जैन परम्परा के अनुसार इस धर्म (Jain dharm) में 24 तीर्थंकर हुये थे प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे। 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे जो वाराणसी के रहने वाले थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार उन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर वैराग्य धारण कर लिया। 83 दिन की घोर तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। 70 वर्ष तक इन्होंने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इनके अनुयायियों को “निग्रंथ” कहा जाता था।
पार्श्वनाथ ने भी वैदिक धर्म के कर्मकांडों, जातिप्रथा, तथा अनेक सामाजिक कुप्रथाओं की निंदा की। उनकी मूल शिक्षा थी- सदा सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, सम्पत्ति न रखना, प्राणियों को कष्ट नहीं देना। वर्धमान महाबीर स्वामी के माता-पिता भी पार्श्वनाथ के शिष्य थे।
महाबीर स्वामी (540 ई०पू० 468 ई०पू० ) : जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक
महाबीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर थे। इनका जन्म 540 ई०पू० में वैशाली (विहार) के निकट कुण्डग्राम में हुआ था। वैशाली की पहचान उत्तर बिहार में इसी नाम के नवस्थापित जिले के बसाढ़ से की गयी है। इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रिय कुल के प्रधान थे और माता त्रिशाला बिम्बिसार के श्वसुर लिच्छवी गणराज्य के प्रमुख राजा चेटक की बहन थी। इस प्रकार महाबीर स्वामी के परिवार का सम्बन्ध मगध के राजपरिवार से था।
महाबीर (राजपरिवार से सम्बन्धित होने के कारण) का प्रारम्भिक जीवन सुखदायी था । उनका विवाह यशोदा से हुआ था और उन्हें एक पुत्री भी पैदा हुई किन्तु स्वभाव से चिंतनशील होने के कारण उनके मन में गृहत्याग की भावना पूर्ण रूप से जागृत हो चुकी थी।
30 साल की अवस्था में इनके पिता की मृत्यु हो गयी और इनका बड़ा भाई नंदिवर्धन राजा हुआ। बड़े भाई से आज्ञा लेकर निग्रंथ भिक्षु का जीवन धारण कर तपस्या में लीन हुये। जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए इन्होंने कठोर तपस्या की। 42 वर्ष की अवस्था में इन्हें कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ। इन 12 वर्षों में लम्बी-लम्बी यात्रा की और एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले। भोजन हाथ पर ही ग्रहण किया (कल्पसूत्र-जैनग्रंथ)।
जैन ग्रंथ आचारांगसूत्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि महाबीर ने घोर तपस्या की थी। 12 वर्ष की घोर तपस्या के बाद महाबीर को “कैवल्य” (ज्ञान) प्राप्त हुआ। इसीलिए उन्हें “केवलिन” की उपाधि मिली। अपनी समस्त इंद्रियों को जीतने के कारण वे “जिन” कहलाये।
अपरिमित पराक्रम दिखाने के कारण उनका नाम “महाबीर” पड़ा। ज्ञान प्राप्ति के बाद जीवन भर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। अन्ततः 72 वर्ष की अवस्था में राजगीर के समीप पावापुरी में इनकी मृत्यु ई०पू० 468 में हो गयी।
जैन धर्म के सिद्धान्त : History of jainism in hindi
जैन धर्म अनीश्वरवादी है। संसार है तथा वास्तविक है किन्तु इसकी सृष्टि का कारण ईश्वर नहीं है। यह संसार 6 द्रव्यों जीव, पुद्गल (भौतिक तत्त्व), धर्म, अधर्म, आकाश और काल से निर्मित है। ये द्रव्य विनाश रहित तथा पाश्वत हैं। हमें जो विनाश दिखता है वह मात्र इन द्रव्यों का परिवर्तन है। इसी कारण यह संसार भी नित्य, शाश्वत तथा परिवर्तनशील है।
संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते हैं और कर्म के अनुसार फल प्राप्त करते थे। कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है। जैनधर्म में सांसारिक माया-मोह के बन्धन से मुक्ति को ही “निर्वाण” कहा गया है। कर्मफल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। इसके लिए आवश्यक हैं कि पूर्वजन्म के संचित कर्म को समाप्त किया जाय और वर्तमान जीवन में कर्मफल के संग्रह से व्यक्ति विमुख हो । कर्मफल से छुटकारा पाने हेतु “त्रिरत्न” का अनुशीलन आवश्यक है।
जैनधर्म के त्रिरत्न अथवा जौहर हैं–
- सम्यक दर्शन– सत् में विश्वास को ही सम्यक दर्शन कहा गया। है।
- सम्यक ज्ञान– जैनधर्म और उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। इसके 5 प्रकार है इन्द्रिय जनित ज्ञान-“यति श्रवण ज्ञान- “श्रुति: दिव्यज्ञान “अवधि””; अन्य व्यक्ति के मन-मस्तिष्क की बात जान लेने को “मनः पर्याय” पूर्णज्ञान को “कैवल्य” कहा गया है।
- सम्यक चरित्र- सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुःख-दुःख के प्रति समभाव सम्यक् आचरण है। आचरण की शुद्धता हेतु भिक्षुओं के लिए “पाँच महाव्रत” और गृहस्थों के लिए “पाँच अणुव्रत का पालन आवश्यक बताया गया है।
जैन धर्म के पाँच महाव्रत | Jain dharm ke 5 mahavrat
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह ये चारों व्रत महाबीर स्वामी के पहले चले आ रहे थे। महाबीर स्वामी ने इसमें पाँचवा व्रत- “ब्रह्मचर्य” जोड़ा। इनका विवरण इस प्रकार है-
अहिंसा –
यह जैन धर्म का प्रमुख व्रत है। जिसमें सभी प्रकार के अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है। यहाँ तक कि किसी को मारने तथा हानि पहुँचाने का विचार मन में उत्पन्न होना भी हिंसा है। पैदल चलने अथवा भोजन करने में भी किसी कीट-पतंग की हिंसा नहीं होनी चाहिये।
सत्य –
इसमें सदैव सत्य बोलने पर जोर दिया गया है। इसके लिए आवश्यक है कि-सदैव सोच-विचार कर बोलना चाहिये क्रोध आने पर भी शान्त रहना चाहिये, हँसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिए, लोभ होने पर मौन रहना चाहिये, भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिये।
अस्तेय (चोरी नहीं करना) –
इसके अन्तर्गत निम्न बातें आवश्यक बतायी गयी हैं- बिना किसी की अनुमति के उसकी कोई भी वस्तु नहीं लेना, आज्ञा किसी के घर प्रवेश नहीं करना; गुरु की आज्ञा बिना भिक्षा में प्राप्त अन्न को ग्रहण नहीं करना, बिना अनुमति के किसी के घर में निवास नहीं करना।
अपरिग्रह –
किसी भी प्रकार की सम्पत्ति अर्जित नहीं करना, चाहे वह जैसी भी हो।
ब्रह्मचर्य –
पूर्णरुप से ब्रह्मचर्य का पालन भिक्षुओं के लिये अनिवार्य था। इसके लिये प्रावधान था किसी स्त्री से समागम की बात कभी नहीं सोचना शुद्ध एवं अल्प भोजन ग्रहण करना।
गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले जैनियों के लिये भी इन्हीं व्रतों की व्यवस्था है किन्तु इनकी कठोरता में कमी की गयी है, इसलिये इन्हें “अणुव्रत” कहा गया है।
जैन धर्म में ज्ञान के तीन स्रोत :
जैन दर्शन में ज्ञान के 3 स्रोत बताये गये हैं प्रत्यक्ष, अनुमान तथा तीर्थकारों के वचन। दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण हर ज्ञान को 7 विभिन्न स्वरुपों में व्यक्त किया जा सकता है (1) है, (2) नहीं है, (3) हैं और नहीं है, (4) कहा नहीं जा सकता, (5) हैं, किन्तु कहा नहीं जा सकता, (6) नहीं हैं और कहा नहीं जा सकता, (7) है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।
इस सप्तभंगी ज्ञान को “स्याद्वाद” अथवा “अनेकान्तवाद” भी कहते हैं। “त्रिरत्न” का अनुकरण करने से कर्मों का जीव की ओर प्रवाह रुक जाता है जिसे “संवर” कहते हैं। इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते हैं, जिसे “निर्जरा” कहते हैं।
जब जीव से कर्म का अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाता है तब वह “मोक्ष” की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार कर्म का जीव से संयोग “बन्धन” और वियोग ही “मुक्ति” है।
महाबीर स्वामी ने मोक्ष प्राप्ति हेतु कठोर तपश्चर्या एवं काया क्लेश (उपवास द्वारा शरीर त्याग सल्लेखना) पर अत्यधिक बल दिया है। मोक्ष प्राप्ति के बाद जीव आवागमन के चक्र से मुक्ति पा जाता है फिर उसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख की प्राप्ति होती है जिसे जैन ग्रंथों में “अन्त्य चतुष्टय” की संज्ञा दी गयी है।
जैन धर्म का विभाजन (श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय )
महाबीर स्वामी की मृत्यु के 200 वर्ष बाद मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा, जिसके कारण बहुत से जैन धर्मावलम्ब, भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत चले गये और कुछ धर्मावलम्बी स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में ही रह गये। प्रवासी जैनों ने दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया लेकिन जब मगध में अकाल समाप्त हो गया तो वे दक्षिण भारत से मगध लौट आये।
अब स्थानीय जैनों (स्थूलभद्र के नेतृत्व वाले जैन) से उनका मतभेद बढ़ गया। दक्षिण से लौटे जैनों का कहना था कि अकाल की अवधि में भी उन लोगों ने अपने धार्मिक नियमों का पालन किया है, परन्तु मगध में रुकने वाले जैनों ने धार्मिक नियमों का पालन नहीं किया है, वे शिथिल हो गये हैं। मतभेद बढ़ता चला गया अब 300 ई०पू० तक जैन धर्म श्वेताम्बर और दिसम्बर दो सम्प्रदायों में बँट गये थे।
स्थूलभद्र के नेतृत्व में जो जैन मतावलम्बी मगध में अकाल के दिनों में रुक गये थे वे श्वेताम्बर (श्वेत वस्त्र पहनने के कारण) कहलाये, और भद्रबाहु के नेतृत्व में मगध छोड़कर जो मतावलम्बी दक्षिण भारत चले गये थे वे दिगम्बर (नग्न अवस्था में रहने के कारण) कहलाये।
प्राचीन जैन शास्त्र जो नष्ट हो चुके थे उन्हें एकत्र करने तथा उनका स्वरुप निर्धारित करने के लिए चतुर्थ शताब्दी ई०पू० में पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में जैन धर्म की प्रथम महासभा आयोजित की गयी किन्तु भद्रबाहु के अनुयायियों ने इसका बहिष्कार किया और इसके नियमों को मानने से इन्कार कर दिया। सभा में जो सिद्धान्त निर्धारित किये गये वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मूल सिद्धान्त बन गये।
श्वेताम्बर और दिगम्बर में अंतर : जैन धर्म का इतिहास
श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के सिद्धान्त में मुख्य अन्तर निम्न है ―
◆ श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रियों के लिये भी मोक्ष सम्भव मानता है, परन्तु दिगम्बर इसे नहीं मानता।
◆ दिगम्बर के अनुसार आदर्श जैन भोजन नहीं ग्रहण करता जबकि श्वेताम्बर के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करना चाहिये।
◆ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, वे इसे मोक्ष प्राप्ति में बाधक नहीं मानते। इनके विपरीत दिगम्बर सम्प्रदाय के लोग वस्त्र को मोक्ष प्राप्ति में बाधक मानते हैं और नग्न अवस्था में रहकर कठोर तपस्या से ही मोक्ष प्राप्ति को सम्भव मानते हैं।
◆ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग प्राचीन जैन ग्रन्थों-अंग, उपांग, वेदसूत्र, मूलसूत्र, प्रकीर्णक को प्रामाणिक मानकर उसमें विश्वास करते हैं किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय इसे मान्यता नहीं प्रदान करते ।
जैन धर्म का प्रचार-प्रसार एवं असफलता
जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार हेतु महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों का एक संघ बनाया जिसमें स्त्री एवं पुरुष दोनों को प्रवेश मिला। अनुयायियों की संख्या हजारों में बढ़ती चली गयी। जैनधर्म का प्रचार-प्रसार मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में व्यापक रूप में हुआ।
कलिंग नरेश खारवेल ने भी इसे संरक्षण प्रदान किया। ईसा पूर्व दूसरी और पहली शताब्दी में लगता है कि जैन धर्म तमिलनाडु के दक्षिणी भागों में भी पहुँच गया था। बाद की सदियों में जैनधर्म मालवा, गुजरात, राजस्थान में फैला। इन क्षेत्रों में आज भी जैन अनुयायियों की संख्या अधिक है, जो मुख्यतः व्यापार-वाणिज्य में लगे हुये हैं।
यद्यपि जैनधर्म को उतना राजकीय संरक्षण नहीं मिला जितना की बौद्धधर्म को मिला था, इसके बावजूद जैनधर्म जहाँ-जहाँ पहुँचा बौद्धधर्म की तुलना में अस्तित्व की रक्षा किये हुये हैं।
जैनधर्म की लोकप्रियता में कमी का एक कारण यह भी रहा कि इसने अपने को वैदिक धर्म से स्पष्ट रूप से कभी पृथक नहीं किया, जिसके कारण जनता को आकृष्ट करने में सफल नहीं हो सका। साथ ही साथ आपसी मतभेद और जैनधर्म का श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में विभाजन भी जैनधर्म की असफलता का कारण बना।
बौद्धधर्म की तुलना में जैनधर्म को राजाओं का संरक्षण नहीं प्राप्त होने से भी इसका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं हो सका जो उसके पतन का कारण बना।
जैन धर्म का महत्त्व | जैन धर्म upsc
सर्वप्रथम जैनधर्म ने ही वर्णव्यवस्था और वैदिक कर्मकाण्डों को रोकने का प्रयास किया। जैनों ने विद्वतजनों की भाषा संस्कृत का परित्याग कर जन सामान्य की भाषा प्राकृत को उपदेश देने का माध्यम बनाया। अनेक धार्मिक ग्रंथ अर्द्धमागधी भाषा में लिखे गये, जिन्हें ईसा की छठी शताब्दी में बल्लभी में अन्तिम रुप में संकलित किया गया।
प्राकृत भाषा के साथ-साथ अनेक क्षेत्रिय भाषाओं का भी विकास हुआ, जिसमें शौरसेनी प्रमुख है, जो मराठी भाषा से निकली है। जैनों ने पहली बार अपभ्रंश भाषा में कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे और इसका पहला व्याकरण तैयार किया। जैन साहित्य में महाकाव्य, पुराण, आख्यायिका और नाटक हैं। जैन लेखों का बहुत बड़ा भाग आज भी पांडुलिपी के रुप में अप्रकाशित रूप में पड़ा है।
प्रारम्भ में जैन अनुयायी मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते थे परन्तु महाबीर की मृत्यु पश्चात् बाद में महाबीर और तीर्थकरों की मूर्तियों प्रतिमाओं को रखकर उनकी पूजा करने लगे। इसके लिये विशाल एवं सुन्दर प्रस्तर प्रतिमायें विशेषकर कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश में निर्मित हुई, जिसने भारतीय कला और स्थापत्य के विकास में महती भूमिका निभाई।