वैदिक साहित्य (भाग-1) | Vedic literature | vaidik sahitya in hindi | वैदिक
ग्रंथ | वेद | ऋग्वेद | सामवेद | यजुर्वेद | अथर्ववेद
Aakash prajapati
October 01, 2020
0
आर्यों ने जिस धार्मिक साहित्य की रचना की थी, उन्हें वैदिक साहित्य (Vaidik sahitya) नाम से जाना जाता है।
ऋग्वेद को अब तक प्राप्य मंत्रों का प्राचीनतम संग्रह माना गया है तथा शेष तीन वेदों-यजु, साम और अथर्ववेद के मंत्र किञ्चित् बाद में संग्रहीत किए गए थे। ‘आर्य'”, जिन्होंने वैदिक संस्कृति का प्रसार किया किस देश के मूल निवासी थे, इस समस्या का अंतिम एवं स्पष्ट निर्धारण आज तक नहीं हो सका है। फिर भी, यहाँ इस बात की ओर निर्देश किया जाना अपेक्षित है कि उन्हें विशाल भारत देश में एक उच्च संस्कृति का उन्नायक अवश्य माना जा सकता है।
वैदिक साहित्य : Vaidik sahitya
वैदिक साहित्य का तात्पर्य उस विपुल ग्रन्थ राशि से है, जिसके अन्तर्गत वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् और वेदांग परिगणित किये जाते हैं। इनमें वैदिक संहिताएं प्राचीनतम मानी जाती हैं। वैदिक संहिताओं में चारों वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद की गणना की जाती है।
आर्यों का प्राचीन मंत्र साहित्य वेद है। ‘वेद’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘विद्’ शब्द से बना है। इसका अर्थ है ‘ज्ञान होना’। वैदिक ऋषियों का ज्ञान वेदों में संकलित है।
‘ज्ञान’ जाति, धर्म, काल और सीमा से परे होता है, अत: वैदिक ज्ञान के संकलित ग्रन्थों (वेदों) को अनादि, अपौरुषेय की संज्ञा प्रदान की गयी है।
हिन्दू वेदों को ‘अपौरुषेय,’ या ईश्वर द्वारा .रचित(देवनिर्मित) मानते हैं। उनकी दृष्टि में ये शाश्वत हैं। इसलिए वेदों को ‘नित्य’ भी कहा कहा गया है नित्य के अर्थ होता है चिरन्तन अर्थात जिस प्रकार आत्मा अजर अमर है ठीक उसी प्रकार वेद भी चिरन्तन है, नित्य है, शाश्वत हैं।
यह कहा जाता है कि इनकी रचना ईश्वरीय प्रेरणा के आधार पर ऋषियों ने की। हमें इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि इन मन्त्रों की रचना प्राचीन ऋषियों द्वारा ही हुई थी। उन ऋषियों के पश्चात् ये वेद पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हैं। जब इण्डो-आर्य पंजाब के मैदानों में बसे, तभी उन्होंने इन मन्त्रों को संकलित करके पुस्तक-रूप प्रदान किया।
वैदिक रचनाएँ विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न कालों में लिखी गई। समय-समय पर निम्न जाति के स्त्री-पुरुष भी इनके रचयिता रहे हैं। हिन्दुओं ने वेदों को पवित्र समझा और उन्हें कण्ठस्थ कर लिया। इसीलिए वेदों को ‘श्रुति‘ (Shruti) कहते हैं।
वेदों की पवित्रता को अक्षुण्ण रखा गया। किसी व्यक्ति को उनमें परिवर्तन करने की आज्ञा न थी। उन्हें बिना समझे रट लिया जाता था और जब किसी पाठ को बिना समझे रट लिया जाये तब उस में मन्त्रों और अक्षरों को परिवर्तन करने की सम्भावना ही नहीं रहती।
वेद पद्यात्मक शैली में हैं, किन्तु कहीं-कहीं गद्य का समावेश भी मिलता है। वैदिक पद्य को ‘ऋचा’ के नाम से तथा गद्यांशो को ‘यजुष्’ जाना जाता है।
‘ऋक’ शब्द का तात्पर्य दीति, स्तुति, पूजा-वाक्य माना जाता है। ऋक्’ को व्युत्पत्ति ‘ अर्च ‘ धातू से मानी गयी है, जिसका अर्थ चमकना, पूजा-करना या स्तुति करना भी होता है।
हैं। इन वैदिक पद्यों को ‘ऋग्’ अथवा ‘ऋचा’ तथा गद्यांशों को ‘यजुष’ कहा जाता है। वेदों में गीतात्मक अथवा छन्द-रूप पद ‘साम’ तथा ऋचाओं और सामों के समूह कोी ‘सूक्त नाम से पुकारा जाता है। सूक्त का अर्थ होता है- श्रेष्ठ उक्ति अथवा सुभाषित। वेदों में हजारों सूक्तों का संग्रह किया गया है।
वैदिक संहिताओं का संकलन तीन मन्त्रात्मक शैलियों में किया गया, जिसे ऋक, यजुष और सामन कहा गया है। ऋक ऐसे मन्त्रों को कहा जाता है, जो छन्दोबद्ध स्तुतियाँ होती है, जिनके द्वारा यज्ञ के अवसर पर होता नामक ऋत्विक देवताओं का आवाहन करता था।
यजुष’ वैदिक गद्यात्मक मन्त्र होते हैं, जिनका प्रयोग यज्ञ में कर्मकाण्ड के लिए होता था। यज्ञ के अवसर पर ‘अध्वर्यु’ नामक ऋत्विक् (आचार्य) इन मन्त्रों का पाठ करता था।
‘सामन्’ ऋचाओं पर आधारित गेय पद्य थे, जिनका यज्ञ में उद्गाता’ नामक आचार्य द्वारा सस्वर पाठ किया जाता था।
इस प्रकार भारतीय परम्परा में ‘वेदत्रयी’ की मान्यता वेदों के इन्हीं तीन विधाओं के कारण मानी जाती है, जबकि वेदों की संख्या चार है।
जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार प्रथम तीन वेद यानी ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद को संयुक्त रूप से ‘वेदत्रयी’ कहा जाता है। काफी समय तक अथर्ववेद को विद्वान वेद ही नहीं मानते थे । कारण यह कि वेदत्रयी का संबंध तो वैदिक यज्ञ से है जबकि अथर्ववेद मुख्यतः तंत्र-मंत्र का संकलन है। बाद में जब अथर्ववेद को वेद की संज्ञा प्राप्त हो गई तो वेदों की संख्या चार हो गई और उन्हें ‘वेद चातुष्ट्य‘ कहा जाने लगा ।
कौटिल्य ने लिखा है : “ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को त्रिवेद कहा गया। अब अथर्ववेद और इतिहासवेद को इनमें मिला दिया गया और इन सबको वेद कहा गया।”
Note: इतिहास को पांचवा वेद कहा जाता है।
किन्तु वेदों की साधारण परिभाषा के अनुसार इतिहास को वेदों के साथ नहीं लिया जाता।
संहिता क्या है?
आज वैदिक मंत्रों को जिस रूप में संकलित रूप में रखा गया है, उसे ‘संहिता’ कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में वैदिक मंत्रों को लेखाबद्ध करने की परम्परा नहीं थी। अतः उन्हें मौखिक परम्परा में सुरक्षित किया गया। परम्परा से ज्ञात होता है कि वैदिक ऋषियों द्वारा शिष्यों को इन वेद मन्त्रों का अध्ययन ‘श्रुति-परम्परा‘ से कराया जाता था, इसीलिए वैदिक साहित्य को “श्रुति’ (सुनकर कण्ठस्थ करने की विधा) भी कहते हैं।
कालान्तर में वैदिक मन्त्रों का संकलन किया गया वेदों के संकलन का श्रेय मुनि वेद व्यास को दिया जाता है । वेद व्यास का वास्तविक नाम कृष्ण द्वैपायन व्यास था, किन्तु वेद का संकलन करने के कारण इन्हें ‘वेद व्यास’ कहा जाने लगा। इन्हें महाभारत युद्ध का समकालीन माना जाता है।
वेद व्यास ने विविध ऋषि वंशों की श्रुति परम्परा से जिस प्रकार वेदों की संहिताओं का संकलन किया, उसी प्रकार सूतों, चारणों और मागधों को परम्परा से आने वाली राजवंशों की अनुश्रुतियों से ‘पुराणों को भी संकलित किया।
Note: इन उपरोक्त वर्णनों के अतिरिक्त अनेक विद्वानों ने भी वेदों के संबंध में भिन्न भिन्न बातें कही है जिसका विवरण निम्नलिखित है।
★ पाणिनी जो कि अष्टाध्यायी(व्याकरण ग्रंथ) के रचयिता हैं उन्होंने वेदों के लिए छन्दस शब्द के प्रयोग किया है। संभवतः उन्होंने वेदों को मुख्यतः छन्दों के रूप में देखा।
★ शतपथ ब्राह्मण में वेदों के लिए स्वाध्याय की बात की गई है।
★ मनु द्वारा रचित मनु स्मृति में मनु महाराज ने वेदों को सर्वज्ञानमय बताया है। सर्वज्ञानमय को यदि स्पष्ट करें तो इसका तात्पर्य है कि वेद सभी ज्ञान को समेटे हुए हैं अर्थात वेदों में सभी ज्ञान निहित है। दूसरे शब्दों में कहें तो मनु ने वेदों को सभी ज्ञान का स्रोत बताया है।
वैदिक संहिताएँ-
संहिता (वेद) विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है। संहिताओं में चार वेद आते हैं : ऋग्वेद, सामवेद (Samveda), यजु-र्वेद और अथर्ववेद (Atharvaveda)।
इनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन है तथा अथर्ववेद नवीनतम। ऋग्वेद में भारतीय संस्कृति, धर्म-दर्शन,ज्ञान-विज्ञान, इतिहास एवं काव्य की विविध सामग्री उपलब्ध है। चारों वेदों में ऋग्वेद सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है जबकि यजुर्वेद धार्मिक दृष्टि से, सामवेद संगीत की दृष्टि से एवं अथर्ववेद लौकिक दृष्टि से विशेष महत्व रखता है।
वैदिक संहिताओं के अनेक शाखाओं का उल्लेख साहित्य में प्राप्त होता है, जिनमें अधिकांश अप्राप्त हैं। पतञ्जलि के महाभाष्य में ऋग्वेद की 21 शाखाओं, यजुर्वेद कुी 101 शाखाओं, सामवेद की 1000 शाखाओं और अथर्ववेद की 9 शाखाओं का उल्लेख किया गया है।
इसी प्रकार स्कन्द पुराण और बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में भी वेदों की अनेक शाखाओं का उल्लेख मिलता है। दिव्यावदान में ऋग्वेद की 20 शाखाओं का उल्लेख है। वैदिक संहिताओं का विभिन्न शाखाओं में विभाजन का मूल कारण संभव विभिन्न ऋषि-कुलों में वेदों का अध्ययन था।
श्रुति परम्परा से अध्ययन के कारण कालान्तर में मूल पाठों में परिवर्तन होता गया, जो अस्वाभाविक नहीं था। इसी लिए वेदों का जब संकलन हुआ तो पाठ भेद के कारण अनेक शाखाएँ प्रकाश में आयी। वर्तमान में प्राप्त वैदिक संहिताओं का विवरण इस प्रकार है –
ऋग्वेद प्राचीनतम वेद है। इसकी रचना ई०पू० 1500 से ई०पू० 1000 माना जाता है।
महाभाष्य में ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख है, जिनमें पाँच शाखाएँ : शाकल, वाष्कल, शांखायन, आश्वलायन और माण्डूकेय प्रमुख हैं।
वर्तमान में प्रचलित ऋग्वेद शाकल शाखा का है यद्यपि वाष्कल शाखा का ऋग्वेद भी उपलब्ध है, किन्तु उसे शाकल शाखा की अपेक्षा कम मान्यता प्राप्त है। शाकल शाखा का नामकरण आचार्य देवमित्र शाकल्य पर किया गया है। वर्तमान में ऋग्वेद संहिता का यही सबसे प्रमाणिक पाठ स्वीकार किया गया है।
आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकेय शाखा की संहिताएँ तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनके ब्राह्मण, आरण्यक, और सूत्र साहित्य प्राप्त होते हैं।
ऋग्वेद का विभाजन मण्डलों में, मण्डल का विभाजन अनुवाकों में, अनुवाक का विभाजन सूक्तों में एवं सूक्त का विभाजन मंत्रों (ऋचाओं) में किया गया है। ऋग्वेद में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त (बाल खिल्य के 11 सूक्त को जोड़ने पर) एवं 10,580 या 10,552(निश्चित ज्ञात नहीं) मंत्र (ऋचाएँ) हैं।
【ज्ञातव्य है कि ऋग्वेद की शाकल शाखा की संहिता में 1028 सूक्त ( 11 बालखित्य सूक्तों को मिलाकर) हैं। इसे ही दस मंडलों में विभाजित किया गया है।】
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद का एक अन्य विभाजन भी मिलता है। इसके अनुसार ऋग्वेद आठ अष्टकों में विभाजित हैं। प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं और अध्यायों को विविध वर्गों में विभाजित किया गया है।
ऋग्वेद में कुल वर्गों की संख्या 2024 हैं और मन्त्रों की संख्या 10,552 हैं। वेद के प्रत्येक सूक्त में ऋषि देवता (जिसकी स्तुति रहती है.) छन्द और विनियोग (उद्देश्य) का उल्लेख होता है। सूक्तों के वर्ण्य विषय भिन्न-भिन्न हैं जैसे-स्तुति, यज्ञ विधान, प्रार्थना, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान और लोक विधान आदि। ऋग्वेद के प्रमुख ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, अत्रि, वामदेव, भारद्वाज, वशिष्ट, वैवस्वत मनु शिवि, औशीनर, प्रतर्दन, मधुच्छन्दा. देवापि आदि हैं।
ऋग्वेद के अधिकांश मंत्रों की रचना ऋषियों ने की है लेकिन कुछ मंत्रों की रचना ऋषिकाओं (स्त्रियों) ने की है जिनके नाम हैं- लोपामुद्रा, अपाला, रोमशा, घोषा आदि।
ऋग्वेद के 10 मंडलो में से 2 से लेकर 7 तक प्राचीनतम मण्डल हैं वहीं प्रथम और 10वां मण्डल सबसे नवीनतम माना जाता है। ऋग्वेद के 1ले एवं 10वें मण्डल को क्षेपक माना जाता है । इन मण्डलों को विषय-वस्तु एवं भाषा के आधार पर सबसे बाद की रचना माना जाता है। इनमें भी 10वाँ मण्डल सबसे बाद की रचना माना जाता है।
Note: ऋग्वेद के मंत्रों का पाठ करने वाला पुरोहित ‘होतृ’ कहलाता था।
ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल किसी न किसी ऋषि से संबंधित है अर्थात मंडलों की रचना संबंधित ऋषि ने की है।
प्रथम मंडल:-
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के रचयिता के विषय मे मतभेद देखने को मिलता है।
इस संबंध में पुराणों में वर्णन मिलता है कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डल की रचना स्वयं भगवान ब्रम्हा जी के द्वारा की गई है। वहीं दूसरी ओर अगर अन्य मंडलो की भांति इस मण्डल का संबंध ऋषि से देखें तो इसका संबंध काण्ववंशी ऋषि से है तथा इन्हें ही प्रथम मण्डल का रचयिता माना जाता है।
आकार की दृष्टि से 1ला व 10वां मण्डल ऋग्वेद के सबसे बड़े मण्डल हैं। ऋग्वेद के इस मण्डल में 191 सूक्त हैं।
यदि बात करें इस मण्डल के विषयवस्तु की तो इसमें अग्नि,इन्द्र,वरुण,मित्र,आदि देवताओं की स्तुति का वर्णन किया गया है। तथा स्वर्ग व पृथ्वी, ऋत, अस्यवामस्य सूक्त आदि भी दिया गया है।
★ 2रे से 7वें मण्डल तक (अर्थात् कुल 6 मण्डल) को ‘कुल ग्रंथ’/वंश मंडल’, ‘गोत्र मंडल’ या ‘ऋषि मण्डल’ कहा जाता है। इनकी रचना एक ही कुल/वंश/गोत्र के 6 ऋषियों ने की थी। इन मण्डलों के रचनाकारों के नाम व विवरण निम्नलिखित हैं:–
दूसरा मण्डल:-
ऋग्वेद के दूसरे मण्डल की रचना ऋषि गृत्समद द्वारा किया गया है। इसके 43 सूक्तों में अग्नि व इन्द्र की स्तुति की गई है। यह ऋग्वेद के सबसे पुराने मंडलो में से एक है।
तीसरा मण्डल:-
ऋग्वेद के तीसरे मण्डल की रचना का श्रेय ऋषि विश्वामित्र को जाता है। किन्तु इस मण्डल के तीन मंत्रो की रचना 3 राजाओं(अजमीढ़, पुरुमीढ़ व त्रासदस्यु) ने की हैं। इसमें 62 सूक्त हैं। यह ऋग्वेद के सबसे महत्वपूर्ण मण्डल है। क्योंकि इसमें अग्नि व इन्द्र की स्तुति, गायत्री मंत्र(३.६२.१०) और विश्वामित्र का नदी से संवाद आदि हैं।
विश्वामित्र-नदी संवाद:-
विश्वामित्र – हे नदियों, अपने बछड़ों को चाटती हुई दो दमकती गायों की तरह, दी फुर्तीले घोड़ों की चाल से पहाड़ों से नीचे आओ। इन्द्र द्वारा दी हुई शक्ति से स्फूर्त तुम रथों की गति से सागर की ओर बह रही हो। तुम जल से परिपूर्ण हो और एक दूसरे से मिल जाना चाहती हो।
नदियाँ – जल से परिपूर्ण हम देवताओं के बनाए रास्ते पर चलती हैं। एक बार निकलने पर हमें रोका नहीं जा सकता। हे ऋषि तुम हमसे प्रार्थना क्यों कर रहे हो?
विश्वामित्र – हे बहनों, मुझ गायक की प्रार्थना सुनों। मैं रथों और गाड़ियों सहित बहुत दूर से आया हूँ। कृपा करके अपने जल को हमारे रथों और गाड़ियों की धुरियों के ऊपर न उठाओं ताकि हम आसानी से उस पार जा सके।
नदियाँ– हम तुम्हारी प्रार्थना सुनेंगे, जिससे तुम सब सुरक्षित उस पार जा सको।
गायत्री मंत्र:- वस्तुतः इस मंत्र का नाम ‘सविता/सवितृ मंत्र’ है जो गायत्री छन्द में निबद्ध है, लेकिन छन्द के नाम पर इसे गायत्री मंत्र कहा जाने लगा है और यही आज प्रचलन में है।
यह सूर्य देवता से संबंधित मंत्र है जोकि सविता/सावित्री को समर्पित है।
यह मंत्र इस प्रकार है-“ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।’
चौथा मण्डल:-
ऋग्वेद के इस मण्डल को ऋषि वामदेव द्वारा रचित किया गया है। इस मण्डल में 58 सूक्त हैं तथा इसमें अग्नि, इंद्र आदि देवताओं की स्तुति तथा इन्द्र–इंद्राणी संवाद वर्णित है।
पांचवा मण्डल:-
ऋग्वेद के पांचवे मण्डल के रचयिता ऋषि अत्रिमुनि माने जाते हैं। इसमे 87 सूक्त हैं। इस मण्डल के विषय वस्तु की यदि बात करें तो इसमें साधारणतया अन्य मण्डलों की भांति अग्नि व इन्द्र आदि देवताओं की स्तुतियां की गई हैं।
छठा मंडल:-
ऋग्वेद के छठे मण्डल की रचना ऋषि भारद्वाज द्वारा की गई है। इसमें कुल 75 सूक्त हैं जिनके द्वारा अग्नि व इन्द्र आदि देवताओं की स्तुति की गई है।
सातवां मण्डल:-
यह मण्डल ऋषि वशिष्ठ द्वारा रचित है। ऋग्वेद के इस मण्डल में 104 सूक्त हैं। इन सूक्तों में अग्नि व इन्द्र आदि देवताओं की स्तुति, सरस्वती नदी की स्तुति, दाशराज्ञ युद्ध का वर्णन तथा मण्डूक सूक्त आदि वर्णित हैं।
आठवां मण्डल:-
8वें मण्डल को ‘प्रज्ञात मण्डल’ (अर्थात् गेय पदों का मण्डल)। 8वें मण्डल की रचना काण्व वंश एवं अंगिरावंशी ऋषियों ने की। इस मण्डल में 103 सूक्त हैं। 8वें मण्डल में ही 11 सूक्तों का बाल खिल्य (खिल) मिलता है जोकि परिशिष्ट (अर्थात् बाद में जोड़े गये मंत्र) है। इस मण्डल में भी अन्य मण्डलों की भांति देवताओं की स्तुतियां भरी पड़ीं हैं।
नौंवां मण्डल:-
ऋग्वेद के 9वें मण्डल को ‘सोम मण्डल’ कहा जाता है। इस मण्डल की रचना कश्यप ऋषि द्वारा की गई। इसमें 114 सूक्त हैं। इसमें सोम देवता(पवमान) की स्तुति है।
ऋग्वेद के इसी मण्डल में एक ऐसा वर्णन मिलता है कि ” मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं, मेरी माँ लोगों के यहाँ अनाज पीसती हैं”
गौरतलब है कि इस वर्णन में विभिन्न व्यवसाय करने वाले लोग एक ही परिवार में एक साथ निवास करते हैं। अर्थात इस मण्डल से स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक काल में कार्यों के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता था।
दसवाँ मण्डल:-
ऋग्वेद के सबसे अंतिम मण्डल की रचना ऋषि भृगु व भरत द्वारा की गई है। ऋग्वेद का दसवां मंडल और प्रथम मण्डल सबसे बड़ा मंडल है। इसमें 191 सूक्त हैं। 10वें मण्डल को सबसे बाद की रचना माना जाता है।
10वें मंडल में नदी स्तुति सूक्त, दार्शनिक सूक्त {पुरुष सूक्त (सृष्टि की प्रक्रिया का प्रतिपादन), नासदीय सूक्त (सृष्टि की पूर्वावस्था का वर्णन), हिरण्यगर्भ सूक्त (संसार के नियामक ईश्वर का प्रजापति के रूप में वर्णन)}, लौकिक सूक्त{ विवाह सूक्त, अक्ष सूक्त,/जुआरी का विलाप राजशास्त्र संबंधी वर्णन} , आख्यान/संवाद सूक्त{ यम-यमी संवाद, पुरुरवा-उर्वशी संवाद, सरमा-पणि संवाद}आदि मिलते हैं।
इस मण्डल के पुरुष सूक्त में बताया गया है कि एक विराट पुरुष के मुख से ब्राम्हण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य, पांव से सूद्र उत्पन्न हुए हैं अर्थात वर्ण व्यवस्था की प्रथम चर्चा ऋग्वेद के दसवें मंडल में की गई है और यह विराट पुरुष कोई और नहीं स्वयं व्यक्ति होता था। हलांकि इस विराट पुरुष को ब्रम्हा भगवान भी माना जाता है क्योंकि ब्रम्हा को ही सृष्टि का रचयिता माना जाता है।
इसी मंडल में ब्रम्हांड की उत्पत्ति का सिद्धांत जल से बताया गया है।
तथा सर्वे भवन्तु सुखिनः शब्द भी ऋग्वेद के 10वें मण्डल में वर्णित है।
ऋग्वेद में कुल 14 छन्दों का प्रयोग किया गया है। इनमें से सात मुख्य छंद हैं-गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप/अनुष्टुभ, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप/त्रिष्टुभ व जगती। सात गौण छंद हैं अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति व अतिधृति ।
अक्षरों के अनुसार मुख्य छंदों का क्रम है-गायत्री (24 अक्षर), उष्णिक (28 अक्षर), अनुष्टुप (32 अक्षर), बृहती (36 अक्षर), पंक्ति (40 अक्षर), त्रिष्टुप (44 अक्षर) व जगती(48 अक्षर)। ध्यातव्य है कि इन छंदों की अक्षर-संख्या में क्रमशः 44 अक्षरों की वृद्धि होती जाती है।
प्रयोग के अनुसार मुख्य छंदों का क्रम है-त्रिष्टुप (ऋग्वेद के 4253 मंत्रों में प्रयोग जोकि ऋग्वेद का लगभग 40% है), गायत्री (ऋग्वेद के 2450 मंत्रों में प्रयोग जोकि ऋग्वेद का लगभग 23% है), जगती (ऋग्वेद के 1346 मंत्रों में प्रयोग जोकि ऋग्वेद का लगभग 13% है), अनुष्टुप (855 मंत्रों में प्रयोग), पंक्ति (498 मंत्रों में प्रयोग), बृहती (371 मंत्रों के प्रयोग) व उष्णिक (341 मंत्रों में प्रयोग)।
ऋग्वेद की विषय-वस्तु/महत्व:-
सप्त सैन्धव प्रदेश में रहनेवाले आर्यों ने ऋग्वेद में अपने धार्मिक विचार तथा दार्शनिक भावनाएँ व्यक्त की हैं। ऋग्वेद सप्त-सैंधव प्रदेश की तात्कालिक सभ्यता और संस्कृति का चित्र उपस्थित करने वाला ग्रंथ है।
ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं के स्तुतिपरक मंत्र हैं। इन मंत्रों में उनके पराक्रम, महत्व एवं उनकी दयालुता का वर्णन है। इन देवताओं से गोधन, पुत्र, अभ्युदय, शत्रु-विजय व दीर्घायुष्य के लिए प्रार्थना की गई है। ऋग्वेद में पशुपालन, कृषि कर्म, व्यापार एवं उद्योग, यज्ञ, दान आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें यथाप्रसंग राजा, पुरोहित एवं युद्ध का वर्णन भी मिलता है।
वस्तुतः ऋग्वेद की विषय-वस्तु में इतिहास, राजनीति, समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, अर्थ व साहित्य का अद्भुत समन्वय मिलता है।
1. इतिहास की दृष्टि से ऋग्वेद में ऋषि वंश, देवासुर संग्राम और विभिन्न आख्यान मिलते हैं।
2. राजनीति की दृष्टि से ऋग्वेद में राजा और उसके कर्तव्य, शासन-तंत्र, राष्ट्र की कल्पना, प्रजा के अधिकार आदि की चर्चा है।
3. समाज की दृष्टि से ऋग्वेद में वर्ण-व्यवस्था, विवाह आदि का वर्णन, नगर-ग्राम की योजना, आहार, परिधान आदि बातें दी गई हैं।
4.संस्कृति की दृष्टि से ऋग्वेद में आचार के नियम, कर्म, हिंसा-अहिंसा, शिष्टाचार और जीवन का लक्ष्य निरूपित है।
5. धर्म की दृष्टि से ऋग्वेद में देवताओं की आराधना, यज्ञों का अनुष्ठान, पाप-पुण्य और स्वर्ग-नरक की कल्पना इत्यादि है।
6. दर्शन की दृष्टि से ऋग्वेद में पुरुष सूक्त, नासदीय सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त आदि में सृष्टि के विकास, एकेश्वरवाद, मोक्ष आदि का वर्णन है।
7. अर्थ की दृष्टि से ऋग्वेद में कृषि व्यवस्था, पशुपालन, जीविका के साधन, व्यापार, विविध वृत्तियों का ग्रहण आदि चित्रित है।
8. साहित्य की दृष्टि से ऋग्वेद में काव्यशास्त्र, नाटक, आख्यान आदि का बीजरूप मिलता है।
ऋग्वेद में नदियाँ:-
ऋग्वेद में कुल 25 नदियों के वर्णन मिलते हैं जिसमे सबसे अधिक महत्वपूर्ण सिन्धु नदी व सबसे पवित्र सरस्वती नदी को माना जाता है। इन नदियों के प्राचीन नाम आधुनिक नाम से भिन्न थे। ऋग्वेद में नदियों को उनके प्राचीन नामो में वर्णित किया गया है ये नदियाँ व उनके आधुनिक नाम निम्न हैं–
प्राचीन नाम- आधुनिक नाम
1. वितस्ता- झेलम
2. विपाशा- व्यास
3. परुष्णी- रावी
4. दृषद्वती- घग्घर(चौतांग नदी)
5. क्रुमु- कुर्रम
6. कुभा- काबुल
7. सदानीरा- गंडक
8. अस्किनी- चिनाब
9. शतुद्री- सतलज
10. मरूद्वृधा- कमरुवर्मन
11. गोमल- गोमती
12. सिन्धु- सिंध
13. सरस्वती- घग्घर
14. सुषोमा- सोहन
15. सुवास्तु- स्वात
ऋग्वेद में उल्लेखित शब्दों की बारम्बारता:-
ऋग्वेद में कुछ महत्वपूर्ण शब्द कई बार वर्णित किये गए हैं। जो कि परीक्षा दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। ये निम्न हैं―
शब्द- उल्लेख
पिता- 335 बार
जन- 275 बार
इन्द्र- 250 बार
माता- 234 बार
अश्व- 215 बार
अग्नि- 200 बार
गौ(गाय)- 176 बार
विश- 170 बार
सोम देवता- 144 बार
विद्थ- 122 बार
विष्णु- 100 बार
गण- 46 बार
ब्रज गोशाला- 45 बार
कृषि- 33 बार
वरुण- 30 बार
कृषि- 24 बार
वर्ण- 23 बार
सेना- 20 बार
ब्राम्हण- 15 बार
ग्राम- 13 बार
बृहस्पति- 11 बार
राष्ट्र- 10 बार
क्षत्रिय- 9 बार
समिति- 9 बार
सभा- 8 बार
यमुना- 3 बार
रुद्र- 3 बार
वैश्य- 1 बार
शूद्र- 1 बार
गंगा- 1 बार
राजा- 1 बार
पृथ्वी- 1 बार
ऋग्वेद से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण तथ्य-
★ ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है।
★ ऋग्वेद में 33 देवी देवताओं का वर्णन है। इसमें सूर्या, ऊषा तथा अदिति जैसी देवियों का वर्णन ऋग्वेद को महत्वपूर्ण बनाता है।
★ ऋग्वेद के देवी देवताओं में इंद्र को सर्वाधिक महत्वपूर्ण, सर्वमान्य, तथा सर्वशक्तिमान देवता माना गया है। तथा ऋग्वेद में 250 ऋचाएँ इन्द्र से संबंधित हैं।
★ प्राचीनतम ईरानी ग्रंथ जेन्द-अवेस्ता की विषयवस्तु ऋग्वेद से काफी मिलती जुलती है। जबकि इन दोनों में ऋग्वेद अधिक प्राचीन है।
(2) सामवेद संहिता:-
सामवेद को यज्ञ के अवसर पर देवताओं को स्तुति के रूप में सस्वर पाठ किया जाता था।
सम्प्रति सामवेद की तीन शाखाएँ कौथम, राणायनीय और जैमिनीय शाखाएँ मिलती है। पतंजलि के महाभाष्य और पुराणों में सामवेद की एक हजार शाखाओं का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में सामवेद की एक हजार अस्सी (1080) शाखाओं का उल्लेख प्राप्त हैं, किन्तु इन भाषाओं में अधिकांश के नाम तक नहीं प्राप्त होते हैं।
साम-वेद की कौमुथीय, राणायनीय और जैमिनीय शाखाओं के अलावा जिन अन्य शाखाओं के नाम साहित्य में मिलते हैं, उनमें सात्यमुग्राः, मैगेया; शार्दूलाः, वार्षगण्या:, गौतमाः, भाल्लविनः, कालबलिनः, शाट्यायनिनः , रौरुकिणः, कापेयाः, माषशदाव्य:, करद्विषः, शाण्डिल्याः एवं ताण्ड्याः उल्लेखनीय हैं, किन्तु इन शाखाओं की संहिताएँ प्राप्त नहीं होती है।
सामवेद का सहस्त्र शाखाओं में विभाजन पाठभेद पर आधारित माना जाता है। सामवेद की उपलब्ध शाखाओं में कौथुम शाखा अधिक प्रचलित है। सामवेद के दो विभाजन मिलते हैं-पूर्वार्चिक एवं उत्तरार्चिक। सामवेद के इन दोनों भागों में मन्त्रों की संख्या 1869 है किन्तु इन मन्त्रों में अनेक मन्त्र दो बार प्रयोग किये गये हैं। ऐसे मन्त्रों को अलग करने पर सामवेद में मन्त्र संख्या 1549 ही होती है, उनमें भी 1474 मन्त्र ऋग्वेद से लिए गये हैं, इस प्रकार सामवेद के मूल मन्त्रों की संख्या मात्र 75 है।
सामवेद में ऋग्वेद के ऐसे मंत्रों को संकलित किया गया है, जिनका सस्वर पाठ किया जा सकता है। सामवेद की कौथुम शाखा और राणायनीय शाखा में कोई विशेष अन्तर नहीं हैं। दोनों में मन्त्रों की संख्या समान है, किन्तु दोनों में कुछ उच्चारण भेद मिलता है। साम वेद की जैमिनीय शाखा में कौथुम शाखा की अपेक्षा मंत्रों की संख्या कम है। जैमिनीय शाखा के पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक भागों में मन्त्र संख्या 1687 है, जो कौथुम शाखा से 182 कम है। सामवेद की इन उपलभ्य शाखाओं में भी यत्र-तत्र पाठभेद पाये गये हैं। जिसका कारण विभिन्न ऋषि कुलों में प्रचलित परम्पराएं मानी जा सकती हैं।
सामवेद के मंत्रों का प्रयोग यज्ञ में देवताओं के आह्वान के लिए उचित स्वर के साथ उद्गाता द्वारा किया जाता था। इसलिए साम-मंत्रों का पाठ नहीं अपितु गान किया जाता था। सोम यज्ञ के समय उद्गाता ब्राम्हण इन मंत्रों को गाठ थे। सामवेद के अध्ययन से यह पता चलता है कि आर्य संगीत प्रिय थे।
सामवेद के मंत्रों के गान में लय तथा स्वर का विशेष विधान है।
सामवेद के गान चार प्रकार के हैं—ग्राम गान (ग्राम या सार्वजनिक स्थलों पर गाये जाने वाले गान), आरण्य गान (अरण्य या वनों में गाये जाने वाले गाना), उह गान (ग्राम गान का परिवर्तित एवं परिवर्द्धित रूप) एवं उह्य गान (आरण्य गान का परिवर्तित एवं परिवर्द्धित रूप)। इस प्रकार सामवेद का महत्व संगीत की दृष्टि से बहुत अधिक है। साम गायन संगीत शास्त्र की आधारशिला मानी जाती है। इससे ज्ञात होता है कि भारतीय संगीत का उद्भव किन स्रोतों से हुआ। इस वेद को भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है।
★ सामवेद का महिमामंडन भगवान श्री कृष्ण के द्वारा श्रीमद्भागवत गीता के 10वें अध्याय के 22वें श्लोक में किया गया है।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।
श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय के २२वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं—‘मैं वेदों में साम-वेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और भूतप्राणियों की चेतना अर्थात् जीवनी शक्ति हूँ ।’
★ अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है।
ये उपरोक्त बातें सामवेद के महत्व को दर्शाती है।
ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।
(3) यजुर्वेद संहिता:-
यजुर्वेद संहिता में यज्ञ विषयक विवरण हैं। यज्ञ अध्वर्यु के द्वारा प्रयुक्त मंत्रों का इसमें संग्रह है। इसमे यज्ञ व बलि संबंधी मंत्रो का वर्णन है।
जटिल कर्मकाण्ड में उपयोगी होने के कारण यजुर्वेद अन्य सभी वेदों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। यजुष का अर्थ होता है ‘यज्ञ’। यज्ञ के अवसर पर जिन मन्त्रों के द्वारा देवताओं का यजन किया जाता था उसे यजुर्वेद के अन्तर्गत संकलित किया गया है।
यजुर्वेद के दो प्रमुख रूप/शाखा मिलते हैं। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद।
शुक्ल यजुर्वेद पद्यात्मक है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में गद्य और पद्य दोनों का मिश्रण है। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ साथ उनकी व्याख्या भी मिलती है।
शुक्ल यजुर्वेद:-
शुक्ल यजुर्वेद की प्रमुख संहिता वाजसनेयी संहिता है। वाजसनेयी संहिता की दो शाखाएं: काण्व और माध्यन्दिनीय प्राप्त होती हैं। काण्व शाखा के शुक्ल यजुर्वेद में चालीस अध्याय और 2086 मन्त्र संकलित हैं, जबकि माध्यन्दिनीय शाखा में चालीस अध्याय और 1975 मन्त्र ही संकलित हैं।
कुछ लोग शुक्ल यजुर्वेद को ही मौलिक यजुर्वेद मानते हैं क्योंकि इसमें केवल मंत्रों का संग्रह है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथ के विषयों को भी शामिल कर लिया गया है। शुक्ल यजुर्वेद की प्रसिद्ध शाखा है वाजसनेयी संहिता। इसी कारण कभी-कभी शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कह दिया जाता है।
शुक्ल यजुर्वेद में विविध यज्ञों से संबद्ध मंत्र संकलित हैं। इन यज्ञों में राजसूय, अश्वमेध, वाजपेय, अग्निष्टोम (अग्निहोत्र), सोम यज्ञ, सौत्रामणि, चातुर्मास, दर्श यज्ञ (अमावस्या के दिन किया जानेवाला यज्ञ), पूर्णमास यज्ञा (पूर्णिमा के दिन किया जाने वाला यज्ञ) आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त इसमें रुद्र, शिव, इन्द्र, पितरों की प्रार्थना आदि से संबद्ध मंत्र मिलते हैं।
शुक्ल यजुर्वेद की अन्य शाखाओं का उल्लेख साहित्य में मिलता है, ये― जाबाल, बौधेय, शापेय, कापोल, पौण्ड्रवत्स, बैजवाप, पराशर और कात्यायन आदि हैं। इन शाखाओं और काण्व तथा माध्यन्दिनीय शाखाओं में क्या अन्तर था? कहना कठिन है।
कृष्ण यजुर्वेद:-
कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखायें प्राप्त होती हैं, जो काठक संहिता, कपिष्ठल संहिता, मैत्रेयी संहिता और तैत्तिरीय संहिता के नाम से जानी जाती हैं। कृष्ण यजुर्वेद की प्रसिद्ध शाखा है तैत्तिरीय संहिता । इसी कारण कभी-कभी कृष्ण यजुर्वेद को तैत्तिरीय संहिता भी कह दिया जाता है।
इसमें मंत्रों (पद्यात्मक) के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथ (गद्यात्मक) के अनुकूल बातों जैसे—यज्ञ प्रक्रिया आदि का मिश्रण मिलता है। इसी मिश्रण के कारण इसे कृष्ण यजुर्वेद कहा जाता है। इसमें शुक्ल यजुर्वेद के समान ही राजसूय, अश्वमेध, वाजपेय आदि यज्ञों का विशद विवेचन है।
पतञ्जलि के महाभाष्य में यजुर्वेद के जिन एक सौ एक(101) शाखाओं का उल्लेख किया गया है, उनमें पन्द्रह(15) शाखाएँ शुक्ल यजुर्वेद की हैं और शेष 86 शाखाएँ कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित हैं। कृष्ण यजुर्वेद की 86 शाखाओं में मात्र चार शाखाएँ काठक कपिष्टल, मैत्रेयी और तैत्तिरीय ही प्राप्त होती हैं ।
कृष्ण यजुर्वेद के इन चार शाखाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तैत्तिरीय संहिता है, क्योंकि इस संहिता के ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् और सूत्र साहित्य मिलते हैं। काठक और मैत्रेयी संहिताओं में लगभग समानता हैं, इनमें अन्तर बहुत कम है। कपिष्ठल संहिता खण्डित अवस्था में प्राप्त है।
शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में प्रमुख अन्तर यह माना जाता है कि शुक्ल यजुर्वेद में मूल मन्त्र हो संग्रहीत हैं, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मूल मन्त्रों के साथ ब्राह्मण भी संकलित किये गये हैं। यजुर्वेद के विभिन्न शाखाओं में वाजसनेयी संहिता का विशेष महत्त्व है, कतिपय विद्वान इसे ही मूल यजुर्वेद मानते हैं।
पतञ्जलि ने महाभाष्य में अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनमें पिप्पलाट, शौनक मौद जाजल, देवदर्श, चारण विद्या. स्त्रीद, जलद और ब्रह्मवद संहिताएँ है।
इन संहिताओं में शौनक और पिप्पलाद संहिता हो उपलब्ध हैं। अथर्ववेद की शौनक संहिता अधिक प्रामाणिक मानी जाती है. इसमें 20 काण्ड, 731 सूक्त और 5987 मंत्र संग्रहीत हैं। इन मन्त्रों में कुछ मन्त्र ऋग्वेद से ग्रहण किये गये हैं।
इनमें से 1200 मंत्र (लगभग 20%) ऋग्वेद (के 1ले, 8वें एवं 10वें मण्डल) से लिये गये हैं। अथर्ववेद को उसके रचयिताओं के नाम पर अथर्वांगीरस वेद कहा जाता है।
इस शाखा का ब्राह्मण गोपथ है। पिप्पलाद शाखा के अथर्ववेद में ब्राह्मण भाग को अधिकता है अथर्ववेद के भी विभिन्न शाखाओं में विभाजन का मुख्य कारण पाठभेद माना जाता है।
अथर्ववेद का वर्ण्य विषय अन्य वेदों से भिन्न है। इस वेद में आर्य और अनार्य संस्कृति के सम्मिश्रण का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, राजनीति, धर्म, समाज, औषधि प्रयोग, शत्रु दमन, रोग निवारण, भूत प्रेत, जादू टोना, अंधविश्वास और अभिचार क्रियाओं आदि का वर्णन किया गया है।
अथर्ववेद के विचारपरक कल्याणकारी (लाभ पहुंचाने वाले) मंत्रों, से-राज्य-प्राप्ति, कष्ट-निवारण आदि के रचयिता ऋषि अथर्व हैं।
अथर्ववेद. के अभिचारपरक/अकल्याणकारी (हानि पहुँचाने वाले) मंत्रों, से—मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि के रचयिता ऋषि अंगिरा हैं।
अथर्व’ का अर्थ है—पवित्र जादू या पवित्र विद्या तथा अंगिरा’ का अर्थ है-अपवित्र जादू या अपवित्र विद्या।
अथर्ववेद की विषयवस्तु/महत्व:-
वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के बाद अथर्ववेद का ही महत्वपूर्ण स्थान है।
अथर्ववेद की विषय-वस्तु में बहुत विविधता मिलती है। जीवन के प्रायः सभी पक्षों का स्पर्श इसमें हुआ है किन्तु विशेष रूप से तत्कालीन लोक विश्वासों का प्रकाशन इसमें अधिक है। इसी वेद में सर्वप्रथम लौकिक विश्वासों का व्यापक महत्व दिया गया है।
लौकिक दृष्टि से तात्कालिक सभ्यता और संस्कृति से संबद्ध प्रामाणिक और व्यापक सामग्री अथर्ववेद में मिलती है।
अथर्ववेद में जादू-विद्या, आयुर्विज्ञान, राजशास्त्र धर्म, दर्शन आदि पक्षों का व्यापक निरूपण मिलता है।
1. जादू-विद्या की दृष्टि से अथर्ववेद में राज्य प्राप्ति, कष्ट निवारण, मारण-मोहन-उच्चाटन-वशीकरण आदि निरूपित है।
2. आयुर्विज्ञान की दृष्टि से अथर्व वेद में रोगों के निवारण, विष-नाशक, कृमियों के नाश तथा विभिन्न वृक्षों की उपयोगिता, जड़ी-बूटी का प्रयोग आदि का निरूपण है।
3. राजशास्त्र की दृष्टि से अथर्ववेद में राष्ट्र, देश-रक्षा, राज कर्तव्य, प्रजा के समान अधिकार, मित्र राष्ट्र, सैन्य शासन, राजा का निर्वाचन, सभा-समिति संसद, दण्ड-विधान, अस्त्र-शस्त्र आदि बातें मिलती हैं। इसलिए कभी-कभी अथर्ववेद को ‘क्षत्र-वेद’ भी कहा जाता है।
4. धर्म की दृष्टि से अथर्व वेद में अग्नि, इन्द्र, सूर्य, उषा, विष्णु आदि देवताओं की स्तुतियाँ, चार आश्रम आदि मिलते हैं।
5. दर्शन की दृष्टि से अथर्ववेद में विराट ब्रह्म, उच्छिष्ट ब्रह्म, माया, ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, पुनर्जन्म, स्वर्ग नरक आदि का विवेचन मिलता है। ये विचार बाद में उपनिषदों में विकसित हुए।
6. इसके अतिरिक्त अथर्व-वेद में विविध विषयक बातें मिलती हैं, जैसे—पशुपालन, वर्षा, अतिथि सत्कार, स्त्री-कर्म आदि।
समग्रतः जहाँ अन्य वेदों में धर्म केन्द्रित विषयों का विस्तार मिलता है वहाँ अथर्ववेद में धर्मेत्तर विषयक सामग्री भरे पड़े हैं।
ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में अंतर:
ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में मुख्य अंतर इस प्रकार हैं
1. ऋग्वेद में देवताओं के स्तुतिपरक मंत्रों का संग्रह है जबकि अथर्ववेद में उपचार एवं अभिचारपरक मंत्रों का।
2. ऋग्वेद के मंत्र ऋषियों द्वारा रचित हैं जबकि अथर्ववेद के मंत्र सामान्य जन द्वारा।
3. ऋग्वेद विशिष्ट जनजीवन की झांकी प्रस्तुत करता है जबकि अथर्ववेद सामान्य जनजीवन की।
4. ऋग्वेद में वर्णित यज्ञ खर्चीले एवं उच्च वर्ग द्वारा सम्पाद्य हैं जबकि अथर्ववेद में वर्णित यज्ञ कम खर्चीले एवं सामान्य वर्ग द्वारा संपादकीय है।
ध्यान दें- यह वैदिक साहित्य का प्रथम भाग है इसके आगे के वैदिक साहित्य को अगले भागों में बताया जाएगा।
हमारी यह पोस्ट और इनमें दी गयी जानकारियां आपको कैसी लगी comment में जरूर बतायें।
यदि आपको यह पोस्ट और हमारी वेबसाइट पसंद आयी तो वेबसाइट को follow कर लें जिससे सभी पोस्ट आप तक आसानी से पहुँच जाय और आप इतिहास विषय का क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त कर सकें।
तथा पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा share करें क्योंकि हमारे सनातन ग्रंथो में ही कहा गया है कि―
” न चोरहार्यं न च राजहार्यं
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं
विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥ “
अर्थ:- विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहि सकता, राजा ले नहि सकता, भाईयों में उसका भाग नहि होता, उसका भार नहि लगता, (और) खर्च करने/ बाँटने से बढता है । सचमुच, विद्यारुपी धन सर्वश्रेष्ठ है ।
धन्यवाद🙏 आकाश प्रजापति (कृष्णा) ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़ छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय