रुक्नुद्दीन फीरोजशाह (1236)
इल्तुतमिश ने अपने अपने जीवन काल में ही अपना उत्तराधिकारी अपनी पुत्री रजिया को मनोनीत कर दिया था। इसका कारण यह था कि उसका योग्य और बड़ा पुत्र नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु हो चुकी थी और छोटा पुत्र रुक्नुद्दीन फीरोजशाह एक दुर्बल और अक्षम व्यक्ति था। जब इल्तुतमिश ग्वालियर अभियान पर गया, तो दिल्ली का शासन रजिया के हाथों में छोड़ गया था। इस दायित्व को रजिया ने इतनी कुशलतापूर्वक पूर्ण किया कि ग्वालियर से लौटने के तुरन्त पश्चात् (1232 ई०) में इल्तुतमिश ने रजिया को अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए मनोनयन पत्र तैयार करने का आदेश दिया।
तब तुर्क अमीरों ने सुल्तान से निवेदन किया कि "बादशाह इस्लाम आयुष्मान पुत्रों के होते हुए किस कारण और क्या देखकर पुत्री को बादशाह बना रहे हैं?" इसका उत्तर देते हुए इल्तुतमिश ने कहा, "मेरे पुत्र भोग-विलास में लिप्त हैं और कोई भी शासन करने योग्य नहीं है। वे इस राज्य का शासन नहीं कर सकते। मेरी मृत्यु के उपरान्त तुम्हें ज्ञात हो जायेगा कि उसके समान शासन कोई अन्य नहीं कर सकेगा।" इस अवसर पर एक संस्मारक चाँदी की मुद्रा भी प्रचलित की गयी और उस पर इल्तुतमिश के नाम के साथ रजिया का नाम अंकित किया गया।
दुर्भाग्यवश इल्तुतमिश की यह इच्छा पूर्ण नहीं हुई और तुर्क अमीर एक स्त्री को राज्य करते हुए देखना अपना अपमान समझते थे। अतः अनेक तुर्क अमीरों, रुक्नुद्दीन फ़ीरोजशाह की माता खुदा बन्दे जहां शाहतुर्कान और अनेक इक्तादारों ने षड्यंत्र कर रजिया की जगह, इल्तुतमिश की मृत्यु के दूसरे ही दिन रुक्नुद्दीन फीरोजशाह का राज्यारोहण किया।
इल्तुतमिश के मृत्यु के दूसरे दिन अप्रैल-मई-1236 में रुक्नुद्दीन फिरोजशाह गद्दी पर बैठा। सुल्तान बनने से पूर्व वह बदायूँ व लाहौर की सरकार का प्रबंध संभाल चुका था। मिनहाज के अनुसार उसमें तीन विशेषताएं थी सुन्दर आकृति, सुरल स्वभाव और असीम उदारता। किन्तु केवल ये सद्गुण एक सफल शासक बनने के लिए पर्याप्त नहीं था।
अपनी इन्द्रीय लोलुप व्यसनों के कारण वह एक अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। मसखरे व जोकर उसके साथी बन चुके थे। इसलिए उसे विलास- प्रेमी जीव कहा गया। रुक्नुददीन को शासन करने का अनुभव था। शासक बनने से पूर्व 1227 ई० में उसे बदायूँ का इक्ता प्रदान की गई थी। जिस पर उसने कुबाचा के भूतपूर्व मंत्री आइनुलमुल्क हुसैन अशअरी की सहायता से शासन किया।
ग्वालियर से लौटने के पश्चात् इल्तुतमिश ने उसे लाहौर पर शासन करने का दायित्व सौंपा जो उस समय की अत्यन्त महत्वपूर्ण इक्ता थी। गद्दी पर बैठने के बाद रुक्नुद्दीन ने शासन कार्य अपनी महत्वाकांक्षी माता शाह तुर्कान (खुदा बन्दे जहाँशाह तुर्का) के हाथों में सौंप दिया। मूलतः वह एक तुर्की दासी थी। वह विद्वानों, सैयादों और पवित्रात्माओं को दान-उपहार देने के लिए प्रसिद्ध थी। किन्तु वह एक कुचक्री महिला थी। शासन की बागडोर हाथ में आने के बाद अपना निरंकुश शासन आरम्भ की। इल्तुतमिश के रनिवास की स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करने लगी और अनेक की हत्या करवा दी।
उसकी आज्ञा से इल्तुतमिश के छोटे पुत्र कुतुबुद्दीन को अंधा कर मार दिया गया। उसके इन कार्यों से मलिकों का शासन से विश्वास टूटने लगा फलस्वरूप देश के विभिन्न भागों में विद्रोह होने प्रारम्भ हो गया। इल्तुतमिश के पुत्र (फिरोज का भाई) गयासुद्दीन मुहम्मद शाह ने अवध में विद्रोह कर दिया तथा बंगाल (लखनौती) से दिल्ली आने वाले खजाने और निकट के विभिन्न नगरों को लूटा। प्रान्तीय इक्तादारों में बदायूँ के इक्तादार मलिक इजाउद्दीन मुहम्मद सलारी, मुल्तान के इक्तादार इजउद्दीन कबीर खाँ ऐयाज, हॉसी के इक्तादार मलिक सैफुद्दीन कुची और लाहौर के इक्तादार मलिक अलाउद्दीन जानी ने सम्मिलित रूप से विद्रोह कर दिया।
रूकनुद्दीन फिरोज इन विद्रोहों का दमन करने के लिए दिल्ली से कुच किया। जब वह सेना के साथ कोहराम की ओर जा रहा था तभी मार्ग में उसके अधिकांश सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। प्रधानमंत्री निजामुल्क जुनैदी कैलूगढ़ी के निकट सेना से पृथक होकर कोयल भाग गया और वहां से मलिक ईजुद्दीन सलारी से मिल गया। अतः सेना के प्रमुख भाग के फिरोज का साथ छोड़ देने के कारण वह विद्रोहियों का मुकाबला नहीं कर सका और उसे दिल्ली लौटना पड़ा।
दिल्ली में सुल्तान की अनुपस्थिति तथा साम्राज्य में विद्रोहों और अरजकता का लाभ उठाकर रजिया ने लाल वस्त्र (न्याय की मांग का प्रतीक) पहनकर दिल्ली की जनता जो सामूहिक नमाज (शुक्रवार को) पढ़ने के लिए एकत्र हुयी थी. से अपील की। उसने तुर्कान की अत्याचारों एवं राज्य में फैली अव्ययस्था का वर्णन किया तथा अश्वासन दिया कि शासक बनकर वह शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करेगी।
रजिया की इस अपील से जनसमूह ने महल पर आक्रमण कर दिया और शाह तुर्कान बंदी बना ली गई। उसी समय रुक्नुद्दीन फिरोज दिल्ली लौटा, किन्तु राजधानी का वातावरण उसके विरुद्ध था। सेना तथा अमीर सभी रजिया की ओर मिल गए थे और उसके प्रति निष्ठा व्यक्त कर सिंहासनारूढ़ कर दिया था। रुक्नुद्दीन को बंदी बना लिया गया और सम्भवतः 19 नवम्बर, 1236 ई० को उसका वध कर दिया गया। उसका असफल शासन मात्र 6 माह, 18 दिन रहा।