ताम्रपाषाणिक संस्कृति | 5 Chalcolithic cultures | ताम्रपाषाण काल | chalcolithic period | ताम्रपाषाण युग | ताम्रपाषाण काल की विशेषता | Tamrapashan kaal

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हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद भारत मे जिन स्थानीय सभ्यताओं के उदय हुआ उसे हम हड़प्पेत्तर संस्कृतियाँ कहते हैं। यह लगभग समस्त भारत वर्ष में व्याप्त थीं। आइए इन सभ्यताओं को जानते हैं।

ताम्रपाषाणिक संस्कृति
हड़प्पेतर संस्कृतियाँ (post harappan culture)

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हड़प्पेतर ताम्र-पाषणिक संस्कृतियाँ : परिचय एवं प्रमुख विशेषताएँ (post harappan culture : introduction and salient feature)

ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दी के लगभग सिन्धु-उपत्यका में तथा आस-पास के अन्य क्षेत्रों में हड़प्पा संस्कृति के समापन के साथ अनेक क्षेत्रीय संस्कृतियों (post harappan culture) का वर्चस्व स्थापित होने लगा।

ताम्रपाषाणिक पुरास्थल

सिन्ध प्रदेश के झूकर पुरास्थल के उत्खनन से इस क्षेत्र में ‘झूकर संस्कृति तथा पश्चिमी पंजाब एवं बहावलपुर क्षेत्र में ‘श्मशान ‘एच’ संस्कृति’ (Cemetery-H. Culture) का बोलबाला स्थापित हुआ।
इसी प्रकार गुजरात में ‘चमकीले लाल मृद्भाण्ड’ तथा दक्षिण-पूर्व राजस्थान, पूर्वी पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘पाण्ड्रंगीय मृदभाण्ड-प्रयोक्ता-संस्कृतियों का उन्मेष मिलता है।

इन संस्कृतियों के उत्स से यह स्पष्ट होता है कि मानव समाज की गतिशीलता मन्द भले ही हो जाय, किन्तु टूटती नहीं है।
उच्च नगरीय एवं व्यापारिक गतिविधियों वाली हड़प्पा संस्कृति के क्रमिक पतन के साथ-साथ ताम्रपाषाणिक ग्रामीण-बस्तियों का क्षेत्रीय स्वरूप क्रमशः निखरने लगा। ई० पू० द्वितीय सहस्राब्दी के लगभग पर्यावरण में होने वाले असंतुलन के फलस्वरूप पश्चिमोत्तर तथा पश्चिम भारत में बसने वाले तत्कालीन कृषक लोगों को क्रमशः अपनी जीवन-प्रणाली में परिवर्तन लाने के लिए विवश होना पड़ा। शुरू-शुरू में बसने वाले गाँव आकार में छोटे थे तथा बस्तियाँ बहुत स्थायी भी न थीं। किन्तु धीर-धीरे भारत के एक बहुत बड़े में भू-भाग में स्थायी कृषि-बस्तियों तथा ग्रामों की स्थापना हुई।

पुरातत्वविदों की धारणा है कि उत्तर हड़प्पा कालीन इनग्राम-बस्तियों में 2400 ई० पू० से लेकर लगभग 1000 ई० पू० के मध्य तक ताम्रपाषाणिक उपकरणों का न्यूनाधिक प्रयोग होता रहा। किन्तु लगभग 1000 ई० पू० के उपरान्त भारत के विभिन्न प्रदेशों में वितरित उक्त संस्कृति के स्थायी ग्रामों में लौह उपकरणों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ।
ई०पू० द्वितीय सहस्राब्दी में पत्थर तथा ताँबे के औजारों का प्रयोग करने वाले लोग शहरों में न बस कर ग्राम-बस्तियों में बसने लगे। इस काल के मृद्भाण्डों तथा उपकरणा के परीक्षण से ज्ञात होता है कि ये लोग मूल हड़प्पा संस्कृति से इतर लोग या भौगोलिक स्थिति की दृष्टि से इनका विस्तार भारत के निम्न भू-भागों में हुआ था।

ताम्रपाषाणिक संस्कृति (Chalcolithic culture)

ताम्रपाषाण काल (chalcolithic period) की संस्कृतियों का सम्बंध एक ऐसे काल से है जो हड़प्पा काल के अंतिम चरणों में विकसित हुई।तथा 2000B.C. से लेकर 700B.C. तक के काल का प्रतिनिधित्व करती है।

सिन्धु सभ्यता के नगरीय जीवन के बाद उत्तर भारत के कतिपय क्षेत्रों में पुन: ग्रामीण संस्कृतियाँ परिलक्षित होती हैं। इन ग्रामीण संस्कृतियों में पाषाण उपकरणों के साथ ताँबे के उपकरणों का भी प्रयोग किया गया है। अतः पुरातत्त्वविद इस संस्कृति को ‘ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के नाम से अभिहित करते हैं।
इस संस्कृति का आविर्भाव द्वितीय सहस्राब्दी ई० पू० से प्रथम सहस्राब्दी ई० पू० के मध्य माना जाता है। भारत में इसका विस्तार मुख्यत: पूर्वी, पश्चिमी और मध्य भारत में दिखाई पड़ता है। पुरातत्वविदों के अनुसार ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों के कतिपय प्रमुख लक्षण माने गये हैं :

(1) ताम्र पाषाणिक संस्कृति में विभिन्न प्रकार की चित्रित मृदभाण्ड परम्परा मिलती है। पात्र परम्पराओं में अधिकांशत: लाल पर काले रंग का चित्रण अभिप्राय मिलते हैं।

(2) इस संस्कृति में ताँबे के पत्तरों का उद्योग विकसित होता हुआ दिखायी पड़ता है। ताँबे के उपकरणों के साथ सिलिकामय पत्थरों के उपकरण भी मिले हैं।

(3) इस काल में धातु (तांबे) का प्रयोग सीमित मात्रा में किया गया है क्योंकि प्रचुर मात्रा में धातु उपलब्ध नहीं थी।

(4) इस काल की अर्थव्यवस्था मूलत: कृषि-पशुपालन पर आधारित थी।

(5) इस काल में आवास के लिए अधिकांशत: विभिन्न आकार की झोपड़ियाँ मिलती हैं। कहीं-कहीं मकान निर्माण में पत्थर और कच्ची तथा पकी ईंटों का भी प्रयोग मिलता है। भूतलीय आवास के प्रमाण भी उल्लेखनीय हैं।

(6) इस काल की ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों का नामकरण उनकी क्षेत्रीय विशेषताओं अथवा पुरास्थलों के नाम पर किया गया है।

सिन्धु सभ्यता के परवर्ती चरण से अनेक क्षेत्रीय संस्कृतियों के साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, जिनको पात्र परम्पराएँ भिन्न हैं इसलिए क्षेत्रीय संस्कृतियों की पहचान उनके पात्र-प्रकारों से ही की जातो है। ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ भी अपनी विशिष्ट पात्र परम्पराओं के लिए ही प्रसिद्ध हैं।

ताम्रपाषाणिक संस्कृति का सम्बंध ऐसी संस्कृति से लिया गया है जिसमें मनुष्य द्वारा निर्मित सामग्रियां ताम्बे की और पत्थर से निर्मित रूप में बहुतायत में मिली है।


यह तांबा मुख्य रूप से खेतड़ी के खानों ( ताम्रवती, राजस्थान) से प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।किंतु ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों के अंतर्गत अहाड़ बनास संस्कृति अपवाद है क्योंकि यहाँ से केवल ताँबे के ही उपकरण मिले हैं पत्थर के नहीं।
सबसे प्राचीनतम ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों के अंतर्गत कायथा अहाड बनास संस्कृति और सबसे नयी संस्कृति के रूप में जोर्वे संस्कृति (1400~700) B.C. स्वीकार की जाती है।

ताम्रपाषाण काल (chalcolithic period) की संस्कृतियों का विस्तार:

ताम्र-पाषाणिक संस्कृति का विस्तार सिन्धु-सभ्यता के विस्तार क्षेत्र राजस्थान, पूर्वी पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलावा दक्षिण पूर्व राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि में है।

इस संस्कृति के प्रमुख पुरास्थलों में राजस्थान में गिलुण्ड तथा अहाड़ (दोनों उदयपुर जिला) मध्य प्रदेश में कायथा (उज्जैन जिला), एरण (सागर जिला) त्रिपुरी (जबलपुर जिला), नवदाटोली, महेश्वर (जिला खरगोन) महाराष्ट्र में प्रकाश धुलिया जिला) दायमाबाद (अहमदनगर जिला), इनामगांव (पुणे जिला). गुजरात में प्रभासपाटन और रामपुर, बिहार में चिरांद, पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले में पांड-राजार-ढीबी मिदनापुर में महिषादल आदि उल्लेखनीय हैं।

इस प्रकार उपरोक्त ताम्रपाषाणिक संस्कृति के पुरास्थलों में से 5 संस्कृतियां विशेष उल्लेखनीय है~
1) उच्च गंगा घाटी की गैरिक मृदभांड( OCP) तथा ताम्रनिधि संस्कृति
2) कायथा संस्कृति
3) अहाड संस्कृति अथवा बनास संस्कृति
4) मालवा संस्कृति
5) जोर्वे ताम्रपाषाणिक संस्कृति

NOTE- उच्च गंगा घाटी की गैरिक मृदभांड तथा ताम्रनिधियो की चर्चा हम अगली पोस्ट में करेंगे।
अभी इसके अलावा उपरोक्त संस्कृतियों का वर्णन करेंगे।

1) उच्च गंगा घाटी की गैरिक मृदभांड( OCP) तथा ताम्रनिधि संस्कृति

     2. कायथा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति : post harappan culture

नर्मदा और उसकी सहायक ताप्ती एवं माही और यमुना की सहायक चम्बल तथा बेतवा द्वारा सिंचित मालवा का पठार मध्यप्रदेश के अंतर्गत आता है। इस क्षेत्र के ताम्र पाषाणिक प्रमुख पुरास्थलों में त्रिपुरी(जिला जबलपुर),एरण(जिला सागर), उज्जैन( जिला उज्जैन) तथा कायथा(जिला उज्जैन) विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

मालवा (म०प्र०) क्षेत्र की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में कायथा प्राचीनतम है। कायथा 23°30’N और 76°00′ के मध्य, छोटी काली सिंधु नदी के दाहिने तट पर उज्जैन जनपद में मुख्यालय से 25km दूर पूर्व की ओर अवस्थित है। काली सिन्धु चम्बल की सहायक नदी है।पहले कायथा को ” कपित्थक” के नाम से जाना जाता था जो महानखगोलविद ज्योतिष विज्ञानी वराहमिहिर की जन्मस्थली मानी जाती है।
1964 में इस पुरास्थल को खोजने का श्रेय तथा 1965~1967 ई० में इसके सीमित उत्खनन का तथा श्रेय V.S. वाकणकर को जाता है।


इतना ही नहीं कायथा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति को भारतीय पुरातत्व के इतिहास में प्रतिस्थापित करने का श्रेय भी वी०एस० वाकणकर को जाता है।
दक्कन कॉलेज एण्ड पोस्ट ग्रेजुएट रिसर्च इंस्टीट्यूट पुणे के D. अंसारी तथा विक्रम विश्वविद्यालय के सहयोग से 1968 में पुनः विस्तृत पैमाने पर उत्खनन कराया गया।

इसके आसपास कुछ अन्य ताम्रपाषाणिक स्थल है जैसे~ एरण, त्रिपुरी, उज्जयिनी।
कायथा के विस्तृत उत्खनन के फलस्वरूप पांच सांस्कृतिक अनुक्रम प्रकाश में आए जिनमें से नीचे की तीन ताम्रपाषाणिक थे।
मालवा क्षेत्र से अब तक 40 से अधिक पुरास्थल प्राप्त हुए हैं जिनमें सबसे प्राचीनतम कायथा संस्कृति है।

कायथा संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं:-

(1) आवास / मकान योजना :-

Tamra pashanik sanskriti

 कायथा संस्कृति के लोग जमीन में लकड़ी के लठ्ठे अथवा खम्बे गाड़कर बांस बल्ली आदि के टटरे बनाकर अपने मकान निर्मित किया करते थे उनके मकान प्रायः गोल अथवा चौकोर होते थे।

बाँस अथवा सरकंडे आदि से बनी दीवारों को मिट्टी के गाढे लेप से सुरक्षित किया जाता था।
मकानों की छत को बांस की टहनियों तथा घास फूस से ढक दिया जाता था।
इस प्रकार मालवा में कायथा संस्कृति के लोग इस क्षेत्र के पहले निवासी थे जिन्होंने मकान बनाकर स्थायी रूप से यहां पर रहना प्रारम्भ किया।

(2) मृदभांड परम्परा:-

इस संस्कृति की पहचान तीन विशिष्ट मृदभांड परम्पराओं से की जाती है। इनमें से प्रथम अथवा मुख्य मृदभांडपरम्परा पतली एवं पुष्ट मृदभांड परम्परा है~

i) भूरे अथवा लाल रंगवाली परम्परा:-

इसे मजबूत तथा पतली गढ़न का बनाया गया है। इस पर मोटा भूरा लेप गर्दन से निचले हिस्से तक मिलता है। इन पात्रों पर गहरी और मोटी धारियां लाल रंग से बनायी गयी है। इसके ऊपर बैगनी अथवा गहरे लाल रंग से रेखीय चित्रण मिलता है। प्रमुख पात्र प्रकारों में तसले , कटोरे, गहरी तस्तरी, घड़े, मटके, हंडियां आदि मिले हैं।

ii) पाण्डु रंग के भांड :-

इस प्रकार के बर्तन सुंदर गढ़न के साथ अपेक्षाकृत पतले बनाये गये है। इसके ऊपर लाल रंग का चित्रण था।मृदभांडों के चित्रण- आड़ी- बेड़ी, रेखायें, बंदनवार , जालीदार हीरक आकर आदि रंगों का गेरु से करते थे।
ऐसे बर्तनो में तसले, हँड़िया, घड़े तथा लोटे है।

iii) लाल रंग के मृदभांड:-

यह लाल रंग की महीन बड़ी की बिना लेप की पात्र परम्परा है किंतु इस पर भी उत्कीर्णन मिलता है। इस प्रकार के पात्रों में खरोंच कर लहरदार, टेढ़ी मेढ़ी आकृतियां बनाई गई है। इस पात्र प्रकारों में कटोरे ,तसले आदि है।

(3) कृषि एवं पशुपालन:-

यहां के लोगो की मिश्रित अर्थव्यवस्था थीं जो कृषि, पशुपालन, शिकार तथा मत्स्य उघोग पर आधारित थी।
ये लोग गेहूं और जौ की खेती करते थे।यहाँ वर्षा पर्याप्त होती थी । पालतू पशुओं में गाय, बैल, बकरी, भेड़ प्रमुख थे।

(4) उपकरण:-

 उपकरणों के आधार पर कायथा को ताम्रपाषाणिक संस्कृति का मन गया है।कायथा संस्कृति के लोग ताम्र तथा कांस्य धातुओं से भलीभांति परिचित थे । यहां के उत्खनन में एक मकान से प्राप्त एक घड़े में 2 तांबे की कुल्हाड़ियाँ (axe) मिली हैं जिनका निर्माण साँचे में ढाल कर किया गया है।इसके अतिरिक्त यहां एक से प्राप्त एक मृदभांड में बेधक, ब्लेड, चन्द्रिका आदि लघुपाषाण  उपकरण प्राप्त हुए हैं।

अन्य पुरावस्तुएँ:-

कायथा के उत्खनन में अनेक उपकरणों के साथ साथ कुछ अन्य पुरावस्तुएँ भी प्रकाश में आयी है
यहां के उत्खनन में 2 पात्रो में चूड़ियाँ क्रमशः 15 तथा23 की संख्या में मिली है।
एक बर्तन में 2 हार मिले हैं।जिनमें एक मे 173 तथा दूसरे में 160 गुरियाँ थीं। इनमें अधकांशतः कार्नेलियन तथा अंगेट की थी। एक घड़े से स्टियलाइट की 40,000 छोटे छोटे मनके / लघुबीड प्राप्त हुये है।

(5) कालानुक्रम:-

कायथा पुरास्थल के प्रथम सांस्कृतिक स्तर के जमाव से प्राप्त कार्बनिकृत पदार्थों से तीन रेडियोकार्बन तिथियां प्राप्त हुई है जो निम्नवत है :-
1) 2150±100 ई०पू०
2)1685±100ई०पू०
3)1463±100ई०पू०

उपर्युक्त कार्बन तिथियों के आलोक में पुरातत्वविदों ने कायथा की ताम्रश्मयुगीन संस्कृति की तिथि का निर्धारण 2000ई०पू० से 1800ई०पू० के मध्य स्वीकार किया है।
किन्तु पोशेल तथा रिसमन इसे संशोधन के उपरांत C-2400-2000 ई०पू० के अंतर्गत रखते हैं

निष्कर्ष:

इस प्रकार यदि देखें तो उपर्युक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि अभी तक की जानकारी के अनुसार ये मालवा क्षेत्र के प्राचीनतम वाशिंदे थे । इनकी पात्र परम्परा में तथा प्रारम्भिक हड़प्पा के मृदभांडों मे जो साम्य मिलता है उसके आधार पर इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि इस क्षेत्र में भी उसी प्रकार की संस्कृति का संस्तर रहा होगा । इसलिए यह कहना आवश्यक नहीं है कि ये कहीं बाहर से आए थे।

अहाड (बनास) संस्कृति / अहाड़ की ताम्रपाषाणिक संस्कृति (Chalcolithic culture of Ahar)

गुजरात और राजस्थान में जब सैन्धव सभ्यता का अस्तित्व बना हुआ था तभी दक्षिणी पूर्वी राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों में एक ताम्रपाषाणिक संस्कृति का उदय हुआ।भारतीय पुरातत्व में इसे अहाड संस्कृति के नाम से जाना जाता है।

राजस्थान के ताम्रपाषाणिक पुरास्थलों में अहाड़ का प्रमुख स्थान है। यह पुरास्थल राजस्थान के उदयपुर जिले में स्थित है। इस ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के अनेक पुरास्थल राजस्थान के विभिन्न जिलों उदयपुर, चित्तौड़, अजमेर, जयपुर आदि और मध्य प्रदेश के उज्जैन और मन्दसौर से प्राप्त हुए हैं।
उल्लेखनीय है कि ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के अधिकांश पुरास्थल राजस्थान की बनास. नदी और उसकी सहायक नदियों की घाटी में मिले हैं, अत: पुरातत्त्वविद् इस ताम्र पापाणिक संस्कृति को ‘बनास संस्कृति’ का नाम भी प्रदान करते हैं ।

यह पुरास्थल(अहाड) राजस्थान के उदयपुर जिले में अहाड नदी के किनारे(24°40′ N से 73°50′ E) स्थित है।इसका उत्खनन 1952- 53 तथा 1953 – 54 में रतनलाल अग्रवाल ने कराया। उत्खनन से ताम्रपाषाणिक संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

1961- 62 में राजस्थान के पुरातत्व एवं सग्रहालय विभागडेक्कन कॉलेज तथा पुणे व मेलबर्न विश्वविद्यालय ने संयुक्त रूप से इसका उत्खनन पुनः कराया।

अहाड के अतिरिक्त चित्तौड़ गढ़ का उत्खनन 1959- 60 में B.B. लाल ने किया तथा बालाथल का प्रो० V.N. मिश्र ने किया।
इन स्थलों के अतिरिक्त 90 से अधिक पुरास्थल चिन्हित किये गए हैं।
अहाड संस्कृति का स्वरूप मुख्यतः अहाड,बालाथल तथा गिलुण्ड नामक पुरास्थल है।
अहाड पुरास्थल का टीला 500×270×13 मी० बड़ा था।
जिसमें 13 मी० का आवासीय जमाव था। स्थानीय लोग इसे धूलकोट के नाम से जानते है।उत्खनन के आधार पर प्रारंभ में यह दो काल खण्डो 1 तथा 2 में विभाजित था जिसे पुनः तीन उपकालखण्डों (a,b,c) में विभाजित करते हैं।

बालाथल गांव के पूर्वी छोर पर इनका फैलाव 5 एकण से अधिक है तथा इसका सम्पूर्ण जमाव 7 मी० है ।इसमें 2 संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं(ताम्रपाषाणिक तथा लौहयुगीन)।

सांस्कृतिक अनुक्रम:-

सम्पूर्ण जमाव 22 लेयरो (पर्तों) में विभाजित है। जिसमें 14 से 22 परत तक अहाड संस्कृति व ताम्रपाषाणिक संस्कृति से सम्बंधित है। 1 से 12 लेयर लौह युगीन है। ताम्रपाषाणिक के अंत तथा लौह संस्कृति के प्रारंभ में अन्तराल था, सम्भवतः वहां आबादी नहीं थीं क्योंकि मानव आवास के साक्ष्य नहीं मिले हैं।इसीलिए मध्यवर्ती परत(13) खाली है।

अहाड संस्कृति का उद्भव:-  इस संस्कृति के अधिकांश पुरास्थल एक क्षेत्र विशेष में ही दिखलाई देते हैं।इनका विस्तार दक्षिणी पूर्वी राजस्थान और पश्चिमी मध्यप्रदेश में ही मिलता है।इस आधार पर यह सम्भावना प्रकट की जा सकती है कि यह एक क्षेत्रीय संस्कृति रही होंगी।

अहाड़ संस्कृति की विशेषताएं:-

(1) मकान या आवास:-

अहाड ,गिलुण्ड तथा बालाथल के उत्खनन के फलस्वरूप इनकी आवास योजना पर यथेष्ट प्रकाश पड़ता है।भवनों का निर्माण क्षेत्र में उपलब्ध पत्थरों तथा कच्ची ईंटो तथा गारे से करते है। पत्थर खण्डों का प्रयोग नीवं के लिए करते थे।सम्भवतः दीवारें कच्ची ईंट व गारा या मिट्टी की बनी होती थी कहीं कहीं पत्थर व पके ईट भी मिले हैं।
मकान वर्गाकार अथवा आयताकार छोटे तथा बड़े दोनों प्रकार के होते थे।मकानों का छाजन या छप्पर बांस बल्लियों तथा घास फूस का सम्भवतः बनाया जाता था। स्तम्भ गर्तों के साक्ष्य से यह इंगित होता है कि कुछ मकानों की दीवारें बांस बल्ली की बनायी जाती थी।


मकानों की फर्श मिट्टी तथा नदी की ग्रेवेल को मिला कर अथवा जली मिट्टी को पीटकर बनाते थे।
घरों में n आकार के चूल्हों की भी व्यवस्था थी। चूल्हे एक अथवा दो मुंह के होते थे।अहाड में एक मकान में एक ही कतार में 6 चूल्हे मिले हैं।सिल व लोढो का भी प्रयोग किया जाता था।

(2) भोज्य व्यवस्था:-

  बालाथल से प्राप्त अन्नों से पता चलता है कि इनके भोज्य पदार्थों में गेहूं, जौ, चावल, ज्वार, मूंग, उड़द ,मटर, चना, आदि अन्न शामिल थे।
फलों में बेर के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं।ये लोग मांसाहारी भी थे।
ये मछली, कछुआ, मुर्गी, गाय, भैंस, बकरी, सुअर आदि के मांस खाते थे।जंगली जानवरों में हाथी,गौर ,नीलगाय, चीता,खरगोश आदि से परिचित थे। घोंघे आदि का प्रयोग भी भोजन में करते थे।

(3) मृदभांड परम्परा:-

अहाड संस्कृति के लोग विविध प्रकार की मृदभांड परम्परा का उपयोग करते थे।यहां पर 7 प्रकार की मृदभांड परम्पराएँ चिन्हित की गई है जो सभी चाक पर निर्मित है।इन्हें 2 वर्गों में विभाजित किया गया है।
महीन तथा रुक्ष वर्ग।
उपयोगिता के आधार पर इन्हें मोटी अथवा पतली परतों का बनाया जाता था।
प्रमुख पर्तो में थालियां, तश्तरी, गहरे कटोरे, खाँचेदार कटोरे, घड़े, तसले, दक्कन आदि हैं।

(4) अर्थव्यवस्था-

अहाड़ पुरास्थल के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों से संकेत मिलता है कि इस संस्कृति के लोगों का जीवन-यापन कृषि और पशुपालन पर आधारित था। उत्खनन से प्राप्त मृाण्डों से अधजली धान की भूसी, पुआल और दानों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनका प्रयोग मिट्टी गूंथते समय सालन के रूप में किया गया था इससे स्पष्ट हो जाता है कि अहाड़ के लोग धान की खेती करते थे।

अहाड़ पुरास्थल के उत्खनन से गेहूँ और जौ के साक्ष्य नहीं मिले हैं, किन्तु राजस्थान के अन्य ताम्र पाषाणिक पुरास्थलों से गेहूँ और जौ के खेती के साक्ष्य उपलब्ध हैं। अतः विद्वानों का अनुमान है कि अहाड़ के लोग भी इनकी खेती करते रहे होंगे।
अहाड़ संस्कृति के विभिन्न सांस्कृतिक कालों से पशुओं की हड्डियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन पशुओं में जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशु थे। पालतू पशुओं में गाय-बैल, भेड़-बकरी और सुअर का उल्लेख किया जा सकता है।
इस प्रकार अहाड़ संस्कृति में अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार मिश्रित खेती (कृषि-पशुपालन) माना जा सकता है, किन्तु धातु के प्रयोग के कारण उद्योग-धन्धों के विकास से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

(5) उपकरण:-

अहाड तथा बालाथल से प्रस्तर उपकरण अत्यल्प अथवा न के बराबर हैं।ये लोग ताम्र उपकरणों का प्रयोग बहुतायत से करते थे।घरों से प्राप्त चूल्हों का उपयोग भट्टी के रूप में करके ताम्बे की चादर को पीटकर मनोकूल आकार दिये जाते थे।अहाड से प्राप्त ताम्बे की कुल्हाड़ियां, चाकू, चूड़ी, तथा अंगूठियां, छल्ले तथा छड़े आदि उल्लेखनीय है।

(6) आभूषण:-

उपकरणों के अतिरिक्त ताम्बे के कान के टाप्स तथा लटका भी मिले हैं।यहां के लोग कार्नेलियन, अगेट, तथा स्टियलाइट तथा मिट्टी की गुरियों से कण्ठ हार बनाते थे।

(7) अन्य पुरावशेष:-

 अहाड संस्कृति के उत्खनन से उपकरणों व आभूषणों के अलावा अन्य सामग्रियां भी प्रकाश में आयीं।
अहाड से 12km दूर मैतून तथा उमरा नामक स्थानों से ताम्बे को गलाने के साक्ष्य प्राप्त हुए।
मिट्टी की बैल की आकृतियां काफी संख्या में मिली है जिनका उपयोग सम्भवतः पूजा के लिए होता था।ऐसी प्रतिमायें राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में स्थित मर्मी से मिली है।इनके अतिरिक्त कुत्ते समान खिलौने तथा छिद्रित चक्र भी मिले हैं।

(8) कृषि एवं पशुपालन:-

अहाड के लोग खेतिहर तथा पशु- पालक थे। अहाड से प्राप्त पात्र खण्डों में धान के अधजले दानों- भूसी एवं पुआल की छापें मिलती है।
इस प्रकार ये लोग धान की खेती निश्चित रूप से करते थे।बालाथल में बहुत से अन्नों के प्रमाण उपलब्ध हुये हैं।
वहां पर गेहूं, जौ, चावल, ज्वार, उड़द, मूंग, मटर, चना,आदि प्राप्त हुए हैं।वे इनकी खेती भी करते थे।
अहाड से गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, सुअर आदि पालतू पशुओ के साक्ष्य मिले हैं।
बालाथल के उत्खनन से आर्थिक क्रिया कलापों पर विशेष प्रकाश पडा है।

(9) तिथिक्रम:-

प्रारम्भ में अहाड के साम्य के आधार पर बालाथल की भी ताम्रपाषाणिक संस्कृति को द्वितीय सहस्त्राब्दि के प्रथम चरण में रखा गया था।किंतु बालाथल से प्राप्त रेडियोकार्बन तिथियों के आधार पर पुरातात्विक निर्धारित तिथि क्रम में परिवर्तन किया गया है, यहां से चार तिथियां उपलब्ध है ये निम्न है:-

1) 2350±70ई०पू०
2) 2825±60ई०पू०
3)2300±80ई०पू०
4) 2310±80ई०पू०

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यह संस्कृति2500ई०पू० में प्रारंभ हुई तथा2350ई०पू०से 2300ई०पू० के बीच मध्य अवस्था में थी।
इस संस्कृति का समापन 1800ई०पू० के लगभग माना जा सकता है।

(10) निष्कर्ष:

उपरोक्त विवेचन से यह कहा जा सकता है कि अहाड तथा बालाथल की ताम्रपाषाणिक संस्कृति के निर्माण में एक से अधिक तत्व उत्तरदायी रहे होंगे।भारत के नवपाषाण तथा ताम्रपाषाण में लघुपाषाण उपकरण प्रचलित थे।
अहाड तथा बालाथल पुरास्थल को छोड़कर ताम्रपाषाणिक संस्कृति के शेष अन्य पुरास्थलों पर लघुपाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं।अहाड संस्कृति के लोगों ने अपनी संस्कृति के विविध तत्वों को भले ही विभिन्न स्रोतों से लिया हो।लेकिन दक्षिण पूर्व राजस्थान और मध्यप्रदेश के मालवा के विस्तृत क्षेत्र में मिलने वाली इस ताम्रपाषाणिक संस्कृति का स्वरूप आज भी नितांत मौलिक लगता है।

 मालवा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति(Chalcolithic culture of Malava)

मालवा ताम्र-पाषाणिक संस्कृति से क्षेत्र विशेष की संस्कृति का बोध होता है। वस्तुत: इस संस्कृति का विस्तार क्षेत्र मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में देखा जाता है, किन्तु इस संस्कृति का प्रमुख पुरास्थल नवदाटोली तथा महेश्वर (दोनों खरगोन जिला, उ०प्र०) माने जाते हैं।
इस विषय में पुरातत्त्वविद् पुरास्थल के नाम के आधार पर मालवा संस्कृति को ‘नवदाटोली ताम्र पाषाणिक संस्कृति’ की संज्ञा भी प्रदान करते हैं, जो सर्वथा उचित प्रतीत होती है।
नवदाटोली पुरास्थल मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है। इस पुरास्थल का उत्खनन सन् 1952-54 तथा 1957-59 ई० में कराया गया था। उत्खनन कार्य दकन कालेज पुणे और एम एस० विश्वविद्यालय, बड़ौदा के संयुक्त तत्वावधान में हुआ। जिसका नेतृत्व एच.डी.सांकलिया ने किया। उत्खनन के फलस्वरूप पाँच सांस्कृतिक-काल प्रकाश में आये, जिनमें ताम्र पाषाणकालीन संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
नवदाटोली के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेष विशिष्ट प्रकार के हैं जिनका विवरण निम्नांकित है

(1) उपकरण एवं अन्य पुरावशेष-

मालवा संस्कृति के लोग यद्यपि ताँबे से परिचित थे, किन्तु ताँबे का उपयोग सीमित दिखायी पड़ता है। ताम्र निर्मित पुरानिधियों में चपटी कुल्हाड़ियाँ, छेनी, मछली के कांटे, चूड़ियाँ अंगठियाँ आदि उल्लेखनीय हैं । मनकों का निर्माण गोमेद, अकीक जैसे रत्नों और मिट्टी से किया गया है। नवदाटोली के उत्खनन में प्रत्येक घर से लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। पुरातत्वविदों का मत है कि संभवत: नवदाटोली के लोग अपनी आवश्यकतानुसार पाषाण उपकरणों का निर्माण घर में ही करते थे।

(2) आवास-

मालवा संस्कृति के इस पुरास्थल से भवन निर्माण के जो साक्ष्य मिले हैं उनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि लोग बांस-बल्ली और घास-फूस की झोपड़ियाँ बनाते थे। दीवाल बाँस के पर्दो (घरों) से बनायी जाती थी जिनके दोनों ओर मिट्टी का लेप किया जाता था। मकानों का आकार चौकोर और वृत्ताकार होता था। वृत्ताकार घरों का व्यास तीन फुट से पन्द्रह फुट तक होता था। विद्वानों की धारणा है कि छोटे वृत्ताकार घरों का उपयोग सम्भवतः अनाज रखने के लिए होता था।

मकानों की फर्श मिट्टी और गोबर से बनायी जाती थी बस्तियों में मकान आस-पास बनते थे किन्तु मकानों के बीच में रास्ता होता था। मकान की सफाई के लिए चूने का प्रयोग किया जाता था। नवदाटोली पुरास्थल से कच्ची अथवा पकी ईंटों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं। मकानों के अन्दर से सिल-लोढ़े, मृद्भाण्ड और चूल्हें मिले हैं उल्लेखनीय है कि मालवा संस्कृति से सम्बन्धित जो पुरास्थल महाराष्ट्र (इनामगाँव और दायमाबाद) में है उनके भवन निर्माण की विधियाँ नवदाटोली से भिन्न है। महाराष्ट्र के दोनों पुरास्थलों से मिट्टी की दीवालों से बने मकान मिले हैं। इन पुरास्थलों से गर्त-आवास भी मिले हैं यहाँ के मकान आयताकार हैं।

उल्लेखनीय है कि मालवा संस्कृति के इनाम गाँव पुरास्थल से बत्तीस मकानों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें अट्ठाईस आयताकार हैं। मकानों के कोने गोलाई लिए हुए होते थे। मकानों की दीवालों पर प्राप्त स्तम्भ-गर्त (गट्टे) से अनुमान लगाया जाता है कि बाँस या बल्ली को रखकर पहाड़ियों का निर्माण होता था मकानों की छतें ढलवाँ होती थीं । इनामगाँव के मकानों में आँगन के साक्ष्य भी मिले हैं । मकानों के अन्दर और बाहर गोलाकार चूल्हे मिले हैं ।

इनामगाँव के गर्तयुक्त मकान में सीढ़ियों के साक्ष्य मिले हैं। इसी प्रकार दायमाबाद से भी अट्राईस मकानों के अवशेष मिले हैं, जिनका प्रयोग आवास, व्यवसाय और धर्म आदि के लिए किया जाता था। मालवा संस्कृति के एरण और नागदा पुरास्थलों से बस्तियों के किलेबन्दी के साक्ष्य मिले हैं। इसी तरह इनामगाँव (जोर्वे युग) में भी पत्थर के छोटे टुकड़ों और मिट्टी से किलेबन्दी के प्रमाण मिले हैं।

(3) अर्थव्यवस्था-

नवदाटोली पुरास्थल से प्राप्त पुरावशेषों से लोगों के रहन-सहन और आर्थिक व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है। अर्थव्यवस्था कृषि तथा पशुपालन पर आधारित थी। विभिन्न प्रकार के अनाजों; जैसे-गेहूँ, जौ, चना, धान, मूंग, उड़द आदि की खेती की जाती थी।

कृषि के साथ पशुपालन भी किया जाता था। पालतू पशुओं में गाय बैल भैस भेड़-बकरी आदि प्रमुख है। उत्खनन स्थल से वन्य जीवों की अस्थियाँ भी प्राप्त हुई हैं। सम्भवतः इनका शिकार किया जाता था।

कृषि और पशुपालन के अलावा उद्योग-धन्धों के विकास के साक्ष्य उपलब्ध हैं। दायमाबाद के विभिन्न मकान व्यवसायगत उद्देश्य के लिए निर्मित किये गये प्रतीत होते हैं। पुरातत्वविदों की धारणा है कि दायमाबाद के कार्यसूचक मकानों में विभिन्न उद्योग-धन्धों के कारखाने रहे होंगे, जो संस्कृति के अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग थे।

(4) मृद्भाण्ड-

नवदाटोली के उत्खनन से मालवा संस्कृति के मृद्भाण्डों के चार प्रकार मिले हैं।
इन पात्र प्रकारों में लाल रंग पर काले रंग से चित्रित पात्र प्रकार मुख्य हैं।

पुरातत्वविद् इस पात्र परम्परा को ‘मालवा मृदभाण्ड परम्परा’ को संज्ञा देते हैं। इन पात्रों पर प्रकृति के चित्रों और ज्यामितीय रेखाओं से चित्रण किया गया है।
मालवा परम्परा के पात्र नवदाटोली के सभी सांस्कृतिक कालों से मिले हैं। इस परम्परा के प्रमुख पात्र प्रकारों में साधार तश्तरियाँ, तसले, लोटे, थालियां, पेंदी युक्त कटोरे हैं।

नवदाटोली की दूसरी पात्र परम्परा काले-लाल पात्रों पर सफेद रंग को चित्रकारी से युक्त है। इस पात्र परम्परा के प्रमुख पात्रों में थालियाँ, कटोरे, कुल्हड़, करई प्रमुख हैं। इन पात्रों को भी ज्यामितीय रेखाओं से अलंकृत किया गया है। इस पात्र परम्परा का प्रचलन द्वितीय सांस्कृतिक चरण तक ही सीमित दिखाई पड़ता है।

मालवा संस्कृति की तीसरी पात्र परम्परा दूधिया स्लिप वाली है। इनका अलंकरण रेखाओं और विभिन्न पशुओं हिरण, बकरे और नाचते हुए सामूहिक मानव के चित्रों से किया गया है इस पात्र परम्परा के प्रमुख पात्रों में आधारयुक्त कटोरे, तश्तरियाँ आदि उल्लेखनीय है ।

मालवा संस्कृति की चौथी पात्र परम्परा का सम्बन्ध जोवें पात्र परम्परा से माना जाता है। इन पात्रों को लाल रंग से प्रलेपित किया गया है। इनके अलंकरण के लिए ज्यामितीय रेखाओं का प्रयोग मिलता है। इनके पात्र प्रकारों में टोंटीदार बर्तन, लम्बे गर्दन वाले घडे, कटोरे आदि हैं।

इनके अलावा कुछ अन्य पात्र प्रकार भी मालवा संस्कृति से प्रकाश में आये हैं जिनमें धूसर रंग को काली पात्र परम्परा लाल, काली और ताँबे के रंग की पात्र परम्परायें उल्लेखनीय हैं।

(5) धार्मिक आस्था-

ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों के उत्खनन स्थलों से कुछ साक्ष्य ऐसे मिले हैं जिनसे उनके धार्मिक आस्था पर प्रकाश पड़ता है। मालवा संस्कृति (1600 ई० पू०) से एक चित्रित जार मिला है। जार दो भागों में विभाजित है, जिसके ऊपरी भाग में एक चित्र अंकित है। चित्र में मानव को वृक्षों की टहनियों से आच्छादित शेर पर आवृत्त दिखाया गया है। उसके चारों ओर विभिन्न पशुओं सांड़, हिरण और मोर प्रदर्शित किये गये हैं और आकृति के निचले हिस्से में चीता और तेंदुआ का अंकन छलाग लगाते हुए किया गया है और एक चित्रित तश्तरी भी सजाकर दिखायी गयी है। पुरातत्वविदों की मान्यता है कि इसका प्रयोग उपासना के लिए होता रहा होगा।

दायमाबाद के ऊपरी स्तर से प्राप्त हाथी और भैंस को ठोस प्रतिमाओं को भी धार्मिक क्रिया से जोड़ने का प्रयास किया जाता है।

(6) अंत्येष्टि:-

मालवा संस्कृति में अन्त्येष्टि के साक्ष्य भी मिले हैं किन्तु ये साक्ष्य मालवा संस्कृति के महाराष्ट्र क्षेत्र के पुरास्थलों इनामगाँव और दायमाबाद से प्राप्त हुए हैं। मालवा संस्कृति के मध्य प्रदेश के पुरास्थलों से अंत्येष्टि का कोई साक्ष्य नही मिलता है। उल्लेखनीय है कि इनामगांव और दायमाबाद से शवाधान के जो साक्ष्य उपलब्ध हैं वे बच्चों के हैं वयस्कों के नहीं।
बच्चों को कलश में दफनाया गया है। अधिकांश शवाधान में दो कलशों का प्रयोग किया गया है। सामान्यत: दोनों कलशों के मुँह आपस में जोड़कर दफनाये गये हैं।
कतिपय शवाधान एक कलश के ही हैं। कलशों में बच्चों के शवों को रखकर उत्तर दक्षिण दिशा में दफनाने की क्रिया सम्पादित की गयी है। अन्त्येष्टि सामग्री के रूप में कटोरे और टोंटीदार बर्तन मिले हैं। सम्भव है इन पात्रों में खाद्य पदार्थ रखे गये रहे होंगे।

(7) कालानुक्रम:

मालवा संस्कृति के विभिन्न पुरास्थलों से अनेक कार्बन तिथियाँ उपलब्ध हैं जिनके आलोक में पुरतच्वविद् इस संस्कृति का समय 1700 ई० पू० से 1200 ई० प० निर्धारित करने की संस्तुति करते हैं।

जोर्वे की ताम्रपाषाणिक संस्कृति

जोर्वे की ताम्रपाषाणिक संस्कृति का प्रसार क्षेत्र महाराष्ट्र में विदर्भ के कुछ हिस्सों तथा कोंकण को छोड़ कर सम्पूर्ण महाराष्ट्र अथवा डेक्कन के पठारी क्षेत्र में प्रवाहित नदियों की घाटियाँ हैं।
प्रवरा तथा गोदावरी नदियों की घाटी इस संस्कृति की जन्मस्थली कही जा सकती है।
जोर्वे संस्कृति की सर्वप्रथम जानकारी महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में स्थित जोर्वे नामक पुरास्थल के उत्खनन से हुई।जोर्वे तथा नेवासा पुरास्थल जिनके नाम पर इस संस्कृति का नामकरण किया गया है, अहमद जिले में प्रवरा की घाटी में ही स्थित हैं।
अन्य उत्खनित स्थलों में से प्रकाश, सावलदा तथा कौठे(धुले जिले में) ,बहाल व टेकवाड़ा(जलगांव जिले में) स्थित है।इसके अतिरिक्त
तुलजार पुर गढ़ी ~  अमरावती जिले में
दयमाबाद  नेवासा ~ नासिक जिले में
जोर्वे, सोनगांव और अपेगांव ~ अहमद नगर जिले में
इमामगांव ,चंदोली एवं वाडकी ~ पुणे जिले में पड़ते हैं।

इस संस्कृति के पुरास्थलों का विस्तार 2-3 हेक्टेयर में मिलता है किंतु बड़े पुरास्थलों का प्रसार 20 हेक्टेयर तक मिलता है।

(1) मृदभांड परम्पराएं:-

जोर्वे संस्कृति में कई प्रकार की पात्र परम्पराएं प्रचलित थी।वे पात्र परम्पराएं जो जोर्वे संस्कृति के पहले ही अस्तित्व में आ चुकी थीं, उनमें से मालवा पात्र परम्परा और दूधिया स्लिप वाली पात्र परम्परा विशेष उल्लेखनीय है।

(i) मालवा पात्र परम्परा:-

 इसके विषय में सर्वप्रथम जानकारी नवदाटोली के उत्खनन से हुई थी लेकिन इसका विस्तार पश्चिमी महाराष्ट्र प्रान्त में भी दिखलाई पडता है। इस क्षेत्र के प्रकाश, दायमाबाद ,चंदोली, सोनगांव इनामगांव के उत्खननों से जोर्वे संस्कृति के निचले स्तरों से मालवा पात्र परम्परा उपलब्ध हुई।
नेवासा तथा इनामगांव के उत्खननों से ज्ञात होता है कि इस संस्कृति के निर्माता काली मिट्टी पर आकर बसे तथा उन्होंने ने सर्वप्रथम धरातल के नीचे गढ्ढ़े खोद कर आवासों का निर्माण किया।ये गढ्ढ़े 2 से 3 मी० व्यास के थे।तथा उनकी फर्श और दीवारों पर चूने का प्लास्टर था। मालवा पात्र परम्परा के एक कलश शवाधान के प्रमाण भी मिले थे।
भोजन बनाने के लिए चूल्हे गढ्ढ़े के बाहर बनाये जाते थे।
मालवा पात्र परम्परा के बर्तन हल्के लाल रंग के मिलते हैं।जिनके ऊपर काले या सिलेटी रंग के चित्रण किये गए हैं।

(ii) दूधिया स्लिप वाले मृदभांड:-

 दूधिया स्लिप वाले मृदभांड चंदोली से प्राप्त हुए हैं लेकिन यह मृदभांड परम्परा घटिया किस्म की मालूम पड़ती है।इस प्रकार के मृदभांडो पर मालवा पात्रों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
उपरोक्त दोनों पात्र परम्पराएँ सँख्या में कम होने के साथ साथ इस संस्कृति के निचले स्थलों से ही प्राप्त होती है।इनका जोर्वे संस्कृति में कुछ खास महत्व नहीं पड़ता है।

(iii) प्रारम्भिक जोर्वे:-

 इस काल में वर्गाकार अथवा आयताकार घरों का निर्माण करते थे।छत्त लकडी के स्तम्भों पर टिकती थीं।वर्षा के पानी के निकास की समुचित व्यवस्था थी ।घरों के फर्श पर निरन्तर लेप लगाते थे,जैसे आज प्रचलित है।
अनेक घरों में द्विकलश शवाधान मिले हैं।घरों में कटोरे ,टोंटीदार लोटे, ऊँची गर्दन के लोटे,तसले, गहरे कटोरे,आदि मिले हैं।इन पर लाल रंग का लेप तथा उस पर काले रंग से अलंकरण हुआ है।
उल्लेखनीय है कि थाली के समान कोई भी बर्तन नही मिला है।
घरों के बीच लगभग 5 फीट का मार्ग होता था।

(iv) उत्तर जोर्वे संस्कृति:-

इस काल में गृह गोलाकार हो जाते हैं जिनका व्यास 2 मी० से 4.30 मी० था।
इनकी छत लकडी के खम्बों पर आधारित होती थी।
घरों में चूल्हों की व्यवस्था थी।फर्श काली मिट्टी पीटकर बनाते थे तथा उसको लीपते थे। सबसे बड़े घर मे 16 स्तम्भ गर्त मिले हैं।
इसकाल में भी घरों में विविध बर्तन मिलते हैं परन्तु थाली नहीं मिलती है।घरों की दीवारें लकडी, टट्टर आदि से बनाकर उसे मिट्टी से प्लास्टर कर देते थे।
इस काल में घर बहुत सटे हुए बनाते थे।

(2) अर्थव्यवस्था और कृषि:-

जोर्वे ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के लोग कृषि और पशुपालन करते थे।
यहाँ के लोग गेहूँ, जौ, मटर, मूँग, मसूर आदि की खेती करते थे। इनामगाँव से ताड़ झरबेर और जामुन की गुठलियाँ मिली हैं, जिससे संकेत मिलता है कि लोग इनका प्रयोग खाद्य पदार्थ के रूप में करते रहे होंगे।
इनामगाँव से फसलों की सिंचाई का साक्ष्य मिला है। यहाँ से प्रारम्भिक जोर्व संस्कृति (1400-1000 ई०पू०) से एक नहर का प्रमाण मिला है जो 200 मीटर लम्बी.4 मीटर चौड़ी और 3.5 मी० गहरी है।
नहर का निर्माण बाढ़ के पानी को एक बाँध में एकत्र करने के लिए किया गया था। बाँध 240 मीटर लम्बा और 2.40 मीटर चौड़ा था। खेती के लिए सम्भवतः हल का प्रयोग भी होने लगा था इनामगाँव के पास पाली से बैल के कन्धे से बना एक अर्द (हल के फाल का प्रारम्भिक रूप) मिला है। खेती के साथ पशुपालन भी किया जाता था।
पालतू पशुओं में गाय, बैल भेड़, बकरी और कुत्ते आदि प्रमुख हैं उल्लेखनीय है कि इनामगाँव से प्राप्त एक मिट्टी के बर्तन पर बैलगाड़ी में जुते बैलों का चित्रण मिला है। विद्वानों की मान्यता है कि जोर्वे संस्कृति के लोग पशुओं का उपयोग भार वाहन में करने लगे थे वन्य पशुओं के अस्थि अवशेषों से शिकार की प्रवृत्ति का सातत्य दिखायी पड़ता है । जोर्वे संस्कृति में कृषि-पशुपालन जीवन यापन का मुख्य आधार था, किन्तु धातुओं के प्रयोग और कपास की खेती से उद्योग-धन्धों के विकास से इंकार नहीं किया जा सकता है। मृद्भाण्डों के विकास को देखते हुए कुम्भहारगोरी के व्यवसाय का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है।

(3) पशुपालन:-

ये लोग मांसाहारी थे तथा पशुओं का पालन भी करते थे।पालतू पशुओं में गाय, बैल, भेड बकरी और खरगोश आदि पालते थे।
ये जंगली पशुओं का शिकार भी करते थे ।इन जंगली पशुओं में गाय, भैंस, चीतल, चौंघिया,हिरन, साम्भर की हड्डियां मिली है।

(4) शवाधान:-

 नेवासा, बहल, चंदोली, दायमाबाद ,सोनगांव तथा इनामगांव में शवाधान मिले हैं।इनमें नेवासा में  131 (126बच्चों के) तथा इनामगांव में शवाधान 50 मिले हैं।
ये लोग घरों में फर्श के नीचे शवाधान बनाते थे।बच्चों को रुक्ष हस्तनिर्मित लाल या भूरी पात्र के कलश में मुँह से मुँह लगाकर रखते थे।तथा बडो को उत्तर दक्षिण दिशा में लिटाकर रखते थे।
मृतकों के साथ भोज्य सामग्री, पानी मिट्टी के बर्तन तथा आभूषण रखते थे। बच्चों को दफनाने से पूर्व उनपर तेल व गोबर का लेप करते थे।

(5) धार्मिक मान्यता:-

नेवासा, चंदोली तथा इनामगांव के उत्खननों से इनकी धार्मिक मान्यताओं के सम्बंध में प्रकाश पड़ता है इन स्थानों से जोर्वे संस्कृति के स्तरों से कतिपय मानव एवं पशु की मिट्टी की मूर्ति प्राप्त हुई है।
नेवासा से एक मिट्टी की स्त्री प्रतिमा मिली थी।इनामगांव से प्राप्त स्त्री तथा वृषभ की मूर्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इस प्रकार यह अनुमान लगाया गया है कि प्रारम्भिक तथा उत्तर जोर्वे के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे तथा वृषभ उनका वाहन था।

(6) वस्त्र एवं आभूषण:-

जोर्वे संस्कृति के लोग सूती तथा सिल्क के वस्त्र पहनते थे।तथा ये लोग अंगेट, कार्नेलियन, जैस्पर, चाल्सेडनी ,सोने ताम्बे तथा हाथी दाँत के आभूषण बनाते थे।सोना सम्भवतः कर्नाटक से आता था किन्तु निर्माण स्थानीय होता था।इस संस्कृति के पुरास्थलों से सेलखड़ी, तामड़ा पत्थर, पकी मिट्टी, ताम्र तथा सोने के मनके प्राप्त हुए हैं।
नेवासा में एक बच्चे के कंकाल के गले में ताम्र के बने मनकों का हार पड़ा हुआ मिला है।काजल शलाका की प्राप्ति से पता चलता है कि ये लोग काजल भी लगाते थे।

(7) मकान:

जोर्वे संस्कृति में मकान के निर्माण में दीवाल मिट्टी और गारा से बनायी जाती थी। मकानों का आकार चौकोर होता था जिसमें मालवा संस्कृति की भौंति चारों कोनों को गोल आकार दे दिया जाता था दीवालों में लकड़ी के लट्ठों का टेक लगाया जाता था। मकानों की छतें सम्भवत: घास-फूस की होती थी कतिपय मकानों में आंगन के साक्ष्य मिले हैं। मकानों के अन्दर मिट्टी के बर्तन, सिल-लोढ़ा आदि भी मिले हैं।

(8) औजार/उपकरण:-

 इस संस्कृति के उत्खनन से डोलेराइट की कतिपय कुल्हाड़ियाँ मिली है।अंगेट तथा चालसेडनी के ब्लेड बड़ी संख्या में प्रयोग करते थे। ताम्बे से कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने की कटिया, गुरियाँ तथा चूड़ियाँ बनाते थे।इसके अतिरिक्त इस संस्कृति के लोग चाकू, सुई, विभिन्न स्थलों से लघुपाषाण उपकरण बहुत बड़ी संख्या में मिले हैं।

(9)उपकरण शिल्प तथा कला:-

 इनामगांव के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि ये चूना बनाते थे तथा उसकी गेंद बनाकर रखते थे।
इस संस्कृति की पात्र परम्परा विशिष्ट थी।इसे भलीभांति पकाते थे।टोटीयुक्त चौड़े मुह की हौडी, कोखदार कटोरा, ऊँची गर्दन वाले सुराही नुमा पात्र आदि इस परंपरा के विशिष्ट बर्तन थे।
इनके बर्तनो में थाली अथवा तस्तरी नही होती थी।
कुछ बड़े संग्रह पात्र कठौती तथा दीपक आदि हस्तनिर्मित रुक्ष लाल / धूसर रंग के होते थे। इनामगांव से एक विशिष्ट प्रकार का भट्ठा मिला जो 1.7मी० व्यास का है।
इसके अतिरिक्त दायमाबाद से एक गैंडा, एक हाथी, एक भैंसा तथा एक रथ(दो बैल खड़ी मुद्रा में तथा 1 व्यक्ति सवार) मिले हैं।ये खिलौने ताम्बे के बने हैं।

(10) कालानुक्रम:-

जोर्वे संस्कृति से सम्बंधित चंदोली, सोनगांव, नेवासा तथा इनामगांव से कतिपय(अनेक) रेडियोकार्बन तिथियां उपलब्ध है जिसके आधार पर इस संस्कृति का समय 1600ई०पू० से 1000ई० पू० के मध्य निर्धारित किया गया है।यद्यपि इनामगांव में यह और बाद तक चलती रही जिसकी अंतिम तिथि700ई०पू० प्राप्त हुई।

संस्कृति के निर्माता:-

जोर्वे संस्कृति के निर्माण में दो संस्कृतियाँ जोर्वे पात्र परम्परा तथा मालवा पात्र परम्परा के तत्व दिखाई पड़ते हैं।इस प्रकार
अभी जो भी साक्ष्य उपलब्ध है उनके आधार पर यह एक स्थानीय संस्कृति थी।इसके निर्माण में निकटवर्ती विशेषतः नवपाषाण संस्कृतियों का योगदान रहा होगा।

निष्कर्ष:-

जोर्वे संस्कृति के संदर्भ में उपर्युक्त सभी साक्ष्य एक मिली जुली संस्कृति का हमारे सामने रूप प्रस्तुत करते हैं।लेकिन इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि जोर्वे संस्कृति की अपनी कोई मौलिकता नहीं थीं।
जोर्वे संस्कृति के पात्र प्रकार, चित्रण अभिप्राय, मालवा संस्कृति और दक्षिण भारत की नवपाषाणिक संस्कृति से सर्वथा भिन्न प्रकार के है।इस प्रकार विभिन्न स्रोतों से ग्रहण किए गए सांस्कृतिक तत्वों को आत्म सात करने के बाद जोर्वे संस्कृति के निर्माताओं ने इसको एक विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया।

धन्यवाद🙏

कृष्णा प्रजापति

(आकाश)

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