शक वंश का इतिहास
प्राचीन भारतीय इतिहास में शकों के सन्दर्भ में जो जानकारी मिलती है उसके आधार पर कहा जा सकता है शक एक खानाबदोश एवं बर्बर जाति थी। इनका मूल स्थान सीर नदी के तट पर था। द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में मुइश जाति ने शकों पर आक्रमण कर दिया था। मुइश जाति के आक्रमण से विवश हो कर इन्हें अपना मूल स्थान छोड़ना पड़ा।
शकों के कई कबीले थे वे अलग-अलग दिशाओं में आगे बढ़े। इन्हीं कबीलों में शकों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया के यवन राज्य हिलिओक्सीज को हराकर सिन्ध के रास्ते भारत में प्रवेश किया। भारत में तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र, उज्जैन, इत्यादि स्थानों पर शकों की अनेक शाखाओं ने अपना राज्य स्थापित किया।
रुद्रदामन :-
भारत में शासन करने वाले राजाओं में रुद्रदामन का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वह शंक वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुआ। उसके जीवन, विजयों तथा कार्यों के विषय में हमें जूनागढ़ अभिलेख से विस्तृत सूचना मिलती है। साथ ही उनकी चाँदी की मुद्राओं से भी उसके विषय में महत्त्वपूर्ण बातें हम ज्ञात कर सकते हैं। इस लेख की तिथि शक सम्वत् 72 अर्थात् 150 ई० की है।
जूनागढ़ के लेख से पता चलता है कि रुद्रदामन ने महाक्षत्रप की उपाधि स्वयं ग्रहण की थी।
अन्य लेख से पता लगता है कि उसने चष्टन के साथ मिलकर शासन किया था। इसमें उसे 'राजा' कहा गया है रुद्रदामन के चाँदी के सिक्कों पर उसकी उपाधि महाक्षत्रप की मिलती है। कुछ सिक्कों के ऊपर उसे 'जयदामन का पुत्र' (जयदामन पुत्र से) कहा गया है।
रुद्रदामन की उपलब्धियाँ-
रुद्रदामन की उपलब्धियाँ- जूनागढ़ का लेख एक प्रशस्ति के रूप में हैं इसमें रुद्रदामन की विजयों का उल्लेख किया गया है। इससे पता चलता है उसने निम्नलिखित प्रदेशों की विजय की थी।
- अवन्ति-पश्चिमी मालवा का क्षेत्र इसके अन्तर्गत था।
- सुराष्ट्र-जूनागढ़ तथा उसके पास-पड़ोस के क्षेत्र इसके अन्तर्गत सम्मिलित थे।
- स्वश्व-इससे मतलब साबरमती नदी के तटवर्ती प्रदेश से है।
- भरु-मारवाड़ का क्षेत्र इसमें शामिल था।
- अनूप-मान्धाता प्रदेश इसमें आता था।
- सिन्धुसौवीर-सिन्धु नदी के डेल्टा के प्रदेश को सिन्धुसौवीर नाम दिया गया है।
- कुकुर-सिन्धु नदी तथा पारियात्र पर्वत के मण्यवर्ती प्रदेश को कुकुर कहा जाता था।
- अपरान्त-इसके अन्तर्गत उत्तरी कोंकण का प्रदेश सम्मिलित था।
- निषाद्-पश्चिमी विन्ध्य तथा अरावली की पहाड़ियों से घिरा हुआ भाग निषाद कहलाता था।
उपर्युक्त प्रदेशों में से कुछ को रुद्रदामन ने सातवाहन राजाओं से दिजित किया था। नासिक लेख से ध्वनित होता है कि सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि का सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप तथा आकर और अवन्ति के प्रदेशों के ऊपर अधिकार था। ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमी पुत्र शातकर्णि की मृत्यु के बाद सातवाहनों की शक्ति निर्बल पड़ गयी। इसी का लाभ उठाते हुए रुद्रदामन ने इन प्रदेशों के ऊपर अपना अधिकार कर लिया था।
जूनागढ़ के लेख में यह कहा गया है कि उसने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को दो बार पराजित किया किन्तु सम्बन्ध की निकटता के कारण उसका वध नहीं किया। जूनागढ़ के लेख में जिस शातकर्णि का उल्लेख मिलता है उसकी पहचान के बारे में विद्वानों ने मतभेद है। डॉ० भण्डारकर का विचार है कि रुद्रदामन द्वारा पराजित सातवाहन राजा स्वयं गौतमीपुत्र शातकर्णि ही था किन्तु यह मत इसलिये सही माना जा सकता है कि गौतमीपुत्र के नासिक के लेख में क्षहरातों तथा शकों का विनाश करने वाला कहा गया है।
इस बात पर कोई भी प्रमाण हमारे पास नहीं है कि गौतमीपुत्र को कभी किसी शत्रु द्वारा पराजित होना पड़ा हो। उसके विषय में कहा गया है कि उसकी पताका अपराजित थी-अपराजित विजय पताका।
इतिहासकार रैप्सन की धारणा है कि यह राजा वासिष्ठीपुत्र पुलुमावि था। कन्हेरी के लेख में बताया गया है कि रुद्रदामन ने अपनी पुत्री का विवाह वासिष्ठीपुत्र पुलुमावि के साथ किया था। इस प्रकार वह रुद्रदामन का दामाद हुआ। यही कारण है कि पराजित कर देने के बाद भी रुद्रदामन ने उसका वध नहीं किया था। उसे अपनी अधीनता में शासन करने का अधिकार प्रदान कर दिया।
रुद्रदामन का शासन प्रबन्ध-
अपनी विजयों के फलस्वरूप रुद्रदामन ने अपने लिए एक विशाल साम्राज्य का निर्माण कर लिया। उसने अपनी राजधानी उज्जैन में स्थापित की। अपने विशाल साम्राज्य को उसने प्रान्तों में विभाजित करके बड़े ही सुन्दर ढंग से भारत शासन का संचालन किया।
◆ वह स्वयं महाक्षत्रप था तथा उसके प्रान्तों के शासक क्षत्रप कहे जाते थे। ये दोनों उपाधियाँ भारत की महाराजधिराज तथा महाराज की उपाधियों जैसी थी।
◆ उसके पास एक नियमित मन्त्रिपरिषद् भी थी जिसमें दो प्रकार के मन्त्री होते थे मति सचिव तथा कर्म सचिव। प्रथम प्रकार के मन्त्री शासन से सम्बन्धित विविध विषयों के ऊपर विचार-विमर्श करते थे। राजा उनके साथ विचार- विमर्श करने के पश्चात् ही निर्णय लेता था। दूसरे प्रकार के मन्त्रियों का यह काम था कि वे राजा एवं मति सचिवों को परिषद् द्वारा लिये गये निर्णयों को कार्यान्वित करें।
◆ रुद्रदामन ने विभिन्न प्रान्तों में अपने अमात्य नियुक्त कर रखे थे। जूनागढ़ के लेख में उसके एक अमात्य सुविशाख का उल्लेख मिलता है जो सुराष्ट्र प्रान्त का शासन चलाने के लिए नुियक्त किया गया था।
रुद्रदामन का व्यक्तित्त्व एवं चरित्र-
महान् विजेता तथा कुशल शासक होने के साथ ही साथ रुद्रदामन एक विद्वान्, विद्या प्रेमी तथा विविध कलाओं में रुचि रखने वाला शासक था। जूनागढ़ के लेख से पता चलता है कि वह व्याकरण, राजनीति, न्याय, संगीत आदि का अच्छा ज्ञाता था। उसे गद्य तथा पद्म की रचना में प्रवीण बताया गया है। दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में जानकारी नहीं हैं। उसका जूनागढ़ का अभिलेख संस्कृत भाषा के काव्य का एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है।
रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख
रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख उसके विषय में जानने का हमारा एकमात्र साधन है। उसने कुछ चाँदी के सिक्के भी निर्मित करवाये थे। कुछ सिक्कों के ऊपर उसका वृद्धावस्था का चित्र भी मिलता है। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि उसने दीर्घकाल तक शासन किया था। अन्ध्रों लेख में शक सम्वत् 52 अर्थात् 130 ई० की तिथि अंकित है। इस समय वह अपने पिता महान् चष्टन के साथ शासन कर रहा था। जूनागढ़ लेख की तिथि शक सम्वत् 72 अर्थात् 150 ई० को हैं इस प्रकार सामान्य तौर पर ऐसा निष्कर्ष निकाला जाता है कि रुद्रदामन ने 130 ई० से लेकर 150 ई० तक शासन किया था। निःसन्देह वह भारत का महानतम शक शासक था। उसके बाद शकों के पतन का इतिहास प्रारम्भ हुआ।
रुद्रदामन के बाद उनके पुत्र दामोजदश्री महाक्षत्रप हुआ। तत्पश्चात् उसके पुत्र दीवदामन तथा भाई रुद्रसिंह प्रथम गद्दी के लिए संघर्ष हुआ। लगभग 178 ई० में जीवदामन महाक्षत्रप बना और 181 ई० में रुद्रसिंह प्रथम महाक्षत्रप हुआ। इस बीच उथल-पुथल मचती रही और 191 ई० के लगभग रुद्रसिंह प्रथम पुनः महाक्षत्रप बना तथा लगभग 196 ई० तक स्वयं शासन करता रहा, लेकिन ये महाक्षत्रप रुद्रदामन की कीर्ति को स्थिर नहीं रख सके।
रुद्रदामन के बाद शक वंश :
रुद्रदामन के बाद उसके अन्य उत्तराधिकारी दुर्बल सिद्ध हुए जो अपने राज्य को अक्षुण्ण नहीं रख सके। तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अमीरों ने उनकी शक्ति को बहुत कुछ क्षीण कर दिया। फिर भी शक क्षत्रप गुप्तकाल तक किसी न किसी रूप में राज्य करते रहे, हालांकि उनके राज्य का बहुत-सा भाग नागो और मालवा के हाथों में जाता रहा। चौथी शताब्दी ई० के अन्त में गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने मालवा और कठियावाड़ को जीत लिया और शकों की सत्ता समाप्त कर दी।