सभा के कार्यों और अधिकारों के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। जायसवाल महोदय का मत है कि सभा राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के रूप में काम करती थी परवर्ती वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख ग्राम्यवादिन् की सभा के रूप में किया गया है इसके अतिरिक्त विद्वानों का मत है कि सभा में सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक विषयों पर गहनता से विचार किया जाता था ऋग्वेद में एक स्थान पर सभा को द्यूत क्रीड़ा के लिए प्रयुक्त वताया गया है।
ऐसा प्रतीत होता है सभा का उपयोग मनोरंजन के लिए भी किया जाता था। सभा में राजनीतिक एवं प्रशासनिक कार्यों का भी संचालन किया जाता था। राजा के सभा में उपस्थित होने का उल्लेख मिलता है राजा सभा के सदस्यों के परामर्श को महत्त्वपूर्ण मानता था। इस प्रकार पूर्व वैदिक युग में संगठित सभा का संभवत: प्रशासनिक कार्यों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान था, जिसका विकास उत्तर वैदिक काल में पूर्णतः दिखायी पडता है।
ऋग्वेद में कई स्थानों पर सभा और समिति का साथ-साथ उल्लेख आया है, किन्तु अनेक स्थलों पर समिति का स्वतंत्र उल्लेख भी किया गया है। ऋग्वेद के अन्तः साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि समिति सभा की परवर्ती संस्था थी। समिति में जन सामान्य (विश्) सदस्य होते थे। त्सिमर समिति को केन्द्रीय सभा मानते हैं ।
समिति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य राजा का चुनाव माना गया है। ऋग्वेद में राजा को समिति में उपस्थित होना आवश्यक माना गया है। समिति के कार्यों में प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक कार्य प्रमुख थे। एन० सी० बन्ध्योपाध्याय के अनुसार समिति के कुछ सैनिक कार्य भी थे। समिति का सम्बन्ध धार्मिक अनुष्ठानों और प्रार्थनाओं से भी माना गया है।
रामशरण शर्मा के अनुसार – ‘समिति पूर्व वैदिक काल की राज्यव्यवस्था का ऐसा अभिन्न अंग थी कि इसके बिना राजा की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
परवती वैदिक संहिता अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की पुत्रियाँ माना गया है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों का उद्गम एक ही था। चैडविक का मत है कि सभा और समिति में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं था। संभवत: सभा को न्यायिक अधिकार प्राप्त थे, जो समिति को प्राप्त नहीं था कालान्तर में सभा का स्वरूप अभिजातीय हो गया और वह राजदरबार में परिवर्तित हो गयी, किन्तु समिति का विकास नहीं हो सका, वह समय के साथ तिरोहित हो गयी। हिलबांइट महोदय सभा को समिति के मिलने का स्थान मानते हैं । लुडविग सभा को उच्च सदन (अपर हाउस) और समिति को निम्न सदन (लोअर हाउस) मानते हैं । सिमर महोदय सभा को ग्राम सभा और समिति को केन्द्रीय संस्था मानते हैं। इस आधार पर मजूमदार सभा को स्थानीय संस्था और समिति को केन्द्रीय संगठन मानते हैं, किन्तु कठिनाई यह है कि यदि सभा को ग्राम संस्था मान लिया जाय तो ऋग्वेद में राजा को सभा में जाने का जो उल्लेख किया गया है, वह संभव नहीं प्रतीत होता है राजा के लिए प्रत्येक ग्राम सभा में जाना संभव नहीं लगता है। सभा और समिति के पारस्परिक सम्बन्ध पर माना जाता है कि सभा ब्राह्मणों और मघवन् (धर्मसंरक्षकों) की सभा थी, जबकि समिति में जनसामान्य (विश्) सदस्य होते थे। कतिपय विद्वान् मानते हैं कि सभा का प्रारम्भिक स्वरूप जनजातीय था, जो कालान्तर में अभिजातीय स्वरूप में परिवर्तित हो गया, जबकि समिति का जनस्वरूप उत्तर वैदिक काल में. उभरकर सामने आता है। इस प्रकार यह दोनों संस्थाएं पूर्व वैदिक युग की ऐसी प्रमुख संस्थाएँ थी, जिनके आधार पर प्रशासनिक ढाँचा खड़ा दिखायी पड़ता है।
पूर्व वैदिक युग में युद्ध का विशेष महत्त्व था। राजा की प्रमुख योग्यता युद्ध में कुशल नेतृत्व प्रदान करना माना जाता था। राजा युद्ध में जन’ का नेतृत्व करता था। पूर्व वैदिक युग में युद्ध का प्रमुख कारण पशुधन की प्राप्ति माना जाता था, इसीलिए ऋग्वेद में युद्ध के लिए ‘गविष्टि’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
ऋग्वेद में इन्द्र को भी युद्ध द्वारा पशुधन प्राप्ति करने वाला कहा गया है। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि इस काल की सेना में रथारोही और पैदल सैनिक होते थे कतिपय विद्वान् सेना में अश्वारोहियों के भी होने की संभावना व्यक्त करते हैं। युद्ध का नेतृत्व राजा स्वयं करता था। इसके अलावा राजा की युद्ध में सहायता देने के लिए सेनापति, पुरोहित और ग्रामणी जैसे पदाधिकारी भी होते थे। युद्ध के अवसर पर राजा और अन्य पदाधिकारी रथों का उपयोग करते थे। रथों पर पताकाएँ लगी होती थी। रथ का संचालन सारथी करता था, जो रथी (राजा या पदाधिकारी) के बायों ओर बैठता था। युद्ध में सैनिकों द्वारा कवच (वर्मन्) और शिरस्त्राण (शिप्र) धारण किये जाते थे।
पूर्व वैदिक युग के प्रमुख अस्त्र-शस्त्रों में धनुष-बाणे, परशु, भाला, तलवार और पत्थर फेंकने के गोफन आदि थे। सैनिकों द्वारा धनुष की डोरी (प्रत्यंचा) से हाथ की सुरक्षा करने के लिए ‘हस्तघ्न’ धारण करने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में ‘शर्ध’ ‘बात’ और “गण” शब्दों का प्रयोग संभवत: व्यूह रचनाओं के लिए किया गया है।
युद्ध के समय विविध प्रकार के वाद्य यन्त्रों से युद्ध-संगीत बजायी जाती थी। ऋग्वेद में उल्लिखित ‘पुर-चरिष्णु’ का तात्पर्य संचरणशील दुर्ग माना गया है विद्वानों का अनुमान है कि संभवत: यह दुर्ग भेदन करने वाला कोई यन्त्रोपकरण रहा होगा, किन्तु इस विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। पूर्व वैदिक युग में आर्यों का युद्ध विभिन्न जनों से हुआ करता था। युद्ध के समय लूटी गयी सम्पत्ति का विभाजन आपस में किया जाता था। आय्यों के विभिन्न जनों के बीच हुए प्रमुख युद्धों में दाशराज्ञ युद्ध सर्वाधिक प्रसिद्ध माना गया है, जिसमें राजा सुदास के विरोध में दस राजाओं के संघ ने रावी (परुष्णी) के तट पर युद्ध किया था, जिसमें सुदास की विजय हुई थी।
इस काल के प्रमुख जनों में अनु, द्रह्ा, यदु, तुर्वस और पुरु का उल्लेख किया जाता है जिन्हें पंचजन कहा जाता था। पूर्व वैदिक काल में विभिन्न जनों में आपसी युद्ध के अलावा आर्यों का अनार्यों में भी युद्ध होता था। इस काल के प्रमुख अनार्य जातियों में अज, यक्षु, कीकर, पिशाच, शियु आदि उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार पूर्व वैदिककाल में आर्यों को अपनी सत्ता की स्थापना और संस्कृति के विस्तार के लिए अनेक युद्ध करने पड़े, जिसके लिए सेना का संगठन अत्यधिक आवश्यक था जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
पूर्व वैदिक काल में न्याय व्यवस्था के विषय में अत्यधिक सीमित जानकारी मिलती है। ऋग्वेद में विधि के लिए ‘धर्मन्’ शब्द का प्रयोग मिलता है। इस काल में सामान्यतः न्याय का अधिकार राजा को होता था। राजा को न्याय में सहायता के लिए पुरोहित और अन्य अधिकारी होते थे।
ऋग्वेद के अन्त:साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि यदा-कदा व्यक्ति स्वतः दण्ड देता था। ऋग्वेद में उल्लिखित है कि ऋज्राश्व द्वारा भेड़िये को सौ. भेड़े खिला देने पर पिता ने पुत्र (ऋज़ाश्व) को अन्धा बना दिया था। ऋग्वेद में वर्णित अपराधों में चोरी, लूटपाट, ठगी और पशु अपहरण आदि है। विद्वानों का मत है कि अपराध परीक्षण के लिए अग्नि, जल और तपाए हुए परशु का उपयोग किया जाता था पूर्व वैदिक काल में दीवानी के विषय में जानकारी अत्यधिक न्यून है। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर ऋण का उल्लेख आया है ऋणी व्यक्ति के ऋण न चुका पाने पर उसे दासत्व स्वीकार करना पड़ता था कभी- कभी जुआ खेलने वाले लोगों द्वारा भी ऋण लिये जाने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में ऋण अथवा मूलधन किश्त के रूप में भुगतान का संकेत मिलता है, किन्तु इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।
पूर्व वैदिक कालीन समाज के प्रारम्भिक स्वरूप के विषय में अनेक मत हैं। ऋग्वेद के अन्त: साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि आर्यों का संगठन विभिन्न सामुदायिक विभक्तियों से मिलकर बना था, जिसमें कुछ कबीले आर्यों से पूर्व भारत में प्रविष्ट हो चुके थे। आय्यों के साथ उनके पूर्ववर्ती कबीलों तथा आर्येतर जातियों के सम्बन्ध कटुतापूर्ण थे ।
ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि भारत में आर्यों का प्रारम्भिक स्वरूप पशुपालकों और यायावरीय कबीलों का था, जो सदैव चारागाहों की खोज में संचरणशील रहा करते थे। इस काल में स्थायित्व का अभाव था। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में आर्यों और आर्येतर कबीलों के मध्य संघर्ष के साक्ष्य मिलते हैं। इन मन्त्रों में शत्रुओं पर विजय, उनकी सम्पत्ति पर अधिकार और शत्रुओं के विनाश की कामना की गयी है। इन काल में सम्पत्ति पर जनों का सामुदायिक अधिकार होता था प्रारम्भिक आर्यों के कबीलों में वर्ग विभाजन की जटिलता नहीं दिखायी देती है। समाज में परिवार नामक संस्था का विकास हो रहा था।
इस काल में पारस्परिक सम्बन्ध रक्त-सम्बन्धों और स्वजनों पर आश्रित थे। ऋग्वैदिक समाज अनेक कबीलाई विभक्तियों में विभक्त दिखायी पड़ता है। इन्हीं विभक्तियों के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप को जाना जा सकता है, साथ ही इन्हीं विभक्तियों में उस व्यवस्था के बीज को खोजा जा सकता है, जिससे कालान्तर में विशिष्ट सामाजिक संरचनाओं का प्रादुर्भाव हुआ।
पूर्व वैदिक कालीन कतिपय विभक्तियों के मूल भारोपीय और भारत-ईरानी दिखायी पड़ते हैं जिसके विषय में शब्दार्थ परम्परा के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है। इन विभक्तियों के कतिपय शब्दों की व्याख्या का महत्त्व इसलिए है, क्योंकि इनमें उस व्यवस्था के अंकुर परिलक्षित होते हैं, जो परिवर्तनीय समाज में या तो समाप्त हो गये अथवा उनका पूर्ण विकास हुआ।
पूर्व वैदिक समाज की एक विभक्ति आर्य, दस्यु और दास वर्गों में थी। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति ‘अर’ से मानी गयी है ‘अर’ शब्द भारोपीय और भारत-ईरानी में भी मिलता है। ‘अर’ को ‘हल जोतने’ अथवा ‘हल’ के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।
विश्वम्भरशरण पाठक का मत है कि मूलतः ‘अर’ से सम्पन्न लोगों को ‘अर्य’ की संज्ञा प्रदान की गयी और ‘अर्य’ से सम्बद्ध समूह को ‘ आर्य’ कहा गया।
ऋग्वेद में आर्य शब्द सामान्य जन के आदि वर्ग का द्योतक था, जिसमें राजा, पुरोहित और योद्धा आदि सम्मिलित थे ऋग्वेद में आर्य के अलावा सामान्य जन के आदिवर्ग के द्योतक अन्य शब्द ‘कृष्टि’ और ‘चर्षणि’ भी मिलते हैं।
वस्तुत: पूर्व वैदिक आर्य अनेक जनों में विभक्त थे, किन्तु उनके जनों और विश के रूप में संगठित होने के पूर्व यायावरीय स्थिति में सामाजिक स्वरूप की व्याख्या में ‘कृष्टि’ एवं ‘चर्षणी’ की चर्चा आवश्यक दिखायी पड़ती है।
ऋग्वेद के अन्तःसाक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उसके प्राचीनतम अंशों में यायावरीय प्रजा (सामान्यजन) के लिए ‘चर्षणि’ शब्द प्रयुक्त किया गया है। विद्वानों का मत है कि जब संचरणशील स्थिति का समापन हुआ और लोगों ने स्थायी निवास की ओर कदम बढ़ाया, तो उस काल में प्रजा के लिए ‘कृष्टि’ शब्द का प्रयोग किया गया।
ऋग्वेद में कृष्टि’ शब्द अनेक अर्थों जैसे प्रजा, सामान्य जन, शत्रुजन, शत्रुसेना आदि में प्रयुक्त किया गया है सच्चिदानन्द मिश्र का मत है कि कृष्टि की स्थिति सामान्यजन के समान थी जिनका परिवर्तन कालान्तर में दास या कर्षक समूह के रूप में हुआ इसी प्रकार ऋग्वेद में वर्णित ‘चर्षणि’ शब्द भी अनेक अर्थों जैसे-प्रजा, साधारणजन, शत्रुभूतजन, शत्रुसेना आदि में किया गया है। सच्चिदानन्द मिश्र के अनुसार संभवत: पूर्व वैदिक समाज के प्रारम्भिक काल में आर्यों के संचरणशील होने के कारण उन्हें ‘चर्षणि’ संज्ञा प्रदान की गयी। उनके अनुसार ऋग्वेद के अनुशीलन से अर्य के स्वामित्व तथा कृष्टि और चर्षणि कर्को सामान्य प्रजा के रूप में स्थिति दिखायी पड़ती है।
अर्य की प्रार्थना पर ही देवता कृष्टि और चर्षणि को अन्न, पशु, धन आदि देते थे। इस प्रकार अर्य कृष्टि और चर्षणि से श्रेष्ठ दिखायी पड़ते हैं। सच्चिदानन्द मिश्र का विचार है कि वैदिक समाज के ब्रह्म, क्षत्र एवं विश् जैसे त्रिवर्गीय स्तरीकरण के पूर्व आयों के यायावरीय जीवन में समाज का विभाजन अर्थ तथा चर्षणी-कृष्टि वर्गों में था।
ऋग्वेद में आर्यों के विरोधी जनवर्गों में दासों और दस्योओं का उल्लेख अनेकश: किया गया है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में इन्द्र द्वारा दस्युओं को मारकर आर्य वर्ण की रक्षा का उल्लेख किया गया है, ऋग्वेद में इन्द्र को ‘दस्युहा’ (दस्युओं की हत्या करने वाला) कहा गया है। इसी प्रकार ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में दस्यु हत्या का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में दस्युओं को अदेवयु (देवताओं में श्रद्धा न रखने वाले, अयज्वन् (यज्ञ न करने वाले), अब्रह्मन् (वेदों को न मानने वाले), अनासः (नासिकाहीन अथवा चपटी नाक वाले) और मृध्रवाचः (कटुवचन वाले) जैसे विशेषणों से अभिहित किया गया है। इसी प्रकार ‘दास’ वर्ण को भी कृष्णयोनि, कृष्णत्वच् (काले रंग के) अव्रत, अनिंद्र (इन्द्र को न मानने वाले) कहा गया है।
ऋग्वेद में इन्द्र को पुरन्दर (दासों के पुरों का नाशकर्ता) कहा गया है। एक अन्य मन्त्र में इन्द्र द्वारा दासों को गुहा में भगा देने का उल्लेख किया गया है, किन्तु कहीं भी दास हत्या का उल्लेख ऋवेद में नहीं मिलता है।
ऋग्वेद में दासों का आर्यों के साथ विलय या सहयोग का संकेत मिलता है। दासों और दस्युओं के लिए प्रयुक्त विशेषणों से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि इनकी सांस्कृतिक पृष्टभूमि आयों से भिन्न थी। इन्होंने आयों के आगमन पर उनका विरोध किया था और उन्हें परास्त करने के लिए आयों को कठिन संघर्ष करना पड़ा था । दासों और दस्युओं में आर्यों के लिए दस्यु अधिक खतरनाक माने गये हैं।
दास और दस्यु के विषय में विद्वान् एक मत नहीं हैं कतिपय विद्वान् मानते हैं कि दास और दस्यु भारत के आदिम अनार्य थे जिन्हें आर्यों ने आकर परास्त किया। इसके अलावा कतिपय अन्य विद्वानों का मत है कि दास और दस्यु आर्येतर नहीं थे, बल्कि ऋग्वैदिक आर्य और दास एवं दस्यु भारत-ईरानी जनों के वर्ग प्रतीत होते हैं। दास और दस्यु भारतेरानी आर्य शाखा का वह वर्ग था, जिसने आर्यों के पूर्व भारत में प्रवेश किया था और यहाँ के मूल निवासियों के साथ घुल मिल गया था। इनकी जीवन शैली आर्यों से पूर्णतः भित्न थी इसी सांस्कृतिक भित्रता के कारण इन लोगों ने आर्यों के आगमन पर उनका विरोध किया, जो उनके बीच संघर्ष का कारण बना था।
अविनाश चन्द्र दास का विचार है कि ऋग्वेद में जहाँ आर्य शब्द स्थायी निवासियों, कृषि कर्म में प्रवृत्त और यज्ञादि अनुष्ठानों को करने वाले सुसंस्कृत लोगों के लिए प्रयुक्त किया गया है, वहीं दास और दस्यु ऐसे वैदिक लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो असभ्य थे, धार्मिक कृत्यों से दूर और लूट-पाट करने वाले थे। मुइर और रॉथ महोदय ने भी दस्युओं और दासों को आर्येतर मानने से इंकार किया है। इस प्रकार प्रतीत होता है कि आर्यों की आयी हुई पूर्ववर्ती टुकड़ियों और मुख्य शाखा के आर्यों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण सांस्कृतिक भिन्नता एवं सम्पत्ति थी।
मुख्य शाखा के आर्य पूर्ववर्ती आर्यों और आर्येतर जनों के सम्पत्तियों के प्रति आकृष्ट हुए और उसे प्राप्त करने के लिए उन्हें परास्त किये। कालान्तर में पूर्ववर्ती शाखाओं के आर्यों का विनाश हुआ, किन्तु दासों का आयों के साथ विलय भी संकेतित है। ऋग्वेद में दासियों और दास कन्याओं का उल्लेख हुआ है, जिससे प्रतीत होता है कि आर्यों ने दास वर्ग की स्त्रियों को दासी के रूप में स्वीकार किया होगा, जो उनके सांस्कृतिक विलय को इंगित करता है। इस प्रकार आयों से दास एवं दस्यु वर्ण पराजित होकर विश् के रूप में परिवर्तित हो गये और कालान्तर में सामाजिक संगठन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिये।
पूर्व वैदिक समाज मुख्यत: तीन वर्गों पुरोहित (ब्रह्म) राजन्य (क्षत्र) एवं जनसामान्य (विश्) के रूप में विभाजित दिखायी पड़ता है। उल्लेखनीय है कि आर्यों के प्रारम्भिक विभाजन अर्य, कृष्टि एवं चर्षणि की चर्चा पहले की जा चुकी है, किन्तु विद्वानों का मत है कि अर्य, कृष्टि और चर्षणि के रूप में आर्य समाज का विभाजन संभवत: भारोपीय अथवा भारतेरानी था। भारत के आर्यों का विभाजन ब्रह्म, क्षत्र और विश् के रूप में ही ऋग्वेद में उल्लिखित है।
विश्वम्भर शरण पाठक का मत है कि विश् का विकास स्वतंत्र एवं निरपेक्ष रूप से हुआ और विश् से ही ब्रह्म, क्षत्र और विश् का प्रार्दुभाव हुआ। तीनों ही मूलतः अर्य समुदाय से उद्भूत थे अयों का तीन वर्ग में विभाजन क्षत्र वर्ग के उदय के कारण हुआ इस विभाजन में अर्य के धार्मिक भूमिका का निर्वाह ‘ब्रह्म’ ने किया। उसके रक्षा एवं प्रशासन का भार क्षत्र’ वर्ग पर और उत्पादन तथा व्यावसायिक कार्य ‘विश’ के द्वारा संपादित किया जाने लगा।
इस विभाजन के पूर्व अर्य इन सभी कार्यों का सम्पादन करते थे। ऋग्वेद कहता है कि अर्य पुरोहित है. योद्धा हैं, अत्रदाता तथा प्रजापालक हैं। कालान्तर में उत्तर वैदिक काल तक आते-आते अर्य वैश्य का पर्यायवाची हो गया। इस प्रकार पूर्व वैदिक युगीन अर्थ में पुरोहित, शासक, अन्नदाता प्रजापालक आदि की भूमिकाएँ अन्तर्निहित दिखायी देती है, जो त्रिविध विभाजन ब्रह्म, क्षत्र और विशु के रूप में परिवर्तित हुई। कालान्तर में यही विभाजन वर्गों में विभाजित हुआ, जो चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का आधार बना।
इसके अलावा ब्राह्मण के लिए ‘ब्रह्म’, ‘कारु’ ‘विप्र’, ‘कवि’, आदि शब्द भी ऋग्वेद में प्रयुक्त किये गये हैं। इसी प्रकार ‘क्षत्रिय’ शब्द भी ऋग्वेद में शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त है, न कि जातिपरक अर्थ के रूप में प्रयुक्त किया गया है। ‘विश्’ शब्द भी कृषक अथवा व्यापारी के लिए ही नहीं प्रयुक्त किया गया है, अपितु सम्पूर्ण आर्य जन समुदाय के लिए प्रयोग किया गया है । ऋग्वेद में विश के अनेक अर्थ जैसे जनजातीय समुदाय, सन्निवेश, मानव समूह आदि मिलते हैं। कतिपय विद्वान् मानते हैं कि विशु का तात्पर्य संचरणशील जनजाति से था, जो चारागाहों की खोज में निरन्तर भ्रमणशील रहा करती थी। कालान्तर में विश् आर्यों के ऐसे जन समूह के लिए प्रयुक्त होने लगा, जो उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ था।
इस प्रकार पूर्व वैदिक समाज का विभाजन प्रथमत: अर्य-कृष्टि अथवा अर्य-चर्षणि (संभवत: आ्यों के भारत आगमन के पूर्व) में था कालान्तर में अर्यों का तीन विभाजन ब्रह्म, क्षत्र और विश परिलक्षित होता है, जो पूर्व वैदिक युग का मूल विभाजन माना जाता है और अन्तत: उस सामाजिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं, जिसमें चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में समाज विभक्त दिखायी पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व वैदिक काल के अन्तिम चरण तक आते-आते सामाजिक स्वरूप बदलने लगा था और पूर्व वैदिक युग का गुण पर आधारित वर्ग विभाजन वंशानुगतिक वर्ग विभाजन की ओर उन्मुख हो चुका था, जिसका विकास उत्तर वैदिक काल में दिखायी पड़ता है।
पूर्व वैदिक युग में समाज का मुख्य आधार परिवार था। ऋग्वेद में परिवार के लिए ‘कुल’ शब्द प्रयुक्त किया गया है। कुल के मुखिया को ‘कुलप’ कहा जाता था। ऋग्वेद के अन्तः साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि परिवार पितृसत्तात्मक था। परिवार का प्रमुख पिता होता था जो परिवार का संरक्षक होने के साथ-साथ सन्तानों का मार्ग दर्शक भी था। परिवार में पिता का पुत्र के ऊपर पूर्ण नियन्त्रण था। ऋग्वेद में पुत्र को शारीरिक दण्ड देने का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि ऋज्राश्व को उसके पिता ने इसलिए अन्धा बना दिया था, क्योंकि उसने सौ भेड़ों को भेड़िये को खिला दिया था इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पिता द्वारा सन्तान को व्यक्तिगत दण्ड देने का अधिकार समाज में प्रचलित था, यद्यपि कतिपय विद्वान इसे अपवाद स्वरूप मानते हैं।
ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में अग्नि को सुख और ऐश्वर्य प्रदान करने वाले पिता के रूप में स्मरण किया गया है, जिससे पिता-पुत्र के स्वाभाविक प्रेम और भावनात्मक सम्बन्ध की पुष्टि होती है। अत: यह कहना अनुचित होगा कि पूर्व वैदिक समाज में पुत्र के प्रति पिता की भूमिका अस्वाभाविक होती थी।
ऋग्वैदिक समाज में संयुक्त परिवार की अवधारणा के संकेत मिलते हैं, जिसमें माता-पिता सहित लगभग तीन या चार पीढ़ी के सदस्य एक साथ रहते थे। परिवार के प्रमुख सदस्यों में पुत्र पुत्री, पत्नी, पिता, नाम (पौत्र, भतीजा) आदि हैं। ऋग्वेद के ‘विवाह- सूक्त’ में नव विवाहिता वधू को पति के भाइयों और माता-पिता पर शासन करने वाली ‘साम्राज्ञी” कहा गया है; जो पूर्व वैदिक युगीन संयुक्त परिवार की ओर संकेत करता है । परिवार में पिता की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र को अधिकार दिया जाता था परिवार में ‘प्रजा’ वृद्धि की कामना का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है।
‘प्रजा’ का तात्पर्य सन्तान से है, जिसमें पुत्र और पुत्री दोनों समाहित हैं, किन्तु ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में युद्ध में सहायता करने वाले पुत्रों की कामना अधिक की गयी हैं। संभवतः समाज में युद्ध और श्रम की प्रधानता होने के कारण पुत्रों का अधिक महत्त्व था । ऋग्वेद के एक सूक्त में मरुतों से शत्रुदमन करने वाले योग्य पुत्र देने की प्रार्थना की गयी है। अत: स्पष्ट है कि परिवार में पुत्र का महत्त्व कन्या से अधिक था ।
यद्यपि पैतृक सम्पत्ति में पुत्र एवं पुत्री के समान अधिकार होने के उदाहरण भी ऋग्वेद में हैं। ऋग्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि माताउषाने अपने पुत्र (अग्नि) के लिए ज्येष्ठ भाग रख लिया। इसी प्रकार एक अन्य स्थल पर कहा गया है कि जिस तरह अपाला के सिर के बाल उसके अपने हैं, उसी प्रकार उसके पिता की उर्वरा (भूमि) भी उसकी अपनी है। विद्वानों का ऐसा मत है कि इस प्रकार के उल्लेख ऋग्वेद में अत्यल्प हैं, अत: ‘दाय’ में पुत्र-पुत्री के समान अधिकार को रेखांकित करना संभव नहीं प्रतीत होता है।
पूर्व वैदिक युग में यद्यपि अधिकांश विद्वान् पितृ सत्तात्मक परिवार का समर्थन करते हैं, किन्तु कतिपय अन्य विद्वान् ऋग्वैदिक संस्कृति में मातृसत्तात्मक परिवार होने का उल्लेख करते हैं । राम शरण शर्मा का विचार है कि कुल के रूप में स्थापित पितृसत्तात्मक परिवार जिसमें एक पत्नी विवाह एवं पिता द्वारा संरक्षित संगठन विकसित हुआ-यह ऋग्वैदिक जन व्यवस्था के पूर्णत: अनुकूल नहीं प्रतीत होता है।
मातृ एवं पितृ शब्दों का पालक के रूप में अर्थ, माता एवं पिता से सम्बन्धित रक्त सम्बन्धों के लिए अलग-अलग संज्ञाओं की कमी एवं पितृ शब्द का मूलत: सामूहिक पितरों के रूप में आशय-यह सभी साक्ष्य प्रारम्भिक जनजातीय संगठन में मातृसत्ता की ओर संकेत करते हैं। उल्लेखनीय है कि ऋग्वैदिक जनसभा विदथ’ में स्त्रियों को बोलने की स्वतन्त्रता से भी उनके अधिकारों एवं गुरुता की सिद्धि होती है।
उत्तर वैदिककालीन ब्राह्मणों और उपनिषदों में भी उल्लिखित अनेक ऋषियों के नाम मातृ-नामान्त हैं, जो समाज में मातृसत्ता के अस्तित्व की ओर इंगित करते हैं। संभावना व्यक्त की जा सकती है कि वैदिक समाज में मातृसत्ता के जो उल्लेख प्राप्त हुए हैं, वे मातृ सत्तात्मक परिवार के सूचक न होकर, स्त्रियों के सम्मान के प्रतीक हो सकते हैं, किन्तु इस सन्दर्भ में स्पष्टत: कुछ कहना कठिन है।
ऋग्वैदिक काल मे विवाह-
पूर्व वैदिक युग में विवाह संस्था विकसित हो चुकी थी समाज में सामान्यतः एक पत्नी विवाह का प्रचलन था, किन्तु जावेद के कतिपय उल्लेख बहुपत्नी प्रथा की ओर भी संकेत करते हैं, जो संभवतः संभ्रान्त परिवारों में प्रचलित था।
इस युग में बहुपति विवाह के साक्ष्य नहीं मिले हैं। कतिपय विद्वान् ऋग्वेद के विवाह सूक्त में उल्लिखित एक स्त्री के पति के लिए बहुवचन के प्रयोग को बहुपति विवाह का संकेत मानते हैं, किन्तु यह औचित्यपूर्ण नहीं लगता है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय परम्परा में आदर के अर्थ में बहुवचन के प्रयोग के उदाहरण साहित्य और व्यवहार दोनों में मिलते हैं।
इस काल में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था विवाह में पुरुष और स्त्री परिपक्व आयु के होते थे। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि विभिन्न उत्सवों में स्त्रियाँ पुरुषों का ध्यान आकर्षित करने के लिए शरीर को अलंकृत करती थी इसके अलावा ऋग्वेद में पुरुषों द्वारा प्रेमोपासना, प्रेमिका को सर्वस्व दान और स्त्री पुरुष के पारस्परिक प्रेम के उल्लेख भी परिपक्व आयु में विवाह होने का संकेत करते हैं ।
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के दो मन्त्रों में वर- वधू के लिए ‘अर्भ’ शब्द प्रयुक्त किया गया है, जिसे कतिपय विद्वान् बाल्यावस्था का द्योतक मानते हैं, किन्तु ‘अर्भ’ शब्द बाल्यावस्था का द्योतक न होकर सुकुमारता का परिचायक हो सकता है। अल्तेकर का मत है-‘विमद जिसे ‘ अभवर’ कहा गया है, वह अपने प्रतिद्वन्द्वी को परास्त करके पत्नी का वरण करता है। किसी बालक के सन्दर्भ में यह संभव नहीं है।’
पूर्व वैदिक समाज में विवाह के लिए माता- पिता की अनुमति प्राप्त करने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। स्त्री और पुरुष को विवाह के बन्धन में बंधने की स्वतन्त्रता थी, किन्तु कतिपय रक्त सम्बन्धों जैसे भाई बहिन और भाइयों के सन्तानों के मध्य विवाह वर्जित थे ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि कभी कभी पुरुषों को धन देकर स्त्री प्राप्त करना पड़ता था। इस काल में शारीरिक रूप से विकृत कन्याओं के विवाह के लिए उसके पिता द्वारा वर को धन देने के प्रमाण भी मिले हैं। ऋग्वेद के विवाह सूक्त में वैवाहिक अनुष्ठान का उल्लेख मिलता है । विवाह के समय वधु सुन्दर आकर्षक वस्त्र धारण करती थी और वर अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ उसके घर जाता था।
विवाह के अवसर पर उपस्थित लोग वधू का मुखदर्शन करके आशीर्वाद देते थे। वधू पक्ष के लोग अतिथियों का स्वागत करते थे और उन्हें गोमांस से तृप्त करते थे। तत्पश्चात् वैवाहिक संस्कार सम्पन्न होता था। इस संस्कार में वर वधू का हाथ पकड़कर अग्नि की परिक्रमा करता था और कहता था मैं सौभाग्य के लिए तुम्हारा पाणिग्रहण करता हूँ; पति के रूप में मेरे साथ तुम्हें वृद्धि की प्राप्ति हो। ‘विवाह संस्कार सम्पन्न हो जाने पर पुरोहित वर-वधू को आशीर्वाद प्रदान करता था। तत्पश्चातु वधू वर के घर ले जायी जाती थी कग्वेद में नवविवाहिता वधू को वर के पिता, भाई और बहनों के मध्य ‘साम्राज्ञी’ के रूप में प्रतिष्ठित किया गया हैं .
मैकडानल और कीथ महोदय का विचार है कि ऋग्वेद का उक्त अवतरण घर में ज्येष्ठ पुत्र के विवाह का है, जिसके वृद्ध पिता का घर में हैं नियन्त्रण समाप्त हो गया होगा तथा उसने गृह संचालन का पूर्ण दायित्व उसके ऊपर डाल दिया होगा। वस्तुतः ऋग्वेद के इस अवतरण में वधू को ‘साम्राज्ञी’ के रूप में प्रतिष्ठित करने का तात्पर्य उसे पूर्ण सम्मान प्रदान करना था, जिससे वह परिवार को अपने स्नेहिल बंधन में आबद्धकर लोगों को शान्ति एवं समृद्धि प्रदान कर सके।
पूर्व वैदिक काल में स्त्रियों की दशा:-
ऋग्वैदिक समाज में स्त्रियों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण पुत्र के प्रति लोगों का विशेष आकर्षण था। समाज में पुत्र ही वंश वृद्धि का कारण माना जाता था और उसे ही प्रथमत: माता-पिता की अन्त्येष्टि करने का अधिकार था।
ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में भौतिक सम्पदा के साथ-साथ पुत्र प्राप्ति की प्रार्थनाएँ भी की गयी हैं, किन्तु एक भी मन्त्र ऐसा नहीं मिलता है, जिसमें पुत्री प्राप्त करने की कामना की गयी हो। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि समाज में पुत्री का जन्म अवांछनीय माना जाता था उन्हें भी पुत्रों की भाँति शिक्षा-दीक्षा का अधिकार था।
ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों की द्रष्टा विदुषी ऋषि महिलाएँ थीं। ऐसी विदुषी स्त्रियों में लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, विश्ववारा और सिकता निवावरी आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
इस काल में स्त्रियों को यज्ञानुष्ठान करने का अधिकार प्राप्त था। वैवाहिक जीवन व्यतीत करने वाली स्त्रियों द्वारा पति के साथ यज्ञ करते समय वैदिक मन्त्रों का पाठ करना उपयुक्त माना जाता था। इस युग में विवाह परिपक्व आयु में होता था। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि स्त्रियों को पति चुनने का अधिकार प्राप्त था। ऋग्वेद में ऐसी कन्याओं का उल्लेख किया गया है, जो अपने सौन्दर्य के कारण स्वयं ही वर प्राप्त कर लेती थीं। इस काल में वधू को गृहस्वामिनी कहा गया था, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि पति को कुछ विशेषाधिकार अवश्य प्राप्त थे पूर्व वैदिक समाज में पति-पत्नी के सम्बन्ध अत्यधिक मधुर थे।
ऋग्वेद में घर को एक रमणीक स्थल माना गया है और स्त्री को ही घर कहा गया है वही घर में आश्रय स्थान मानी गयी है।
ऋग्वैदिक समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। समाज में स्त्रियाँ अपने पति या प्रेमी के साथ भ्रमण करती थीं।
इस काल में स्त्रियाँ अनेक व्यावसायिक कार्यों जैसे-अन्न पीसना, डालियों का निर्माण, वस्त्रों को रंगना, बस्त्रों की बुनाई, आदि में संलग्न रहती थीं। पूर्व वैदिक समाज की प्रारम्भिक जनसभा ‘विदथ’ में स्त्रियाँ भी सदस्य होती थीं और सभा अपना मत व्यक्त करती थीं।
ऋग्वेद के विवाह सूक्त में कहा गया है कि वधु सार्वजनिक सभाओं में भाषण देने वाले की । तरह प्रकाशमान हो । स्त्रियों द्वारा सार्वजनिक सभाओं में भाषण देने और शास्त्रार्थ करने की परम्परा का सातत्य उत्तर वैदिक काल तक दिखायी पड़ता है। वृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी और याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ उल्लेखनीय है।
पूर्व वैदिक युग में सती प्रथा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र से प्रतीकात्मक सती प्रथा का संकेत मिलता है, जिसमें पति की चिता पर पहले से लिटायी गयी स्त्री को चिता से उतरने का आग्रह किया गया है। इस अवतरण के सन्दर्भ में विद्वानों में अनेक मत हैं । कतिपय विद्वान् इसे प्रतीकात्मक सती प्रथा का उदाहरण मानते हैं, जबकि कुछ अन्य विद्वान् सती प्रथा की परम्परा से इंकार करते हैं। समाज में विधवा के पुनर्विवाह का प्रचलन नहीं था।
ऋग्वेद के कुछ उद्धरणों से ज्ञात होता है कि पति के मृत्यु के बाद नि:सन्तान स्त्री पुत्रोत्पत्ति तक पति के भाई (देवर) के साथ यौन सम्बन्ध रख सकती थी। प्रस्तुत अवतरण से विद्वान मानते हैं. कि सम्भवतः विशेष परिस्थितियों में पुनर्विवाह वर्जित नहीं था। इसके अतिरिक्त विधवाओं के पुनर्विवाह का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में शिक्षा –
पूर्व वैदिक शिक्षा पद्धति के विषय में जानकारी की कमी है। प्राचीन भारतीय परम्परा में अध्ययन का प्रारंभ यज्ञोपवीत संस्कार से होता था, किन्तु ऋग्वेद में यज्ञोपवीत संस्कार का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है।
ऋग्वेद के सातवें मण्डल के एक सक्त में शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों को पढाये जाने की तुलना सामूहिक मेंढकों के टर्राने से की गयी है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षा प्रणाली मौखिक थी और शिक्षक द्वारा एक स्थान पर सामूहिक रूप से विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता था, जो संभवत: गुरुकुल का पूर्व रूप था।
ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में ‘ब्रह्मचारिन्’ शब्द धार्मिक विद्यार्थी’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि बालक की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पिता द्वारा ही दी जाती थी। तत्पश्चात् उसे वेद मन्त्रों को पढ़ने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था। इस काल के पाठ्य विषयों में मूलत: वैदिक मन्त्र ही थे। वैदिक मन्त्रों के साथ विद्यार्थियों को छन्द का ज्ञान कराया जाता था पूर्व वैदिक युग में यज्ञ और अनुष्ठानों का प्राधान्य था। अत: विद्यार्थियों को कर्मकाण्ड विषयक जानकारी भी दी जाती थी।
ऋग्वेद के कई मन्त्रों में खगोल विद्या-जैसे वर्ष का बारह महीनों में विभाजन, अधिक मास आदि का उल्लेख किया गया है। अत: माना जा सकता है कि विद्यार्थियों को खगोल विद्या जैसे विषयों का भी अध्ययन कराया जाता रहा होगा। विद्वानों का अनुमान है कि पूर्व वैदिक युग में इतिहास, पुराण, नाराशंसी और गाथायें भी पढ़ायी जाने लगी थी, क्योंकि उत्तर वैदिक युग में इनको पाठ्य-विषयों में परिगणित किया गया है। अतएव ऋग्वैदिक युग (ऋग्वैदिक काल) में इनका बीजारोपण माना जा सकता है।
ऋग्वैदिक काल के भोजन एवं वस्त्राभूषण-
ऋग्वैदिक आर्य सामिष एवं निरामिष दोनों प्रकार के भोजन ग्रहण करते थे। प्रारम्भिक आयों का सम्बन्ध पशुपालन से था। कालान्तर में कृषि अपनायी गयी लेकिन पशुपालन का महत्त्व यथावत बना रहा।
पशुपालन से आर्यों को पशु उत्पाद जैसे दूध, दही, धी, मक्खन आदि प्राप्त होता था। भोज्य पदार्थों में घी (घृत) का विशेष महत्त्व था। इस युग के प्रमुख खाद्यान्नों में यव’ का उल्लेख मिलता है, जिसे सामान्यत: जौ माना जाता है, किन्तु कनिपय विद्वान्। यव का व्यापक अर्थ लें। भी अन्नों के लिए प्रयुक्त माने हैं। इसी प्रकार ‘ धान्य’ शब्द भी ऋग्वेद में खाद्यान्न के अर्थ व्यापक रूप से प्रयुक्त दिखायी पड़ता है।
खाद्यान्नों का प्रयोग खल मुसल में पीस कर किया जाता था। ऋग्वेद में अपूप (पुवा) शब्द का उल्लेख किया गया है, जो आटा को दूध या घी में मिश्रित क बनाया जाता था। इसी प्रकार सतु (सक्तु) का उल्लेख आता है, जिसे जी को भूनकर निर्मित किया जाता था।
ऋग्वेद में वर्णित ‘करम्भ’ सम्भवत: दलिया या हलुवा जैसा कोई खाद्य पदार्थ या और क्षीरोदन का तात्पर्य खीर से माना गया है। इस प्रकार पूर्व वैदिक युग के शाकाहारी खाद्य पदार्थों में अपूप (पूर्वा), सत्तू, दलिया या हलुवा और खीर की गणना प्रमुख रूप से की जा सकती है। इस युग के अन्य भोज्य पदार्थों में मांसाहार को भी सम्मिलित किया गया है।
इस काल के यज्ञानुष्ठानों में पशुबलि का विधान था। सामान्यतः समाज में भेड, बकरी और बैल के मांस को खाया जाता था ऋग्वेद में गाय को यद्यपि न मारने योग्य” (अष्टया) कहा गया है, तथापि अतिथि सेवा में गोमांस भक्षण का उल्लेख मिलता है। विदावानों की ऐसी धारणा है कि संभवत: प्रजनन के अयोग्य (वशा) हो चुकी गायों को हो खाने के लिए प्रयुक्त किया जाता था।
ऋग्वैदिक काल में अनेक प्रकार के पेय पदार्थों का प्रयोग किया जाता था, जिनमें सर्वाधिक प्रिय पदार्थ धारोष्ण दूध माना जाता था पूर्व वैदिक युग के यज्ञानुष्ठानों के अवसर पर सोमरस के पान करने का उल्लेख ऋग्वेद में अनेक बार किया गया है। ऋग्वेद सोमरस को प्रहर्षणकारी कहता है। सोमरस इस युग के प्रमुख देवता इन्द्र का सर्वाधिक प्रिय पेय माता गया है।
ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि सोम एक प्रकार की वनस्पति थी, जो मूजवन्त पर्वत पर उगती थी। इसे भांग के समान पत्थरों पर पीसकर अथवा खल में कूटकर कपड़े से छाना जाता था, तत्पश्चात् दूध, दही अथवा अत्र मिलाकर पेय तैयार किया जाता था ऋग्वेद में ‘त्रयाशिर सोम’ का वर्णन मिलता है, जिसमें दूध, दही अथवा अत्र मिला होता था। ऋग्वेद में सोमरस के अनेक पर्यायवाची शब्द जैसे अन्धस्, रस, पितु, पीयूष, अमृत आदि मिलते हैं।
ऋग्वेद में इसे अनेक रंगों जैसे भूरे, पीले और लाल रंग का कहा गया है और इसके अनेक स्वाद भी बताये गये हैं। ऋग्वेद में सोमरस को जायकेदार, मीठा, सरस, तीखा कहा गया है। ऋग्वैदिक युग (Rigvedic period) में प्राप्त सोमरस के विस्तृत विवरण से ऐसा प्रतीत होता है कि यह पेय पदार्थ आर्यजनों में विशेष लोकप्रिय था और इसे बनाने की अनेक विधियाँ समाज में प्रचलित थीं। पूर्व वैदिक युगीन समाज में प्रचलित अन्य पेय पदार्थो में सुरा का उल्लेख मिलता है। सुरा का निर्माण अन्न (जौ) से किया जाता था। सामान्यतः सुरा नशा के लिए प्रयुक्त की जाती थी।
ऋग्वेद के एक मन्त्र में सुरा का सम्बन्ध क्रोध और जुआ से बताया गया है। अतः ऐसा माना जाता है कि सुरा को सामान्य पेव पदार्थ नहीं माना जाता था और सम्भवतः इसे सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं थी।
ऋग्वैदिक समाज में वस्त्र और आभूषण के प्रति लोगों का विशेष आकर्षण दिखायी पड़ता है जो उनके अभिरुचि की ओर संकेतित करता है। ऋग्वेद में ‘वासस्’ तथा’अधिवासस् वस्त्रों का उल्लेख मिलता है। वासस कमर से नीचे धारण करने वाला वस्त्र था और अधिवासस् कमर से ऊपर कन्धे तक धारण करने वाला वस्त्र माना गया है। ऋगवेद में ‘उत्क’ तथा ‘द्रापि’ वस्त्रों का उल्लेख भी मिलता है, जो सम्भवत:शाल के समान ऊपर से ओढने के लिए प्रयुक्त किया जाता. था। इस काल के विशिष्ट परिधानों में पेशस्. और ‘वाधूय’ का उल्लेख मिलता है।’पेशस्’ कदाई युक्त परिधान होता था, जिसे सामान्यत: नर्तकियाँ प्रयोग करती थीं।’वाधूय’ नामक विशिष्ट परिधान नवविवाहिता वधु द्वारा धारण किया जाता था। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के एक मन्त्र में एक मुनि द्वारा चर्म वस्त्र धारण करने का उल्लेख मिलता है। सम्भवतः जंगलों में रहने वाले मुनियों द्वारा मृगचर्म आदि का प्रयोग किया जाता था।
ऋग्वेद में अनेक आभूषणों के उल्लेख मिलते हैं, जिसे लोग धारण किया करते थे। ऋग्वेद में कर्णशोभन’ और निष्क’ तथा ‘रुक्म’ का उल्लेख आता है जो कान, गला और वक्षस्थल पर् पहना जाने वाला आभूषण था। ऋग्वेद के विवाह सूक्त’ में ‘कुरीर’ नामक एक अन्य आभूषण का उल्लेख है। डॉ० वी० एस० अग्रवाल इसे कान का आभूषण मानते हैं। इसके अलावा विवाह सूक्त में ‘न्योचनी’ और ‘खादि’ भाषाओं का उल्लेख मिलता है. जिसमें खादि को हाथ अथवा पैर में कड़े के रूप में पहना जाने वाला आभूषण माना गया है। न्योचनी की पहचान नहीं हो पायीं है। इसके अतिरिक्त गले में कमल पुष्पों की माला धारण करने का भी प्रमाण मिलता है। पूर्व वैदिक युगीन स्त्री और पुरुष दोनों केश सज्जा के प्रति सजग प्रतीत होते हैं। केश सज्जा में बालों को कंची से संवारकर वेणी बनायी जाती थी। पुरुष सामान्यतः दाढ़ी-मूंछ रखते थे, किन्तु यह प्रथा अनिवार्य नहीं प्रतीत होती है। समाज के कुछ लोगों द्वारा दाढी-मुंछ न रखने का भी संकेत मिलता है।
ऋग्वैदिक काल मे मनोरंजन-
ऋग्वेद के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि वैदिक आर्य सांसारिक सुखों के प्रति अत्यधिक सजग थे। उनकी प्रार्थनाएँ और यज्ञानुष्ठान भी लौकिक सुख समृद्धि प्राप्त करने के लिए होते थे। अत: उनके जीवन में मनोरंजन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था।इस काल के आर्यजन आमोद- प्रमोद के विविध साधनों का प्रयोग जीवन को सुखमय बनाने के लिए करते थे । ऋ्वैदिक युग में अनेक सामूहिक उत्सव होते थे, जिन्हें ‘समन्’ कहा जाता था।
उत्सव के अवसर पर आमोद प्रमोद के लिए गायन, वादन और नृत्य का आयोजन होता था ऋग्वेद में सोमरस के आसवन के अवसर पर ब्राह्मणों द्वारा गाये जाने वाले संगीत को पक्षियों के संगीत के समान मधुर बताया गया है। इस काल के प्रमुख वाद्ययंत्रों में ढोल (दुदुंभि), कर्करी, तन्त्री (वीणा के समान वा्ययंत्र) तथा बाबा और नाड़ी (फूंककर बजाये जाने वाले वाद्ययंत्र) का उल्लेख मिलता है. मनोरंजन के लिए स्त्री और पुरुष दोनों नृत्य करते थे नृत्य के अवसर पर ‘आघ्ाटि’ (झांझ-मजीरों) को बजाया जाता था। इस युग में कुछ लोगों द्वारा द्यूत क्रीड़ा को मनोरंजन का साधन बनाया गया था।
ऋग्वेद में दयूतक्रीड़ा के लिए विभीतक बीजों से बने पांसे का उल्लेख किया गया है, जिनकी संख्या तिरपन होती थी। ऋग्वेद में द्यूत क्रीड़ा में पराजित व्यक्ति के विलाप का सजीव वर्णन मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोग द्यूतक्रीड़ा को मनोरंजन का साधन अवश्य मानते थे, किन्तु समाज में इसे निन्दनीय माना जाता था, क्योंकि इससे अनेक लोगों को बर्बाद हुए देखा गया था। इसके अतिरिक्त इस में घुड़दौड़, रथ संचालन और आखेट को भी मनोरंजन का साधन माना गया था। आखेट से आर्यजनों को मनोरंजन के साथ-साथ जीविका भी प्राप्त होती थी। आखेट में प्राप्त पशुओं को खाद्य पदार्थ के रूप में प्रयोग किया जाता था।
पूर्व वैदिक काल की अर्थव्यवस्था:-
पूर्व वैदिक काल की अर्थव्यवस्था मूलतः पशुपालन और कृषि पर आधारित थी, यद्यपि कतिपय विद्वान ऋग्वेद के प्रारम्भिक अंशों (मण्डलों) के आधार पर पूर्ववैदिक संस्कृति में कृषि की भूमिका को महत्त्वपूर्ण नहीं मानते हैं।
रामशरण शर्मा का मन्तव्य हैं- “यायावरीय जीवन में भूमि का वह महत्त्व नहीं था, जो ध्रुव निवास की स्थिति में इसे मिला। इस यायावरीय जीवन में पशुधन का अत्यन्त महत्त्व था। संभवत: पूर्ववर्ती हडप्पा संस्कृति की कृषि पद्धति को आर्यों के कुछ वर्गों ने छोटे पैमाने पर अपनाया हो किन्तु इससे अधिकांश का निर्वाह संभव नहीं था।”
शर्मा का यह मत भी है कि कृषि से सम्बन्धित उपकरणों और कार्यों का जो उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, वह परवर्ती मन्त्रों से मिला है। अत: प्रारम्भिक ऋग्वैदिक काल में आर्यों के जीवन में कृषि का अधिक महत्त्व नहीं था, अपितु उनकी जीवन शैली गोचारण और पशुपालन पर आश्रित थी। इस प्रकार ऋग्वैदिक संस्कृति के प्रारम्भिक चरण में पशुपालन का महत्त्व अधिक दिखायी पड़ता है, किन्तु कृषि का विकास भी शनै: शनै: हो रहा था इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। सम्पूर्ण ऋग्वैदिक संस्कृति को पशुपालन और कृषि पर आधारित मानना असंगत नहीं लगता है। अत: ऋगवेद में जिस पूर्ववैदिक अर्थ व्यवस्था के दर्शन होते हैं, उसमें प्रमुख रूप से पशुपालन और कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
पशुपालन-
पूर्व वैदिक समाज का प्रारम्भिक स्वरूप पशुपालकों का था। ऋग्वेद में पशुचारण से सम्बन्धित देवता की परिकल्पना की गयी है, जिसे पूषन्’ कहा गया है। आर्य जन यद्यपि बहुत से पशुओं से परिचित थे, किन्तु उनके जीवन में गाय का विशेष महत्त्व था। ऋग्वेद में वर्णित पशुओं में सबसे अधिक गाय का उल्लेख है।
गाय से सम्बन्धित दशम् मण्डल के दो सूक्त (सूक्त संख्या 19, 169) ही हैं जिनमें ‘गावी देवता’ की प्रशंसा की गयी है। यज्ञानुष्ठानों में पुरोहितों को दक्षिणा के रूप में गाय और बैल दिये जाते थे।
पूर्व वैदिक युग के अधिकांश युद्ध पशुधन के रूप में गाय की प्राप्ति के लिए हुए हैं। ऋग्वेद में गाय को ‘अघन्या’ (न मारने योग्य) कहा गया है किन्तु अतिथियों के स्वागत में गोमांस का विशेष महत्व था, जैसा कि विवाह सूक्त में वर्णित है।
रोमिला थापर का मत है, सामान्य रूप से गोमांस खाना वर्जित था, परन्तु कुछ विशेष अवसरों पर गो मांस खाना शुभ समझा जाता था।’
गायों को चरने के लिए कृषि योग्य भूमि के बीच चारागाह छोड़ा जाता था। गायों की चोरी अथवा गायब होने के अनेक उल्लेख ऋग्वेद में आये हैं। जंगलों में चरने वाली गायों को चिन्हांकित (कान पर मालिक द्वारा लगाया गया विशेष चिन्ह) किया जाता था। समाज मैं गायों के चमड़े से बनी हुई विभिन्न वस्तुयें प्रयुक्त की जाती थीं इस काल में गाय मूल्य का माप होती थी।
पूर्व वैदिक समाज में गाय का महत्त्व वस्तुत: आर्थिक और धार्मिक दोनों दृष्टियों से था। आर्यजन सामान्यत: गाय को देवक पशु मानते थे और श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करते थे। ऋग्वेद में कहा गया है-‘जो घर गायों के रहने योग्य नहीं है, उसमें ऐश्वर्य नहीं हो सकता है। इस प्रकार पूर्व वैदिक युग में गाय को धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया था जिसके फलस्वरूप ऋग्वेद में गाय का अन्य पशुओं की अपेक्षा अधिक वर्णन किया गया है।
पूर्व वैदिक युग में, गाय के अतिरिक्त बैल को दूसरा स्थान दिया गया है। बैल को शक्ति और प्रजननशीलता का प्रतीक माना गया था। बैल को मुख्यत: कृषि में हल चलाने और भारवहन के लिए प्रयुक्त किया जाता था। यज्ञ और उत्सवों में बैल के मांस का प्रयोग खाद्य-पदार्थ के रूप में किया जाता था। इस युग के अन्य पशुओं में भेड़, बकरी, भैंस, ऊँट, गधा, घोड़ा, हाथी के उल्लेख मिलते हैं। भेड़-बकरियों का प्रयोग अधिकांशतः भोज्य पदार्थ के रूप में किया जाता था इसके अलावा भेड़ों से प्राप्त ऊन से वस्त्र निर्माण किया जाता था। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि कभी-कभी हल्की गाड़ी खींचने के लिए बकरों को भी प्रयुक्त किया जाता था। भैंस से आर्यजनों को दूध और घी मिलता था, साथ ही भैंसा का प्रयोग हल और गाड़ी खींचने में किया जाता था। ऊँट और गधे का उपयोग गाड़ी खींचने और भारवहन के लिए होता था कभी-कभी ऊँट पर सवारी भी को जाती थी।
इस काल का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पशु घोड़ा था। जिसे ऋग्वेद में अग्नि और सूर्य का प्रतीक माना गया है। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि युद्ध के समय आर्यों के रथों में घोड़े जुते होते थे। रथों के अतिरिक्त घोड़े का उपयोग बोझा ढोने और गाड़ी खींचने में किया जाता था ।
कतिपय विद्वानों का मत है कि आर्यजन अश्वारोहण नहीं करते थे किन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं है। कतिपय विद्वान मानते हैं कि आर्यजन हाथियों से परिचित नहीं थे, किन्तु प्रो० अविनाश चन्द्र दास ने ऋग्वेद के अन्त: साक्ष्यों से निष्कर्ष निकाला है कि हाथी के अन्य पर्यायवाची शब्दों ‘इभ’ और ‘वारण का प्रयोग ऋग्वेद में किया गया है साथ ही एक स्थान पर अंकुश द्वारा हाथी को परिचालित करने का भी उल्लेख है। अत: संभावना व्यक्त की जा सकती है कि आर्यजन हाथियों से परिचित थे और उन्हें पालतू बनाने के ज्ञान से अवगत थे
कृषि – Rigvedic culture in hindi
ऋग्वैदिक आर्य कृषि कर्म से पूर्णत: परिचित हो चुके थे। ऋग्वेद में कृषि से सम्बन्धित उपकरणों और कार्यों का विस्तृत विवरण मिलता है। इस काल के प्रमुख कृषि उपकरणों में खनितृ (कुदाल), परशु, कुलिश, वृक्ष, स्वपिति (कुल्हाड़ी), वाशी (वसुला) आदि उल्लेखनीय हैं।
कृषि से सम्बन्धित जिन कार्यों और वस्तुओं की ओर ऋग्वेद में संकेत किया गया है, उनमें पके अन्न (फसल) को काटने के लिए हँसिया (दात, या सुणि) का उपयोग, अन्न (फसल) का बोझ या गट्ठर (पर्श), खलिहान (खल) चलनी (तितौ), सूप (सूर्पा) आदि का उल्लेख प्रमुख है। इस काल में हल (सीर) बैलों द्वारा खींचने का उल्लेख मिलता है।
हलो से निर्मित हराइयों (सीता) में बीज बोया जाता था। फसल की सिंचाई के लिए सम्भवत: कृत्रिम सिंचाई के साधनों का प्रयोग भी किया जाता था। ऋग्वेद में उल्लिखित खनित्रभा आप:’ से कृत्रिम सिंचाई का संकेत मिलता है। सिंचाई के लिए नालियों (कुल्पा) का उल्लेख भी ऋग्वेद में हुआ है। फसल तैयार होने के बाद उसे हँसिये से काटा जाता था और गट्ठरों में बाँधकर खलिहान में लाया जाता था। तत्पश्चात् दवाई के माध्यम से अन्न को फसल से अलग करके सूप से साफ किया जाता था। इस काल के प्रमुख फसलों में यव (जौ) और धान्य का उल्लेख मिलता है । विद्वानों की धारणा है कि यव और धान्य सामान्यत: सभी खाद्यान्नों के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
व्यवसाय एवं उद्योग-
पूर्व वैदिक काल में विकासशील कृषि कर्म और आर्यों के स्थायी जीवन ने अनेक व्यवसायों और उद्योगों को जन्म दिया युद्ध प्रधान समाज में रथों का उपयोग सर्वमान्य था।
रथों के निर्माण के लिए बढ़ईगीरी (तक्षन्) का उद्योग विकसित हुआ। बढ़ई रथों के अलावा कृषि उपकरणों और लकड़ी के बर्तनों का निर्माण भी करता था ऋग्वेद में नारवं के निर्माण का उल्लेख भी है। कृषि में माल ढोने के लिए गाड़ियों (अनस्) का उपयोग होता था, जिसे बढ़ई बनाता था। इस प्रकार बढ़ईगीरी का उद्योग समाज में अत्यधिक विकसित था।बढ़ईगीरी, में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों में कुलिश (कुल्हाड़ी) वसूला आदि हैं।
इस काल का दूसरा महत्त्वपूर्ण उद्योग धातु कर्म था, जिसे लुहार करता था लुहार धातुओं को भट्ठी में गलाकर विभिन्न प्रकार के युद्धास्त्र, बर्तन और उपकरण का निर्माण करता था। उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में धातु के लिए अयस्’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, किन्तु अयस् किस धातु के लिये प्रयुक्त किया गया है, कहना कठिन है।
पुरातात्विक दृष्टि से लोहे का उपयोग पूर्व वैदिक काल के बाद मानव द्वारा किया गया। अत: विद्वानों की धारणा है कि ऋग्वेद में ‘अयस्’ शब्द सम्भवत: ताँबे या काँसे के लिए प्रयुक्त किया जाता था। यह भी संभावित है कि ‘अयस्’ शब्द एक से अधिक धातुओं के लिए प्रयुक्त किया गया रहा हो। ऋग्वेद में ‘स्वर्णकार’ का उल्लेख यद्यपि नहीं हुआ है, किन्तु विद्वानों का मत है कि सोने का व्यवसाय प्रचलित था और आर्यजन सोने के आभूषणों का प्रयोग करते थे ।
इस युग के अन्य प्रमुख उद्योगों में चर्म शिल्प भी था, जिसे ‘चर्मण’ नामक शिल्पी साकार रूप देता था। चर्मण (चर्मकार) चमड़े से विभिन्न वस्तुओं धनुष की डोरी (प्रत्यंचा), रथ के विभिन्न भागों को बाँधने के लिए चर्मरज्जु ( चमड़े का पट्टा), घोड़ों की लगाम, चाबुक, चमड़े के थैले आदि का निर्माण करता था।
इस काल में नाई (वस) का व्यवसाय भी प्रचलन में आ चुका था।
इसके अलावा घरेलू उद्योगों में चटाई का निर्माण, वस्त्र निर्माण, सूत कातना, कपड़ों की सिलाई आदि उद्योग विकसित थे। घरेलू उद्योगों में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी पूर्व वैदिक युग में चिकित्सक (भिषज्) का व्यवसाय अति प्रतिष्ठित माना जाता था ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर वनस्पतियों की प्रशंसा की गयी है और उनके रोग निवारक शक्तियों का उल्लेख किया गया है ऋग्वेद के एक सूक्त में अनेक व्यवसायों के साथ भिषज् का भी उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में पशुबलि के प्रसंग में शमित’ का उल्लेख आता है जिसका तात्पर्य काटने वाले से’ है। संभवतः पशुक्ध’ व्यवसाय भी विकसित हो चुका था।
इसके अलावा इस युग में शिकार भी व्यवसाय का रूप ले चुका था। यद्यपि पूर्व वैदिक युग में अनेक उद्योग और व्यवसाय प्रचलित थे, किन्तु यहाँ यह निर्दि करना अनिवार्य है कि कोई भी व्यवसाय अथवा उद्योग वंशानुगत नहीं था। एक ही परिवार के अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा भिन्न-भिन्न व्यवसाय अपनाये जाने की स्वतंत्रता थी। ऋग्वेद का एक ऋषि कहता है, “मैं मन्त्र का रचयिता हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माँ चक्की पीसती है. धन की इच्छा से हम अलग-अलग व्यवसायों को अपनाते हैं।”
व्यापार और वाणिज्य-
ऋग्वेद में व्यापार-वाणिज्य का उल्लेख पूर्व वैदिक युग के विकसित अर्थव्यवस्था की ओर संकेत करता है। ऋग्वेद में धन की इच्छा से विदेश जाने का उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यजनों का व्यापार दूरस्थ प्रदेशों से होता था।
इस काल में क्रय विक्रय का साधन वस्तु-विनिमय था। समाज में गाय मूल्य की इकाई मानी जाती थी। ऋग्वेद में एक स्थान पर वर्णित ‘निष्क’ (सम्भवतः गले का आभूषण) को मूल्य की इकाई माना गया है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में सौ घोड़ों के साथ सौ निष्कों, के दान का उल्लेख है। विद्वानों का ऐसा मत है कि यहाँ निष्क का तात्पर्य हार नहीं है, अपितु मूल्य की एक निश्चित इकाई के रूप में निष्क का उल्लेख किया गया है। कतिपय विद्वान मानते हैं कि इस काल में उत्पादन से सम्बन्धित वस्तुओं में बाजार के नियमों पर आश्रित प्रणाली की व्यवस्था का ऋग्वेद में सर्वथा अभाव है।
‘ऋण’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के प्रारम्भिक अंशों में है, किन्तु केवल पारस्परिक व्यवहार के अर्थ में इसका प्रयोग किया गया है। ‘मूल्य’ के लिए ऋग्वेद में कोई शब्द नहीं मिलता है, यद्यपि बेचने-खरीदने से सम्बन्धित शब्द ‘विक्रीत’ का ऋग्वेद में उल्लेख हुआ है कुछ विद्वान् मानते हैं कि व्यापार ऋग्वैदिक समाज में अज्ञात था। मूलत: वस्तु-विनिमय का चलन था। रामशरण शर्मा का विचार है कि ऋग्वैदिक समाज मूलत: दान से सम्बन्धित अर्थव्यवस्था पर आधारित था।
पूर्व वैदिक युग के लोग समुद्र से परिचित थे अथवा अपरिचित, यह विवादास्पद है। कीथ जैसे विद्वान् मानते हैं कि आर्यों को समुद्र का ज्ञान नहीं था, जबकि मैक्समूलर, सिमर जैसे विद्वानों का मत है कि ऋग्वैदिक आर्य समुद्र से परिचित थे। ऋग्वेद में सरस्वती को समुद्र गामिनी कहा गया है। इसी प्रकार धन अर्जित करने के लिए समुद्र यात्रा का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में सौ पतवार वाली नाव का उल्लेख हुआ है, जिसके द्वारा अश्वन् देवों ने भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।
इस प्रकार ऋग्वेद के विभिन्न उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि आर्यजन समुद्र से पूर्णत: परिचित थे और धन की इच्छा से समुद्र की यात्रा भी करते थे। अत: माना जा सकता है कि पूर्व वैदिक युग के लोगों को सामुद्रिक व्यापार के विषय में जानकारी थी। व्यापारिक संदर्भ में ऋग्वेद में उल्लिखित ‘पणि’ के विषय में चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है। ऋग्वेद में ‘पणि’ को धनी, गायों को चुरा लेने वाला स्वार्थी, अयाज्ञिक और अज्ञानी कहा गया है। ऋग्वेद में वर्णित ‘पणि’ कौन थे? इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् पणि को यहाँ का मूल निवासी और आर्यों से भिन्न जनजाति का मानते हैं, जबकि कुछ अन्य विद्वान् संभावना व्यक्त करते हैं कि ‘पणि’ सम्भवतः आर्य सामुद्रिक व्यापारी थे, जिन्होंने आर्य संस्कृति का प्रचार पश्चिम में किया। अल्तेकर महोदय पणि को हड़प्पा संस्कृति का निवासी मानते हैं। पूर्व वैदिक युग के बाद की शताब्दियों में पणिक (वणिक्) और पण्य तथा विपणि शब्द संस्कृत में व्यापार-वाणिज्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
अत: कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक युगीन पणि का सम्बन्ध भी व्यापार से था। ऋग्वेद में वर्णित यात्रा के प्रमुख साधनों में शकट (गाड़ी) नावों और अश्वों का उल्लेख हुआ है। रथों का उपयोग यात्रा और युद्ध दोनों में होता था ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि यात्रा को निष्कंटक बनाने के लिए पूषन् नामक देवता की उपासना की जाती थी। इस प्रकार प्रतीत होता है कि पूर्व वैदिक युगीन आर्यजन धीरे-धीरे आद्यकालीन अल्प विकसित अर्थतन्त्र को छोड़कर विकसित अर्थतंत्रात्मक पद्धति की ओर बढ़ रहे थे, जिसमें उनके यायावरीय जन-जीवन की समाप्ति के साथ कृषि और पशुपालन का विकास हुआ और इसी के साथ अने उद्योगों, व्यवसायों का उदय हुआ जिससे व्यापार- वाणिज्य में प्रगति हुई, जिसका विकसित रूप उत्तर वैदिक काल में दिखायी पड़ता है।
ऋग्वैदिक संस्कृति का धार्मिक जीवन:-
पूर्व वैदिक युगीन धर्म प्रधानत: बहुदेववादी और यज्ञीय परम्परा का था। इस काल के अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियों से सम्बद्ध हैं, जिनमें मानवीकरण द्वारा देवत्व आरोपित किया गया है। यास्क के निरुक्त में ऋग्वैदिक तीन देवताओं के उल्लेख हैं पृथ्वीस्थानीय अग्नि. अन्तरिक्ष. स्थानीय वायु या इन्द्र और द्युस्थानीय सूर्य। यहीं तोन देवता तीन लोकों के अधिष्ठाता माने गये हैं, जिनकी संख्या तैंतीस बतायी गयी है। यद्यपि ऋग्वेद में देवताओं की संख्या तैतीस से अधिक मानी जाती है। तैंतीस देवताओं में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, दयी और पृथ्वी माने जाते हैं। देवताओं के इस विभाजन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए प्रो० गोविन्द चन्द्र पाण्डे का मत है, ‘इस प्राचीन वर्गीकरण में एक मूल सिद्धान्त है जो कि मानव स्वभाव और लोक विस्तार को तीन भूमियों में विभक्त करता है।”
इसके अतिरिक्त कतिपय अन्य विद्वान् पूर्व वैदिक देवताओं के अन्य वर्गीकरण भी प्रस्तुत किये हैं। पो० मैक्डानल के अनुसार, देवताओं का वर्गीकरण इस प्रकार है – आकाशीय देवता, अन्तरिक्ष देवता, पार्थिव देवता. अमूर्त देवता, देवियाँ, देवता इन्द्र, समूह-देवता. अवर देवता। इसी प्रकार प्रो० ब्लूमफील्ड ने ऋग्वैदिक देवताओं को प्रागैतिहासिक देवता, स्पष्ट देवता, अर्द्ध स्पष्ट देवता के रूप में विभाजित किया है। उपरोक्त विभाजनों को विद्वान् किसी आधारभूत सिद्धान्त के अनुरूप नहीं मानते हैं। अत: यह विभाजन औचित्यपूर्ण नहीं लगते हैं। पूर्व वैदिक युग के सभी देवताओं में कुछ विशिष्ट लक्षणों की परिकल्पना की गयी है, जो उनमें समानता प्रदर्शित करती है और मनुष्य से उनका अन्तर स्पष्ट करती है। देवताओं की प्रमुख विशिष्टताओं में अमृतत्व प्रमुख गण है जो उन्हें मर्त्य मनुष्यों से भिन्न करता है। इसके अतिरिक्त उन्हें ज्योतिर्मय, अचिन्त्य, चेतन, शक्तिमान, जगतस्रष्टा, जगद्धारक सत्यधर्मा, मनुष्य का हित करने वाला, न्यायप्रिय और दयालु कहा गया है। सभी देवताओं का सम्बन्ध ‘ऋत’ से जोड़ा गया है।
ऋत् की अवधारणा-
पूर्व वैदिक युग में ऋत की अवधारणा का विशेष महत्त्व था। ऋग्वेद में देवताओं को ‘ऋतस्य गोपा’ और ‘ऋतायु’ कहा गया है। ऋ्वेद में कहा गया है कि ‘नदियाँ” ऋत से बहती हैं। ऋत से चलती हुई समा ने गायों को प्राप्त किया. “मित्र और वरुण परम व्योम में ऋत के रक्षक हैं, वे सूत्यधर्मा हैं ।”ऋत’ का चक्र आकाश में घूमता रहता है।ऋत की व्युत्पत्ति ‘ऋ’ धातु से मानी गयी है जिसका अर्थ. गति और गति का मार्ग, हेतु और लक्ष्य किया जाता है।
विद्वानों ने इसका लाक्षणिक अर्थ विधारक नियम माना है। वस्तुत: ‘ऋत’ प्राकृतिक नियमबद्धता और नैतिक विधान का निरूपण करने वाला माना गया है।
ऋग्वेद में ऋत, सत्य और देवता को एक साथ सम्बद्ध किया गया है।
प्रो० गोविन्द चन्द्र पाण्डे के शब्दों में, “परम व्योम में अवस्थित देश कालातीत ऋत सष्टि का मूलतत्व और नियामक है. उसका प्रतिदर्श और आदर्श है। व्यक्त जगत में नाना पदार्थ और घटनाएँ जिस एक अदश्य महा सत्र में व्यवस्थित हैं, वही ऋत है। पश्चिमी चिन्तन में ‘प्राकृतिक नियम’ की कल्पना ऋ्त या धर्म को कल्पना से तुलनीय है। विश्व के प्रतिमानभत ऋत की अनुरूपता ही विषयों को सत्यता प्रदान करती है। उसकी अनुसारिता ही क्रिया या गति को सही. ठीक या.उचित बनाती है। ऋतानसारिता ही आचार और व्यवहार की नैतिकता का आधार है । ऋत का प्रतीकात्मक प्रतिरूपण और उसका अर्थानध्यान ही उपासना या यज्ञ का सार है। इसलिए यज्ञ या याज्ञिकता भी ऋत ‘पद’ वाच्य है। प्रकृति का नियम आचार व्यवहार का नियम और अनुष्ठान का नियम, ये तीन ऋत के मुख्य रूप हैं। दोनों मिलकर प्राकृतिक और मानवीय जगत को प्यार करते हैं और उसे एक नियत, व्यवस्थित् और सार्थक इकार्ड बनाते हैं।”
ऋग्वेद में देवताओं को ऋतव्रत कहा गया है। देवताओं का दायित्व ब्रह्माण्डीय व्यवस्था को व्यवस्थित करने के अलावा नैतिक आचार-विचार का संरक्षण भी माना गया है। ऋत से प्रेरित देवता दुष्ट जनों का विनाश करते हैं और साधु जनों का संरक्षण करते हैं। ऋग्वैदिक देवताओं में ऊँच-नोच की भावना नहीं दिखायी पड़ती है।
ऋग्वेद ‘एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति’ की उद्घोषणा करता है। जिसमें विभिन्न देवताओं का स्थान एक ब्रह्म ने ले लिया और इस प्रकार ऋग्वेद का बहुदेववाद एकसत्तावाद में परिवर्तित दिखायी पड़ने लगता है।
पूर्व वैदिक युग के बाद ‘ऋत’ का उल्लेख परवर्ती वैदिक संहिताओं में नहीं मिलता है। प्रो० गोविन्द चन्द्र पाण्डे के अनुसार, “परवर्ती वैदिक युग में देवताओं का स्थान ब्रह्म ने. ऋत का धर्म ने ले लिया और पुरुष से अधिक प्रचलन आत्मा का हो गया। यज्ञ का स्थान उपासना और अन्तत: ज्ञान ने ले लिया और अन्तिम ज्ञान था आत्मा और ब्रह्म का अद्वैत प्रतिपादक ज्ञान । पर्व वैदिक युग के मुख्य विचार पद हैं-ऋत और देवता, पुरुष और यज्ञ अपर वैदिक युग के प्रत्यय हैं-ब्रह्म, आत्मा, उपासना, ज्ञान और धर्म.। तब से आज तक ये प्रत्यय भारतीय चिन्तन को प्रकाशित करते आये हैं।”
देवमण्डल-
पूर्व वैदिक युगीन देवमण्डल में प्रधान देवता इन्द्र और अग्नि हैं । इस युग के अन्य प्रमुख देवताओं में द्यौः, पृथ्वी, वरुण, मरुत, सोम, विष्णु विश्वेदेवा, आप:, मित्र, सूर्य, सविता, पूषन्, वात, पर्जन्य, वृहस्पति आदि उल्लेखनीय हैं।
ऋग्वैदिक कालीन देवमण्डल में देवियों का स्थान गौण था। इस काल की प्रमुख देवियों में ऊषा, अदिति, सरस्वती का उल्लेख किया जा सकता है।
प्रो० जी० सी० पाण्डे का मत है कि ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में दो प्रकार की आध्यात्मिक और सामाजिक परम्पराएँ थीं। एक पुरुष देवता प्रधान और पितृसत्तात्मक दूसरी स्त्री देवता प्रधान और मातृसत्तात्मक। बहुधा इस भेद को आर्य और द्रविड़, वैदिक और तान्त्रिक तथा निगम और आगम की परम्पराओं के भेद से जोड़ा गया है।
इन परम्पराओं की प्राचीनता एवं प्रजाति सम्बन्ध अविदित हैं, पर ऐतिहासिक काल में सामाजिक-सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का भेद देखा जा सकता है। पूर्व वैदिक आर्यजनों ने सम्भवत: सर्वप्रथम द्यौः (आकाश) को देवत्व प्रदान कर पिता के रूप में उसकी उपासना की और माता के रूप में पृथ्वी को सम्मान दिया। इस प्रकार ऋग्वेद में ‘द्यावा-पृथ्वी को माता-पिता के रूप में देवत्व की अवधारणा का विकास हुआ। स्पष्टत: आर्यजनों के लिए आकाश अपने अनन्त विस्तार और प्राकृतिक घटनाओं जैसे वर्षा, बिजली और सूर्य, चन्द्र तारागणों के उदय और अस्त होने आदि के कारण तथा पृथ्वी अपनी उर्वरा शक्ति और पोषण शक्ति के कारण श्रद्धा का केन्द्र विन्दु बनी होगी |
ऋवैदिक देवमण्डल के पृथ्वी स्थानीय देवताओं में अग्नि प्रमुख माने गये हैं। ऋवेद के 200 सूक्त अग्नि की स्तुति में हैं। अग्नि को पिता एवं गृहपति कहा गया है। अग्नि का मुख्य कर्म, इवि का वहन, देवताओं का आवाहन और प्रकाश विषयक व्यापार माना गया है। हव्य वहन और देवताओं के आवाहन करने के कारण अग्नि को पुरोहित कहा गया है गृह प्रकाशमान करने और ऊष्मा प्रदान करने के कारण ऋग्वेद में अग्नि को गृहपति कहा गया है। इसीलिए उनकी तुलना पिता से की गयी है। उन्हें ‘तम का विनाशक की संज्ञा प्रदान की गयी है। अग्नि को मानव और देवताओं का 1 मध्यस्थ कहा गया है।
अग्नि की उत्पत्ति अन्तरिक्ष में जल (मेघों की टकराहट में बिजली के रूप में) तथा लकड़ी के घर्षण से मानी गयी है। आकाश में सूर्य के रूप में अग्नि को नित्य स्थित माना गया है। इस प्रकार तीनों लोकों में विद्यमान होने के कारण त्रिषधस्थं की संज्ञा दी गयी है। आध्यात्मिक जगत् में अग्नि की ज्ञान से अभिन्नता प्रकट की गयी है। अत: अग्नि की मुख्य भूमिका देवताओं से मनुष्यों को जोड़कर ज्ञान मार्ग (सचे मार्ग) पर ले जाने में मानी गयी है। इस प्रकार अग्नि विवेकात्मक और भावनात्मक ज्ञान के द्वारा मानव के सामाजिक, नैतिक और धार्मिक उत्थान में अहम् भूमिका निभाता था। अग्नि को विभिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे पृथ्वी पर अग्नि, पवमान, मध्यलोक में जातवेदस दिव्यलोक में शकचि या वैश्वानर आदि।
पूर्व वैदिक युग का सर्वाधिक प्रसिद्ध देवता इन्द्र था। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति में 250 सूक्तों की रचना की गयी है। ऋग्वेद में इन्द्र को युद्ध का नेता, पराक्रमी, सेनापति, पुरन्दर, शत्रु का वध करने वाला और विजय प्रदान करने वाला कहा गया है। ऋग्वेद में इन्द्र को सर्वाधिक शक्तिशाली देवता माना गया है। उसे आकाश, पृथ्वी, जल और पर्वतों का राजा कहा गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि दोनों लोक उसकी मुट्ठी में आ सकते हैं। बह पृथ्वी से दस गुना बड़ा है। वह स्वेच्छा से कोई भी रूप धारण कर सकता है। इन्द्र को वृत्र का वध करने वाला कहा गया है। इन्द्र को रस प्रदाता और वृष्टिकर्ता भी माना गया है।
प्रो० गोविन्द्र चन्द्र पाण्डे के शब्दों में “इन्द्र द्वारा वृत्र का वध आधिभौतिक संग्राम नहीं है, जो खेत और गोधन के लिए लड़ा जाता था, वल्कि मूलतः यह आध्यात्मिक स्तर पर ज्योति और तम का संग्राम है । वृत्र का अर्थ है, ढकने वाला । यह आवश्यक तत्त्व हो तम या अज्ञान है, जिसे वृत्र नाम दिया गया है । बृत्र व्ध आख्यान में कहा गया है कि वृत्र ने सब गायों को हांककर एक गुफा में छिपा दिया। इन्द्र ने वन से वृत्र की वधकर गायों को खोल दिया और प्रवाहित किया। गो शब्द का आध्यात्मिक स्तर पर अर्थ प्रकाशरशि्मि या जञानदीति है। इसके अलावा प्रो० पाण्डे ने वत्र वध का आधिदैविक अर्थ भी स्पष्ट किया है। उनके अनुसार आधिदैविक स्तर पर ‘गो’ शब्द का अर्थ जलधारा है। वत्र में उर्वरता अथवा सष्टि के मूलभूत रस का शोषण किया और इन्द्र ने हृदय गहा को बन्द करने वाली शिला सी कठोरता को वज्र से भंग किया, जिससे फिर से रस का संचार हो सके इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि इन्द्र में सात नदियों को बचाया। बादलों को चट्टान व. बिजली क़ो वज कहा गया है। जिसकी कड़क से मेघादि के कटने पर वर्षा प्रवाहित होती है ।
इस प्रकार कृत्र वध के आख्यान का आधिभौतिक अधिदैविक और आध्यात्मिक अर्थ किये गये हैं। वत्र वध आधिभौतिक स्तर पर सूखे या अकाल को मिटाने अथवा गोधन के लिए संघर्ष सूचित करता है। आधिदैविक स्तर पर वर्षा के द्वारा अकाल से मुक्ति का और हृदय की कठोरता से मुक्त होकर रस के संचार का प्रतीक है। आध्यात्मिक स्तर पर विवेक रूपी बत्रा से अन्धकार के नष्ट होने पर ज्ञान के उदय का पर्याय है। ऋग्वेद में इन्द्र को वुत्र वध के अलावा निन्यानवे बाहूओं बाले उसण तीन सिर और छ: आँखों वाले विश्वरूप नामक राक्षसों के वध और अबुंद को पैरों के नीचे कुचल कर मारने का भी श्रेय दिया जाता है।
इसके अतिरिक्त इन्द्र से जुड़े अनेक आख्यान ऋग्वेद में वर्णित हैं, जिनमें सूर्य के घोड़ों को रोकना, ऊषा के रथ को तोड़ना, दाशराज्ञ युद्ध में सुदास की सहायता करना, पणियों से सरमा की गायों को मुक्त करना और सोम को चुराने के लिए अपने पिता त्वष्टा का वध करना आदि हैं। प्रो० पाण्डे के अनुसार सभी आख्यान आध्यात्मिक रूपक प्रतीत होते हैं । ऋग्वेद में उसे सोमपा कहा गया है। इन्द्र को सोम रस अत्यधिक प्रिय था। ऋग्वेद के आधार पर कतिपय विद्वान् इन्द्र के पुरन्दर होने का तात्पर्य आर्य-अनार्य युद्ध में सैन्धव सभ्यता के पुरों के पतन का उत्तरदायी मानते हैं। प्रो० पाण्डे का मत है. “इन्द्र शक्ति के देवता हैं उन्हें अनार्यों के विरुद्ध संघर्ष में आयों का युद्ध देवता मानना एक कल्पना मात्र है। प्राचीन पश्चिम एशियायी जातीय देवताओं की तरह इन्द्र को आर्यजातीय देवता और फिर आर्य-अनार्य संघर्ष मानना दोनों ही बातें प्रमाणित नहीं हैं। यह मानना है कि इन्द्र के नेतृत्व में आर्यों ने सैन्धव सभ्यता नष्ट की, यह और भी अप्रमाणित है।”
ऋग्वैदिक काल के अन्य प्रमुख देवताओं में वायु का ऊंचा स्थान है जिसे इन्द्र के समकक्ष अन्तरिक्ष स्थानीय देवता कहा गया है ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में इन्द्र और वायु को संयुक्त रूप में स्तुति की गयी है। वायु को विश्वरूप की श्वास से सम्बद्ध बताया गया है। उन्हें सोम का रक्षक और सुविपाः कहा गया है। उन्हें आंधी या तूफान के रूप में ‘वात’ कहा गया है। आधिभौतिक स्तर पर वायु को गति और प्रवृत्ति का द्योतक माना गया है।
ऋग्वेद में मरुदगणों का उल्लेख तैंतीस सूक्तों में किया गया है जिनमें से सात सूक्तों में मरुद्गणों की स्तुति इन्द्र के साथ और एक-एक सूक्तों में अग्नि और पूषन् के साथ की गयी है मरुद्गणों को रुदर का पुत्र कहा गया है। इनकी माता पृश्न थी जिसे ‘चितकबरी गाय ‘ माना गया है । कतिपय विद्वान् पृश्नि को ‘तूफानी’ और ‘वर्षक मेघमाला’ मानते हैं। समुद्री जल राशि ही मरुद्गणों को माता है। वर्षा मेघों को पर्जन्य’ कहा गया है, जिनके माध्यम से मरुद्गण वर्षा करते हैं। इस प्रकार वर्षा-वायु ही पर्जन्य’ एवं ‘मरुद्गण’ माने जाते हैं। मरुद्गणों को इन्द्र का सहायक कहा गया है। मरुत् उच्च कोटि के गायक थे, जिन्होंने वृत्रासुर वध पर इन्द्र का स्तवन किया था मस्दूगं के पिता के रूप में उल्लिखित रुद्र का ऋग्वेद के तीन मुक्तों में विवरण मिलता है रुद्र को महाबली और भीषण देवता माना गया है कालान्तर में रुद्र का समीकरण शिव के साथ किया गया। उत्तर वैदिक काल में रुद्र का महत्त्व बढ़ता हुआ दिखायी पड़ता है।
ऋग्वैदिक काल के द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य. सविता, मित्र और वरुण, पृषन् एवं अश्विन्, आदित्य और विष्णु मुख्य माने गये हैं। ऋग्वेद के दस सूक्तों में सूर्य की स्तुति की गयी है। सूर्य को जगत् का प्रकाश और दृक् शक्ति का प्रतीक माना गया है। उनकी उत्पत्ति विराट् पुरुष के नेत्रों से मानी गयी है। अदिति से उत्पन्न होने के कारण इन्हें आदित्य कहा गया है। सूर्य के रथ में सात घोड़ों की परिकल्पना वस्तुत: प्रकाश की सात किरणों का प्रतीक मानी गयी है। ऋतु एवं काल का निर्धारक होने के कारण इन्हें चक्र की संज्ञा प्रदान की गयी है। इस प्रकार सूर्य प्रकाश, जीवन और काल के कारक के रूप में सर्वसाक्षी विश्वात्मा कहे गये हैं।
ऋग्वेद के ग्यारह सूक्तों में सविता का स्तवन किया गया है।
ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि सविता सूर्य का ही पर्याय है। सूर्य की सत्ता केवल दिन में दिखायी देती है किन्तु सविता से दिन में दिखायी देने वाले सूर्य और रात्रि में अव्यक्त सूर्य दोनों का रूप प्रतिभासित होता है। सविता का मुख्य कार्य पाप विमोचन माना गया है। प्रसिद्ध गायत्री या सावित्री मन्त्र के देवता भी सविता हैं, जिनमें सविता से सद्बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गयी है। ऋग्वेद में कहा गया है कि हे सविता हमने अपनी दुर्बुद्धि दुर्बलता और मानवीय प्रकृति के कारण देवों के प्रति जो अपराध किया है, उससे उद्भुत पाप से तू हमारा उद्धार कर दे। इस प्रकार सविता को सुमति प्रदान करने वाला कहा गया है। सविता के अलावा सौर वर्ग के एक अन्य देवता पूषा हैं जिन्हें पशुओं का रक्षक और मार्ग का निर्माता एवं ज्ञाता कहा गया है। पूषा को नष्ट वस्तु का ज्ञाता भी कहा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूषा चरवाहों और यात्रियों के देवता थे।
पूर्व वैदिक देव मण्डल में अश्विनदेवों का उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अश्विन देवों को भी सौर परिवार का प्रकाशात्मक देवता माना गया है। अश्विनदेव युग्म देवता हैं। इन्हें ऋग्वेद में नासत्य’ कहा गया है। ऋग्वेद में अश्विनदेवों को चिकित्सक के रूप में उल्लिखित किया गया है। इनके अनेक चमत्कारिक कार्यों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अश्विनदेवों ने च्यवन को नवयौवन प्रदान किया। भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया। ऋजाश्व को दृष्टि दान किया। विश्पला को लोहे का पैर और घोषा को पति प्रदान किया। इस प्रकार आश्विन देवों के अनेक उपलब्धियों का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। आधिदैविक दृष्टि से अश्विनदेव प्रातः सायं तारों के युग्म प्रतीत होते हैं।
ऋग्वेद में आदित्य को अदिति का पुत्र कहा गया है। आदित्यों की संख्या अनेक है जिनमें मित्र, अर्यमन्, भग, वरुण, दक्ष और अंश का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अर्यमन अतिथियों के देवता माने गये हैं। भग को सौभाग्यदाता कहा गया है। अंश को भी भग के समान माना गया है। दक्ष को निर्माता के रूप में माना गया है। सभी आदित्य शुभ और सत्य के प्रतीक माने गये हैं। कालान्तर में आदित्यों की संख्या बारह मानी गयी, जो सम्भवत: वर्ष के बारह मास के प्रतिनिधि थे। मित्र का उल्लेख अधिकांशतः वरुण के साथ मिलता है।
ऋग्वेद के देवमण्डल में वरुण का प्रमुख स्थान है। इनके स्तवन में अनेक सूक्तों की रचनाएँ की गयी हैं। वरुण का सम्बन्ध राजसत्ता से माना गया है। वे लोगों के पाप-पुण्य कर्मों का अवलोकन करते हैं। वरुण के द्वारा नियुक्त हजारों निरीक्षक उन्हें गोपनीय सूचना देते हैं। विद्वानों ने सहस्रों निरीक्षक का तात्पर्य रात्रिकालीन तारों को माना है। ऋग्वेद में मित्रावरुण के लिए’ असूर शब्द प्रयुक्त हुआ है और उनकी माया का विवरण दिया गया है। उन्हें ऋत का रक्षक (ऋतावन, ऋतस्य गोपा) कहा गया है। उनके द्वारा पापियों को दण्ड देने का उल्लेख मिलता है और उन्हें नैतिकता का नियामक माना गया है। ऋग्वेद में विष्णु की स्तुति पाँच सूक्तों में की गयी है। ऋ्वेद में उनके त्रिविक्रम (अर्थात तीन पग में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नापने वाला) रूप का वर्णन मिलता है। उनका निवास परम व्योम
में बताया गया है, जहाँ भूरिश्रृंग गायें निवास करती है उनके अनेक नाम उरुगाय, त्रिविक्रम, परम व्योमस्थ ऋग्वेद में वर्णित है। विद्वानों ने विष्णु के तीन पगों को सूर्य के उदय, मध्याह्न और अस्त तीन स्थितियों का द्योतक माना है तीन लोक विष्णु के तीन पग माने गये हैं। उन्हें सर्वव्यापी तथा सर्वातिशायी सूर्य के तेज से अभिन्न बताया गया है। ऋग्वेद के ग्यारह सूक्तों में वृहस्पति की स्तुति की गयी है ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋत उनका रथ है, ऋत उनकी प्रत्यंचा, (धनुष की डोरी) है। उनका जन्म ज्योति से हुआ है। उनकी वाणी से अन्धकार भागता है। उन्हें सप्तमुख और सप्तरश्मि भी कहा गया है ऋग्वेद में उन्हें पुरोहित और मंत्री के रूप में उल्लिखित किया गया है।
पूर्व वैदिक युग के देवमण्डल में सोम का महत्त्वपूर्ण स्थान था। ऋग्वेद के 120 सूक्तों में सोम की स्तुति की गयी है। प्रो० पाण्डे के अनुसार ” अपने आधिभीतिक रूप में सोम एक औषधि विशेष का नाम है, जिसका रस यज्ञ में देवताओं को प्रदान किया जाता था देवताओं का प्रिय होते हुए सोमरस इन्द्र को विशेष रूप से प्रिय था सोम को आधिदैविक रूप में चन्द्रमा से अभिन्न बताया गया है, पर यह कल्पना कब से सोम के लिए नियमत: लागू हुई, यह कहना कठिन है। आध्यात्मिक स्तर पर सोम रस या आनन्द ही है। अपने भावनात्मक और भाव्यात्मक पक्षों में यह रस भक्ति की ही दो अवस्थाएँ–अपरा और परा को सूचित करती है।”ऋग्वेद में कृषि ( खेती) के प्रमुख देवता क्षेत्रपति, शनु और सीर का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में यद्यपि देवताओं की प्रधानता थी, किन्तु देवियों की उपेक्षा नहीं की गयी है। इस काल की प्रमुख देवियों में अदिति और उषा का उल्लेख विशेष रूप से किया गया है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने सूर्योदय से पूर्व रमणीय वेला को उषा देवी के रूप में मान्यता दी और उनका स्तवन किया। यह प्राकृतिक शक्ति के मानवीकरण का बोधक था। अदिति को प्रकृति माना गया है। ऋग्वेद में अदिति को माता-पिता, पंचजन, देवता और आकाश के रूप में सम्मान दिया गया है। अदिति को भूत और भविष्य कहा गया है। इस काल में नदियों को भी देवत्व प्रदान किया गया था जिसमें सिन्धु नदी को भी देवी माना गया था । ऋग्वैदिक आर्यों ने ‘आख्यानी’ की उपासना की, जिसे वनदेवी कहा गया है ।मानवीय बुद्धि का दैवीकरण करके उसे सरस्वती के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इस प्रकार पूर्व वैदिक युगीन आर्यों ने प्रकृति की अनेक शक्तियों को देवी के रूप में प्रतिष्ठित करके सम्मान दिया, जो उनके मातृसत्ता के प्रति आदर का सूचक है।
यज्ञ-परम्परा-
पूर्व वैदिक युग में आर्यजन पूर्णतः प्रवृत्तिमार्गी दिखायी पड़ते हैं । ऋग्वेद में सर्वत्र भौतिक सुख-सुविधाओं और भोगों को प्राप्त करने के लिए स्तुतियाँ की गयी हैं।
इस काल में देवताओं की उपासना का प्रमुख साधन यज्ञ और स्तुतियाँ थीं। देवताओं को मनुष्य की भोति प्रसन्न करने के लिए बलि दी जाती थी वैदिक यज्ञों में बलि गोरस, अन्न से बने पदार्थ और पशु की दी जाती थी, जिसे अग्नि को अर्पण किया जाता था उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में अग्नि को हव्य (हवन करने वाला) कहा गया है। ऐसा विश्वास था कि अग्नि में डाली गयी आहूति देवताओं तक पहुँच जाती है। ऋग्वैदिक आर्यों का प्रमुख लक्ष्य यज्ञ से स्वर्ग और ऐहिक सुख प्राप्त करना था।
ऋग्वेद में यज्ञ को देवताओं की प्रशस्ति कहा गया है। यज्ञ से देवताओं को बल प्राप होता है। इस काल में यज्ञीय स्वरूप सरल था। दिन में तीन बार आहुति डाली जाती थी। आहुति में घृत, दूध, अन्न से निर्मित पदार्थ घर की वेदी पर अग्नि में समर्पण किये जाते थे।
इस यूग में तीन प्रकार के यज्ञ प्रचलित थे-पाक यज्ञ, हर्वियज्ञ, और सोम यज्ञ। पाक यज्ञ घर की अग्नि में सम्पन्न किये जाते थे। जो आत्म संस्कार आत्मिक होते थे। पाक यज्ञ सात माने गये हैं – औपासन होम, वैश्वदेव, पार्वण, अष्टका, मासिक श्राद्ध, श्रावणा और शुलगव। इसी प्रकार हविर्यज्ञ भी सात हैं- अग्नि होत्र, दर्शपूर्ण मास, आग्रयण, चातुर्मास्य, पशु, सौत्रामणी और पिण्डपितृयाग।
हविर्यज्ञ गृह्याग्नि में सम्पन्न नहीं होते थे। यह यज्ञ आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षिण और सभ्य अग्नियों में सम्पादित किये जाते थे, जिनको अरणि मन्थन से प्रज्वलित किया जाता था।
इन सभी यज्ञों का विधान और समय अलग अलग निर्धारित किया गया है। इस युग का सर्वाधिक प्रसिद्ध यज्ञ सोमयाग माना जाता था, जिसमें प्रातः, मध्याह्न और सायं सोम का आसवन होता था, और सामूहिक रूप से ब्राह्मण मन्त्र पाठ करते थे। बढ़िया और सोम यज्ञ खर्चीले यज्ञ होते थे, जो सामान्य लोगों के लिए सम्पन्न करना संभव नहीं था।
बड़े यज्ञों का सम्पादन अधिकांशत: राजा या धनी वर्ग के लोगों द्वारा कराया जाता था। इन यज्ञों में प्रभूत मात्रा में सामग्री और अनेक पुरोहितों का सहयोग आवश्यक था। पुरोहितों को दक्षिणा प्रदान की जाती थी। ऋग्वेद में वर्णित यज्ञों के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक काल में यज्ञीय कर्मकाण्डों का पर्याप्त विकास हो चुका था ऋग्वेद में यद्यपि यज्ञों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है, किन्तु यज्ञशालाओं का उल्लेख नहीं हुआ है। विद्वानों की मान्यता है कि बड़े यजञ नदियों के तटों पर अस्थायी रूप से बनायी गयी पर्णशालाओं में सम्पन्न होते थे।
वैदिक यज्ञों के विषय में प्रो० पाण्डे का विचार द्रष्टव्य है-“सभी यज्ञों में देवता, मन्त्र और द्रव्य तीन तत्त्व होते हैं। इनके भेद और विस्तार से यज्ञों के भेद सम्पन्न होते हैं। पाक यज्ञ, हविर्यज्ञ और सोम याग में यह विस्तार बढ़ता जाता है और अल्पायास साध्य नित्य कर्मात्मक उपासना संवत्सर चक्र से जुड़े यागों में एवं विशेष प्रयोजनों के साधक यागों में बदल जाती है। सोमयाग में बहुत से ऋत्विजों का सहयोग, सामगान एवं सोमपान, उसे एक बड़े धार्मिक समारोह का रूप देते हैं। वैदिक दृष्टि सर्वत्र देवतत्व का प्रकाश देखती थी एक अनन्त शुभ शक्ति असंख्य रूपों में सृष्टि की मूल और नियामक है। मनुष्य में विवेक, श्रद्धा और तप की सहज क्षमता है। उसके सहारे वह ऋतात्म दिव्य विधान को पहचानकर उसका अनुसरण कर सकता है। यही उसकी ऋतचर्या या यज्ञ विधान है।”
पूर्व वैदिक युग में मानव के और्ध्वदैहिक क्रिया के विषय में भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद में मृत्यु के बाद दफनाने और दाहक्रिया दोनों का उल्लेख मिलता है। इस काल में अग्निदग्ध मृतक व्यक्ति के अस्थि अवशेषों को दफनाने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में अग्नि का उल्लेखन केवल हव्यवाहक (यज्ञीय अग्नि) के रूप में किया है, बल्कि कव्यवाहक ( अन्त्येष्टि अग्नि) के रूप में भी किया गया है। ऋग्वेद में क्रव्याद् अग्नि से कहा गया है कि वह मृतक को सर्वागपूर्ण शरीर प्रदान कर पितृ लोक पहुँचाए। ऋग्वेद के विवरण से ज्ञात होता है कि शव दाह क्रिया ही प्रमुख वैदिक क्रिया थी, जिससे औज़दैहिक क्रिया सम्पन्न की जाती थी। ऋग्वेद में स्वर्ग, अमरता और नरक का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वैदिक आर्यों में मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्त करने की लालसा दिखायी पड़ती है। इस काल में मोक्ष का कोई उल्लेख नहीं है। ऋग्वेद के कुछ मंत्रों में आत्मा पर विश्वास और पुनर्जन्म के विश्वास के संकेत अवश्य मिलते हैं जिनका विकास उत्तर वैदिक काल में दिखायी पड़ता है।
पिछली पोस्ट- इन्हें भी देखें
निष्कर्ष:-
इस प्रकार पूर्व वैदिक युग के धार्मिक जीवन का मूलभूत आधार ऋत और सत्य, देवता और पुरुष यज्ञ और सृष्टि तथा परलोक की अवधारणाओं का विकास था।
प्रो० गोविन्द चन्द्र पाण्डे के शब्दों में, “पूर्व वैदिक आध्यात्मिकता के आधारभूत ऋत और सत्य, देवता और पुरुष, यज्ञ, सृष्टि और परलोक की अवधारणायें रही हैं। इनको परम्परागत व्याख्याकारों ने कर्मकाण्ड के संदर्भ में ही समझा है। नवीन पाश्चात्य व्याख्याकारों ने इन्हें मिथकीय कल्पना की प्रसूति बताया है । किन्तु पूर्व वैदिक आध्यात्मिकता का आधार न मात्र कर्मानुष्ठान है, न पूरी कल्पना, उसका आधार देवोपासनामूलक स्वानुभूति है जो कि अपरोक्षता का सर्वोत्कृष्ट निदर्शन है, क्योंकि उन देवताओं के विषय में यही वैदिक निर्णय अन्तिम है कि एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।”
ध्यान दें:- यह वैदिक संस्कृति का प्रथम भाग है। जैसा कि अपने पढ़ा इसमें ऋग्वैदिक संस्कृति की व्याख्या की गई है। अगली पोस्ट में आपको उत्तर वैदिक काल की समस्त जानकारियां प्रदान की जायेंगी। जिसका link ऊपर दे दिया गया है। यह पोस्ट आपको किसी लगी comment में अवश्य बताएं।
धन्यवाद🙏
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय