निश्चित किया जाता है।
☞ गुण सिद्धान्त का वर्णन गीता में भी है गीता के अनुसार सभी कर्मकाण्ड गुण पर आधारित हैं।
(1) तीन अन्य गुण
वर्ण व्यवस्था (1) सतोगुण, (2) रजोगुण (3) तमोगुण के मिश्रण का फल है।
☞ सतोगुण का अर्थ ज्ञान और प्रकृति से है। जिससे ज्ञान मिलता है और शान्ति मिलती है तथा जिसके कारण व्यक्ति सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
☞ रजोगुण का मुख्य आधार काम और वासना है जिसके कारण व्यक्ति के अन्दर अनेक प्रकार की इच्छाएँ और कामनाएँ प्रकट होती हैं तथा जो कार्यों के लिये वस्तु के बारे में व्यक्ति आज्ञानी रहता है। जिसमें जैसा गुण पाया जाता है वह उसी प्रकार से ऊँच और नीच वर्गों में जन्म लेता है।
(1) ब्राह्मण- साहित्य प्रवृत्ति वाला व्यक्ति जिनके जीवन में आध्यात्मिक आस्था हो, वह ब्राह्मण है। अतः ब्राह्मण का मान समाज में सर्वश्रेष्ठ है।
(2) क्षत्रिय- सतोगुण एवं रजोगुण का सम्मिश्रण बाला छात्र प्रवृति है। इसमें सतोगुण के साथ-साथ राजोगुण भी हो, वह क्षत्रिय है।
(3) वैश्य- राजोगुण एवं तमोगुण वैश्य प्रवृति को बनाते हैं। इनके रजोगुण के मुकाबले में तमोगुण प्रधान रूप में हुआ करता है, वे वैश्य कहे गये।
(4) शूद्र- निम्न मानसिक प्रवृतियों वाले पुरूष एवं नारियाँ शूद्र प्रवृत्ति वाला शूद्र है, जिसका समाज में सबसे नीचा स्थान है।
वर्ण व्यवस्था को वर्तमान मनोविज्ञान की परिभाषा के आधार भी कहा गया है जीव के निम्न दो रूप हैं
(1) उदबुद्ध, (2) अनुदबुद्ध
उदबुद्ध के भेद-निम्न तीन भेद होते हैं।
(1) ज्ञान प्रधान (2) क्रिया प्रधान (3) इच्छा प्रधान
अनुदबुद्ध-इसको मुख्य रूप से और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) जो मस्तिष्क से समाज की सेवा करते हैं, वे निष्काम प्रवृत्ति बाले ज्ञान प्रधान होने के कारण ब्राह्मण हैं।
(2) जो पुरुष से समाज की रक्षा करते हैं, वे निष्काम राजस जीव क्रिया प्रधान होने के कारण क्षत्रिय हैं।
(3) जो लोग समाज का भरण-पोषण करते हैं, वे प्रधान राजस जीव इच्छा के प्रवल होने के कारण वैश्य हैं।
(4) जो अनुवबुद्धि अवस्था के जीब होते हैं, वे संन्कामता, जड़ता तथा तमोगुण के प्रधान होने के कारण शूद्र कहलाते हैं।
(2) वर्ण व्यवस्था का आधार 'कर्म'
☞ भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का जन्म से कोई सम्बन्ध देखने को नहीं मिलता है। जन्म का सम्बन्ध जाति या फिर रत्तत से होता है। परन्तु वर्ण की विशेषता जाति या रक्त नहीं है। वर्ण व्यवस्था तो जाति तथा रक्त के संकुचित घेरे से बाहर है।
☞ वर्ण व्यवस्था का आधार मानव कायों से हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पूर्ण रूप से सम्पादन नहीं करता था, तब उसका वर्ण बदल जाता था। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था कर्म सिद्धान्त के अधिक निकट है न कि जाति व्यवस्था के।
☞ भगवत गीत में तो स्पष्ट ही कहा गया है- "चार्तुवर्ण मया सृष्ट गुण कर्म विभागश:" - यदि इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में विवेचित वर्णं की स्थिति का ध्यान पूर्वक अध्ययन करें, तो हमें ज्ञात होता है कि गुण, कर्म ही वे आधार हैं जिन पर वर्ण के भवन की दीवारे खड़ी हुई हैं।
☞ अतः व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो भी व्यवस्था का अभिप्राय किसी व्यक्ति को ऊँचा अथवा नीचा देना नहीं था, बल्कि हर व्यक्ति को उसके स्वभाव के अनुसार उन्नति के रास्ते पर अग्रसर करना ही था। समाज में चार तरह के व्यक्ति होना आवश्यक है, जो निम्न रूप में हो-
(1) ज्ञान के द्वारा समाज की सेवा करने वाले।
(2) बल तथा शक्ति के द्वारा समाज की सेवा करने वाले।
(3) अर्थ के द्वारा समाज की सेवा करने वाले।
(4) धन के द्वारा समाज की सेवा करने वाले।
इन चारों वर्गों की महत्ता अपने-अपने कर्तव्यों के पालन में है तथा यही वर्ण व्यवस्था का आधार भी कहे जाते हैं।
गुण एवम कर्म के अतिरिक्त वर्ण व्यवस्था के अन्य कई आधार थे।
(3) वर्ण व्यवस्था का आधार 'रंग-रूप'
☞ अति प्राचीन काल में भारतीय समाज में दो प्रकार काले तथा गोरे लोग थे।
गोरे रंग के लोग आर्य थे और काले रंग के लोग अनार्य या द्रविण कहलाते थे। आर्य भारत में मध्य एशिया से आये थे, और उन्होंने द्रविणों को हराया भी था। वे अपने को हारे हुये लोगों से अलग रखना चाहते थे तथा अपने को द्रविण लोगों के मुकाबले में ऊँचा तथा सभ्य भी समझते थे। यह रंग का आधार आगे चलकर वर्ण व्यवस्था में परिवर्तित हो गया, अतः रंग-रूप वर्ण व्यवस्था का एक आधार के रूप में देखा जाने लगा।
(4) धर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था
☞ वर्ण व्यवस्था (Varna Vyavastha) का आधार धर्म भी है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों का जन्म हुआ। अतः ब्रह्मा के शरीर को एक आदर्श समाज के रूप में स्वीकार किया गया है। आर्य वैदिक धर्म तथा द्रविण लोग वैदिक धर्म के अनुयायी थे। अतः धर्म भी वर्ण व्यवस्था का आधार बना।
(5) व्यवसाय के आधार पर (Varna Vyavastha)
☞ भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का आधार व्यवसाय कहा गया है। पूर्व वैदिक समाज में हमें केवल तीन वर्गों का उल्लेख देखने को मिलता है। ब्राह्मण का व्यवसाय पुरोहिती, क्षत्रिय का व्यवासाय युद्ध तथा वैश्य का व्यवसाय आर्थिक था। प्रत्येक वर्ण के लोग अपनी इच्छा के अनुसार अपना व्यवसाय बदल भी सकते थे। उन पर समाज का किसी प्रकार का दबाव नहीं था।
(6) वेश भूषा का आधार (Varna Vyavastha)
☞ वेश-भूषा भी वर्ण व्यवस्था का आधार कहा गया है। ब्राह्मण सफेद रंग का, क्षत्रिय लाल रंग का, वैश्य पीले रंग का तथा शूद्र काले रंग के कपड़े आमतौर से पहना करते थे। परन्तु इनमें परिवर्तन की स्वतंत्रता थी। ऐसा करने की समाज उनकी इजाजत देता था।
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