Jain aur baudh dharm ke uday ke karan | जैन और बौद्ध धर्म के उदय के 5 कारण | Important Reasons for the rise of Jainism and buddhism in india

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Jain aur baudh dharm ke uday ke karan : छठी शताब्दी ई०पू० का काल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस समय न केवल भारतीय राजनीति बल्कि, धार्मिक, बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक क्रांतियां भी हुई। इस समय भारत में उत्तर वैदिक काल के जनपद महाजनपदों में परिवर्तित हो गए और समूचे भारत में 16 महाजनपदों का उदय हुआ जोकि राजनीतिक क्रांति को दर्शाता है।
उत्तर वैदिक काल के अंत के बाद इस समय में भारत में लौह उपकरणों के प्रयोग से कृषि समेत समस्त आर्थिक ढांचे में व्यापक परिवर्तन हुए। ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म के बदलते स्वरूप ने वर्ग असंतोष की स्थिति उत्पन्न की जिसका परिणाम यह हुआ कि इस समय न भारत में कई धर्मों का आविर्भाव हुआ।


इस प्रकार हम देखते हैं कि छठी-पांचवी शताब्दी ई०पू० में मध्य गंगा घाटी में जहां एक ओर साम्राज्यवाद का उदय हो रहा था और विशाल साम्राज्यों का गठन हो रहा था वहीं दूसरी ओर अनेक धार्मिक संप्रदायों का भी उदय हो रहा था। उन्ही में से बौद्ध और जैन धर्म भी थे।

Jain aur baudh dharm ke uday ke karan
Jain aur baudh dharm ke uday ke karan

जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण :

यदि बात करें जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण के बारे में तो विद्वानों ने इसके लिए कई कारण उत्तरदायी माने हैं। यह समय भारत ही नहीं अपितु विश्व के कई हिस्सों में धार्मिक आंदोलन और सुधार हुए। वैसे ही धार्मिक आंदोलन की भावना भारत में भी दिखे।

ये जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी और बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध के नेतृत्व में हुए। इस समय भारत में बौद्ध धर्म और जैन धर्म को लेकर लगभग 62 सम्प्रदायों का उदय हुआ।
इनके आविर्भाव के मूल कारणों को समझने से पहले उसके थोड़े पहले की स्थिति को जान लेना आवश्यक है।

छठी सदी ई०पू० के पहले की स्थिति :

छठी सदी ई०पू० के पहले का युग उत्तर वैदिक काल के रूप में जाना जाता है। उत्तर-वैदिक समाज स्पष्टतः चार वर्णों में विभाजित था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। प्रत्येक वर्ण का पेशा निर्धारित कर दिया गया था। हालांकि, वर्ण जन्म पर आधारित था, दोनों उच्च वर्णों ने तथा कथित निम्न वर्णों को दरकिनार करते हुए शक्ति, प्रतिष्ठा और विशेषाधिकारों पर कब्जा कर लिया।

ब्राह्मण, जिनका काम पूजा और शिक्षा प्रदान करना था, उसने समाज में उच्चतम दर्जे का दावा किया। उन्होंने दान, कर और सजा से मुक्ति के अलावा कई विशेषाधिकारों को अपने पास रखा। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में इन विशेषाधिकारों के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं।
क्षत्रिय, जो वर्णक्रम में दूसरे स्थान पर थे, लड़ते थे और शासन करते थे और किसानों से लिए गए करों पर आश्रित रहते थे।
वैश्य, कृषिकर्म, पशुपालन और व्यापार में लगे हुए थे। वे प्रमुख करदाता भी थे। हालाँकि, उन्हें दो उच्च वर्णों के साथ ‘द्विज’ अर्थात् ‘दो बार जन्म लेने’ की श्रेणी में रखा गया था। ‘द्विज’ को जनेऊ और वेदों के अध्ययन का अधिकार था।
शूद्र वर्ण का तात्पर्य तीन उच्च वर्णों की सेवा करने वालों से था और महिलाओं के साथ इन्हें भी वेद अध्ययन मना था।

उत्तर वैदिक काल में वे घरेलू दास, खेतिहर दास, कारीगर और बंधुआ मजदूर की तरह काम करते थे। उन्हें क्रूर, लालची और चोर बताया जाता था और उनमें से कुछ अस्पृश्यता के भी शिकार थे।
जिसका वर्ण जितना ऊँचा था, उसका महत्त्व भी उतना ही था; किसी अपराध के लिए। जिस अपराधी का वर्ण जितना निम्न था, उसके लिए उतने ही कठोर दण्ड का प्रावधान था।

जैन और बौद्ध धर्म के उद्भव के कारण : Jain aur baudh dharm ke uday ke karan

जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण निम्नलिखित हैं-

वर्ग विभाजन का तनाव : बौद्ध और जैन धर्म के उदय के प्रमुख कारण

उत्तर वैदिक काल के अंत होते होते वर्ग विभाजित समाज में तनाव पैदा होना स्वाभाविक था। तत्कालीन समाज जटिल वर्ण व्यवस्था और रूढ़िवादिता की जंजीरों से जकड़ा हुआ था जिससे वर्गों में असंतोष और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई। वैश्यों और शूद्रों के बीच संघर्ष का पता अब तक नहीं चल है जबकि क्षत्रिय और ब्राह्मणों के बीच वर्चस्व का संघर्ष छठी शताब्दी ई०पू० में देखने को मिला।

छठी शताब्दी ई०पू० तक ब्राम्हण और क्षत्रिय दोनों वर्ग समाज में सुविधाभोगी, और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बन गया था। क्योंकि ब्राह्मणों का धार्मिक वर्चस्व था और क्षत्रियों का राजनीतिक वर्चस्व स्थापित था। इनके अलावा शेष दो वर्ग (वैश्य और शूद्र) को निम्न दर्जा प्राप्त हुआ। हालांकि वैश्य आर्थिक व्यवस्था के प्रधान थे इसलिए इनकी स्थिति भी थोड़ा संतोषजनक थी और इन्हें भी ‘द्विज’ के अंतर्गत रखा जाता था।
ब्राह्मणों के धार्मिक वर्चस्व के विरुद्ध जबरदस्त प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे और जन्मना वर्ण व्यवस्था की महत्ता के विरोध में आन्दोलभ का भी नेतृत्व करते थे। क्षेत्रियों ने वर्ण विशेषाधिकार का दावा करने वाले ब्राह्मणों के वर्चस्व का विरोध किया, यह विरोध नए धर्मों की स्थापना के कई कारणों में से एक था। जैन धर्म की स्थापना करने वाले वर्धमान महावीर और बौद्ध धर्म की स्थापना करने वाले गौतम बुद्ध, क्षत्रिय कबीले के थे और दोनों ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी।

वैश्विक धर्म सुधार :

ई०पू० छठी शताब्दी का काल सम्पूर्ण विश्व में व्यापक धर्मसुधार का युग इस काल में चीन, यूनान और भारत में बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रतिभा का आश्चर्यजनक प्रस्फुटन देखकर ऐसा मालूम होता है कि मानो पिछली अनेक सहस्त्राब्दियों की पर्येषणा के बाद मानव जाति के लिये अभिसम्बोधि का युग उपस्थित हुआ हो।
जहां भी धर्म अपने वास्तविक मूल्यों को छोड़कर परंपरा वादी हो गया था जिससे समाज में बुराइयां हो रही थी और मानव विकास अवरुद्ध हो रहा था वहां लोगों ने आंदोलन कर धर्म सुधार करके या तो उसे अनुकूल बनाया या फिर अपने अनुकूल धर्म को स्वीकार किया।

इसी समय चीन में कन्फ्यूशियस, ईरान में जरथ्रुस्ट और यूनान में हेरोडोटस जैसे व्यक्तियों ने अपने अपने देशों में धार्मिक आंदोलन किये वैसे ही धार्मिक आंदोलन की भावना भारत में भी दिखे। और इस समय भारत में जैन व बौद्ध धर्म समेत लगभग 62 धर्मों के होने के साक्ष्य मिलते हैं।

ब्राम्हण धर्म के प्रति असंतोष की भावना :

उत्तर वैदिक काल के उत्तरोत्तर में वैदिक कर्मकांड जटिल और खर्चीले हो गए। ये कर्मकांड आडंबरपूर्ण और यज्ञ बलि प्रधान हो गए। दूसरी ओर अनेक ग्रंथों में इन कर्मकांडो की महत्ता अतिश्योक्ति रूप में वर्णित की गई। जिससे अधिक से अधिक लोग यज्ञ अनुष्ठान से प्रेरित हुए और यज्ञों का महात्म्य काफी बढ़ गया।

नए नए ग्रंथों की रचना से वैदिक देवी देवताओं की संख्या बढ़ती गयी। बलि यज्ञों के बढ़ते प्रभाव ने अनेक पशुओं (गाय, बैल, भेड़, सुअर, बकरे आदि) और पक्षियों को यज्ञ के अग्निकुंड में जाने को विवश किया। इन सबके विपरीत एक वर्ग ऐसा था जो यज्ञवाद, बहुदेववाद और पौरोहित्य व्यवस्था का विरोध कर रहा था। क्योंकि बढ़ती कृषि की आवश्यकता में पशुओं की भी उपयोगिता बढ़ गयी थी।

इनके अलावा भी तत्कालीन युग में जहाँ समाज के निम्न वर्ग को मान्यता देकर धर्म को एक व्यापक स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता थी वही ब्राह्मण धर्म जटिल से जटिलतम की तरफ अग्रसर था ब्राह्मण धर्म में जटिलता को प्रश्रय मिलने के कारण समाज एक संकुचित विचारधारा की तरफ मुड़ने लगा था।

कुल मिलाकर तत्कालीन समाज में धार्मिक व्यवस्था के विरूद्ध असंतोष की भावना जागृत हो रही थी। इससे जनसमान्य को आवश्यकता थी एक ऐसे धर्म की जो सभी के समानता को बात करे और जिसमें यज्ञ-बलि और आडंबर जैसी चीजें न हों। और इसीलिए महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त कर 2 नए धर्मों का प्रवर्तन किया।

जैन धर्म व बौद्ध धर्म के उदय के आर्थिक कारण :

Reasons for the rise of jainism and Buddhism : रामशरण शर्मा बताते हैं कि “उत्तर-पूर्वी भारत इन धर्मों के उदय के असली कारण एक नई कृषि अर्थव्यवस्था का विस्तार है।” छठी शताब्दी ई०पू० तक लोहे के व्यापक प्रयोग ने कृषि के क्षेत्रों को बढ़ाया। और लोहे हल प्रयोग में आने से कृषि में उत्पादन बढ़ा और कृषि अधिशेष की स्थिति उत्पन्न हुई।

जिससे गैर उत्पादक वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र) की आपूर्ति भी वैश्य वर्ग आसानी से कर पा रहा था। यहां बताना जरूरी है कि वैश्य कृषक वर्ग पशुओं की बलि से इसलिए असंतुष्ट था क्योंकि कृषि के लिए बैलों व अन्य पशुओं की आवश्यकता थी और पशुओं के बगैर कृषि का विकास संभव नहीं था।


उत्पादन अधिशेष से व्यापार-वाणिज्य बढ़ा और अनेकों शिल्प विकसित हुए। व्यापार के परिणामस्वरूप बड़े बड़े नगरों का उद्भव हुआ। और इसी समय punch marked (आहत) सिक्के भी प्रयोग में आने लगे। सिक्कों के इस्तेमाल से व्यापार वाणिज्य को सुविधा प्राप्त हुई जिससे वैश्य वर्ग का महत्व बढ़ गया।

अभी तक वैश्य वर्ग समाज में तीसरे स्थान पर था किंतु अब वैश्य वर्ग भी अपनी श्रेष्ठता और महत्ता सिद्ध करने लगा था। और उधर क्षत्रिय भी राजनीतिक शक्ति के चलते अपने को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ समझने लगे थे।
इन दोनों वर्गों की श्रेष्ठता ब्राम्हण मानने को तैयार न थे। ऐसे में आवश्यकता थी एक ऐसे धर्म की जिससे ये स्थिति सुधार सके। और इसी स्थिति ने नए धर्मों के उत्थान की पृष्ठभूमि तैयार की।

यही कारण है कि इन दोनों धर्मों को क्षत्रियों के अलावा वैश्यों ने भी अपार समर्थन प्रदान किया। क्योंकि ये दोनों धर्म समता मुलक तो थे ही साथ ही अहिंसा के समर्थक थे। जिससे विभिन्न राज्यों के बीच युद्धों में कमी आने के फलस्वरूप व्यापार वाणिज्य को बढ़ावा मिला।

जैन धर्म व बौद्ध धर्म के उदय के राजनीतिक कारण :

हम जानते हैं कि छठी शताब्दी ई०पू० तक आते आते उत्तर-वैदिक जनपद 16 महाजनपदों में संगठित हो चुके थे। अर्थात सम्पूर्ण भारत 16 राजनीतिक इकाइयों में विभक्त था। यद्यपि ये काफी शक्तिशाली थे और साम्राज्यवादी भी थे तथापि ये भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बांधने के लिए समर्थ न थे।
इस समय 16 महाजनपदों के अलावा 10 गणराज्य भी अस्तित्व में थे। महावीर स्वामी तथा गौतम बुद्ध का संबंध इन्ही गणराज्यों से ही था। इन गणराज्यों, महाजनपदों और अन्य छोटे राजनीतिक इकाइयों में से अधिकांश की बागडोर क्षत्रियों के हाथों में थी।

क्षत्रिय शक्तिशाली हो रहे थे जिससे उन्हें स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना स्वाभाविक था। इनके ब्राम्हणों से संघर्ष होने से महावीर और बुद्ध जैसे क्षत्रियों ने नए धर्मों के अविर्भाव के लिए प्रेरित हुए। और शासक क्षत्रियों ने ब्राह्मण के अलावा दूसरे धर्मों को प्रश्रय देना अधिक श्रेयस्कर समझा।

निष्कर्ष : Reasons for the rise of jainism and Buddhism

इस उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन व बौद्ध धर्मों के उदय के लिए सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक कारण उत्तरदायी रहे। इसमें सर्वप्रमुख कारण सामाजिक वर्गभेद से होने वाला वर्ग संघर्ष और ब्राम्हण धर्म की जटिलता व पाखंडता था। क्षत्रिय और वैश्य वर्गों के असंतोष ने जैन व बौद्ध धर्मों समेत अनेक नए धर्मों, संप्रदायों को जन्म दिया जिसमें जैन धर्म और बौद्ध धर्म प्रमुख हैं।

इन दोनों धर्मों के विषय में हम आगे के लेखों में विस्तारपूर्वक बात करेंगे।

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