बिम्बिसार के पश्चात् उसका पुत्र ‘कुणिक’ अजातशत्रु (Ajatashatru) मगध का शासक हुआ। वह अपने पिता के ही समान साम्राज्यवादी था। अजातशत्रु (लगभग 492-460 ईसा पूर्व) के शासनकाल में मगध साम्राज्यवाद का चर्मोत्कर्ष हुआ और वह राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर पहुँच गया। प्रो० रायचौधरी के शब्दों में, “उसका शासन काल हर्यक वंश का चर्मोत्कर्ष काल था।” इसके समय में कोशल से मगध का संघर्ष छिड़ गया।
कोशल से संघर्ष :
बौद्ध ग्रन्थों से पत्ता चलता है कि बिम्बिसार की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी कोशला देवी की भी दुःख से मृत्यु हो गयी। प्रसेनजित इस घटना से बड़ा क्रुद्ध हुआ तथा उसने काशी पर पुनः अपना अधिकार कर लिया। यही कोशल तथा मगध के बीच संघर्ष का कारण सिद्ध हुआ। संयुक्त निकाय से इस दीर्घकालीन संघर्ष का विवरण मिलता है। पहले प्रसेनजित पराजित हुआ तथा उसने भाग कर श्रावस्ती में शरण ली।
किन्तु दूसरी बार अजातशत्रु पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया। बाद में दोनों नरेशों के बीच सन्धि हो गई तथा प्रसेनजित ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से कर दिया तथा पुनः काशी के ऊपर उसका अधिकार स्वीकार कर लिया। ऐसा लगता है कि अजातशत्रु के समय में काशी का प्रान्त अन्तिम रूप से मगध में मिला लिया गया।
वज्जि संघ से युद्ध
कोशल से निपटने के बाद अजातशत्रु ने वज्जि-संघ की ओर ध्यान दिया। वैशाली वज्जि संघ का प्रमुख था जहाँ के शासक लिच्छवि थे। बिम्बिसार के ही समय से वज्जि संघ तथा मगध में मनमुटाव चल रहा था जो अजातशत्रु समय में संघर्ष में बदल गया। इस संघर्ष के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी बताये जाते हैं―
(1) सुमंगलविलासिनी से पता चलता है कि गंगा नदी के किनारे एक रत्नों की खान थी। वज्जि तथा मगध दोनों ने इसके बराबर-बराबर भाग लेने के लिए समझौता किया था। वज्जियों ने इस समझौते का उल्लंघन करके सम्पूर्ण खान पर के अधिकार कर लिया। यही मगध के साथ युद्ध का कारण बना।
(2) जैन ग्रन्थ इसका कारण यह बताते है कि बिम्बिसार ने लिच्छवि राजकुमारी चेलना से उत्पन्न अपने दो पुत्रों हल्ल और बेहल्ल—को अपना हाथी सेयनाग तथा रत्नों का एक हार दिया था। अजातशत्रु ने बिम्बिसार की हत्या कर सिंहासन ग्रहण कर लेने के बाद इन वस्तुओं की माँग की। इस पर हल्ल तथा बेहल्ल अपने नाना चेटक के पास भाग गये। अजातशत्रु ने लिच्छवि सरदार से अपने सौतेले भाइयों को वापस देने को कहा जिसे चेटक ने अस्वीकार कर दिया। इसी पर अजातशत्रु ने लिच्छवियों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।
इन दोनों कारणों में से पहला अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है। वस्तुतः मगध तथा वज्जि संघ के बीच संघर्ष गंगा नदी के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ही हुआ था क्योंकि यह नदी पूर्वी भारत में व्यापार का प्रमुख माध्यम थी। लिच्छवियों की शक्ति और प्रतिष्ठा काफी बढ़ी हुई थी तथा उन्हें परास्त कर सकना सरल नहीं था।
जैन ग्रन्थ निरयावल सूत्र से पता चलता है कि उस समय चेटक लिच्छवि गण का प्रधान था। उसने 9 लिच्छवियों, 9 मल्लों तथा काशी-कोशल के 18 गणराज्यों को एकत्र कर मगध नरेश के विरुद्ध एक सम्मिलित मोर्चा तैयार किया। भगवती अजातशत्रु सूत्र में को इन सबका विजेता कहा गया है।’ रायचौधरी का विचार है कि कोशल तथा वज्जि संघ के साथ संघर्ष पृथक्-पृथक् घटनायें नहीं थीं, अपितु वे मगध साम्राज्य की प्रभुसत्ता के विरुद्ध लड़े जाने वाले समान युद्ध का ही अंग थीं।
अजातशत्रु ने कूटनीति से काम लिया। वज्जियों के सम्भावित आक्रमण से अपने राज्य की सुरक्षा के लिये सर्वप्रथम पाटलिग्राम में उसने एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। तत्पश्चात् उसने अपने मंत्री वस्सकार को भेजकर वज्जि संघ में फूट डलवा दी। ज्ञात होता है कि इस सम्बन्ध में अजातशत्रु ने महात्मा बुद्ध से परामर्श किया तथा उन्होंने ही उसे यह बताया कि वज्जि संघ का विनाश भेद द्वारा ही संभव है।
वस्सकार ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इस कार्य को पूरा किया तथा वज्जियों को परस्पर लड़ा दिया। फलतः वे असंगठित रूप से अजातशत्रु का सामना नहीं कर सके। उसने एक बड़ी सेना के साथ लिच्छवियों पर आक्रमण किया। जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि इस युद्ध में उसने प्रथम बार रथमूसल तथा महाशिलाकण्टक जैसे दो गुप्त हथियारों का प्रयोग किया। प्रथम आधुनिक ट्रैकों के प्रकार का कोई अस्त्र था जिससे भारी संख्या में मनुष्य मारे जा सकते थे तथा द्वितीय भारी पत्थरों की मार करने वाला शिला प्रक्षेपास्त्र (catapult) था।
इससे ऐसा लगता है कि युद्ध बड़ा भयानक हुआ जिसमें लिच्छवि बुरी तरह पराजित हुए तथा उनका भीषण संहार किया गया। उनका भू-भाग मगध साम्राज्य में मिला लिया गया। अब मगध राज्य को उत्तरी सीमा हिमालय की तलहटी तक पहुँच गयी।
वज्जि संघ को पराजित करने के पश्चात् अजातशत्रु ने मल्ल संघ को भी परास्त किया तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बड़े भू-भाग पर उसका अधिकार हो गया। इन सफलताओं के फलस्वरूप मगध साम्राज्य की सीमा पर्याप्त विस्तृत हो गई। अब मगध का प्रतिद्वन्द्वी केवल अवन्ति का राज्य था।
राजगृह का दुर्गीकरण :
मज्झिमनिकाय से पता चलता है कि प्रद्योत के आक्रमण से अपनी राजधानी राजगृह को सुरक्षित रखने के लिये अजातशत्रु ने उसका दुर्गीकरण करवाया। जिस समय अजातशत्रु कोशल के साथ संघर्ष मे उलझा हुआ था उसी समय प्रद्योत मगध पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था। किन्तु अजातशत्रु तथा प्रद्योत के बीच प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं हो सका। इसका कारण संभवतः यह था कि दोनों एक दूसरे की शक्ति से डरते थे।
भास के अनुसार अजातशत्रु की कन्या पद्मावती का विवाह वत्सराज उदयन के साथ हुआ था। इस वैवाहिक संबंध द्वारा अजातशत्रु ने वत्स को अपना मित्र बना लिया तथा अब उदयन मगध के विरुद्ध प्रद्योत की सहायता नहीं कर सकता था ऐसा लगता है कि अब उदयन दोनों राज्यों अवन्ति तथा मगध के बीच सुलहकार बन गया।
अजातशत्रु का धर्म : Religion of Ajatashatru
अजातशत्रु की धार्मिक नीति उदार थी बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म दोनों के ग्रन्थ उसे अपने- अपने मत का अनुयायी मानते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले वह जैन धर्म से प्रभावित था, परन्तु बाद में बौद्ध हो गया। भरहुत स्तूप की एक वेदिका के ऊपर ‘अजातशत्रु भगवान बुद्ध की वन्दना करता है’ (अजातशत्रु भगवतो वन्दते), उत्कीर्ण मिलता है जो उसके बौद्ध होने का पुरातात्विक प्रमाण है। उसके शासनकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था।
महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् उनके अवशेषों पर उसने राजगृह में स्तूप का निर्माण करवाया था उसके शासनकाल में राजगृह की सप्तपर्ण गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति (First Buddhist Council) का आयोजन किया गया था। इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं को दो पिटकों- सुत्तपिटक तथा विनयपिटक—में विभाजित किया गया। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार लगभाग 32 वर्षों तक शासन करने के बाद अजातशत्रु अपने पुत्र उदायिन् द्वारा मार डाला गया।