जब 1689 में शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी शम्भूजी को मुगल सेनाओं ने हरा कर मार दिया और उनके पुत्र शाहू को बन्दी बना लिया तो यह औरंगज़ेब की विशेष सफलता थी। 18वीं शताब्दी के प्रथम चरणों में, विशेषकर औरंगजेब की 1707 में मृत्यु के बाद, मराठों का दक्षिण और उत्तर की ओर दोनों दिशाओं में प्रसार हुआ। मराठों का हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न साकार होने लगा। इस नवीन मराठा साम्राज्यवाद के प्रवर्तक पेशवा लोग थे जो छत्रपति शाहू के पैतृक प्रधान मन्त्री थे। सबसे प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ हुए।
आज के इस लेख में हम आपको बालाजी विश्वनाथ से जुड़े सभी तथ्य बताएंगे जोकि न केवल आपकी सभी प्रारंभिक व मुख्य परीक्षाओं की दृष्टि से उपयोगी है बल्कि एक पाठक के तौर पर भी आपके ज्ञान की वृद्धि करेगा-
बालाजी विश्वनाथ (1713-20) | Balaji Vishwanath
बालाजी विश्वनाथ के आरम्भिक जीवन के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। वह कोंकण के एक ब्राह्मण कुल से थे जो आज भी अपनी बुद्धि और प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध है। उनके पूर्वज जंजीरा राज्य में श्रीवर्धन के वंशानुगत कर संग्रहकर्ता थे। बाला जी विश्वनाथ के अंगरियों से, जो जंजीरा' के सिद्दियों के शत्रु थे, सम्बन्धों के कारण इनका सिद्दियों से झगड़ा हो गया और उन्हें देश छोड़ कर सासवाड़ में बसना पड़ा।
बालाजी के कर सम्बन्धी ज्ञान के कारण उन्हें मराठों के अधीन कार्य करने का अवसर मिला। 1696 में वह पूना के सभासद थे। कालान्तर वह पूरे पूना के (1699-1702) और फिर दौलताबाद के (1704-7) सर सूबेदार रहे। 1699 से 1704 तक औरंगज़ेब पूना में और खेड़ में पड़ाव डाले बैठा रहा, परन्तु उन्होंने बालाजी विश्वनाथ को कुछ नहीं कहा। सम्भवतः वह औरंगज़ेब के लिए रसद जुटाने में लगे थे।
◆ औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने शाहू को इस आशा से मुक्त कर दिया कि उसके महाराष्ट्र में पहुंचने पर वहां गृहयुद्ध छिड़ जाएगा। औरंगज़ेब जब तक दक्षिण में रहा शाहू उसकी कैद में उसके साथ ही था। सम्भवतः बालाजी विश्वनाथ ने शाहू से उन्हीं दिनों कुछ तालमेल स्थापित किया। 1705 में विश्वनाथ ने प्रच्छन्नरूप से शाहू को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्न भी किया।
◆ शाहू को राजकुमार आज़म ने 1707 में मुक्त कर दिया। तुरन्त गृहयुद्ध आरम्भ हो गया। शाहू की चची ताराबाई ने शाहू को झूठा दावेदार (impostor) बतलाया और अपने पुत्र के लिए सतारा की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। अक्तूबर 1707 में खेड़ में ताराबाई और शाहू के बीच गृहयुद्ध हुआ। बालाजी ने शाहू का साथ दिया और अपनी कूटनीति से ताराबाई के सेनापति धन्नाजी की अपनी ओर मिला लिया और मैदान मार लिया।
◆ 1708 में धन्नाजी की मृत्यु हो गई और शाहू ने उसके पुत्र चन्द्रसेन को अपना सेनापति नियुक्त कर लिया। चन्द्रसेन का झुकाव ताराबाई को और था। शाहू ने चन्द्रसेन के सम्भावित विश्वासघात से बचने के लिए एक नया पद 'सेताकतें' (सेना को संगठित करने वाला) बना दिया और बालाजी को उस पद पर नियुक्त कर दिया।
◆ 1712 में शाहू का भाग्य निम्नतम स्तरो पर था। चन्द्रसेन ताराबाई से जा मिला। सीमा रक्षक कान्होंजी आंगड़े ने स्पष्ट रूप से ताराबाई का समर्थन किया और शाहू और उसके पेशवा बहिरोपन्त पिंगले को बन्दी बना लिया और सतारा की ओर प्रस्थान की धमकी दी। दिल्ली में शाहू के समर्थक जुलफ्िकार खां का गुटबन्दी के झगड़े में वध कर दिया गया था। ऐसे आड़े समय में बालाजी शाहू के काम आया। उसने अपनी कूटनीति से न केवल सिंहासन को बचाया अपितु चन्द्रसेन जादव को हराया।
◆ फिर उसने ताराबाई के समर्थकों में फूट डलवा दी। सबसे प्रमुख बात यह की कि उन्होंने कान्होंजी आंगड़े को बिना युद्ध के शाहू की ओर मिला लिया। एक ओर उन्होंने सिद्दियों, अंग्रेज़ों और पुर्तगालियों की शत्रुता का दबाव डाला और दूसरी ओर कान्होजी की राष्ट्रीयता को ललकारा कि मराठा राज्य शिवाजी की सब से महान देन है। और प्रत्येक मराठा को इसकी रक्षा तथा बनाए रखने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
◆ सत्ता के लिए राजनीति के युद्ध में 1713 में फर्रुख़सीयर सैयद बन्धु हुसैन अली और अब्दुल्ला खां की सहायता से सिंहासन पर बैठ गया। शीघ्र ही दोनों में विरोध उत्पन्न हो गया और दरबार एक बार पुनः षड्यंत्रों का केन्द्र बन गया। सम्राट ने मुख्य सेनापति हुसैन अली से मुक्ति पाने की इच्छा से उसे दक्षिण का वाइसराय नियुक्त कर दिया और दूसरी और गुजरात के गवर्नर दाऊद हुई और शाहू को इसके विरुद्ध युद्ध करने और उसे समाप्त करने के लिए प्रेरित किया। सम्राट का यह उद्देश्य सैयद बन्धुओं को विदित था।
◆ 1717 में अब्दुल्ला स्त्री की दरबार में स्थिति इतनी बिगड़ गई कि वह हुसैन अली को बुलाने पर चाध्य हो गया। दूसरी ओर हुसैन अली ने यह अनुभव किया कि यदि उसे दक्षिण में अनुपस्थित रहना है तो वह मराठों से शत्रुता नहीं रख सकता। सैयद बन्धुओं को मराठों और दरबारी षड्यंत्रों के बीच पिस जाने का भय था अतएव हुसैन अली ने दिल्ली की ओर प्रस्थान करने से पूर्व मराठों से मित्रता करने की सोची। शाहू अपनी माता तथा भाई को जो दिल्ली में बन्धक में मुक्त करवाना चाहता था, तुरन्त इस मित्रता के लिए तैयार हो गया। साँध की शर्ते बनाई गई और मसविदा सम्राट की अनुमति के लिए दिल्ली भेज दिया गया। मुख्य शर्ते यों थींः-
(1) शाहू को शिवाजी का स्वराज्य पूर्णरूपेण अधिकार में मिलेगा।
(2) खानदेश, बराड़, गोंडवाना, हैदराबाद और कर्नाटक के वे सभी क्षेत्र जो मराठों ने पिछले दिनों विजय कर लिए थे, शाहू को मराठा राज्य के भाग के रूप में मिल जायेंगे।
(3) मराठों को दक्वान में मुगल प्रान्तों से चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने का अधिकार होगा। उसके प्रतिकार के रूप में मराठे 15,000 सैनिक सम्राट की सेवा के लिए देंगे तथा दक्कन में शान्ति बनाए रखेंगे।
(4) शाहू कोल्हापुर के शम्भूजी को किसी प्रकार को हानि नहीं पहुंचाएगा।
(5) शाहू सम्राट को 10 लाख रुपया वार्षिक का कर या खिराज देगा।
(6) मुगल सम्राट शाहू की माता तथा अन्य सम्बन्धियों को छोड़ देगा।
अतएव बालाजी विश्वनाथ ने 15,000 सैनिकों समेत हुसैन अली के संग दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों की सहायता से सैयद बन्धुओं ने सम्राट फर्रुखुसीयर को सिंहासन से उतार दिया तथा अगले सम्राट रफी-तह-रजात ने इस सन्धि को स्वीकार कर लिया।
सर रिचर्ड टेम्पल ने इस सन्धि को मराठा साम्राज्य के मैगनाकार्य (Magna Carta) को संज्ञा दी है। मुगल मघाट अव दक्कन के छः प्रान्तों से चौथ तथा सरदेशमुखी की मांग को नहीं ठुकरा सकते थे। वास्तव में चौथ का देना इस तथ्य का द्योतक था कि मुगलों की स्थिति मराठों की तुलना में क्षीण हो गई थी। मराठों ने मुगलों की कमर तोड़ दी गी और मुगलों की दक्कन की आय का चौथा भाग उन्हें मिलने लगा। इससे तथा शाहू के राज्य पा अधिकार को मान्यता मिलने से महाराष्ट्र में उसका मान बढ़ गया। वह मराठों का पूर्णरूपेण नेता बन गया। शम्भूजी की आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। अब निश्चय ही आकाश में एक नया तारा चमक रहा था।
दिल्ली से लौटने पर बालाजी का अन्तिम कार्य कोल्हापुर के विरुद्ध सैनिक अभियान था। शम्भूजी उसकी अनुपस्थिति में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहे थे। बालाजी विश्वनाथ का 2 अप्रैल, 1720 को देहावसान हो गया।
बालाजी विश्वनाथ का मूल्यांकन-
बालाजी स्वनिर्मित व्यक्ति थे। शून्य से चल कर वह पेशवा बन गए। आज उनका स्मरण एक वीर योद्धा के रूप में ही नहीं अपितु राजनीतिज्ञ और राजमर्मज्ञ (politician and statesman) के रूप में किया जाता है। वह मराठा राजनीति की गहनता को समझते थे और इसी कारण उन्होंने ताराबाई अथवा यशुबाई को छोड़कर शाहू को अपनाया। अपनी कूटनीति के कारण उन्होंने धन्नाजी जादव, खाण्डे राव दहबाड़े, परशोजी तथा सबसे प्रमुख कान्होजी आंगड़े को शाहू की ओर मिला लिया।
अपनी कूटनीति से उन्होंने देश को गृहयुद्ध से बचाया तथा माधाजी कृष्ण जोशी जैसे साहूकारों की सहायता से शाहू को अपनी वित्तीय कठिनाइयों से छुटकारा दिलाया। उसके सैयद बन्धुओं के सौदे के कारण राज्य को 30 लाख रुपया मिला और नियमित रूप से 35 प्रतिशत वार्षिक कर, चौथ तथा सरदेशमुखी के रूप में मिलने लगा। युद्धपीड़ित देश में शान्ति स्थापित कर मराठों की शक्ति को साम्राज्य के गठन में लगाया।